धर्म और धर्मोन्माद
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कल शाम विवेक ओबेरॉय और रोहित सरदाना के बीच हुई बातचीत का वीडिओ देख रहा था ।
विवेक ओबेरॉय ने कहा :
"आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता ।"
एक पुरानी दलील याद आई :
" ... आतंकवादी जब मारा जाता है तब उसका धर्म पता चल जाता है !"
’ऑउट ऑफ़ द बॉक्स - थिंकिंग’ (OTBOT) से सोचें, तो पूछा जा सकता है :
"क्या धर्म का कोई आतंकवाद हो सकता है?"
और यूँ भी पूछा जा सकता है :
"क्या धर्म कई हो सकते हैं?"
"क्या अधर्म ही कई नहीं होते?"
हमारी ’बॉक्स्ड थिंकिंग’ इसलिए बॉगल्ड-अप (boggled-up) हो जाती है अर्थात् बौखला जाती है, क्योंकि हम अपनी सुविधा के अनुसार कभी तो ’धर्म’ को एक अर्थ में इस्तेमाल करते हैं और कभी दूसरे किसी अर्थ में । और इसलिए आतंकवाद हमारी इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाता है और छल से अपने ’धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार’ की दुहाई देकर अपने स्वार्थ के अनुसार ’धर्म’ शब्द को अलग-अलग सन्दर्भ में इस्तेमाल करते हुए हमें भ्रमित किए रहता है ।
अगर’अहिंसा परमो धर्मः’ के सिद्धान्त को कसौटी बनाकर ’धर्म’ क्या है, और ’अधर्म’ क्या है, इस प्रश्न पर साथ साथ विचार करें तो इस भ्रम से छुटकारा पाया जा सकता है ।
तब हमें पूछा जा सकता है :
’हिंसा’ क्या है, और ’अहिंसा' क्या है?
स्पष्ट है कि किसी भी प्रकार का आतंक हिंसा ही है चाहे वह आतंक ’धर्म’ या सिद्धान्त (Ideology) के नाम पर ही क्यों न हो ।
और हिंसा का प्रत्युत्तर हिंसा से नहीं दिया जा सकता ।
राजनीतिक-धर्म अर्थात् धर्म की राजनीति इस भ्रम से भ्रमित होती है और उसे लगता है, उसका दृढ़ ’विश्वास’ होता है कि हिंसा से किसी विशिष्ट ध्येय को प्राप्त किया जा सकता है और उसे यह नहीं दिखाई देता कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया उसी अनुपात के बल के साथ होती है । हिंसा से आप तात्कालिक रूप से सफल होते भले ही दिखाई देते हों इससे आपकी समस्या का अन्त नहीं होता, और समस्या के हल होने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती । जिसके साथ हिंसा की जाती है वह भी अपनी प्रतिरक्षा तो करेगा ही । आप हिंसापूर्वक या छल से किसी को ’कन्वर्ट’ करने की चेष्टा करते हैं तो यह आपका एक दुष्ट विचार मात्र है क्योंकि आप अपने गिरेबान में झाँककर स्वयं से यह पूछना तक भूल जाते हैं कि ’कन्वर्ट’ हो जाने से क्या आपको खुद को शान्ति मिली? शक्ति मिली? जब आपको यह बात समझ में आएगी कि शक्ति और शान्ति की कल्पना और विचार एक दुःस्वप्न है तब आपका यह दुःस्वप्न टूट जाएगा । तब अशान्ति भी दूर हो जाएगी । इसे आप शान्ति कहें तो वह तो पहले से ही आपके पास थी ही लेकिन शान्ति की कल्पना और विचार से आपकी बुद्धि इतनी मोहित हो गई कि जो आपके पास अनायास उपलब्ध है वह आपकी दृष्टि से ओझल हो गया ।
राजनीति, शक्ति और शान्ति की तलाश है और यह तलाश ही अशान्ति और बेचैनी है जो अन्ततः आपको नष्ट कर देती है ।
राजनीति वह उन्माद है जो अन्ततः मनुष्य को और उसके संसार को भी नष्ट कर देता है ।
इसलिए ज़रूरत उस राजनीतिक धर्म की नहीं है, -जहाँ धर्म उन्माद होता है ।
ज़रूरत उस धार्मिक राजनीति की है, -जहाँ धर्म अहिंसा है ।
जैसे धर्म अहिंसा और अहिंसा धर्म है, वैसे ही अधर्म हिंसा और हिंसा अधर्म है।
जब तक कोई 'दूसरा' है तब तक संघर्ष, युद्ध, हिंसा तो होगी ही।
कोई अपने-आप के साथ हिंसा कैसे कर सकता है?
सच तो यह है कि दूसरे पर की जानेवाली हिंसा भी स्वयं पर ही की जानेवाली हिंसा का ऐसा रूप है जिसे हम दुर्भाग्यवश अंत तक पहचान नहीं पाते।
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महावीर-जयन्ती की शुभकामनाएँ !
