Wednesday, 29 August 2018

मोक्षपथम् / सर्पश्रेणी-सोपानम्

मोक्षपथम्
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सुना है 'साँप-सीढ़ी' खेल का अविष्कार संत ज्ञानेश्वर ने किया था |
नेट पर देखे एक चित्र से उसकी एक अनुकृति बनाई है।
अगर ये संत ज्ञानेश्वर वही हैं जिन्होंने ज्ञानेश्वरी और अमृतानुभव / अनुभवामृत की रचना की हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।  इस खेल में 72 खाने हैं।
उपनिषदों के अनुसार 'हृदय' अर्थात् 'आध्यात्मिक-हृदय' से जहाँ से 72,000 नाड़ियाँ निकलती हैं, एक नाड़ी मस्तिष्क की ओर जाती है  . दूसरी ओर गर्भ में 'जीवात्मा' ब्रह्मरंध्र से सूक्ष्मशरीर के रूप में स्थूल-देह में प्रविष्ट होता है (गर्भोपनिषद में) , जो भी हो ब्रह्म की उपासना करनेवाले मनुष्य के प्राण उसकी मृत्यु के समय ब्रह्म-नाड़ी से होकर ब्रह्मरंध्र से ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं जिसके बाद भी यदि उसे आत्म-साक्षात्कार न हुआ हो तो उसे नया शरीर धारण करना पड़ सकता है।
गीता अध्याय ८ श्लोक १६ में भी वर्णन है :
अध्याय 8, श्लोक 16,
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥
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(आब्रह्म-भुवनात् लोकाः पुनरावर्तिनः अर्जुन ।
माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥)
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भावार्थ :
हे अर्जुन! ब्रह्म सहित, समस्त ही लोक (अर्थात् छोटे-बड़े सभी) बारम्बार प्रकट और अप्रकट हुआ करते हैं, किन्तु हे कौन्तेय (अर्जुन)! मुझे प्राप्त हो जाने के बाद ऐसा पुनः पुनः आवागमन फिर नहीं होता । 
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श्रीरमणगीता में कहा है :
स्वात्मभूतं यदि ब्रह्म ज्ञातुं वृत्तिः प्रवर्तते।
स्वात्माकारा तदा भूत्वा न पृथक्प्रतितिष्ठति । ।
(अध्याय 4, श्लोक 8 )
निर्गच्छन्ति यतः सर्वा वृत्तयो देहधारिणाम्।
हृदयं तत्समाख्यातं भावना कृति वर्णनम् । ।
(अध्याय 5 , श्लोक 2 )
हृदयस्य यदि स्थानं भवेच्चक्रमनाहतम्।
मूलाधारं समारभ्य योगस्योपक्रमः कुतः । ।
(अध्याय 5, श्लोक 4 )
तात्पर्य यह कि आत्मज्ञान होने की स्थिति में प्राण अंततः हृदय में ही प्रलीन हो जाते हैं।
उपरोक्त प्रसंग को संत ज्ञानेश्वर महाराज ने रोचक स्वरूप देकर खेल के रूप में प्रस्तुत किया है।
72000 अर्थात् प्रमुख 72 नाड़ियों के द्वारा चित्त आत्मा से बाहर जगत में विचरण करता है, ब्रह्म-नाड़ी से ब्रह्मरंध्र के द्वारा मृत्यु के बाद ब्रह्मलोक में जाता है और वहाँ से सीधे आत्मा में अर्थात् 'हृदय' में प्रविष्ट होता है, या जीते-जी भी ऐसा हो सकता है, जब प्राण (और चित्त) ब्रह्मनाड़ी का मार्ग न लेकर, ब्रह्मरंध्र से गुज़रे बिना 'यहीं' हृदय में ही प्रलीन हो जाते हैं (अत्रैव प्रलीयन्ते )।  
जो मनुष्य किसी और नाड़ी के मार्ग से देहत्याग करते हैं वे या तो इष्ट का (नाम-)स्मरण करते हुए उसके लोक को प्राप्त होते हैं। गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में कहा है :
 यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।
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(यान्ति देवव्रताः देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनः अपि माम् ॥)
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भावार्थ :
देवताओं की उपासना / पूजा करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं ( अर्थात् मृत्यु के बाद उनके लोक में स्थान पाते हैं), पितरों की उपासना / पूजा करनेवाले पितृलोक में, तथा भूतों की उपासना / पूजा करनेवाले भूतलोक अर्थात् मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरा यजन अर्थात् भक्ति / उपासना, पूजन, आदि करनेवाला मुझे / मेरे ही लोक (धाम) को प्राप्त होता है  ।
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टिप्पणी :
स्पष्ट है कि मृत्यु के अनन्तर किसी मनुष्य की क्या गति होती है, इस बारे में इस श्लोक के आधार से अनुमान लगाया जा सकता है ।
भगवान् श्रीकृष्ण के धाम का वर्णन संक्षेप में अध्याय 8, श्लोक 21 में इस प्रकार से वर्णित किया गया है :
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अध्याय 8, श्लोक 21,

अव्यक्तोऽक्षर इत्याहुस्तमाहुः परमां गतिं ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
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(अव्यक्तः अक्षरः इति उक्तः तम् आहुः परमाम् गतिम् ।
यम् प्राप्य न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम ॥)
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भावार्थ :
अव्यक्त (अर्थात् जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, स्मृति आदि से किसी व्यक्त विषय की भाँति ग्रहण नहीं किया जा सकता, किन्तु इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, स्मृति आदि जो उसके ही व्यक्त रूप हैं और उसके ही द्वारा प्रेरित किए जाने पर अपना अपना कार्य करते हैं), अक्षर अर्थात् अविनाशी, इस प्रकार से (जिस) उस परम गति का वर्णन किया जाता है, जिसे प्राप्त होने के बाद कोई पुनः संसार रूपी दुःख में नहीं जन्म लेता, वह मेरा परम धाम है ।
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शिव-अथर्वशीर्ष में भी स्पष्ट किया गया है :
या सा प्रथमा मात्रा ब्रह्मदेवत्या रक्ता वर्णेन यस्तां  ध्यायते नित्यं स गच्छेद्ब्रह्मपदं।
या सा द्वितीया मात्रा विष्णुदेवत्या कृष्णावर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्वैष्णवं पदम् ।
या सा तृतीया मात्रा ईशानदेवत्या कपिला वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेदैशानं पदम् ।
या सार्धचतुर्थीमात्रा सर्वदेवत्याSव्यक्तीभूता खं विचरति शुद्धस्फटिकसन्निभा वर्णेन यस्तां  ध्यायते नित्यं स
गच्छेत्पदमनामयाम्।
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ये 72 मार्ग पुनः साँख्य के 24 तत्वों का त्रिगुणात्मक रूप हैं ...
इस बारे में अगली किसी पोस्ट में।
फिलहाल यही कि इस खेल के माध्यम से गूढ कठिन आध्यात्मिक तत्व का विवेचन किया गया है।
सीढ़ियाँ आध्यात्मिक उन्नति, और सर्प आध्यात्मिक अवनति के द्योतक हैं।
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Monday, 27 August 2018

मदालसा : मार्कन्डेय पुराण

 संस्कृत दिवस
शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नाम
कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पञ्चात्मकं देहमिदं न तेऽस्ति
नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतोः ॥
न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा
शब्दोऽयमासाद्य महीश सूनुम् ।
विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते-
ऽगुणाश्च भौताः सकलेन्द्रियेषु ॥
भूतानि भूतैः परि दुर्बलानि
वृद्धिं समायान्ति यथेह पुंसः ।
अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य
 न तेऽस्ति वृद्धिर्न च तेऽस्ति हानिः ॥
त्वं कञ्चुके शौर्यमाणे निजेऽस्मि
स्तस्मिंश्च देहे मूढतां मा व्रजेथाः ।
शुभाशुभैः कर्मभिर्दहमेत-
न्मदादि मूढैः कञ्चुकस्ते पिनद्धः ॥
तातेति किञ्चित् तनयेति किञ्चि-
दम्बेति किञ्चिद्दवितेति किञ्चित्
ममेति किञ्चिन्न ममेति किँचित्
त्वं भूतसंघ बहु मानयेथाः ॥
दुःखानि दुःखापगमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढचेताः ।
तान्येव दुःखानि पुनः सुखानि
जानाति विद्वान्विमूढचेता ॥
हासोऽस्थिर्सदर्शनमक्षि युग्म-
मत्युज्ज्वलं यत्कलुषम् वसायाः ।
कुचादि पीनं पिशितं पनं तत्
स्थानं रतेः किं नरकं न योषित ॥
यानं क्षितौ यानगतश्च देहो
देहेऽपि चान्यः पुरुषो निविष्टः ।
ममत्वमुर्व्यां न यथा तथा स्वे
देहेऽतिमात्रं च विमूढतैषा ॥
धन्योऽसि रे यो वसुधामशत्रु-
रेकश्चिरं पालयितासि पुत्र ।
तत्पालनादस्तु सुखोपभोगो
धर्मात्फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम् ॥
धरामरान् पर्वसु तर्पयेथाः
समीहितम् बंधुषु पूरयेथाः ।
हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथाः
मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथाः ॥
सदा मुरारिं हृदि चिन्तयेथा-
स्तद्ध्यानतोऽन्तःषडरीञ्जयेथाः ।
मायां प्रबोधेन निवारयेथाः
यशोऽर्जनायार्थमपि व्ययेथाः ।
परोपवादश्रवणाद्विभीथाः
विपद्समुद्राज्जनमुद्धरेथाः ॥
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आज संस्कृत दिवस पर यह सुना !

