Thursday, 29 April 2021

दो-तीन प्रश्न

1. समस्या क्या है?

जीवन समस्याओं, प्रश्नों और चुनौतियों का क्रम है।

चाहे व्यक्तिगत हों, सामूहिक या सामजिक, हर समय एक ही नहीं अनेक समस्याओं, प्रश्नों और चुनौतियों का सामना करना होता है। परिस्थितियों और परिवेश की भिन्नता के अनुसार ये समस्याएँ, प्रश्न और चुनौतियाँ कम या अधिक प्रबल हो सकती हैं। अन्ततः तो मनुष्य इनमें से कुछ का ही सामना सफलता-पूर्वक कर पाता है, या प्रायः वह भी नहीं हो पाता। हर मनुष्य अपनी क्षमता से अधिक प्राप्त करने की इच्छा / लोभ से ग्रस्त होता है, और कभी-कभी भाग्य या चतुराई से उन्हें प्राप्त भी कर लेता है। 

So What? तो उससे क्या? 

क्या किसी भी स्तर पर समस्याएँ, प्रश्न और चुनौतियाँ कभी ख़त्म होती हैं?

जब तक उत्साह, ऊर्जा और उमंग होते हैं तब तक कोई न कोई प्रयास शायद किया जा सकता है।  जब तक कोई समस्या, प्रश्न या चुनौती महत्वपूर्ण प्रतीत होती है, तब तक भी उनके लिए  कुछ किया जा सकता है। किन्तु समस्याओं, प्रश्नों और चुनौतियों का रंग-रूप भी लगातार इतना अधिक बदल जाता है कि सारे प्रयासों पर पानी फिर जाता है, या यह दिखाई देने लगता है कि प्रारंभ से ही इनका सामना सीमित दृष्टि से या गलत तरीके से किया गया, और अब तो उस छोटी सी भूल का परिणाम इतना विकराल, और विकट और भयावह हो चुका है कि कुछ नहीं हो सकता।

किन्तु तमाम निराशा, अवसाद, ग्लानि, अपराध-बोध आदि के बावजूद अकड़ ख़त्म नहीं होती। किन्हीं आदर्शों सिद्धांतों आदि के लिए अपने या दूसरों के प्राणों के बलिदान दिए जाने तक को गौरवान्वित करते हुए स्वयं को तसल्ली ज़रूर दी जा सकती है किन्तु इससे :

So What?  या "उससे क्या" का प्रश्न समाप्त तो नहीं हो जाता!  

तब दूसरा प्रश्न उठाया जा सकता है, सूझ सकता है, या कोई उस ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर सकता है, बशर्ते इसे इंगित करनेवाला वह स्वयं किसी ज्ञात या अज्ञात कारण या संयोग से इस प्रश्न तक आ पाया हो। 

पर ऐसा अत्यन्त बिरले ही कभी होता है, और अगर कभी हो भी जाता है,  तो भी प्रायः मनुष्य इसे ग्रहण कर पाने के लिए न तो तैयार होता है, न परिपक्व और न गंभीर ही होता है। यहाँ तक,  कि अगर यह प्रश्न उसे कौंध भी जाए तो भी उसका ध्यान उस पर नहीं टिक पाता। 

क्या है वह दूसरा प्रश्न ? 

वह प्रश्न कुछ ऐसा हो सकता है --

2. ये अनेक, असंख्य प्रश्न, समस्याएँ और चुनौतियाँ 'किसके' सामने होती हैं? इनका सामना 'किसे' करना होता है?? 

यदि इस प्रश्न पर पर्याप्त गंभीरता से ध्यान दिया जाए तो ये सभी प्रश्न, समस्याएँ, और चुनौतियाँ इस प्रश्न में समा जाती हैं, और तब यह प्रश्न --

3. जिसे 'मैं' कहा जाता है, उस 'मैं' का क्या तात्पर्य हो सकता है?

