हिन्दी में त्वरित अनुवाद
उदाहरण के लिए वे घाव, जिस का शिकार हर कोई बचपन से ही हो जाता है । मनोवैज्ञानिक आधार से कहा जाए, तो अपने ही अभिभावकों से, स्कूल में, कॉलेज में, तुलना के माध्यम से, प्रतिस्पर्धा के जरिए, - यह दबाव कि तुम्हें कक्षा की गतिविधियों में प्रथम आना है, आदि तरीकों से । अपने जीवन में आगे जाकर, हम सतत घावों की मार खाते रहते हैं । हर कोई जानता ही है, सभी मनुष्य गहरे घावों से पीड़ित होते हैं, हालाँकि उस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता, और यहीं से भिन्न-भिन्न प्रकार की स्नायु-विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं । यह सब हमारी चेतना का हिस्सा है, -एक अंश छिपा हुआ, और एक हिस्सा वह जो पूरी तरह से इस तथ्य के प्रति सजग है कि इसे आघात पहुँचा है । अब, क्या यह संभव है कि आघात पहुँचे ही न? क्योंकि आघातों / घावों के फलस्वरूप हम अपने इर्द-गिर्द एक दीवाल खड़ी कर लेते हैं, और हमारे पारस्परिक संबंधों में, इसे ध्यान में रखते हुए प्रकृति को उसका काम उसके अपने तरीके से करने देते हैं कि हमें और अधिक आघात चोटें न झेलने पड़ें । वहाँ, उस स्थिति में, एक क्रमिक अलगाव हो जाता है, -इसलिए यह सवाल किया जा रहा है कि क्या ऐसा संभव है कि हम न सिर्फ़ अतीत के घावों से उबर सकें, बल्कि पुनः नए घावों का आघात भी हमें न झेलना पड़े ?
(जिद्दू कृष्णमूर्ति : "फ़्लेम ऑफ़ अटेंशन")
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उदाहरण के लिए वे घाव, जिस का शिकार हर कोई बचपन से ही हो जाता है । मनोवैज्ञानिक आधार से कहा जाए, तो अपने ही अभिभावकों से, स्कूल में, कॉलेज में, तुलना के माध्यम से, प्रतिस्पर्धा के जरिए, - यह दबाव कि तुम्हें कक्षा की गतिविधियों में प्रथम आना है, आदि तरीकों से । अपने जीवन में आगे जाकर, हम सतत घावों की मार खाते रहते हैं । हर कोई जानता ही है, सभी मनुष्य गहरे घावों से पीड़ित होते हैं, हालाँकि उस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता, और यहीं से भिन्न-भिन्न प्रकार की स्नायु-विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं । यह सब हमारी चेतना का हिस्सा है, -एक अंश छिपा हुआ, और एक हिस्सा वह जो पूरी तरह से इस तथ्य के प्रति सजग है कि इसे आघात पहुँचा है । अब, क्या यह संभव है कि आघात पहुँचे ही न? क्योंकि आघातों / घावों के फलस्वरूप हम अपने इर्द-गिर्द एक दीवाल खड़ी कर लेते हैं, और हमारे पारस्परिक संबंधों में, इसे ध्यान में रखते हुए प्रकृति को उसका काम उसके अपने तरीके से करने देते हैं कि हमें और अधिक आघात चोटें न झेलने पड़ें । वहाँ, उस स्थिति में, एक क्रमिक अलगाव हो जाता है, -इसलिए यह सवाल किया जा रहा है कि क्या ऐसा संभव है कि हम न सिर्फ़ अतीत के घावों से उबर सकें, बल्कि पुनः नए घावों का आघात भी हमें न झेलना पड़े ?
(जिद्दू कृष्णमूर्ति : "फ़्लेम ऑफ़ अटेंशन")
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(Take for example the wounds that every human being receives from childhood. One is hurt, psychologically speaking, by their own parents, in school, in college, by way of comparison, the competitiveness, the pressure that one must be the first in the tasks of class, etc. Over the course of our life, we suffer constant injuries. One knows it, all human beings suffer deep wounds, although we are not aware, and from this came all the different classes of shares neurotic. This is all part of our consciousness, a hidden part and a part that was well aware of the fact that it is hurt. Now, is it possible not to be hurt? Because as a result of injuries we build a wall around us, letting nature take its course in our relationship with another to not suffer more wounds. There, there is fear and a gradual isolation, that's why we ask, is it possible not only to free themselves from past wounds, but also never again suffer new wounds?
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