Saturday, 25 August 2018

JnAna-nADI and brahma-nADI

ऐसा लगता है कि अब नेट से जल्दी ही विदा होना है।
हिंदी में लिखी पोस्ट्स में टेक्स्ट के अलावा सभी (लेबल, शीर्षक आदि) को गूगल सपोर्ट नहीं करता और लिप्यंतरण व्यर्थ हो जाता है।  हैरत सिर्फ इस बात की है कि मेरे इस ब्लॉग की पाठक-संख्या प्रतिदिन तीन अंकों में हो गयी है, इसलिए लिखना जारी है।
अगर किसी दिन आपको यह ब्लॉग देखने को न मिले तो हो सकता है कि मैंने गूगल खाता डिलीट कर दिया हो। वैसे अभी तो पक्का कुछ नहीं, लेकिन किसी भी दिन यह हो सकता है।  सो, प्लीज़ टेक केयर। इस संसार में कुछ भी नित्य कहाँ है? केवल प्रतिदिन जागने पर कोई संसार प्रतीत होता है तो संसार का एक प्रतिबिम्ब 'मन' पर पड़ता है और ऐसे असंख्य प्रतिबिम्बों को स्मृति संजो कर संसार पर सातत्य continuity आरोपित कर देती है, जो निद्रा में पुनः खंडित हो जाती है। इसी प्रकार स्मृति ही संसार के सापेक्ष एक 'मैं' को भी आरोपित करती है, जो अपनी असत्यता के कारण और आश्रय न होने से शरीर और उसकी गतिविधियों तथा स्मृति को ही अपनी सच्चाई स्थापित कर लेता है।  यह दुष्चक्र ही व्यक्तिगत अस्तित्व है।  इस दुष्चक्र में कोई फँसा है यह कल्पना ही भ्रामक है जो नित्य-वास्तविकता को ढँक लेती है।
इसी दुष्चक्र को तोड़ने के लिए शास्त्र बनाए गए जो 'व्यक़्ति' को स्वतंत्र सत्ता माननेवालों को 'विधि' तथा प्रक्रिया देते हैं।  नाड़ियों में प्राणों के संचार और संचालन की इस गतिविधि को 'ब्रह्म-नाड़ी' की गतिविधि का नाम दिया जाता है जो औपचारिक है।  दूसरी ओर, जो किसी के और अपने भी व्यक्तिगत स्वतंत्र अस्तित्व होने की संभावना को ही असत्य जान लेते हैं वे इस मिथ्या ज्ञान से मुक्त हो जाते हैं।  संक्षेप में, उनके लिए यह दुष्चक्र टूट जाता है।  उनका शरीर-मन यद्यपि दुष्चक्र में फँसे दूसरों को एक व्यक्ति-विशेष मानता है, लेकिन यह समस्या उसकी नहीं, उनकी है।
इस मिथ्या-सांसारिक ज्ञान, और संसार में अपने कोई विशिष्ट होने के ज्ञान का निवारण होने पर जिस आध्यात्मिक ज्ञान की ओर ध्यान जाता है, वह नित्य है, किन्तु संसार और संसार में अपने व्यक्ति होने के ज्ञान  / स्मृति / information से ढँका होता है इसलिए शास्त्र 'अपने को जानो' -'आत्मानम् विद्धि' की शिक्षा देते हैं।  जो इस बाह्य ज्ञान के अधिष्ठान-रूपी नित्य ज्ञान के प्रति जागृत हो जाते हैं उनके लिए संसार और 'मैं' एक ही सत्य / सत् की दो अभिव्यक्तियाँ / पहलू होते हैं।  यह जागृति ही 'ज्ञान-नाडी' का कार्य है।
इस प्रकार ज्ञान-नाडी तथा ब्रह्म-नाडी का औपचारिक वर्गीकरण / formal classification किया जाता है।
अंततः शास्त्र-ज्ञान को त्यागना ही है तो अगर प्रारम्भ में त्याग सकें तो शास्त्रीय भूलभुलैया से बचना आसान हो जाता है। नाड़ी-ज्ञान नाड़ियों के सक्रिय होने पर होता है और नाड़ियों में प्राणों की गति ही भिन्न-भिन्न 'अनुभव' तथा बाह्य-ज्ञान का आधार है।
आध्यात्मिक ज्ञान के लिए पुनः ब्रह्म-नाड़ी का सक्रिय होना प्राथमिक आवश्यकता है, किन्तु वह अपरिहार्य आवश्यकता नहीं है।  फिर भी नाड़ी-शुद्धि होने पर ही प्राणों का नाड़ियों में ऊर्ध्वगमन होने पर 'अनुभव'रूपी  ज्ञान आता है जिसमें अंततः यह 'अनुभव' होता है कि  सब-कुछ एकमेव तत्व है।  किन्तु तब भी 'सब-कुछ' और 'मैं' के बीच भेद की कल्पना और विचार भी अज्ञान ही है।  जब यह अज्ञान भी नष्ट हो जाता है तो नित्य-ज्ञान स्फुरित होता है। प्राणों के ऊर्ध्वगमन (ऊर्ध्वरेता होने) की प्रक्रिया का सरल उपाय है 'ॐ' का उच्चारण जिसके बारे में  गीता अध्याय 8 श्लोक 13  में कहा गया है :
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। 
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।
वैसे इस प्रकार का नाम-स्मरण सर्वसुलभ है ही! आप गाय, बकरी, भेड़, हाथी आदि प्राणियों के स्वर में भी इसे सुन सकते हैं।
किन्तु जिन्हें यह व्यर्थ प्रतीत होता है वे नाम-स्मरण के माध्यम से इष्ट के उन्हें अनुकूल प्रतीत होनेवाले नाम का स्मरण कर सकते हैं जो इसी प्रकार विशिष्ट नाड़ी में प्राणों की गति सक्रिय करता है।
नाड़ी-विज्ञान और योगशास्त्र में विभिन्न देवताओं को इस प्रकार शरीर में ही स्थित और प्राप्य कहा जाता है।
वस्तुतः तो देव तथा देह एक ही मूल धातु 'दा' -- दीयते -- 'देना' से व्युत्पन्न हैं।
इसमें पुनः यह भी ध्यान से देखना होगा कि मनुष्य जिस भी देवता की जिस भी रूप  में उपासना और उसका स्मरण करता है, और मृत्यु आने पर उसे याद करता है तो वह उसी देवता और उसके लोक को मृत्यु के बाद प्राप्त होता है।  ब्रह्म का नाम ॐ  है इसलिए मृत्यु के समय ॐ का उच्चारण ब्रह्मलोक की प्राप्ति करने में सहायक है। ब्रह्मलोक को भी पुनः अनित्य कहा गया है।
गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 16 में कहा गया है :
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोsर्जुन  ....
इसी प्रकार राम, कृष्ण, हरि, आदि का महत्त्व है।
ये यथा माम् प्रपद्यन्ते तांस्तथैव  भजाम्यहम्।
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Thursday, 23 August 2018

