संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्।।१८।।
(पातञ्जल योग-सूत्र -- विभूतिपाद)
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महर्षि वाल्मीकि की अद्भुत कथा
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उस लुटेरे ने दुर्भाग्यवश कुसंग के दुष्प्रभाव से बुद्धि के दूषित हो जाने पर परिवार के भरण पोषण के लिए यह सरल सा प्रतीत होनेवाला मार्ग अपना लिया था। बीहड़ सुनसान वन से आते जाते हुए पथिकों को वह डरा-धमका कर लूट लिया करता था। उनका धन और दूसरी सामग्रियाँ जैसे कि अन्न, पशु आदि भी!
सनातन काल से ही ध्रुव तारे की नित्य परिक्रमा करते हुए भृगु, मरीचि, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वसिष्ठ आदि सप्तर्षियों की दृष्टि उस पर पड़ी, तो उनके मन में उस के प्रति करुणा उमगी। वे पथिक का रूप लेकर उसकी ओर जानेवाले मार्ग की दिशा में चल पड़े। जब वे उसके समीप जा पहुँचे, तो उसने ललकार कर उन्हें रोका और उनसे कहा :
"यदि तुम्हें अपने प्राणों से प्यार है, तो तुम्हारे पास जो कुछ भी मूल्यवान वस्तुएँ हैं, उन्हें यहाँ लाकर सामने रख दो!"
ऋषि बोले : हमारे पास जो कुछ मूल्यवान है वह तुम्हें दिखलाई ही नहीं देता, और न तुम हमसे वह सब छीन या लूट सकते हो! अब रहा अपने प्राणों से प्यार होने का प्रश्न, तो जैसे तुम्हारे, वैसे ही हमारे प्राण भी विधाता ने हमें दी हुई आयु पूरी होने तक हमें कभी नहीं छोड़ेंगे, इसलिए यह सब कुछ मूल्यवान हमारे पास जो पाथेय और वस्त्र आदि हैं, उन्हें तुम अवश्य ही रख लो, और चाहो तो हमारे प्राण भी ले लो! किन्तु क्या हमारे एक प्रश्न का उत्तर दोगे!
"कौन सा प्रश्न?"
उसने धृष्टता और उपहास भरी कठोर वाणी में उनसे पूछा।
"यही, कि क्या आजीविका और परिवार का भरण पोषण करने के लिए तुम्हारे पास और कोई तरीका नहीं है? तुम जो कर रहे हो वह जघन्य पाप है, क्या तुम्हें नहीं दिखाई देता? आयु बीत जाने पर जब तुम वृद्ध, रुग्ण, और बहुत दुर्बल हो जाओगे, मृत्यु जब तुम्हारे जीवन का अन्त करने के लिए तुम्हारे सामने आकर खड़ी होगी तब क्या यह सब वस्तुएँ तुम्हें मृत्यु से बचा सकेंगीं?"
"तुम कहना क्या चाहते हो?"
उसने उग्रतापूर्वक किन्तु कुछ डरते हुए पूछा!
"यही, कि यदि अभी जब तुम्हारा शरीर स्वस्थ और बलवान है, तो अपनी आजीविका श्रमपूर्वक क्यों नहीं कमाते? उससे तुम्हें नींद भी अच्छी आएगी और तुम सुख से रह सकोगे। अभी क्या तुम सुखपूर्वक जी रहे हो? क्या तुम्हारा मन चिन्ता और भय से व्याकुल नहीं होता?"
"हूँ..., तो परिवार को प्रसन्न रखने के लिए क्या यह सब करना जरूरी नहीं है? मेरी पत्नी, बच्चे क्या वे सब मुझसे प्यार नहीं करते? क्या उनकी खुशी के लिए यदि मैं पापकर्म से धन संपत्ति अर्जित करता भी हूँ, तो क्या वे भी मेरे इन पापों के भागी नहीं होंगे?"
"ठीक है, तुम घर जाकर उनसे पूछकर आओ, तब तक तुम्हारी प्रतीक्षा करते हुए हम यहीं रुके रहेंगे!"
"नहीं, मुझे तुम पर भरोसा नहीं है, मैं तुम सबको पेड़ से बाँध देता हूँ!"
इसके बाद उसने सब को एक साथ पेड़ से बाँध दिया और फिर परिवार से पूछने के लिए अपने घर पहुँचा। जब उसने यह घटना अपनी पत्नी और बच्चों को कह सुनाई और उनसे पूछा कि क्या उस के इन पापों के फलों को भी वे नहीं बाँट लेंगे, तो सभी ने कहा : "हम तो केवल वही बाँटेगें, जिससे हमें प्रसन्नता होती है, पापों के फलों को नहीं।"
तब वह घबरा गया और दौड़ता हुआ उस पेड़ के पास जा पहुँचा जिससे उसने उन पथिकों को बाँध रखा था। उसने अपने कृत्यों के लिए उनसे क्षमा माँगते हुए पूछा, कि इन पापों का प्रायश्चित क्या है?
तब उन्होंने उससे कहा :
"बहुत ही सरल है इसका प्रायश्चित ! तुम निरंतर राम के नाम, "रामनाम" का अर्थात् इस राम-मन्त्र का जप करो। तब तुम्हारे सारे पाप धुल जाएँगे, और तुम संसार के दूसरे भी सभी क्लेशों से छूट जाओगे।"
चूँकि धन संपत्ति और परिवार और संसार से तो उसका मोहभंग पहले ही हो ही चुका था, अतः वह कन्द-मूल, फल आदि खाते हुए अपनी भूख मिटाता। गर्मी, सर्दी आदि के कष्टों को धैर्य से सहन करता हुआ इस मन्त्र का श्रद्धापूर्वक जप करने लगा। रामनाम का जप करते हुए उसने अनायास ही, न जानते हुए भी योग की विधि अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि आदि के क्रम का यथा-रीति पालन और अनुष्ठान अनुभव किया। योगाभ्यास के तीन फल अर्थात् तीन परिणाम - पहला : निरोध परिणाम, दूसरा : एकाग्रता परिणाम, तीसरा : समाधि परिणाम, तब उस पर घटित हुए। इन तीनों परिणामों के प्रभाव से "संयम" नामक सिद्धि की प्राप्ति उसे प्राप्त हुई और अन्ततः भगवान् श्रीराम के साकार और निराकार तत्व का केवल साक्षात्कार ही नहीं हुआ, बल्कि संसार के कल्याण के लिए उसने भगवान् की लीला की गाथा रामायण की रचना भी की।
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