महत्वपूर्ण प्रतीत हो सकता है। लोग इस प्रश्न तक शायद ही कभी आते हों, और भूले-भटके कभी आ भी जाते हों, तो भी यह प्रश्न उन्हें मूर्खता-पूर्ण या हास्यास्पद प्रतीत होता हो। कभी-कभी, किसी-किसी को यह कोरा बुद्धिविलास या व्यर्थ की माथा-पच्ची या सिरे से ही नकार दिया जाने लायक, यहाँ तक कि पागलता भरा भी लग सकता है। और लगभग हर कोई ही, जो सांसारिक दृष्टि से बहुत सफल, प्रसिद्ध, विख्यात, बुद्धिमान और विद्वान भी हों, या तो इस प्रश्न को टाल जाते हैं, या अपने गर्व दंभ में डूबे, इसे मजाक की तरह ग्रहण करते हैं ।

पश्चिमी विक्षोभ (western disturbance) से ग्रस्त कुछ लोग तुरंत दावा करने लगते हैं कि प्रख्यात ग्रीक दार्शनिक सुकरात, अरस्तू और प्लेटो ने तो इसी दिशा में खोज बीन और विचार किया था, किन्तु वे भी जान-बूझ कर भी इस तथ्य की उपेक्षा कर देंगे कि आदि शंकराचार्य से लेकर श्री रमण महर्षि तक ने और श्री जे. कृष्णमूर्ति से लेकर श्री निसर्गदत्त महाराज तक ने इसी प्रश्न के संदर्भ में अपनी शिक्षाएँ पात्र जिज्ञासुओं को प्रदान की थीं और यही प्रश्न उपनिषदों के तत्व का आधार और पृष्ठभूमि भी रहा है।

यह तो मानना होगा कि बहुत से भारतीयों ने पश्चिम का ध्यान भारत की इस समृद्ध विरासत की ओर ज़रूर खींचा लेकिन वह केवल सैद्धान्तिक और मिशनरी मोड (missionary mode) तक ही सीमित होकर यह गया। हाँ, इसके साथ साथ बहुत से तथाकथित धार्मिक और आध्यात्मिक संगठनों तथा व्यक्तियों ने अपनी दुकानदारी अवश्य चमका ली।

किन्तु उपरोक्त उल्लिखित तीनों विभूतियाँ इसका अपवाद ही थीं, जिन्होंने कभी कोई अपना कोई संगठन या संप्रदाय निर्मित नहीं किया कोई फिलासॉफी नहीं खड़ी की, फिर भी सभी गंभीर आध्यात्मिक साधकों का ध्यान इस मौलिक प्रश्न की ओर आकर्षित करने का पर्याप्त प्रयास भी अनायास ही किया ।

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Monday, 26 April 2021

।।आदित्यहृदयस्तोत्रम्।।

अथ श्री वाल्मीकिरामायणे उत्तरकाण्डे पञ्चाधिकशततमे सर्गे 
अगस्त्यमुनिना भगवते श्रीरामचन्द्राय उपदिष्टं --
आदित्यहृदयस्तोत्रम् 
(स्तोत्र के अंत में दिए गए विनियोग तथा न्यास आदि करने के बाद ही स्तोत्रपाठ प्रारंभ करना चाहिए) 
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स्तोत्रम् --
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् ।।१
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्। 
उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवान्स्तदा ।।२
राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्। 
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे।।३
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्। 
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवं।।४
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ।।५
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्। 
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ।।६
[तुम इनका --
रश्मिमते नमः
समुद्यते नमः
देवासुरनमस्कृताय नमः
विवस्वते नमः
भास्कराय नमः
भुवनेश्वराय नमः
इन नाम-मन्त्रों द्वारा पूजन करो]
सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः। 
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः।।७
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः। 
महेन्द्रः धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः।।८
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः। 
वायुर्वह्निः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः।।९
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्। 
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः।।१०
हरिदश्च सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डोंऽशुमान्।।११
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहस्करो रवि। 
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङ्खः शिशिरनाशनः।।१२
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुःसामपारगः। 
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवङ्गमः ।।१३
आतपी मण्डली मृत्युः पिङ्गलः सर्वतापनः। 
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः।।१४
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः। 
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ।।१५
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः। 
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः।।१६
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः। 
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ।।१७
नम उग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नमः ।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते।।१८
ब्रह्मेशानायच्युतेशाय सूरायादित्यवर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः।।१९
तमोघ्नाय हिमोघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने। 
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः।।२०
तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे। 
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोक साक्षिणे।।२१
नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः। 
पापयत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः।।२२
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः। 
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्।।२३
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः।।२४
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च। 
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव।।२५
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्। 
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यति ।।२६
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि ।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम्।।२७
एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत् तदा। 
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्।।२८
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्।।२९
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागमत्। 
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ।।३०
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः। 
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ।।३१
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इति श्रीमद्रामायणे वाल्मीकिये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे पञ्चाधिकशततमः सर्गः 
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इस 'आदित्यहृदयस्तोत्रम्' नामक स्तोत्र का विनियोग एवं न्यासविधि इस प्रकार है :
विनियोगः --
ॐ अस्य आदित्यहृदयस्तोत्रस्यागस्त्यऋषिरनुष्टुप्छंदः, आदित्यहृदयभूतो भगवान् ब्रह्मा देवता नियस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्रजयसिद्धौ च विनियोगः।
ऋष्यादिन्यासः --
ॐ अगस्त्यऋषये नमः, शिरसि। 
अनुष्टुप्छन्दसे नमः, मुखे।
आदित्यहृदयभूतब्रह्मदेवतायै नमः, हृदि। 
ॐ बीजाय नमः, गुह्ये। 
ॐ रश्मिमते शक्तये नमः, पादयोः। 
ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्रीकीलकाय नमः,  नाभौ। 
करन्यासः --
इस स्तोत्र के अङ्गन्यास और करन्यास तीन प्रकार से किये जाते हैं। 
केवल प्रणव से,  गायत्रीमन्त्र से अथवा 'रश्मिमते नमः' इत्यादि छः नाम-मन्त्रों से। 
यहाँ नाम-मन्त्रों से किये जानेवाले न्यास का प्रकार बताया जाता है --
ॐ रश्मिमते अङ्गुष्ठाभ्यां नमः। 
ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः। 
ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। 
ॐ विवस्वते अनामिकाभ्यां नमः। 
ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। 
ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः। 
हृदयादि अङ्गन्यासः --
ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः। 
ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। 
ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट्। 
ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। 
ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। 
ॐ भुवनेश्वराय आस्त्राय फट्।
इस प्रकार न्यास करके निम्नांकित मन्त्र से भगवान् सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिए --
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
तत्पश्चात् 'आदित्यहृदयस्तोत्रम्' का पाठ प्रारंभ करना चाहिए ।***
कोरोना काल में इसका महत्व इसलिए भी है कि सूर्यमण्डल को ही  CORONA  कहा जाता है। 
आशा है कि श्रद्धावान के लिए यह पोस्ट उपयोगी और संग्रहणीय सिद्ध होगी। 
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Sunday, 25 April 2021