Valmiki Ramayana and Gita,

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(The English translation is given at the end of the Hindi text.)
वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 64, 65, 70, 71 में भगवान् श्रीराम तथा श्रीसीता के कुल का विशेष वर्णन किया गया है ।
प्रसंगवश इसमें सृष्टि के प्रारंभ से आदित्य (सूर्य), मनु, तथा इक्ष्वाकु का तथा इक्ष्वाकु के बाद दिलीप, रघु, अज, दशरथ, इस क्रम से इस कुल में उत्पन्न राजाओं का वर्णन है ।
इस वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि ’काल’ के जिस भौतिक-क्रम का उल्लेख रामायण में वाल्मीकि ने किया है, ’काल’ का उससे भिन्न एक अन्य रूप / प्रकार / आयाम भी है, जिसका वर्णन श्रीमद्भग्वद्गीता अध्याय 4 के श्लोक 1 में इस प्रकार से है :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
संक्षेप में, वैसे भी युगक्रम में भगवान् श्रीकृष्ण का आविर्भाव द्वापर में और भगवान् श्रीराम का उनसे पहले त्रेता में हुआ था, इसलिए महाभारत तथा उसके अन्तर्गत श्रीमद्भग्वद्गीता कालक्रम से वाल्मीकि-रामायण के बाद में लिखे गए ।
पुनः युद्धकाण्ड में रावण पर विजय पाने के लिए अगस्त्य मुनि द्वारा भगवान् श्रीराम को ’आदित्यहृदयम्’-स्तोत्र का पाठ करने का उपदेश भी दृष्टव्य है ।
भगवान् सूर्य जहाँ विवस्वान् / वैवस्वत् के रूप में अदिति के पुत्र, ’आदित्य’ हैं, वहीं वैवस्वत् (मनु) उनके वंशोत्पन्न हैं जिन्होंने ’मनुस्मृति’ की रचना की ।
राजा जनक के कुल का वर्णन अगली पोस्ट में !
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Valmiki Ramayana Balakandam, chapter (sarga) 64, 65, 70, 71 narrate the details about the clan of Raghu / Suryavansha / SriRama and of Sri Sita also.
This gives a reference to the beginning of Srishti (manifestation) from the Supreme Principle (Parabrahma, The Reality Potential, latent, but not manifest).
As the Sun (in 12 forms of aditya) is son of  Aditi (the Mother-Principle at the Cosmic-sphere),
The manifest form of Sun happens at the beginning of Kalpa, thus the Clan of Sri Rama is traced to the birth of Sun.
Aditi and Diti are the spouse of Rishi Kashyapa,
Aditi is the mother of 'Devas' while Diti of 'Daityas'.
Here we can see how Deity must have come from Diti).
Thus the clan of Sun (Suryavansha) begins with the emergence of the Sun.
The Sun as seen in the sky is the physical form of Aditya, while Aditya is the Cosmic form of this Sun.
Here a reference to Srimadbhagvadgita is worth mentioning.
In Chapter 4, stanza 1, Lord Srikrishna tells Arjuna :
"I had explained this 'Yoga' to Aditya the Vivasvana, then Vivasvan taught the same to Manu, Manu to Ikshvaku and then for a long time-period (millenia), this Yoga had been lost to obscurity.
The samr Yoga - 'Raja-vidya' , 'Raja-yoga' is now taught to you by me.
We know in our physical time-scale (of mortals). The Treta-yuga was the earlier one and the Dwapar the next.
Lord Sri Rama were born as a human being during the Treta-yuga, and Lord Srikrishna in the Dwapara-yuga.
Accordingly the Ramayana was written by Rishi Valmiki long before Vedavyas wrote-down Mahabharata.
Gita (Srimadbhagvadgita) is a part of Mahabharata.
Manu wrote 'Manusmriti' a treatise about practicing the 'dharma' according to Varna-Asrama.
Varna-Asrama is the 4 fold classification of the stage of all humans and is basically has foundation in 'Guna-Karma' or tendiencies inborn and the actions one is attracted to do in life.
This has nothing to do with 'caste' as some might think / believe.
So we see there are Brahmin (Like Ravana) in Rakshasa-clan, Prahlad in Daitya-clan.
Lord Shukra is the Guru of Daitya and Valmiki Ramayana tells us that in ancient times, the Earth belonged to Daitya-s and later on kshatriya defeated the earth from them.
That is yet another topic.
Here the important point is :
Lord SriKrisna tells Arjun that The Yoga as taught by Aditya to Ikshvaku and onwards, was first of all enunciated to Aditya by 'ME'. The Supreme Principle.
The same yoga was lost in the course of time, which Sri Krishna again rejuvenated for Arjuna.
The Upanishad and related Vedanta texts though follow a different way of attaining the 'Brahman' by means of attaining the 'Brahma-loka' while alive or after the physical body is discarded.
Yet there is a secret way for the deserving.
Patanjali has another model that again needs maintaining 'I am' and only after attaining maturity one automatically comes upon the quest "Who (am) I?"
But for the beginners the whole exercise is indeed very helpful to understand the importance of the 'quest'. 
While the details about the 'Nadi' / nerves(?) and the chakra have been discussed in detail so that one can attempt to develop a spiritual attitude, there is also a 'direct-way' which again bifurcates in the form of 'Brahmanubhava' (sarvam khalvidam brahma) -experience, and Realization that 'I am' 'Brahman',
But as has been explained in the earlier posts of this blog ; -swaadhyaaya, in realization of the 'observer is the observed', the 'I am' (which is but reflection and a subsequent memory of 'I' only and is dissolved in the Realization of the Self, as Self as Brahman) is a temporary mile-stone in this process.
To the earnest, understanding this whole process is what constitutes Raja-yoga' or 'Raja-vidya'.
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Rajayoga, Rajavidya,

वाल्मीकि रामायण / Valmiki Ramayana, and गीता / Gita,
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 Some months ago I read this whole Sanskrit text . A beautiful and honest work by Maharshi Valmiki. Then I read 4 chapters of Raghuvansham which narrates the whole history of 'Raghukul'. Again, though Valmiki Ramayana briefly tells the history of the clan of Rama when Rishi Vasishtha describes how from the beginning The Sun (Vivasvana) gave the spiritual wisdom to Manu, Then Manu gave the same to Ikshvaku, and then so on this Rajavidya Rajayoga was again expounded in dwapara to Arjuna by Srikrishna. Though Valmiki Ramayana tells about the story of Raghukul from Aditya to Manu, Manu to Ikshvaku, and then upto Lord Rama only. Thereafter this Rajavidya was lost in the coming times, which was again told by Srikrishna to Arjuna. This is a different approach to Spiritual quest, in that Though Patanjali named His work as Rajayoga, Patanjali follows another regime (discipline). What is taught by Srikrishna to Arjun is far more the same as what Sri Ramana taught to us. The Upanishadik Truth may be the same, but Upanishad and ShankarAcharya only briefly hint at the way Sri Ramana and Srikrishna taught. Sri Raman's approach is far more practical. Yet the Reality is for the deserving only. Sri Nisargadatta and Sri Ramana taught the 'direct approach', while Shankaracharya taught 'aparokshanubhuti' > direct experience. Sri Raman's 'Hridaya-Vidya' is the crest of the Vedanta.in summary, Sri Shankaracharya and Upanishad take the aspirant to 'brahma-loka' ('sarvaM khalvidaM brahma' -knowledge) only and then in some next birth, one becomes aware of the fact 'ahaM brahmAsmi'. In essence though the two dictum are same, attaining the second is the final in practice.
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dharma, adharma, and humanity.

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धर्मेण हन्यते व्याधिः धर्मेण हन्यन्ते ग्रहाः ।
धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्म ततो जयः ॥
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'dharma' is the 'nature' 'adharma' is what is against nature. When human beings follow 'adharma' the result is troubles, calamities, ....And we can't compensate the losses incurred because of the consequences that follow 'adharma'... Prevention is better than cure. And 'dharma' alone is as much prevention as it is the cure. Truly, humanity is one, so there are not some who do 'adharma' and some others who suffer the consequences. The best way is to shun 'adharma' and follow 'dharma'. That needs discovering what is 'adharma' and what is 'dharma'. As 'dharma' is the very 'nature' itself', it surfaces on its own when we stop practicing 'adharma'... There is no other relief.
धर्म, अधर्म और मानवता
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पहले कुछ 'शब्द' ...
'नृ'  प्रातिपदिक (stem) से नृप, नर, नल, नारी, नारायण, नारा (पानी) आदि अनेक शब्द बनते हैं।
अंग्रेज़ी में 'natal', 'nation', native, nepotism, nature, natzion (German) आदि अनेक शब्द बनते हैं।
यहाँ तक कि तमिळनाडु या वायनाड, रामनाड आदि में यही 'nat' विद्यमान है (यह मेरा अनुमान है )
'नु' 'नव' से नौका, नाव, नौ, navy, nautical,  आदि अनेक शब्द बनते हैं।
अब उपरोक्त श्लोक :
धर्मेण हन्यते व्याधिः धर्मेण हन्यन्ते ग्रहाः ।
धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्म ततो जयः ॥
अर्थ :
धर्म से व्याधि (रोग) का निवारण होता है,
धर्म से ग्रहों से उत्पन्न पीड़ा का नाश होता है,
धर्म से शत्रु का नाश होता है ठाठ,
जहाँ धर्म है वहाँ जय है ...
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प्राकृतिक आपदाएँ मनुष्य के द्वारा 'अधर्म का आचरण करने से पैदा होती हैं , और चूँकि मानवता एक है इसलिए किसी भी समुदाय या मनुष्य के द्वारा किए  जानेवाले अधार्मिक आचरण  के अशुभ परिणाम सभी मनुष्यों को भुगतने होते हैं।
हमें लगता है कि प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित लोगों की सहायता की जाना मानवता-धर्म है, जो अवश्य ही सत्य है, लेकिन एक ओर तो  हम लोभ और भय की कसौटी पर प्रगति और विकास के स्वप्न देखते हैं, दूसरी ओर सामूहिक स्तर पर ऐसे कार्य करते हैं जिनसे प्रकृति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं।  अपनी तत्कालिक ज़रूरत के पूरा होने को हम सफलता समझकर प्रसन्न होते हैं किन्तु प्रकृति के विरोध से अंततः हमें मुँह की खानी पड़ती है और तब हम सोचते हैं कि आपदा-पीड़ित मनुष्यों की सहायता करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
धर्म और परंपरा / रूढि में भेद है जबकि हमने परम्पराओं को 'धर्म' का नाम देकर इस्लाम, हिंदुत्व, ईसाई, यहूदी आदि परंपराओं को धर्म समझ लिया है।  हर परंपरा में धर्म किसी अंश में हो सकता है और परंपरा को अंधे की तरह धर्म समझ लिए जाने से उनके परस्पर मतभेद हमें कट्टर मतावलंबी बना देते हैं और सम्पूर्ण मनुष्यता के लिए क्या शुभ और अशुभ है इस ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता।
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केरल की बाढ़ हो या किसी जगह आनेवाले भूकंप जो एक हद तक मानव-निर्मित हैं तो प्राकृतिक कारण भी उनके लिए होते हैं।  युद्ध तो मनुष्य की नासमझी का ही परिणाम है और भले ही ही हम 'आत्मरक्षा' के लिए 'युद्ध हम पर थोपा गया है' यह कहकर अपने 'राष्ट्र' के लिए बलिदान होने में गौरव अनुभव करें, वस्तुतः दुर्भाग्यपूर्ण है।
जब हम विकास या तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर प्रकृति के विरुद्ध चलते हुए प्रकृति का संतुलन बिगाड़ते हैं तब अपने अनिष्ट का सृजन करने लगते हैं।  सबसे बड़ा उदाहरण है मनुष्य द्वारा अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण न करना।  और जब हम स्वास्थ्य की बात करते हैं तब भी देख सकते हैं की अगर हम अपनी औसत आयु को बढ़ा भी लें तो प्राकृतिक कारण या युद्ध, नई नई बीमारियाँ, अकस्मात् होनेवाली दुर्घटनाओं आदि से हम न जानते हुए भी मृत्यु के मुख में जा सकते हैं।  प्रकृति इसमें बच्चे, बूढ़े, युवा, स्त्री, पुरुष, गरीब, अमीर, हिन्दू, मुसलमान, यहूदी, पारसी, चीनी, रूसी, आदि का भेद नहीं करती।  फिर हम धर्मों के बीच भेद कैसे कर सकते हैं? हमारी जो भी आस्थाएँ हैं वे सबकी आस्थाएँ कैसे हो सकती हैं? किन्तु हम इस सरल तथ्य को देख नहीं पाते और न देखना चाहती हैं क्योंकि हमारे लोभ और भय समुदायगत स्वार्थ हमें ऐसा नहीं करने देते।
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Sunday, 19 August 2018

प्रवाह ...

