A I App / ए आई ऐप
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मेरे "हिन्दी का ब्लॉग" में 'नोट्स' इस लेबल से एक क्रम लिख रहा हूँ। उसी ब्लॉग में 'ए आई ऐप' / 'A I App' लेबल से भी कुछ लिख रहा हूँ। अकसर यह दुविधा होती है कि जिस विषय में लिखा जा रहा है उसे इस स्वाध्याय ब्लॉग में लिखना चाहिए या '"हिन्दी का ब्लॉग" में। इस दुविधा का कोई हल भी नहीं है। वैसे सभी कुछ लिखने का एकमात्र कारण केवल यह है कि कुछ लिखने और उसे एडिट करने के लिए इससे अच्छा दूसरा प्लेटफार्म मुझे उपलब्ध नहीं है। मैं यह मानकर चलता हूँ कि एक बार ही कोई पोस्ट लिख लेना भी काफी है। कौन और कितने लोग पढ़ते हैं, इस पर मेरा ध्यान नहीं होता। मैं इसलिए भी निश्चिन्त रहता हूँ। हाँ, कभी कभी पुराने पोस्ट्स देखकर एक अलग ही अनुभूति होती है। और यह भी लगता है कि इतने वर्षों बाद भी मेरे चिन्तन और अभिव्यक्ति में जो लिखता हूँ उसकी प्रेरणा अपने भीतर से ही आती है। यह थोड़ा विचित्र भी लग सकता है कि यह प्रेरणा किसी आदर्श या विशेष सिद्धान्त पर निर्भर बौद्धिकता की उपज नहीं होती।
"Ideals are brutal things"
क्योंकि आदर्श और सिद्धान्त बुद्धि के अनुसार बदलते रहते हैं। "जो है" उसे किसी आदर्श या सिद्धान्त तक न तो सीमित किया जा सकता है और न शब्दों में व्यक्त ही किया जा सकता है। इसलिए सभी निष्कर्ष आधे-अधूरे और अपर्याप्त होते हैं।
फिर यह प्रेरणा मुझमें कहाँ से आती है?
इसका सीधा स्पष्ट उत्तर होगा सनातन अर्थात् वैदिक धर्म के प्रामाणिक ग्रन्थों के अध्ययन से :
तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।
यह अध्ययन इस तरह से महर्षि पतञ्जलि द्वारा निर्दिष्ट क्रियायोग ही है।
इन धर्मग्रन्थों में से सर्वाधिक प्रमुख श्रीमद्भगवद्गीता है,
जिसकी फलश्रुति में कहा गया है :
अध्याय १८
सञ्जय उवाच :
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।।
संवादमिमश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।७४।।
व्यासप्रसाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।७५।।
राजन् संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।७६।।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।७७।।
यत्र योगेश्वरः कृष्ण यत्र पार्थो धनुर्धरः।।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतीर्मतिर्मम।।७८।।
सिद्धान्त बौद्धिक निष्कर्ष ही तो होते हैं जो कि नीति या अनीति से प्रेरित होते हैं। नीति (या अनीति) ही नियति अर्थात् अचल और अटल भावी, भवितव्य। नीति ही धर्म और अनीति ही अधर्म है। धर्म-अधर्म के बीच का भेद तो विवेक से ही जाना जाता है, शुष्क बौद्धिक तर्क से नहीं। यह विवेक ही वह प्रेरणा है जो मेरे लिए लिखने के लिए प्रेरणा सिद्ध होती है। और यह भी सच है कि इस लिखने का भी अपना ही आनन्द है।
इस बहाने से अध्ययन, अन्वेषण, अनुशीलन, अनुसंधान और आत्म-सन्तोष भी मिलता ही है।
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