The Recluse.

ASCETICS OR ASCETICISM 

Looks synonymous with RECLUSE. 

RECLUSE however is cognate (सजाति / सज्ञात) of the Sanskrit word परिश्लिष् / परिक्लिश् pointing out a RECLUSE is one who keeps striving for or keeping away from the society, while the word ASCETIC is a cognate (सज्ञात / सजाति) of the Sanskrit word अव-शयति meaning asleep or just has no relation whatsoever with the society or the mundane. 

This is like the word NEGOTIATE which is the cognate (सज्ञात / सजाति), even a direct derivative of the Sanskrit word निगच्छति meaning to deal with so as to gain / attain some desired benefit. This way, an ASCETIC is one, who practices or has attained the purpose ultimate.

Another equivalent word for the RECLUSE or the ASCETIC in Sanskrit is संन्यस्त / संन्यासी which in English becomes vest / invest or dispose off rightly everything that belongs to the world. No doubt, this means a  संन्यासी / MENDICANT is one who has no interest whatsoever in the affairs if the world. Again, this includes his body as well, because he has realized that he is not the body which is but a composition of the 5 gross elements viz., the Earth, the Ether, the Fire, the Water, and the Air only.

It is the consciousness associated with this whole organism that makes it sentient and the vital breath (प्राण) that starts the biological clock in the heart. 

The vital breath (प्राण) and the consciousness both are the subtle elements that imbue the organism with life. This life is again but the Life, the REALITY, which is all and everything. 

The same Life, vital breath and consciousness together cause a false sense of the individuality that soon owing to intellect (and memory associated and generated hey the intellect takes the form of ego, or the person / personal sense of existence.

An aspiring ASCETIC is thus one who practices to become ADEPT (अर्हत्) though has so far not broken the shackles of ignorance, because his sense of having a separate existence different and other than ATMAN / BRAHMAN (आत्मा,  परमात्मा, ब्रह्मन्) is intact.

A Mendicant may be an aspiring ASCETIC or one who has carefully cast aside the world and the mundane concerns and has given his whole attention to the need of attainment of the REAL that is the ultimate meaning and purpose (श्रेयस्) of Life.

This is how the four pursuits (पुरुषार्थ) of life have been pointed out in scriptures. 

AN ASCETIC may or may not have gone through scriptures, yet the GURU in him is watching him from the times immemorial and keeps pushing him towards this goal supreme.

This is how ASCETICISM prevails from the ancient times and though not necessarily kind of a religion, governs the spiritual life of all and everyone.