प्रवाह ... / कविता
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जब प्रवाह होता है,
परिवाह भी होते हैं,
परवाह एक हद तक
की जा सकती है।
प्रवाह का उद्गम क्या है,
प्रवाह का उद्गम क्यों है,
यह चिंता भी एक हद तक
की जा सकती है।
प्रवाह स्वाध्याय है,
अपनी है राह खुद ही,
अपनी मंज़िल भी खुद,
हाँ वो मिल सकती है।
राह अगर है मंज़िल,
और मंज़िल ही राह,
तो है मिली ही हुई,
क्यों न मिल सकती है।
कौन इस राह पर मिलता है,
कौन कहाँ तक साथ चलता है,
कौन क्या सोचता-कहता है,
सरोकार नहीं इससे !
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सन्दर्भ : एक पाठक ने 'स्मृति का अधिष्ठान' किसी सोशल वेबसाइट पर 'गुरुज्ञान' शीर्षक से शेयर किया।
'गुरुज्ञान' शीर्षक से किसी प्रकार का भ्रम न हो, इसलिए उस भ्रम के निवारण के लिए कुछ  लिखने की क़ोशिश  है।  
 
  

How to transport the memory.

How to transport the memory...
FROM ONE LIFE TO ANOTHER.
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Transport or Transplant?
The last post dealing with "ब्रह्माकार वृत्ति" / "brahmakara Vritti" was somehow strayed away from the purpose in two ways:
First and less important was the question :
Is it possible to transport the memory from one living being to another living being?
Then again;
Is it possible to transport / transplant the memory from a dead person / creature to another living creature?
We can also try to see if it is possible to transplant the memory of a dying / dead man into another living body; - in its embryo-state?
Presently, this may look a bit overstretching the imagination.
Second and more important was the question:
How to distinguish between the "liberation" that is supposed to be attained by one who has established in "I am" only (and not in "I", though may have had a glimpse of "I" occasionally) and another one who has gone beyond "I am" and is abiding in "I"?
Going by the scriptures of Vedanta (including Yoga and Tantra as well, though this whole is Veda only) there are two different approaches one is open to all who through spiritual efforts come up to
 "ब्रह्माकार वृत्ति" / "brahmakara Vritti" and finally attain "Knowledge-Supreme" of "ब्रह्मन्" / "Brahman", and still retain the memory "I am" with it.
They truly realize the essence of the dictum :
"सर्वं खल्विदं ब्रह्म" / This all (manifestation / phenomenal) is verily "ब्रह्मन्" / "Brahman" only, yet they just fail to see another hidden truth :
"ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति " / The one who 'knows' "ब्रह्मन्" / "Brahman" is again "ब्रह्मन्" / "Brahman" only, for the distinction of the "known" and the one who "knows" completely ceases for good.
Again this state, where this distinction is no more could be expressed in the words :
"Observer is the observed"
This is an interesting fact that one who has realized this state may have attained the same either through elaborate "spiritual practice" voluntarily or just because of sheer earnestness and quest for the "Truth" / "The Reality"...
The process that is through proper discipline of the system of Vedanta leads one to  "ब्रह्माकार वृत्ति" / "brahmakara Vritti" and then if the seeker dies before understanding that :
"ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति " / The one who 'knows' "ब्रह्मन्" / "Brahman" is again "ब्रह्मन्" / "Brahman" ; and "I" is "ब्रह्मन्" / "Brahman", while "I am" is the consciousness of "ब्रह्मन्" / "Brahman", which gets mixed up with some objects and forms the foundation for all subsequent memory, and 'one' begins to identify "I am" with whatever is perceived in this consciousness.
The stage when this happens, one is mature enough that one could bring the attention (चित्त) at the
"ब्रह्मन्" / "Brahman" through practicing 1.चिंतन, 2.मनन, 3.निदिध्यासन... that is; 1.through constant deliberation of the truth, -what is temporary / transient and what is not,  2. contemplating upon the conclusion of  1.चिंतन / deliberation that "I am" is the only ever-present fact, though still not clear what it means, 3.निदिध्यासन Trying to stay in "I am" in whatever way one can and by and by immersing deep and coming across the light where-in "I am" rises and dissolves into again and again.
With 'attention', the mind follows the object of attention (though it is not an outward one) and this flow of mind towards this object "ब्रह्मन्" / "Brahman" facilitates the movement of प्राण / vital life-force, which is called "ब्रह्म-नाडी" /  "brahma-nāḍī " in the Vedanta.
This is not the same as " ज्ञान नाडी  / jñāna nāḍī " which starts functioning when one follows the course of  "Spiritual Quest" prompted by sheer urge and seriousness.
This is how the 'Liberation' in scriptures has been described in two ways.
But let us see :
what is  "ब्रह्म-नाडी" /  "brahma-nāḍī "
The place of memory (as has been narrated in the earlier posts) is आज्ञा-चक्र / ājñā-cakra, or the point between the eye-brows. The same is also the place of वृत्ति / vṛtti (mental modes).
Usually the वृत्ति / vṛtti is associated with the external objects of senses, and so "I am" is in abeyance, even never noticed.
But when through practicing
1.चिंतन, 2.मनन, 3.निदिध्यासन... that is; 1.through constant deliberation of the truth, -what is temporary / transient and what is not,  2. contemplating upon the conclusion of  1.चिंतन / deliberation that "I am" is the only ever-present fact, though still not clear what it means, 3.निदिध्यासन Trying to stay in "I am" in whatever way one can and by and by immersing deep and coming across the light where-in "I am" rises and dissolves into again and again...
the flow of mental-mode is withdrawn from the external objects, namely associated with memory of the past and the imagination of future, (because memory takes the past as Real, and this further strengthens memory) and attention is thus fixed in "ब्रह्मन्" / "Brahman" and the वृत्ति / vṛtti then becomes "ब्रह्माकार वृत्ति" / "brahmakara Vritti" ...
 Such an evolved soul at the time of death has to utter the sacred word " ॐ " / "Aum ", keeping attention (sight) fixed at the point between the eye-brows, restricting the senses from going outwards (such as sight etc.)
The sight follows the attention, while प्राण /  prāṇa (vital forces) follow the sight.
This way one gets merged in "ब्रह्मन्" / "Brahman" and is born in ब्रह्म-लोक /  brahma-loka , -the sphere of those who are ब्रह्मविद् / brahmavid ...
This is all in line with the truth of Vedanta, while there is yet another truth maintained in Vedanta, that at the time of death, the  प्राण /  prāṇa (vital forces) of a ब्रह्मविद् / brahmavid exit not through any नाडी" / nāḍī (nerve) that takes him away from the body.
Instead in his case, the प्राण /  prāṇa (vital forces) enter the Heart and merge there only :
"अत्रैव प्रलीयन्ते"
Again, in case of a  जीवन्मुक्त / jīvanmukta, one liberated while alive, His mind is perfectly the "ब्रह्मन्" / "Brahman" "I" only and quite untouched with "I am", and though He looks like other ordinary man, He is in the Supreme.
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Now, what happens in the case of one who believes he is born, is living this life and has a name and personality in such and such a world?
As the ignorance of "I" keeps him firmly attached to "I am" this thought keeps his memory in a seed-form and at the time of his death this seed leaves the body and waits for another body (in the womb) where it is reborn.
We had seen how this word भ्रू / Brow is associated with भ्रूण / embryo as well.
If some-day modern science could decode the memory of a man, may be it could also know how to transplant the memory of one living man to some other man (though it is a bit tough question).
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Monday, 13 August 2018

