1. समस्या क्या है?
जीवन समस्याओं, प्रश्नों और चुनौतियों का क्रम है।
चाहे व्यक्तिगत हों, सामूहिक या सामजिक, हर समय एक ही नहीं अनेक समस्याओं, प्रश्नों और चुनौतियों का सामना करना होता है। परिस्थितियों और परिवेश की भिन्नता के अनुसार ये समस्याएँ, प्रश्न और चुनौतियाँ कम या अधिक प्रबल हो सकती हैं। अन्ततः तो मनुष्य इनमें से कुछ का ही सामना सफलता-पूर्वक कर पाता है, या प्रायः वह भी नहीं हो पाता। हर मनुष्य अपनी क्षमता से अधिक प्राप्त करने की इच्छा / लोभ से ग्रस्त होता है, और कभी-कभी भाग्य या चतुराई से उन्हें प्राप्त भी कर लेता है।
So What? तो उससे क्या?
क्या किसी भी स्तर पर समस्याएँ, प्रश्न और चुनौतियाँ कभी ख़त्म होती हैं?
जब तक उत्साह, ऊर्जा और उमंग होते हैं तब तक कोई न कोई प्रयास शायद किया जा सकता है। जब तक कोई समस्या, प्रश्न या चुनौती महत्वपूर्ण प्रतीत होती है, तब तक भी उनके लिए कुछ किया जा सकता है। किन्तु समस्याओं, प्रश्नों और चुनौतियों का रंग-रूप भी लगातार इतना अधिक बदल जाता है कि सारे प्रयासों पर पानी फिर जाता है, या यह दिखाई देने लगता है कि प्रारंभ से ही इनका सामना सीमित दृष्टि से या गलत तरीके से किया गया, और अब तो उस छोटी सी भूल का परिणाम इतना विकराल, और विकट और भयावह हो चुका है कि कुछ नहीं हो सकता।
किन्तु तमाम निराशा, अवसाद, ग्लानि, अपराध-बोध आदि के बावजूद अकड़ ख़त्म नहीं होती। किन्हीं आदर्शों सिद्धांतों आदि के लिए अपने या दूसरों के प्राणों के बलिदान दिए जाने तक को गौरवान्वित करते हुए स्वयं को तसल्ली ज़रूर दी जा सकती है किन्तु इससे :
So What? या "उससे क्या" का प्रश्न समाप्त तो नहीं हो जाता!
तब दूसरा प्रश्न उठाया जा सकता है, सूझ सकता है, या कोई उस ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर सकता है, बशर्ते इसे इंगित करनेवाला वह स्वयं किसी ज्ञात या अज्ञात कारण या संयोग से इस प्रश्न तक आ पाया हो।
पर ऐसा अत्यन्त बिरले ही कभी होता है, और अगर कभी हो भी जाता है, तो भी प्रायः मनुष्य इसे ग्रहण कर पाने के लिए न तो तैयार होता है, न परिपक्व और न गंभीर ही होता है। यहाँ तक, कि अगर यह प्रश्न उसे कौंध भी जाए तो भी उसका ध्यान उस पर नहीं टिक पाता।
क्या है वह दूसरा प्रश्न ?
वह प्रश्न कुछ ऐसा हो सकता है --
2. ये अनेक, असंख्य प्रश्न, समस्याएँ और चुनौतियाँ 'किसके' सामने होती हैं? इनका सामना 'किसे' करना होता है??
यदि इस प्रश्न पर पर्याप्त गंभीरता से ध्यान दिया जाए तो ये सभी प्रश्न, समस्याएँ, और चुनौतियाँ इस प्रश्न में समा जाती हैं, और तब यह प्रश्न --
3. जिसे 'मैं' कहा जाता है, उस 'मैं' का क्या तात्पर्य हो सकता है?
महत्वपूर्ण प्रतीत हो सकता है। लोग इस प्रश्न तक शायद ही कभी आते हों, और भूले-भटके कभी आ भी जाते हों, तो भी यह प्रश्न उन्हें मूर्खता-पूर्ण या हास्यास्पद प्रतीत होता हो। कभी-कभी, किसी-किसी को यह कोरा बुद्धिविलास या व्यर्थ की माथा-पच्ची या सिरे से ही नकार दिया जाने लायक, यहाँ तक कि पागलता भरा भी लग सकता है। और लगभग हर कोई ही, जो सांसारिक दृष्टि से बहुत सफल, प्रसिद्ध, विख्यात, बुद्धिमान और विद्वान भी हों, या तो इस प्रश्न को टाल जाते हैं, या अपने गर्व दंभ में डूबे, इसे मजाक की तरह ग्रहण करते हैं ।
पश्चिमी विक्षोभ (western disturbance) से ग्रस्त कुछ लोग तुरंत दावा करने लगते हैं कि प्रख्यात ग्रीक दार्शनिक सुकरात, अरस्तू और प्लेटो ने तो इसी दिशा में खोज बीन और विचार किया था, किन्तु वे भी जान-बूझ कर भी इस तथ्य की उपेक्षा कर देंगे कि आदि शंकराचार्य से लेकर श्री रमण महर्षि तक ने और श्री जे. कृष्णमूर्ति से लेकर श्री निसर्गदत्त महाराज तक ने इसी प्रश्न के संदर्भ में अपनी शिक्षाएँ पात्र जिज्ञासुओं को प्रदान की थीं और यही प्रश्न उपनिषदों के तत्व का आधार और पृष्ठभूमि भी रहा है।
यह तो मानना होगा कि बहुत से भारतीयों ने पश्चिम का ध्यान भारत की इस समृद्ध विरासत की ओर ज़रूर खींचा लेकिन वह केवल सैद्धान्तिक और मिशनरी मोड (missionary mode) तक ही सीमित होकर यह गया। हाँ, इसके साथ साथ बहुत से तथाकथित धार्मिक और आध्यात्मिक संगठनों तथा व्यक्तियों ने अपनी दुकानदारी अवश्य चमका ली।
किन्तु उपरोक्त उल्लिखित तीनों विभूतियाँ इसका अपवाद ही थीं, जिन्होंने कभी कोई अपना कोई संगठन या संप्रदाय निर्मित नहीं किया कोई फिलासॉफी नहीं खड़ी की, फिर भी सभी गंभीर आध्यात्मिक साधकों का ध्यान इस मौलिक प्रश्न की ओर आकर्षित करने का पर्याप्त प्रयास भी अनायास ही किया ।
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