Another Sanskrit word for ASCETIC is :

अवधूत 

That is one having washed of impurities if mind and soul, though may not of the body, just because body itself is treated an impurity which is truly a bundle of filth and dirt only. Though could he cleaned repeatedly, in the end it has to he discarded.

The word also hints at another Sanskrit word अवधान meaning ATTENTION (ध्यान) which is but a ray of AWARENESS (चित् / चैतन्य).

Thus attention is always about a living entity,  while AWARENESS is the very Life itself. 

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Saturday, 24 April 2021

A Cause for Asceticism.

The Only Challenge.

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Just now wrote a post about this in my another blog in blogger.

This was about the only challenge, the world and the humanity as a whole have to face, if they have to survive.

We all could see that 

THE ONLY CHALLENGE  

before us is :

How to restore the natural population-balance of humans vis-a-vis all the other species our planet has.

Our so-called progress in any field let's not us see that this progress depends on the cruel  destruction of nature and natural resources that could never be compensated and ultimately would lead to the extinction of the our whole civilization. Unless we see this clearly at the individual and the collective level also, we are doomed to become history.

The many attempts to restore this balance are though made by many organizations at various levels, by the politicians, as well as by the organized religions also. 

And though may perhaps help in some way to a group or people, but in the overall impact, this is not going in any way to restore this balance of human population in comparison and contrast to all other species and creatures. 

On the other hand, wars and diseases keep emerging because of our collective human folly and stupidity, which we are hardly aware of. 

In any case, one who is prudent, watchfull of this whole phenomenon may at once realize that unless one turns to asceticism, there is no way to address this collective human challenge.

The means of birth-control and forcing the same over the population at large is itself an irrelevant and impractical option.

ASCETICISM  is no religion but irrespective of whatever religion one has, whatever faith one follows, one can sure see in ASCETICISM his own good and the good for all and even the life and world as a whole also.

This is the only INTELLIGENCE we need, if we would and have to survive.

ASCETICUSM involves various and many a spiritual disciplines, and one practicing Asceticism would always be a rightful religious one, though maybe not strictly one, who follows traditional aspects of any of the religions in vogue.

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Friday, 23 April 2021

कालचक्र

शिव-अथर्वशीर्ष के अनुसार 'काल' की उत्पत्ति अविनाशी परमात्मा से होती है... 

अक्षरात्संजायते कालो,

कालाद्व्यापकः उच्यते,

व्यापको हि भगवान् रुद्रो 

भोगायमानो... 

यदा शेते रुद्रो संहरति प्रजाः ।

अर्थात् 'काल' जो समस्त दृश्यमात्र का आधार है, अविनाशी परमात्मा का पुत्र है। काल (Time) की व्यापकता ही 'स्थान' (space) है।

काल ही जन्म, जीवन (आयु), और यम (मृत्यु) है।

अध्यात्म रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग ८ के अनुसार :