स्मृति का अधिष्ठान

(नोट : प्रस्तुत पोस्ट इससे पहले अंग्रेज़ी में प्रस्तुत मेरी तीन पोस्ट्स का हिंदी सार-संग्रह है। )
स्मृति का अधिष्ठान
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स्मृति का आगमन और प्रस्थान होता है, इस तथ्य से कौन अनभिज्ञ है?
श्री निसर्गदत्त महाराज से वार्ताओं की एक पुस्तक, "Seeds of Consciousness" / "चेतना के बीज" गूढ, गहन किंतु सरल और स्पष्ट शब्दों में उस अधिष्ठान के ओर संकेत करती है जहाँ से स्मृति जागृत होती है, और जहाँ पुनः विलीन होती है ।
पुस्तक का शीर्षक भी पुनः दो प्रकार से विवेचित किया जा सकता है :
प्रथम अर्थ में : वह बीज-चेतना जो जीव में मन की जागृत, स्वप्न तथा सुषुप्ति के साथ व्यक्त रूप में तथा दूसरे अर्थ में अव्यक्त रूप में भी व्यक्ति-चेतना की तरह विद्यमान होती है ।
इस बारे में एक प्रश्न उठाया जा सकता है कि व्यक्ति की मृत्यु होने की स्थिति में इस स्मृति का क्या होता है?
इस संबंध में एक अनुमान शायद यह लगाया जा सकता है कि मनुष्य के जन्म के समय से जो स्मृति उसके मस्तिष्क में बनना प्रारंभ होती है, जो उसकी आयु के साथ क्रमशः विकसित, परिवर्तित, विस्तृत और परिवर्तित होती रहती है और विभिन्न अनुभवों, घटनाओं, अभ्यासों (आदतों) का एक बड़ा संग्रह बन जाती है, मृत्यु होने पर बस समाप्त हो जाती है ।
किंतु इसका एक और पहलू हो सकता है ।
जहाँ तक शरीर की रचना, आकार-प्रकार आदि का प्रश्न है, इसकी स्मृति, यह जानकारी प्रत्येक मनुष्य के मन और मस्तिष्क में बीज-रूप में व्यवस्थित ढंग से सुरक्षित होती है, जो समय के साथ अंकुरित और विवर्धित होकर एक बड़े वृक्ष का रूप ले लेती है । और हम यह नहीं कह सकते कि जिस रूप में यह इस प्रकार व्यक्त होती है, बीज-रूप में इसकी जानकारी इसमें नहीं थी । बल्कि यह भी सत्य है कि जैसे किसी वृक्ष के बीज में उसके अंकुरित होकर बढ़कर वृक्ष बनने, पत्तियों, फूल, फल, शाखाओं आदि का जो सूक्ष्म और सटीक नक्शा छिपा होता है, वैसा ही मनुष्य या किसी भी जीवित प्राणी में भी सूक्ष्म-तल पर बीज-रूप में ऐसा ही नक्शा कहीं संरक्षित होता है । वंशानुक्रमगत, जेनेटिक-कोड में यही होता है ।
दूसरे अर्थ में : "Seeds of Consciousness" / "चेतना के बीज" की व्याख्या यह हो सकती है कि यह ब्रह्मांडीय, वैश्विक चेतनारूपी उस बीज की ओर इंगित करता है जो व्यक्ति (तथा समष्टि) में बीज-रूप में विद्यमान होता है, और समय आने पर उसके विशिष्ट रूप में प्रकट होता है ।
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इस प्रकार, एक तो वह भौतिक स्मृति होती है, जो शरीर और शरीर से संबंधित संसार में अपनी स्थिति के बारे में होती है, जिसमें मन ’जागृत अवस्थाओं’ को जोड़कर उनमें अपने एक संसार की प्रतिमा बनाकर उससे जुड़ी धारणाओं को अकाट्य सत्य की तरह समझ बैठता है, जो आनुवांशिक, ’विज्ञानसम्मत’ भी हो सकती है और व्यावहारिक रूप से पुनः पुनः प्रयोग द्वारा ’सिद्ध’ की जा सकती है । यही वह सीढ़ी है, जहाँ से भौतिक / आधिभौतिक का अतिक्रमण कर ’दैविक’ / ’आधिदैविक’ का क्षेत्र शुरु होता है ।
इसकी स्मृति को हम स्वप्न या कल्पना मान बैठते हैं और आधुनिक मनोविज्ञान में जिसे ’अवचेतन’  / sub-conscious mind कहा जाता है ।
यह अवचेतन /subconscious  वह है जिससे जागृत अवस्था में भी किसी भी बाह्य प्रेरणा या ज़रूरत से तत्क्षण सम्पर्क किया जा सकता है और प्रायः किया भी जाता है । जैसे आपके ’अवचेतन’ मन में असंख्य स्मृतियाँ संचित हैं किंतु आवश्यकता पड़ने पर उनमें से कोई विशिष्ट ही आपके वर्तमान में उभरकर सामने आती हैं । जैसे किसी व्यक्ति का नाम सुनते ही उससे जुड़ी स्मृति सहसा जाग पड़ती है, किसी स्थान, घटना, सन्दर्भ, व्यवहार, अनुभव आदि के साथ भी ऐसा होता है ।
’स्वप्न’ की स्थिति में यद्यपि बाह्य भौतिक संसार से मन का संपर्क कट जाता है और केवल ’अवचेतन’ ही प्रायः बेतरतीब ढंग से हमारे सामने होता है, जिसमें उन असंख्य स्मृतियों में से कुछ, जो सतह पर होती हैं, परस्पर एक-दूसरे को उकसाती रहती हैं । इसलिए स्वप्न प्रायः ऐसे अनुभव होते हैं जिनकी कोई संतोषजनक व्याख्या जागने के बाद कर पाना मुश्किल होता है । किंतु स्वप्नों के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी है कि कभी कभी स्वप्न में देखी गई चीज़ें बहुत बाद में अक्षरशः उसी प्रकार से जागृत अवस्था में सामने आती हैं जैसा उन्हें स्वप्न में देखा गया था । हो सकता है यह कोई ऐसी घटना हो, स्वप्न देखते समय जिसकी कल्पना भी न की जा सके ।
आधिदैविक या दैविक (देवता-तत्व) का इससे बड़ा प्रमाण फ़िलहाल हमारे पास दूसरा नहीं है ।
यद्यपि कुछ विशिष्ट प्रयोगों जैसे मंत्र, औषधि, जप और योग तथा तन्त्रोक्त विधियों के अनुष्ठान आदि से भी इस ’सत्यता’ से हमारा साक्षात्कार होता रहता है....
यदि हम सचमुच वैज्ञानिक ढंग से सोचते और ’सत्य’ / ’असत्य’ की परीक्षा करते हैं तो ’आधिदैविक-चेतन-सत्ताओं’ की परिकल्पना के बारे में गहन्ता और गंभीरता से खोज-बीन करेंगे और जान सकेंगे कि प्रकृति में विद्यमान उन सत्ताओं की सत्यता कितनी है ।
उन सत्ताओं के अस्तित्व को जानने-समझने में जो सबसे बड़ा व्यवधान है वह है हमारा उनके अस्तित्व को ही सिरे से इनकार कर देना ।
काल और स्थान ऐसी ही एक ’सत्ता’ है, जिसके हम चाहे-अनचाहे गुलाम हैं न कि वे हमारे । यदि हमें तनिक भी आभास हो कि वे हमारे वैयक्तिक, सामूहिक, सामाजिक जीवन अर्थात् अस्तित्व के ’नियन्ता’ हैं जिन्हें वेद में देवता कहा गया है, और उनका आवाहन तथा उनसे संपर्क किया जाना संभव है तो हम बिना सोचे-समझे उनका तिरस्कार नहीं करेंगे ।
और वैसे भी किसी भी ’धर्म’ में चाहे वह वेद को मानता हो या न मानता हो, भले ही एकेश्वरवादी, बहुदेववादी हो या अनीश्वरवादी ही क्यों न हो इन अज्ञात शक्तियों को कोई और नाम दिया जाता है और उनके प्रति ’सम्मान’ तो प्रकट किया ही जाता है । विशुद्ध ’भौतिकवाद’ या ’विज्ञानवाद’ भी किन्हीं ’आदर्शों’/ सिद्धान्तों को तो सम्मान देता ही है या बस अनिश्चयपूर्ण हो रहता है ।
भय और लोभ ऐसे ही दो ’देवता’ हैं ’काम’ भी प्रत्यक्ष देवता है जिसका भौतिक आधार अभी वैज्ञानिक नहीं खोज पाए ।
आस्था और परंपरा का जन्म या तो विवेक (अर्थात् विवेचना) से होता है, या भय और लोभ से ।
ये वृत्तियाँ ही वे ’चेतन-सत्ताएँ’ हैं जो हमारे आधिदैविक अस्तित्व को संचालित करती हैं ।
यहाँ तक कि ’बुद्धि’ / 'intellect' भी ऐसा ही ’देवता’ है । किंतु इस ’बुद्धि’ को संचालित करनेवाला एक और ’देवता’ है जिसका अनुभव / अनुमान किए बिना हमारी बुद्धि कैसे कार्य करती है यह कभी नहीं समझा जा सकता ।       
किंतु ’अवचेतन’ से भी गहरी स्थिति है ’अचेतन-मन’ की, जो मन का वह तल है जब हम गहरी सुषुप्ति में होते हैं ।
’मैं हूँ’ की भावना तब भी विद्यमान होती है और जागने पर मनुष्य स्वयं ही इसकी पुष्टि इस प्रकार से करता है : "तब मुझे कुछ पता नहीं था, मैं सोया हुआ था । "
स्पष्ट है कि तब भी उसे अपने होने का और निद्रा में पाए जानेवाले सुख का भान तो था ही ।
इस प्रकार ’मैं’ नामक वास्तविकता अविच्छिन्न, अखंड सत्य है ऐसा कहना अनुचित न होगा ।
प्रत्येक व्यक्ति इस त्रि-आयामी अस्तित्व (जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति) को अनुभव से ही जानता है ।
ऐसा कहा जा सकता है कि अपने अस्तित्व का सहज, अनायास भान बीज-रूप में हर किसी में होता ही है ।
इस प्रकार का भान वैसे तो शुद्ध, परम ज्ञान ही है, किन्तु जिन पाँच कोषों में आवरित होता है उन्हें वेदान्त के ग्रन्थों में क्रमशः अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनंदमय कोष कहा जाता है ।