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कल शाम विवेक ओबेरॉय और रोहित सरदाना के बीच हुई बातचीत का वीडिओ देख रहा था ।
विवेक ओबेरॉय ने कहा :
"आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता ।"
एक पुरानी दलील याद आई :
" ... आतंकवादी जब मारा जाता है तब उसका धर्म पता चल जाता है !"
’ऑउट ऑफ़ द बॉक्स - थिंकिंग’ (OTBOT) से सोचें, तो पूछा जा सकता है :
"क्या धर्म का कोई आतंकवाद हो सकता है?"
और यूँ भी पूछा जा सकता है :
"क्या धर्म कई हो सकते हैं?"
"क्या अधर्म ही कई नहीं होते?"
हमारी ’बॉक्स्ड थिंकिंग’ इसलिए बॉगल्ड-अप (boggled-up) हो जाती है अर्थात् बौखला जाती है, क्योंकि हम अपनी सुविधा के अनुसार कभी तो ’धर्म’ को एक अर्थ में इस्तेमाल करते हैं और कभी दूसरे किसी अर्थ में । और इसलिए आतंकवाद हमारी इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाता है और छल से अपने ’धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार’ की दुहाई देकर अपने स्वार्थ के अनुसार ’धर्म’ शब्द को अलग-अलग सन्दर्भ में इस्तेमाल करते हुए हमें भ्रमित किए रहता है ।
अगर’अहिंसा परमो धर्मः’ के सिद्धान्त को कसौटी बनाकर ’धर्म’ क्या है, और ’अधर्म’ क्या है, इस प्रश्न पर साथ साथ विचार करें तो इस भ्रम से छुटकारा पाया जा सकता है ।
तब हमें पूछा जा सकता है :
’हिंसा’ क्या है, और ’अहिंसा' क्या है?
स्पष्ट है कि किसी भी प्रकार का आतंक हिंसा ही है चाहे वह आतंक ’धर्म’ या सिद्धान्त (Ideology) के नाम पर ही क्यों न हो ।
और हिंसा का प्रत्युत्तर हिंसा से नहीं दिया जा सकता ।
राजनीतिक-धर्म अर्थात् धर्म की राजनीति इस भ्रम से भ्रमित होती है और उसे लगता है, उसका दृढ़ ’विश्वास’ होता है कि हिंसा से किसी विशिष्ट ध्येय को प्राप्त किया जा सकता है और उसे यह नहीं दिखाई देता कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया उसी अनुपात के बल के साथ होती है । हिंसा से आप तात्कालिक रूप से सफल होते भले ही दिखाई देते हों इससे आपकी समस्या का अन्त नहीं होता, और समस्या के हल होने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती । जिसके साथ हिंसा की जाती है वह भी अपनी प्रतिरक्षा तो करेगा ही । आप हिंसापूर्वक या छल से किसी को ’कन्वर्ट’ करने की चेष्टा करते हैं तो यह आपका एक दुष्ट विचार मात्र है क्योंकि आप अपने गिरेबान में झाँककर स्वयं से यह पूछना तक भूल जाते हैं कि ’कन्वर्ट’ हो जाने से क्या आपको खुद को शान्ति मिली? शक्ति मिली? जब आपको यह बात समझ में आएगी कि शक्ति और शान्ति की कल्पना और विचार एक दुःस्वप्न है तब आपका यह दुःस्वप्न टूट जाएगा । तब अशान्ति भी दूर हो जाएगी । इसे आप शान्ति कहें तो वह तो पहले से ही आपके पास थी ही लेकिन शान्ति की कल्पना और विचार से आपकी बुद्धि इतनी मोहित हो गई कि जो आपके पास अनायास उपलब्ध है वह आपकी दृष्टि से ओझल हो गया ।
राजनीति, शक्ति और शान्ति की तलाश है और यह तलाश ही अशान्ति और बेचैनी है जो अन्ततः आपको नष्ट कर देती है ।
राजनीति वह उन्माद है जो अन्ततः मनुष्य को और उसके संसार को भी नष्ट कर देता है ।
इसलिए ज़रूरत उस राजनीतिक धर्म की नहीं है, -जहाँ धर्म उन्माद होता है ।
ज़रूरत उस धार्मिक राजनीति की है, -जहाँ धर्म अहिंसा है ।
जैसे धर्म अहिंसा और अहिंसा धर्म है, वैसे ही अधर्म हिंसा और हिंसा अधर्म है।
जब तक कोई 'दूसरा' है तब तक संघर्ष, युद्ध, हिंसा तो होगी ही।
कोई अपने-आप के साथ हिंसा कैसे कर सकता है?
सच तो यह है कि दूसरे पर की जानेवाली हिंसा भी स्वयं पर ही की जानेवाली हिंसा का ऐसा रूप है जिसे हम दुर्भाग्यवश अंत तक पहचान नहीं पाते।
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महावीर-जयन्ती की शुभकामनाएँ !
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