यत्ते मनीषितं वाक्यं तद्वदस्व ममाग्रतः। 

ततः प्राह मुनिर्वाक्यं शृणु राम यथातथम्।। २१

ब्रह्मणा प्रेषितोऽस्मीश कार्यार्थे तेऽन्तिकं प्रभो। 

अहं हि पूर्वजो देव तव पुत्रः परंतप।। २२

मायासङ्गमजो वीर कालः सर्वहरः स्मृतः।

ब्रह्मा त्वामाह भगवान् सर्वदेवर्षिपूजितः।। २३

रक्षितुं स्वर्गलोकस्य समयस्ते महामते। 

पुरा त्वमेक एवासीर्लोकान् संहृत्य मायया।। २४

भार्यया सहितस्त्वं ममादौ पुत्रमजीजनः। 

तथा भोगवतं नागमनन्तमुदकेशयम् ।। २५

मायया जनयित्वा त्वं द्वौ ससत्त्वौ महाबलौ। 

मधुकैटभकौ दैत्यौ हत्वा मेदोऽस्थिसञ्चयम् ।। २६

इमां पर्वतसम्बद्धां मेदिनीं पुरुषर्षभ। 

पद्मे दिव्यार्कसङ्काशे नाभ्यामुत्पाद्य मामपि ।। २७

मां विधाय प्रजाध्यक्षं मयि सर्वं न्यवेदयत्। 

सोऽहं संयुक्तसम्भारस्त्वामवोचं जगत्पते।। २८

रक्षं विधत्स्व भूतेभ्यो ये मे वीर्यापहारिणः। 

ततस्त्वं कश्यपाज्जातो विष्णुर्वामनरूपधृक्।। २९

हृतवानसि भूभारं वधाद्रक्षोगणस्य च। 

सर्वासूत्सार्यमाणासु प्रजासु धरणीधर।। ३०

रावणस्य वधाकाङ्क्षी मर्त्यलोकमुपागतः ।

दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च।। ३१

कृत्वा वासस्य समयं त्रिदशेष्वात्मनः पुरा। 

स ते मनोरथः पूर्णः पूर्णे चायुषि ते नृषु ।। ३२

कालस्तापसरूपेण त्वत्समीपमुपागमत् ।

ततो भूयश्च ते बुद्धिर्यदि राज्यमुपासितम्।। ३३

तत्तथा भव भद्रं ते एवमाह पितामहः। 

यदि ते गमने बुद्धिर्देवलोकं जितेन्द्रिय ।।३४

सनाथा विष्णुना देवा भजन्तु विगतज्वराः। 

चतुर्मुखस्य तद्वाक्यं श्रुत्वा कालेन भाषितम्।। ३५

हसन् रामस्तदा वाक्यं कृत्स्नस्यान्तकमब्रवीत् ।

श्रुतं तव वचो मेऽद्य ममापीष्टतरं तु तत्।। ३६

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अर्थ :

तब मुनिरूप (काल) ने कहा --

"हे राम!  जो वास्तविक बात है, सो सुनिए।  हे ईश! हे प्रभो! मुझे एक कार्य के लिए ब्रह्माजी ने आपके पास भेजा है। 

हे देव! हे शत्रुदमन! मैं आपका ज्येष्ठपुत्र हूँ। (२०-२२)

हे वीर!  माया के साथ आपका सङ्गम होने पर मैं प्रकट हुआ था। मैं सबका नाश करनेवाला हूँ और काल नाम से प्रसिद्ध हूँ। समस्त देवर्षियों से पूजित भगवान् ब्रह्माजी ने आपके लिए कहा है कि हे महामते! अब आपका स्वर्गलोक की रक्षा करने का समय है। पूर्वकाल में समस्त लोकों का संहार कर एकमात्र आप ही रह गये थे। (२३-२४)

फिर आपने अपनी भार्या माया के संयोग से सबसे पहले अपने पुत्र मुझको, तथा जल में शयन करनेवाले अनन्त नामक फण-धारी शेषनाग को रचा। (२५)

इस प्रकार माया से हमें उत्पन्न कर आपने महाबली और बड़े शूरवीर दो मधु-कैटभ नामक दैत्यों को मारा तथा उनके मेद और अस्थियों के समूहरूप इस पर्वतादि से युक्त पृथिवी को रचा। 

हे पुरुषश्रेष्ठ! 

फिर अपनी नाभि से प्रकट हुए दिव्य सूर्य के समान तेजस्वी कमल से मुझे उत्पन्न कर और मुझे ही प्रजापति बनाकर सृष्टि-रचना का सारा भार मुझे ही सौंप दिया। हे जगत्पते! इस प्रकार भार ग्रहण करने पर मैं आपसे बोला  (२६-२८) :

"जो प्राणी मेरे वीर्य (प्रजा) का नाश करनेवाले हैं उनसे रक्षा कीजिए।"

तब आप कश्यपजी के यहाँ वामनरूपधारी विष्णुभगवान् होकर प्रकट हुए।  (२९)

और राक्षसों का नाश करके आपने पृथिवी का भार उतारा। 

हे धरणीधर!  (इस समय भी) सारी प्रजा को उच्छिन्न होते देख आप रावण का वध करने के लिए मर्त्यलोक में पधारे थे। यहाँ रहने के लिए आपने पूर्वकाल में देवताओं में ग्यारह सहस्र वर्ष समय निश्चित किया था, सो आपकी मानव-शरीर की आयु पूर्ण होने के साथ ही आपका वह मनोरथ पूर्ण हो चुका है। (३०-३२)

अब, तापसरूप से काल आपके पास आया है ! यदि अभी आपका विचार कुछ दिन और राज्य करने का हो तो आपका शुभ हो, वैसा ही कीजिए। --ऐसा पितामह ब्रह्माजी ने कहा है। 

हे जितेन्द्रिय! 