इसका मूल तत्व है ’मैं’ नामक सत्यता जिसका रूपान्तरण इन पाँच कोषों से आवरित होने से "मैं हूँ" नामक कल्पना में होता है और वह ’मैं’ जो नित्य इन कोषों से रहित है, ’मैं हूँ’ की स्मृति बन जाता है ।
इस ’मैं हूँ’ का अतीत, वर्तमान और भविष्य होता है जिसे ’अपना’ व्यक्तित्व मान लिया जाता है ।
इस प्रकार से ’स्मृति’ का आधार ’मैं हूँ’ रूपी स्मृति है, और इस स्मृति का भी आगमन तथा प्रस्थान होते रहने से स्पष्ट है कि यह ’अनित्य’ है, और इसका कोई ऐसा अचल अटल अधिष्ठान अवश्य है जो ’नित्य’ है क्योंकि किसी भी मनुष्य को अपनी नित्यता में शंका नहीं होती ।
और शरीर, मन, बुद्धि, भावनाओं, स्मृति, संबंधों, संपत्ति, धन, अनुभव आदि के रूप में हर व्यक्ति वैसे भी जानता ही है कि ये सब ’अनित्य’ हैं ।
फिर भी इस लेख का प्रयोजन यह खोजना है कि ’शरीर’ में क्या कोई ऐसा स्थान हो सकता है जिसे ’स्मृति’ का स्थान कहा जा सके?
उपरोक्त पाँच कोषों की भूमिका को ठीक से समझने के लिए मांडूक्य-उपनिषद् में ॐ के स्वरूप पर की गई विवेचना दृष्टव्य है, जो जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय तथा तुरीयातीत के सन्दर्भ में इसे स्पष्ट करता है ।
इस प्रकार ’स्मृति’ न केवल वैयक्तिक बल्कि मनुष्य के चेतन, अवचेतन, अचेतन तथा प्राक्-चेतन तल तक तथा उससे भी पहले की अवस्था का संयुक्त ज्ञान है । संक्षेप में यह ’ब्रह्मांडीय-स्मृति’ ही है जो मनुष्य की वैयक्तिक स्मृति के रूप में मनुष्य-विशेष में अलग-अलग प्रतीत होती हुई कार्य करती है ।
जैसा कि पहले कहा गया ’मैं’ शुद्ध अहं है जबकि उससे जुड़ी ’मैं हूँ’ व्यक्तिगत स्मृति अहंकार अथवा ’जीव-भाव’ है ।
शुद्ध ’अहं’ आत्मा अर्थात् ब्रह्म है, जबकि ’अहंकार’ पाँच कोषों के भीतर फैला ’अहं’ का भान ।
शुद्ध ’अहं’ में यद्यपि ’बोध’ उसका उससे अभिन्न अंग है, प्रथम ’सत्’ और दूसरा ’चित्’ है ।
स्पष्ट है कि ’सत्’ को भी ’जाननेवाली’ कोई सत्ता है, जो ’सत्’ का स्वप्रमाण है । दूसरी ओर इस ’जाननेवाली’ सत्ता का भी अस्तित्व है इसलिए वह ’सत्’ का ही प्रकार है । तात्पर्य यह कि ’सत्’ एवं ’चित्’ परस्पर अभिन्न हैं और व्यावहारिक समझ के आधार पर उन्हें दो नाम दिए गए हैं ।
इस प्रकार ’सत्’ "है" न कि "हूँ" ।
अहं को ज्जब ब्रह्म अर्थात् ’सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ के अर्थ में जाना जाता है तो इस प्रकार का अनुभव-रूपी भान भी ’ज्ञाता-ज्ञेय-विषय’ की त्रयी के रूप में होता है ।
वेदान्त के साधन के अनुसार मनुष्य का प्रयत्न विवेक-वैराग्य-मुमुक्षा के दृढ होने और उसके बाद अभ्यास की परिपक्वता से सिद्ध होता है ।
एक अभ्यास विवेक-वैराग्य-मुमुक्षा के उदय से पूर्व भी होता है जिसके विषय में गीता अध्याय ६, श्लोक ३५ में कहा गया है :
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
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दूसरा अभ्यास इस प्रथम अभ्यास के पूर्ण होने के बाद किया जाता है जिसमें चिन्तन, मनन, निदिध्यासन के माध्यम से ’ब्रह्म’ के स्वरूप को समझने का यत्न किया जाता है । इस अभ्यास में साधक वृत्ति-निरोध से अन्य वृत्तियों का निवारण कर ब्रह्माकार-वृत्ति में स्थित होने का, स्थित रहने का प्रयत्न करता है ।
सरल भाषा में कहें तो या तो ’मैं हूँ’ इस भावना में गहरे डूबने (निमज्जित होने) का, या ’मैं’ का स्वरूप क्या है इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर ’आत्म-अनुसंधान’ का, या ब्रह्म के स्वरूप का विचार करते हुए अन्ततः इस निष्कर्ष तक पहुँचकर कि यदि सब ब्रह्म है, तो ब्रह्म का विचार / जिज्ञासा करनेवाला उससे भिन्न कैसे हो सकता है, अपने पृथकता को उसमें विलीन हो जाने देता है ।
तात्पर्य यह कि किसी भी तरह से अंततः ’अहं अस्मि’ से ’अहं ब्रह्मास्मि’ तक के अपरोक्ष अनुभव के प्रति सचेत होता है ।
और तब वैयक्तिक अहं ’मैं हूँ’ के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता ।
किंतु हमारे प्रश्न का अभी समाधान नहीं हुआ । उपरोक्त चर्चा तो प्रसंगवश की गई ।
ताकि प्रश्न के आध्यात्मिक पक्ष को भी समझ लिया जाए ।
तो, हमारा प्रश्न यह है कि स्मृति का स्थान शरीर के अन्तर्गत कहाँ सुनिश्चित किया जा सकता है?
गीता के अध्याय ५ के श्लोक २७ में कहा गया है :
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥
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अर्थात् विषयों से इंद्रियों के स्पर्श अर्थात् स्पर्श, रूप, रस, गंध, श्रवण इन पाँचों अनुभवों से, बाह्य विषयानुभवों से मन को हटाकर उसे दोनों भौहों के मध्य स्थिर करना चाहिए, और नासा में जो प्राण वायु को भीतर की ओर खींचते हैं और बाहर की ओर धकेलते हैं उन दोनों की गति को नियमित एवं संतुलित कर...
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पुनः, गीता के अध्याय ८ के श्लोक में कहा गया है :
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥
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अर्थात् पिछले श्लोक में जिन नासाभ्यन्तरिणौ प्रण-अपान को सम करने का निर्देश दिया गया, (प्रयाणकाल में) प्राणों को इस प्रकार निरुद्ध कर दोनों भौहों के मध्य अवस्थित करे । अब प्रश्न यह है कि व्यवहार में इसे कैसे किया जाता है? इसके लिए यह ध्यान रखना होगा कि प्राण चित्त का अनुगमन करते हैं और चित्त ध्यान का ।
इस विषय में अध्याय १५, श्लोक ८ को देखें :
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥
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(इस प्रकार मृत्यु होने पर जीव) जिस नए शरीर को प्राप्त करता है, और जिस अपने शरीर को त्याग देता है, वह आवागमन को उसी प्रकार संपन्न होता है जैसे वायु गंध को  एक स्थान से लेकर दूसरे स्थान पर ले जाती है ।
चूँकि यहाँ ’सद्गति’ के लिए भ्रूमध्य में प्राणों को प्रविष्ट करने का निर्देश है इसलिए उपरोक्त क्रम (के यथावत किए जाने से) जीव आज्ञा-चक्र के संपर्क में आता है, जो ’मैं हूँ’ स्मृति का स्थान है । पुनः ’मैं हूँ’ समस्त स्मृतियों का अधिष्ठान है इसलिए भी यदि अन्तकाल अने पर इस प्रक्रिया का पालन किया जाता है तो जीव का ब्रह्म में विलय हो जाता हुआ ।
यह अवश्य ही सैद्धान्तिक पक्ष है और इसलिए समझने और व्यवहार में लाने के लिए कठिन भी है ही । यहाँ केवल ’शरीर के अन्तर्गत स्मृति के अधिष्ठान’ को स्पष्ट करने हेतु यह मंथन किया गया ।
सरल चित्त मनुष्य के लिए यही निर्देश दिया जाता है कि वह केवल ’नाम-स्मरण’ जैसे साधन का अभ्यास करता हुआ उस नाम में इतना लीन हो जाए कि उस नाम से जाने-जानेवाले देवता से एकरूप हो जाए । तब अनायास ही उसके प्राण चित्त का अनुगमन कर विशिष्ट नाडी मार्ग से देवता के स्वरूप में विलीन हो जाएँगे ।
पुनः सैद्धान्तिक दृष्टि से इस प्रकार भी अपने ’नए’ शरीर को प्राप्त करने पर साधक का अभ्यास तब तक होता रहता है, जब तक कि वह परब्रह्म परमेश्वर से अभिन्न नहीं हो जाता ।
यह भी है दृष्टव्य है कि ’भ्रू’ शब्द / प्रातिपदिक से ही भ्रूण की व्युत्पत्ति भी की जा सकती है ।
भ्रूण का अर्थ है वह मांसपिण्ड जो माता के गर्भ में जीव के प्रविष्ट होने से पहले ही एक देह के रूप में प्रारंभिक अवस्था में होता है ।
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टिप्पणी :
अंग्रेज़ी में लिखी पोस्ट में एक विडिओ की लिंक दी गयी है जो भूटान के राजपरिवार में जन्मे व्यक्ति के उस  पूर्वजन्म की स्मृति के बारे में है जब वह नालंदा विश्वविद्यालय में निवास करता था।
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Breaking out of the memory.

