Saturday, 16 January 2016

सत्यमेव जयते

सत्यमेव जयते 
अष्टाध्यायी
1/4/99
लः परस्मैपदम् ।
लकारों के स्थान पर होने वाले ति, तः अन्ति आदि प्रत्ययों को परस्मैपद कहते हैं । ये जिनके अन्त में लगते हैं, उन्हें परस्मैपदी धातु कहते हैं । शतृ प्रत्यय परस्मैपद में होता है । ते, एते, अन्ते आदि को आत्मनेपद कहते हैं ।
अष्टाध्यायी
1/4/100,
तङानावात्मनेपदम् ।
तङ् (ते, एते, अन्ते आदि) शानच् , कानच् प्रत्यय ये आत्मनेपद होते हैं ।
--
आत्मनेपद > आत्मने-पद > आत्मा - संप्रदान-कारक (एकवचन) > आत्मने,> अपने लिए,
परस्मैपद > परस्मै-पद > परं / परः - संप्रदान-कारक (एकवचन) > परस्मै, > दूसरे के लिए,
जो धातुएँ अपने स्वयं के प्रयोजन के लिए प्रयुक्त की जाती हैं ’परस्मैपदी-रूप’ लेती हैं ।
जो धातुएँ दूसरे के प्रयोजन के लिए प्रयुक्त की जाती हैं ’परस्मैपदी-रूप’ लेती हैं ।
’सेव्’> सेवते, धातु आत्मनेपदी है, सेवा करना और सेवन करना ....
गम् > गच्छति, धातु परस्मैपदी है, जाना, किसी दिशा में, कहीं दूसरे स्थान पर,
--
'जि' धातु का कर्मवाची रूप 'जीयते' होता है, -अर्थ हुआ 'जिसे जीता जाता है । 
किन्तु आत्मनेपदी के रूप में लट्-लकार में प्रयुक्त होने पर 'जयते' हो जाता है । 
अर्थ हुआ जो (अपने लिए) विजयी होता है ।   
'सत्यमेव जयते' में 'जयते' का यही अभिप्राय है । 
--   

No comments:

Post a Comment