यदि आपका विचार देवलोक चलने का हो तो (आप) विष्णुभगवान् से सनाथ होकर देवगण निश्चिन्त हो जायँ ।"

काल के मुख से ब्रह्माजी के वचन सुनकर रामजी हँसे और सबका अन्त करनेवाले काल से बोले --

"मैंने तुम्हारी सब बातें सुन लीं।  वे मुझे भी अत्यन्त इष्ट हैं। (३३-३६)

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श्रीमदभगवद्गीता में 'काल' का उल्लेख इस प्रकार से है :

[4/2, 4/38, 8/7, 8/23, 8/ 27, 10/30, 10/33, 11/25, 11/32, 17/20],

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।। २

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। 

तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।। ३८

(अध्याय ४)

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। 

मय्यर्पितमनैबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः ।। ७

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः। 

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।। २३

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन। 

तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।। २७

(अध्याय ८)

प्रह्लादास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्। 

मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।। ३०

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्दः सामासिकस्य च। 

अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ।। ३३

(अध्याय १०)

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि। 

दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास।। २५

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कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो 

लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।

ऋतेऽपि त्वा न भविष्यन्ति सर्वे 

येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ।। ३२

(अध्याय ११)

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ।। २०

(अध्याय १७)

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इस प्रकार 'काल' के विभिन्न प्रकारों के वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि काल यद्यपि प्रत्येक प्राणिमात्र के 'मन' के साथ उसके लिए अनेक और भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त होता प्रतीत होता है किन्तु वह वैसी विषयपरक सत्ता (Objective Reality) नहीं हो सकता जैसा कि भौतिकशास्त्री मानकर उसका अध्ययन कर रहे हैं। 

अन्ततः वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि 

"Objective Reality does not exist."

अर्थात् उन्हें घूम फिर कर,

"Subjective Reality"

या "जीव-चेतना" अर्थात्  "consciousness" / Existence of Conscious Being पर आना ज़रूरी हो जाता है, जहाँ वे  भ्रमित हो जाते हैं, क्योंकि वे यह नहीं समझ पाते कि इस प्रकार यह चेतना स्वयं पर ही लौट आई है। 

इस चेतना (consciousness) के दो रूप हैं, 

एक रूप है विषयपरक ध्यान (object-focused attention) और दूसरा है : 

वह स्रोत जहाँ से ध्यान (attention) का आगमन होता है। 

इसे शरीर में और शरीर से संबद्ध मान लिया जाता है, और इस प्रकार हम यह देख पाने में असमर्थ हो जाते हैं कि शरीर की जागृत, स्वप्न तथा गहरी स्वप्नरहित अवस्थाएँ केवल मनोगत या वृत्तिमात्र हैं जो सतत परिवर्तित होती रहती हैं जबकि इन तीनों अवस्थाओं में साक्षी का अस्तित्व तो स्वयंसिद्ध ही है, और जिसे समझने के लिए बहुत अधिक बुद्धि की बजाय विवेक की ही आवश्यकता है। यह साक्षी 'एक' या 'अनेक' नहीं हो सकता,  यह तो सर्वत्र व्याप्त वास्तविकता (the Reality as Existence)  है। सर्वत्र व्याप्त यह वास्तविकता दृष्टा-दृष्य के भेद से रहित है। इस अभेद वस्तु को ही 'सत्' अर्थात् ब्रह्म, आत्मा या परमात्मा कहा जाता है जो ज्ञान-अज्ञान से विलक्षण चित् अर्थात् विशुद्ध चैतन्य मात्र है। इसी प्रकाश से जीवभाव (ego) और लोक (संसार - world) प्रकाशित होते हैं, जबकि यह स्वयं उनका अचल अटल अविकारी अधिष्ठान नित्य है।  

यद्यपि वर्णन की सुविधा (sake of communication) के लिए यहाँ उसका उल्लेख अन्य पुरुष सर्वनाम 'वह' की तरह से किया जा रहा है, किन्तु प्रत्येक मनुष्य / चेतन सत्ता उसे अपने आपके रूप में चेतन अस्तित्व (sentient being) की तरह ही अनायास और सदैव जानती है। यह जानना बौद्धिक निश्चय,  अनुमान या बाहर से प्राप्त सूचना (information) न होकर अन्तःस्फूर्त ही होता है। इसे ही उत्तम पुरुष / first person  सर्वनाम 'मैं'  के रूप में जाना, और व्यक्त किया जाता है। 

यही है 'subjective existence' / 'subjective reality',  आत्मचेतना, जिसे अनायास और सबके द्वारा ही नित्य और सदा ही जाना जाता है।