The memory-trap and the breaking out of this trap.
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In the last two posts it was pointed out how 'I' is the 'सत्' / " What IS ", while "I am" the memory manifest in the individual and the aggregate collective or "Totality".
Thus, "I" appears to have been divided into two mutually independent and separate entities one is the individual while the world is another one.
The "I am" manifest in the individual becomes the "personal", the individual consciousness while the 'world' is perceived as a counterpart to this "person".
This is plain truth that the physical body and the world both are made of the same fundamental elements and thus the physical body is only an infinitesimally small part of the infinitesimally vast and bigger entity, -'the world'.
The "I am" in man that is the memory of one's existence as "I" thus gets restricted and confined within the physical body and all things in its contact.
This "I am" thus repeatedly defined and cast into a form and shape at many levels, all basically taking the body as the point of reference.
This division of "I" in terms of a person and his world is therefore is but a baseless assertion that takes place in consciousness (sense of "I am") associated with the body.
The way this assertion (ignorance of the truth of "I") is removed could be done in two ways :
One is the Vedanta, that is the earnestness and longing to find out "What IS".
Vedanta proceeds with seeking the 'permanent' unchangeable in the temporary, the 'phenomenal'.
The core principle that could never be refuted nor denied by logic or experience is :
The all phenomenal is transient and lasts not, while the one who is the axis around which the transient keeps revolving is ever so unchangeable and self-sustained, evident.
This self-sustaining principle, personal or impersonal whatsoever, is the consciousness in which perception happens, and not the converse.
This consciousness is not the result of mutual interaction of the elements, on the other hand, the elements owe evidence to this consciousness.
Whatever "IS" is perceived in consciousness.
But again consciousness IS; the unbroken continuity of 'knowledge' of "What IS".
The "IS" and the 'knowing' is indivisible whole.
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Vedanta however insists upon 'effort' that is meditation upon "What IS" and also upon "What is not", yet appears as something Real in thought.
This effort can take different forms like :
Staying in "I am",
Finding out the ground / substratum (अधिष्ठान) of "I am",
Staying in "What IS",
Finding out the true purport of "I am",
This effort results into stabilizing the mind in "brahmakara Vritti"  / "ब्रह्माकार वृत्ति ".
That is, the mind by means of any or some of the above efforts culminates into the Cosmic-Consciousness (ब्रह्मन्), the totality of being and knowing that is not focused at a center.
This "brahmakara Vritti"  / "ब्रह्माकार वृत्ति " is the experience of the one indivisible Reality, yet in this experience the seed-consciousness "I am" is latent.
The one who sees 'All is one indivisible whole' keeps and secures oneself as an independent separate entity (observer) while ब्रह्मन् to him is yet another entity.
This is nevertheless a notion only and falls on its own, for there could be no cause that could be attributed for this.
Then the experience is translated into the simple and direct (अपरोक्ष) awakening :
"The observer IS the observed".
This awakening is verily the breaking out of the memory-trap.
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Incidentally, some may come across this without going through the route narrated above.
Or, we can say they have not noted that they discovered the Reality through this route.
For them, there is no path to Reality.
Yet no doubt they are authentic and their word is the evidence.
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Saturday, 11 August 2018

Locating the place of the memory ....

Where does the memory reside...2
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The memory is either personal or cosmic.
The cosmic is, -that is pervaded in Cosmos.
The personal is, -that is associated with a person (soul) and one is in touch with it always, though only a speck is available to him which determines and defines his 'world' and himself along-with the 'time' he finds confined within.
So memory is of time-space existence of oneself.
This memory is consciousness endowed with myriad aspects, but again could be in relation with to a person or the Cosmos.
I'm not convinced if the word 'Cosmos' is synonymous with 'ब्रह्म' / 'ब्रह्मन्'...
Though 'ब्रह्म' / 'ब्रह्मन्'... is another name of 'Totality'; -that includes all.
A person at any time is and finds himself in / at only one plane of consciousness while alive or dead.
While alive, one passes through three stages, namely the waking state (when there is perception of
a outside world, and one takes oneself a specific body in that world), the dream state, when one finds oneself in yet another world and the world of his 'waking state' goes to oblivion.
Though after waking up one often remembers that state, one can't remember the world of his waking state during his dream.
Occasionally, one through some practice can remember in dream that he is asleep to the world and this phase is only a temporary feeling, and one belongs in fact to the waking state where his world is comparatively a firm and stable reality.
Then there is a deep dreamless sleep state where there is darkness only.
The 3 states above narrated is the usual experience of all.
This forms the 3 layers of the mind; -the personal mind and the Cosmic mind as well.
The sense of 'I' and 'I am' are again two different modes of perception.
The sense 'I' prevails through out all the three states.
However the sense 'I am' is not so conspicuous during deep dreamless sleep, and one infers one's existence with the help of the memory of that state.
In usual behavioral level while living in this world, it is perfectly o.k. to assume oneself a person, -with a name and form, but it is not the whole truth.
The same consciousness that is manifest and is revealed during the waking state enters the state of dream-level and then of the deep sleep level.
Again the 3 states could be further categorized in terms of 5 sheaths (कोष) . These 5 sheaths are the abode of memory.
The five sheaths are described as:
अन्नमय > body made of food,
प्राणमय > body made of vital forces,
मनोमय > body made of thoughts, feelings, emotions, intellect and inference.
विज्ञानमय > the body made of pure perception (बोधमात्र), without translating the perception into a memory in terms of experience, feeling, emotion, or inference.
and the last is:
आनंदमय >The sense of joy / bliss of being only.
respectively.
And could be explained easily in a way everyone can understand.
The memory is the only way and bridge too to connect the individual to the Cosmic.
In our common misunderstanding though we tend to think them 2 aspects of existence,
it is nevertheless a completely wrong notion.
The same 'I' that is 'ब्रह्म' / 'ब्रह्मन्'... / 'Brahman', is realized in the Cosmic Consciousness as "Self", while as 'self' in the individual consciousness.
Let us first find out where this 'I' is located in our individual consciousness, then we can perhaps go ahead and deeper.
During dreamless sleep, one experiences the joy of deep sleep though this is never a sensory experience.
But there again the 'perception' (भान / बोध) of this natural joy / happiness is so prominent, no one can doubt.
This implies in that state of dreamless deep sleep 'I' exist(s) and the perception that it is a state of  'joy' is also there.
This 'perception' is exactly the विज्ञानमय कोष and also the आनंदमय कोष .
For a comparative study of these 5 sheaths one could seek help from :
"माण्डूक्य उपनिषद' / where this whole subject is well explained.
Coming once again to the question :
Where does the memory reside.....
we need to locate a place in this physical body that could be thought of as the exact point.
We have to find out with the help of Gita chapter 5 stanza 27 and chapter 8 stanza 10.
But before that let us try to see how 'I' (अहम्) and 'I am' (अहम् -अस्मि) are in relation to one -another.
The word 'I' signifies 'सत्' , that is 'What IS' irrespective of time-space, because time-space are but manifest form of the 'सत्' , the 'What IS'.
This rhythm of manifestation and withdrawal from the manifestation to potential hidden form of 'सत्' , of the 'What IS' is again relative to person (individual) and the Universal (of his world), So there is a state of manifestation and dissolution for the individual and his relevant world. Again there is another perspective when such an infinity and their world is viewed as a world irrespective of any particular individual.
This Universal world (physical Gross World made of 5 elements) also undergoes through repeated manifestation and dissolution.
So there is the death and reincarnation at the individual level and the Universal level also.
The 'knowledge' of this process is in the seed-form in the Cosmic Consciousness.
That constitutes the "Cosmic Memory".
This "Cosmic memory" has again a terminal connecting the individual with a name and form (body) with the Universal.
As has been said, time-space is but manifest form of the 'सत्' , the 'What IS', we can never say there is / was 'Creation' and 'Destruction' of the existence as such . This is but appearance and disappearance of 'सत्' , the 'What IS', in the individual and the Universal consciousness.
'I'(अहम्) and 'I am' (अहम् -अस्मि) are but two aspects of the same 'सत्' , the 'What IS', where 'I' is ever so pure, unaffected by this Cosmic memory, while 'I am' (अहम् -अस्मि) is the memory / knowledge that forms the upper layer of the manifest.
Thus 'I am' is though the great bridge to transcend the state of individual being (that is the root-cause of sorrow, confusion, misery, ignorance), 'I' is the indestructible (अविनाशी) state of 'I'(अहम्) , where all divisions cease to exist.
The state of 'ब्रह्म' / 'ब्रह्मन् / 'Brahman' too is therefore 'सत्' , the 'What IS', and thereby is the conclusion :
अहम् ब्रह्मास्मि / aham brahmaasmi
that applies to the Self as well as 'ब्रह्मन् / 'Brahman' too.
And this knowledge (memory) is revealed at the individual and the Cosmic level as well.
Yet 'the World' is an intermediate link between the two.
The place of 'I am' in the human body is at the 'आज्ञा चक्र' /  AjnA-chakra (is described vaguely as the point on the forehead between the two eye-brows).
The word आज्ञा / AjnA itself means the simple knowledge (ज्ञा > जानाति > to know, with prefix आ that implies in the right manner) .
All individual memory in the seed form is located at this 'आज्ञा चक्र' /  AjnA-chakra.
In death however the vital breath follows the mind (चित्त / Cittam) and the sense 'I am' leaves the corporeal body through one of the 1001 (or more, according to how they are interpreted)  and the dying person experiences the passage chosen by his last wish, desire etc.
The role of faith is only to let the man choose a path that takes him to 'I am' sense.
Ramana Gita explains the whole process how the place of 'I' in the individual body is on the right side on the chest that is the purport of 'हृदयं', the 'I am' sense basically emanates from there.
This is reflected / manifest in the head as the personal conscious while the sense 'I am' stay seated at the  'आज्ञा चक्र' /  AjnA-chakra.
Now, the reference to Gita :
भ्रुवोः / bhruvoH
(भ्रू > Locative, -7th case in Sanskrit vibhakti) ; meaning upon, on, at).
This is the same root, प्रातिपदिक  / crude form of a noun,  that generates another word भ्रूण (embryo).
So, we can understand how the 'I am' sense that is located in the body along-with the memory of the person, after discarding the dead body enters in the form of an embryo in the womb of the mother of the next incarnation he assumes.
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The reference to Gita is just to establish a link between two consecutive births of a soul / individual.
However the whole process and practice needs elaborate efforts and then one can think of preserving and retaining the memory in the next birth.
This is one way, one can hope to be born in a new body and remembering the past one also.
Again, Just like  'ब्रह्म' / 'ब्रह्मन् / 'Brahman', who could be contacted at 'आज्ञा चक्र' /  AjnA-chakra, one could also meditate upon different 'devata' who are the presiding deities at the various nerve-centers ( चक्र / chakra) in the body.
One attains the particular Loka (Sphere) of that Deity, in case if one remembers him when one, while alive, breaths his last.
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There are 7 Major Spheres (Urdhva-Loka / ऊर्ध्व लोक), and one can knowingly or unknowingly, wittingly or unwittingly attain any of these.
And again there are such 7 अधोलोक  / adho-Loka (Minor Spheres) (nether-worlds).
Likewise there are 7 मध्यलोक / Middle -Spheres , which form the 'sub-conscious'.
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Just in case you may like to contact me :
vinayvaidya111@gmail.com.




