शिव-अथर्वशीर्ष के अनुसार 'काल' की उत्पत्ति अविनाशी परमात्मा से होती है...
अक्षरात्संजायते कालो,
कालाद्व्यापकः उच्यते,
व्यापको हि भगवान् रुद्रो
भोगायमानो...
यदा शेते रुद्रो संहरति प्रजाः ।
अर्थात् 'काल' जो समस्त दृश्यमात्र का आधार है, अविनाशी परमात्मा का पुत्र है। काल (Time) की व्यापकता ही 'स्थान' (space) है।
काल ही जन्म, जीवन (आयु), और यम (मृत्यु) है।
अध्यात्म रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग ८ के अनुसार :
यत्ते मनीषितं वाक्यं तद्वदस्व ममाग्रतः।
ततः प्राह मुनिर्वाक्यं शृणु राम यथातथम्।। २१
ब्रह्मणा प्रेषितोऽस्मीश कार्यार्थे तेऽन्तिकं प्रभो।
अहं हि पूर्वजो देव तव पुत्रः परंतप।। २२
मायासङ्गमजो वीर कालः सर्वहरः स्मृतः।
ब्रह्मा त्वामाह भगवान् सर्वदेवर्षिपूजितः।। २३
रक्षितुं स्वर्गलोकस्य समयस्ते महामते।
पुरा त्वमेक एवासीर्लोकान् संहृत्य मायया।। २४
भार्यया सहितस्त्वं ममादौ पुत्रमजीजनः।
तथा भोगवतं नागमनन्तमुदकेशयम् ।। २५
मायया जनयित्वा त्वं द्वौ ससत्त्वौ महाबलौ।
मधुकैटभकौ दैत्यौ हत्वा मेदोऽस्थिसञ्चयम् ।। २६
इमां पर्वतसम्बद्धां मेदिनीं पुरुषर्षभ।
पद्मे दिव्यार्कसङ्काशे नाभ्यामुत्पाद्य मामपि ।। २७
मां विधाय प्रजाध्यक्षं मयि सर्वं न्यवेदयत्।
सोऽहं संयुक्तसम्भारस्त्वामवोचं जगत्पते।। २८
रक्षं विधत्स्व भूतेभ्यो ये मे वीर्यापहारिणः।
ततस्त्वं कश्यपाज्जातो विष्णुर्वामनरूपधृक्।। २९
हृतवानसि भूभारं वधाद्रक्षोगणस्य च।
सर्वासूत्सार्यमाणासु प्रजासु धरणीधर।। ३०
रावणस्य वधाकाङ्क्षी मर्त्यलोकमुपागतः ।
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च।। ३१
कृत्वा वासस्य समयं त्रिदशेष्वात्मनः पुरा।
स ते मनोरथः पूर्णः पूर्णे चायुषि ते नृषु ।। ३२
कालस्तापसरूपेण त्वत्समीपमुपागमत् ।
ततो भूयश्च ते बुद्धिर्यदि राज्यमुपासितम्।। ३३
तत्तथा भव भद्रं ते एवमाह पितामहः।
यदि ते गमने बुद्धिर्देवलोकं जितेन्द्रिय ।।३४
सनाथा विष्णुना देवा भजन्तु विगतज्वराः।
चतुर्मुखस्य तद्वाक्यं श्रुत्वा कालेन भाषितम्।। ३५
हसन् रामस्तदा वाक्यं कृत्स्नस्यान्तकमब्रवीत् ।
श्रुतं तव वचो मेऽद्य ममापीष्टतरं तु तत्।। ३६
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अर्थ :
तब मुनिरूप (काल) ने कहा --
"हे राम! जो वास्तविक बात है, सो सुनिए। हे ईश! हे प्रभो! मुझे एक कार्य के लिए ब्रह्माजी ने आपके पास भेजा है।
हे देव! हे शत्रुदमन! मैं आपका ज्येष्ठपुत्र हूँ। (२०-२२)
हे वीर! माया के साथ आपका सङ्गम होने पर मैं प्रकट हुआ था। मैं सबका नाश करनेवाला हूँ और काल नाम से प्रसिद्ध हूँ। समस्त देवर्षियों से पूजित भगवान् ब्रह्माजी ने आपके लिए कहा है कि हे महामते! अब आपका स्वर्गलोक की रक्षा करने का समय है। पूर्वकाल में समस्त लोकों का संहार कर एकमात्र आप ही रह गये थे। (२३-२४)
फिर आपने अपनी भार्या माया के संयोग से सबसे पहले अपने पुत्र मुझको, तथा जल में शयन करनेवाले अनन्त नामक फण-धारी शेषनाग को रचा। (२५)
इस प्रकार माया से हमें उत्पन्न कर आपने महाबली और बड़े शूरवीर दो मधु-कैटभ नामक दैत्यों को मारा तथा उनके मेद और अस्थियों के समूहरूप इस पर्वतादि से युक्त पृथिवी को रचा।
हे पुरुषश्रेष्ठ!