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Wednesday, 21 April 2021

अद्वैत द्वैत

भोजनं प्रथमं कुर्याद्भजनं तदनन्तरम्। 
भोजनेन द्वैतं तीर्त्वा भजनेनद्वैतं लभेत्।।
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भोजनं प्रथमं कुर्यात् भजनं तत् अनन्तरम् ।
भोजनेन द्वैतं तीर्त्वा भजनेन अद्वैतं लभेत्।। 
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मनुष्य को पहले भोजन और उसके बाद ही भजन करना चाहिए। भोजन से भोक्ता, भोज्य (कर्म) और भोजन (कार्य) के बीच के द्वैत आदि से निवृत्त होने पर फिर भजन के द्वारा अद्वैत की प्राप्ति होती है। 
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शायद 
"भूखे भजन न होय गोपाला"
इसे ही कहने का दूसरा तरीका  है।
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Saturday, 17 April 2021

तदपि न मुञ्चत्याशावायुः

 किसी समय शङ्कराचार्यकृत 

"भज गोविन्दम्" 

का एक श्लोक यहाँ पोस्ट किया था। 

Someone commented :

The translation of "आशा" is not "hope", but "desire".

I felt a bit curious and tried to check this. 

Two references came to my mind :

कठोपनिषद् १ / १ /

आशाप्रतीक्षे संगत्ँ सूनृतां च

इष्टापूर्ते पुत्रपशूंश्च सर्वान् ।

एतद् वृङ्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो 

यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे।।८

Here "आशा" means "hope" only.

विवेकचूडामणि श्लोक :

अमृतत्वस्य नाशास्ति वित्तेनेत्येव हि श्रुतिः।

ब्रवीति कर्मणो मुक्तेरहेतुत्वं स्फुटं यतः।।७

Here again "आशा" means "hope" only.

I just couldn't understand why "आशा" should be translated "desire", and not "hope" !

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Friday, 16 April 2021

Consciousness and Quantum Reality.

I was going through a brilliant post written by 

Zia Steele on 20 Aug. 2020, 

in medium.com :

"Is Consciousness a quantum phenomenon?"

It all depends on the perspective.  

There are a few premises which at first look  true but may lack reliability.

No one is an internet bot, but everyone and all are conscious being only. 

Even the quantum is a conscious being.

The idea that consciousness is limited to a particular body how-so-ever small or big itself needs to be examined.

Intelligence and consciousness are one or two depending on the perspective only. 

Today just before writing this post I wrote a post here about AI, BI, CI, HI.

Quantum principle, (Unstable?) Time-Space, and similar notions in Physics are within the frame-work of Mathematics, but Mathematics itself is found upon a set of definitions. Mathematics is thus based and supported by argumentative debate which again is subject to a language. 

A language especially the spoken one, is itself a compound event where the instrument is voice. This voice could be either a sound coming out as a result of the  interaction of purely material / mechanical objects or emanating from a living / conscious being endowed with awareness of a kind. This awareness is basically devoid of all distinctions like 'I' and 'not-I' and thus is described in the various spiritual scriptures (particularly those related to Veda and other such) as "Atman", "Brahman", "Cit", which all are equivalents of the spirit,  soul,  Supreme Reality, Totality or "Self", (Cosmic / Universal Self), 

Consciousness / Intelligence,

(and in the individual as consciousness and knowledge).

So in a way, everything is everything. 

(सर्वे सर्वार्थ वाचकाः)

The prominent Upanishad Ishavasya 

begins with this very sentence :

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्याञ्जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।। 

This day Science and streams of knowledge and learning, begin with an entirely contrary (if not incorrect) way. 

Because our whole intellect (बुद्धि) is confined to consciousness (चेतना), it can never transcend the limits of this so called knowledge, where the knower, the known and the knowledge exist in the form of 3 distinct elements, whereas "Intelligence" (प्रज्ञा) is All-comprising Awareness (Cit / चित्) pervading all and everything, nay, it is the very "eye" that is the only witness to the manifest phenomenal Whole, while the same eye has no other witness WHO could "see" and be the evidence of this Witness.

So this Intelligence-Principle is identically the same as the Atman, आत्मन्, Brahman, ब्रह्मन्,  Cit / चित्,  Chaitanya / चैतन्य, respectively.

Arriving at this conclusion is possible for one who is earnest in spirit, free of any bias and prejudices, presumptions, presuppositions and truly deserves. The classic scripture Gita begins with the Samkhya-Darshana सांख्य दर्शन of कपिल, yet in all the next chapters the action / कर्म aspect of spiritual practice had been emphasized by Sri-Krishna (or VEDAVYASA / वेदव्यास, who is supposed to have written this great scripture).