Wednesday, 8 August 2018

"I know nothing".

"I know nothing".
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She posted her status-update on her Facebook page.
An intelligent observation though, usually people tend to take this as a routine and careless remark only. But as she is my friend on Facebook since long, I took this occasion to suggest to her the deeper implications of this statement.
"One who says :
"I know nothing"
may be or may not be aware of the deeper implicit meaning of this.
But no doubt, it requires and should be seriously and keenly noted by the one who utters this sentence.
One thing can be pointed out that one who says so, though know may know nothing of this world which he / she shares with other things and people, it is also absolutely true at the same time that he / she is aware of his / her own existence. And paying a bit more attention, he / she can be convinced of the truth that this awareness of oneself is basically non-verbal and without words that all worldly knowledge / information consists of.
Let us see what the worldly knowledge is made of.
Is it not only the memory of words and images that mind has learned to create and associate with various experiences one comes across everyday and moment to moment life?
Could we think self-awareness is of the form of this information / knowledge which causes, builds up and is maintained, even preserved as 'memory' in the brain?
Of course, there is also 'memory' in terms of emotions and sentiments associated with the heart, rather than with the brain, that too is a result of 'feelings' translated into and named as good or bad, pleasant, unpleasant or mixed-up.
Yet no doubt the 'self' that is formed out of 'memory' is quite different a phenomenon then the 'Self' that stays silent and is instinctively aware of itself.
This is not an action on the part of 'Self', it is rather the very 'nature' of the 'Self' where this 'knowing' and 'being' are but two aspects of the one and the same indivisible and individual existence.
And this is quite obvious that this 'Self' proclaims and asserts this truth when one says :
"I know nothing."
This exclamation is possible and valid only if one knows oneself.
Usually dealing with the worldly knowledge, we just forget the worldly knowledge is based upon 'one who knows', 'what is known' and the 'object of knowledge'.
While such a tried can never exist in
"awareness of the 'Self'..."
And neither it is needed.
So one falls a pray to the illusion that one can some day have
"Enlightenment"
of the Truth of the 'Self'....
So long as this illusion persists, one moves in a groove of ignorance only.
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Saturday, 4 August 2018

Ego and Self / आभासी और वास्तविक

Ego and Self / आभासी और वास्तविक
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आभासी मैं : "मैं खुद के लिए लिखता हूँ । "
वास्तविक मैं : "नहीं, तुम खुद के लिए नहीं लिखते !"
आभासी मैं : "क्यों ?"
वास्तविक मैं : "फ़ेसबुक , वॉट्सऐप या व्हाटपैड  पर तुम किसके लिए पोस्ट करते हो ?"
~~ आभासी मैं चुप है, क्योंकि उसके पास कोई जवाब नहीं है । .~~
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Ego : "I write for myself."
Self : No, you don't write for yourself."
Ego : "Why?"
Self : For whom do you post in Facebook, what's app or watt-pad?
~~ Ego is silent for it has no answer.~~
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Friday, 3 August 2018

Phubbing

Phubbing :
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Phubbing means involved so deep in self-centered activity that one ignores all other things until forced upon by the circumstances.
-Either by compulsion or by need.
Some 20 years ago when computer and mobiles had not yet occupied human mind, we used to indulge in our own mental conditioning, and at the same time we could connect with others through verbal talk. Now that has become less and less. Even when we seem to talk to and converse with others, our own mind skillfully keeps it's defense and we hardly connect with any one. Even in emotional or relationship levels like that in so-called 'love' or amour our mind is focused on this self-defense and man as such is more and more isolated within oneself. This is the essence of 'phubbing'.
In the process one keeps enjoying music, cultural activity, Art, Intellectual discussion , but well secure and enclosed within the wall of self-defense.
Human mind that is the collective consciousness of being a human is thus restricted to 'personal' level. This itself carves out a niche for itself in some ideal, religious belief, even 'spirituality', and other such sweet-sounding words.
When you think you are a great Artist, composer, or scientist, businessman, industrialist, leader (religious or the state) you believe you belong to your ideal and try to present yourself as a 'role-model' for those who admire you.
This self-centered activity is all the harm self could do to itself and the society as a whole.
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Wednesday, 1 August 2018

धर्म, अधर्म और विज्ञान / "What is"

"जो है"
"What is"
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प्रथम ही अन्तिम है,
प्रथ्यते यत्प्रथमं वर्तते तत्सनातनं
नान्तो मध्यमो तस्य कालेनानवछिन्नत्वात्  ...



Boredom and wisdom / ऊब और प्रज्ञा

Boredom and wisdom.
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Boredom is self-desired assertion.
Boredom is the name of a state of the mind when thought finds no more ground further, to step upon. Then the thought (the mind) just returns to sleep or tries to engage in some apparently useful or useless activity.
Because thought can't survive in the absence of a support; that is in vacuum. As assertion, however, boredom is again a thought only. Boredom exists in thought-form and in the event-form. One is verbal assertion, another is a happening.
Boredom always has vacuum for its support.
Boredom is born, survives and prospers in vacuum only.
We can here also see that the addiction to drugs or being workaholic are again two ways thought chooses mindlessly to obliterate itself.
Boredom is never an experience but thought gives this name to that state of the mind and we are led into believing that Boredom is an experience.
You can invite an experience, while you can't invite Boredom.
Wisdom is the awareness of this whole movement of thought.
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The Hindi translation is here :
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ऊब और प्रज्ञा 
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ऊब / ऊबना / बोरियत होना मन की वह स्थिति है, जब 'विचार' (मन) को अगला कदम रखने के लिए जमीन नहीं मिल पाती।
तब वह या तो नींद की ओर लौटने लगता है,या किसी सार्थक,या व्यर्थ के कार्य में व्यस्त होने लगता है।  .. क्योंकि विचार शून्य में, निरालंब , बिना किसी विषय से जुड़े , विषय के अभाव में, नहीं जी सकता।
ऊब / ऊबना एक निश्चय की तरह मूलतः विचार ही होता है।  ऊब अपने अस्तित्व के लिए अभाव पर ही आश्रित होती है।
सरल तात्पर्य यह कि ऊब / ऊबना / बोरियत एक प्रतीति है, न कि अनुभूति या अनुभव, लेकिन जिसे अनुभव की तरह कहा जाता है।
किसी नशे का अभ्यस्त होना या कार्य-व्यस्तता (workaholic) का आदी  होना भी विचार की ही गतिविधि है, जिसे विचार स्वयं पर ओढ़ लेता है और उस निमग्नता में उसे सुख की प्रतीति होती है।
प्रज्ञा वह है जिसमें विचार की इस समूची गतिविधि का अनायास दर्शन होता है।
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