फिर अपनी नाभि से प्रकट हुए दिव्य सूर्य के समान तेजस्वी कमल से मुझे उत्पन्न कर और मुझे ही प्रजापति बनाकर सृष्टि-रचना का सारा भार मुझे ही सौंप दिया। हे जगत्पते! इस प्रकार भार ग्रहण करने पर मैं आपसे बोला (२६-२८) :
"जो प्राणी मेरे वीर्य (प्रजा) का नाश करनेवाले हैं उनसे रक्षा कीजिए।"
तब आप कश्यपजी के यहाँ वामनरूपधारी विष्णुभगवान् होकर प्रकट हुए। (२९)
और राक्षसों का नाश करके आपने पृथिवी का भार उतारा।
हे धरणीधर! (इस समय भी) सारी प्रजा को उच्छिन्न होते देख आप रावण का वध करने के लिए मर्त्यलोक में पधारे थे। यहाँ रहने के लिए आपने पूर्वकाल में देवताओं में ग्यारह सहस्र वर्ष समय निश्चित किया था, सो आपकी मानव-शरीर की आयु पूर्ण होने के साथ ही आपका वह मनोरथ पूर्ण हो चुका है। (३०-३२)
अब, तापसरूप से काल आपके पास आया है ! यदि अभी आपका विचार कुछ दिन और राज्य करने का हो तो आपका शुभ हो, वैसा ही कीजिए। --ऐसा पितामह ब्रह्माजी ने कहा है।
हे जितेन्द्रिय!
यदि आपका विचार देवलोक चलने का हो तो (आप) विष्णुभगवान् से सनाथ होकर देवगण निश्चिन्त हो जायँ ।"
काल के मुख से ब्रह्माजी के वचन सुनकर रामजी हँसे और सबका अन्त करनेवाले काल से बोले --
"मैंने तुम्हारी सब बातें सुन लीं। वे मुझे भी अत्यन्त इष्ट हैं। (३३-३६)
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श्रीमदभगवद्गीता में 'काल' का उल्लेख इस प्रकार से है :
[4/2, 4/38, 8/7, 8/23, 8/ 27, 10/30, 10/33, 11/25, 11/32, 17/20],
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।। २
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।। ३८
(अध्याय ४)
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनैबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः ।। ७
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।। २३
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।। २७
(अध्याय ८)
प्रह्लादास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।। ३०
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्दः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ।। ३३
(अध्याय १०)
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास।। २५
--
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वा न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ।। ३२
(अध्याय ११)
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ।। २०
(अध्याय १७)
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इस प्रकार 'काल' के विभिन्न प्रकारों के वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि काल यद्यपि प्रत्येक प्राणिमात्र के 'मन' के साथ उसके लिए अनेक और भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त होता प्रतीत होता है किन्तु वह वैसी विषयपरक सत्ता (Objective Reality) नहीं हो सकता जैसा कि भौतिकशास्त्री मानकर उसका अध्ययन कर रहे हैं।
अन्ततः वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि
"Objective Reality does not exist."
अर्थात् उन्हें घूम फिर कर,
"Subjective Reality"
या "जीव-चेतना" अर्थात् "consciousness" / Existence of Conscious Being पर आना ज़रूरी हो जाता है, जहाँ वे भ्रमित हो जाते हैं, क्योंकि वे यह नहीं समझ पाते कि इस प्रकार यह चेतना स्वयं पर ही लौट आई है।
इस चेतना (consciousness) के दो रूप हैं,
एक रूप है विषयपरक ध्यान (object-focused attention) और दूसरा है :
वह स्रोत जहाँ से ध्यान (attention) का आगमन होता है।
इसे शरीर में और शरीर से संबद्ध मान लिया जाता है, और इस प्रकार हम यह देख पाने में असमर्थ हो जाते हैं कि शरीर की जागृत, स्वप्न तथा गहरी स्वप्नरहित अवस्थाएँ केवल मनोगत या वृत्तिमात्र हैं जो सतत परिवर्तित होती रहती हैं जबकि इन तीनों अवस्थाओं में साक्षी का अस्तित्व तो स्वयंसिद्ध ही है, और जिसे समझने के लिए बहुत अधिक बुद्धि की बजाय विवेक की ही आवश्यकता है। यह साक्षी 'एक' या 'अनेक' नहीं हो सकता, यह तो सर्वत्र व्याप्त वास्तविकता (the Reality as Existence) है। सर्वत्र व्याप्त यह वास्तविकता दृष्टा-दृष्य के भेद से रहित है। इस अभेद वस्तु को ही 'सत्' अर्थात् ब्रह्म, आत्मा या परमात्मा कहा जाता है जो ज्ञान-अज्ञान से विलक्षण चित् अर्थात् विशुद्ध चैतन्य मात्र है। इसी प्रकाश से जीवभाव (ego) और लोक (संसार - world) प्रकाशित होते हैं, जबकि यह स्वयं उनका अचल अटल अविकारी अधिष्ठान नित्य है।
यद्यपि वर्णन की सुविधा (sake of communication) के लिए यहाँ उसका उल्लेख अन्य पुरुष सर्वनाम 'वह' की तरह से किया जा रहा है, किन्तु प्रत्येक मनुष्य / चेतन सत्ता उसे अपने आपके रूप में चेतन अस्तित्व (sentient being) की तरह ही अनायास और सदैव जानती है। यह जानना बौद्धिक निश्चय, अनुमान या बाहर से प्राप्त सूचना (information) न होकर अन्तःस्फूर्त ही होता है। इसे ही उत्तम पुरुष / first person सर्वनाम 'मैं' के रूप में जाना, और व्यक्त किया जाता है।
यही है 'subjective existence' / 'subjective reality', आत्मचेतना, जिसे अनायास और सबके द्वारा ही नित्य और सदा ही जाना जाता है।
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