Kapila (and His Samkhya-Darshana) utter not a single word about, or referring to God (ईश्वर), So some believe Kapila Muni was atheist (in the sense that He didn't mention God).

Likewise the Lord Buddha Who is again supposed to be an atheist was born in the Kingdom "Kapilavastu" which literally means : 

in the lineage of Kapila Muni, is yet another hint that why / how He didn't say a word about God (ईश्वर) and still He is accepted and worshipped as an incarnation of God / Lord Vishnu (विष्णु).

May be, this day Science needs to have a glance over this rich heritage of Sanatana Dharma and reach something tremendously important for all times in present and in future of humanity as a whole.

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AI, BI and HI

We know that presently AI stands for artificial intelligence. I can understand if we abbreviate BI for the biological intelligence and likewise HI for the human intelligence. I can also see if by CI,  some-one wants to point out to the chemical intelligence as well.

Presently by CI we could assume it also a short form of computer intelligence,  and there is robotic intelligence as well, which could mean kind of mechanical intelligence.

Whatever be the criteria, we sure have shortage of such short forms because there are only 26 letters in the English language.

There could be psychological one as well,  and I  would like to preserve PI for this, but of course this could be a bit confusing.

My main focus is on the BI which includes both the biological and botanical life-forms of intelligence which is prompted in them by memory stored in their respective brains.

There could be a question, what about the brain of the plant-kingdom? Is there such a 'brain' in them! 

For the sake of communication, Let us presently skip this question.

We can see that sense of being an 'individual' is but the very first, prime memory that is formed in the consciousness associated with any and all life-forms.

When two or more consecutive experiences are felt in this consciousness,  the sense of 'just being' or the sense of 'just existing' gets splitting into the sense of 'me' and the sense of 'not-me'. 

Then only an 'individual' assumes its existence apart from the 'world's which is the 'other',  though connected by means of the 'senses'. 

It need not be said that this is the first illusion on the part of consciousness associated with that particular life-form.

Again,  based on and supported by this comes up the individuality of a conscious being, limited to this organic body.

Having a (enormously) big number of such experiences in memory is, what is 'evolution' in consciousness.

Self-growth and enrichment of this individual presupposes evolution of a mechanism that keeps the body secure and safe.

The fear of getting perished and the hope of survival keeps on this mechanism, though in time this gradually weakens and finally exists no more, when we say it is dead.

Fear is recognition of danger anticipated.

This is what is the basis of BI.

Learning through conditions and experiences however strengthens this BI (biological intelli-gence) becomes its second nature, which is no less than what AI stands for for intelligent machines, robots and even computers.

Then comes the PI which may be :

"the life of π",

as I have already said, I mean the psychological  intelligence, which is a stage / phase between the animal-intelligence and the HI, or the human intelligence.

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When this HI, matures enough and tries to find out its own source and source-consciousness, there may come a breakthrough where the distinction between the individual (or the 'self') consciousness and the consciousness as such just disappears.

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Wednesday, 7 April 2021

किं नाम कालः?

What is Time? 

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अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः ।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।। १४

(गीता अध्याय३)

The living organisms are the form of food, they consume. The food grows because of the water bearing clouds. The water bearing clouds happen as a consequence of sacrifices made according to yajna (Vedika rituals).

Again this yajna is the result of totality of actions / deeds as are instructed by the Veda.

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।।१५

(अध्याय ३)

And know that actions come into existence verily from Brahman, therefore yajna is ever the very abode of Brahman.

Thus we come as manifest beings from Brahman.

We live our life in the time span which is called 'age'. As such we are but the very transformation of what we eat,  drink and breath.

This implies the time we live, or our 'life-span' in terms of years, months and days is but the food we consume either in the form of intake by means of eating,  drinking and breathing. 

This is how "Time" comes into existence.

शिव-अथर्वशीर्ष on the other hand gives a clue how "Time" comes into existence :

अक्षरात्संजायते कालो कालाद्व्यापको उच्यते, व्यापको हि भगवान् रुद्रो... 

"Time" as such is generated from the imperish-able, and thereby pervades in the form of "Space".

Summarily. "Time" that is age or the lifetime of a man itself is nothing other than the food consumed by him.

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Matter and energy, that are thus "food", give rise to the phenomenon : "Time" and subsequently the "Space".

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This is how the question

What is "Time"?

has been dealt with by the ancient sages of the Sanatana Dharma. 

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Thus "Time" as Objective Reality is but the transformation of food only. 

And as such this "Time" (आयु) or "Time and Space" simply, doesn't exist as an independent entity like matter and energy.

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