महात्मा गाँधी और गाँधीवाद
पतञ्जलि, राजयोग, क्रियायोग, सार्वभौम व्रत,
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महात्मा गाँधी ने जीवन को जिन प्रेरणाओं से प्रेरित होकर जीने का प्रयास किया उन्हें जानना, और उन्हें तथा उनके जीवन को हमने अपनी बौद्धिक समझ के अनुसार व्याख्यायित कर जिन सिद्धांतों को गाँधीवाद समझा, उनके बीच की दूरी को पाटने के लिए और संक्षेप में "गाँधीवाद क्या है ?" इसे महर्षि पतञ्जलि के योग-सूत्र के माध्यम से इस प्रकार से देखा जा सकता है।
प्रथम अध्याय 'समाधिपाद' में महर्षि पतञ्जलि ने 'चित्त' और 'चित्तवृत्ति' क्या है, तथा समाधि के माध्यम से चित्त किस प्रकार वृत्तिरहित 'स्वरूप' का आविष्कार कर उसकी ओर लौटता है इसे स्पष्ट किया है :
अथ योगानुशासनम्। १
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। २
द्वितीय अध्याय 'साधनपाद' में 'क्रियायोग' के बारे में कहा गया है अर्थात् जीवन में जिन साधनों का प्रयोग करने से योग की सिद्धि होती है उनका उल्लेख किया गया है।
[तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः। १ ]
महात्मा गाँधी ने जीवन को जिन प्रेरणाओं से प्रेरित होकर जीने का प्रयास किया उन्हें संक्षेप में इस दूसरे अध्याय के सूत्र ३० एवं ३१ में कहा गया है :
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यमापरिग्रहा यमाः । ३०
तथा,
जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्। ३१
मुझे पता नहीं कि बापू ने उनके द्वारा आचरण में लाये जानेवाले सिद्धांतों को 'राजयोग' में पढ़ने के बाद अपने लिए तय किया या अनायास अपनी अंतःप्रेरणाओं पर चलते हुए उन्हें इसकी उपलब्धि हुई लेकिन यह अवश्य कहा जा सकता है कि उनका व्यक्तिगत जीवन इन्हीं मूल्यों का विकास था।
अहिंसा (किसी भी प्राणिमात्र को कष्ट, दुःख और भय न पहुँचाना), सत्य (जो नित्य, सनातन, शाश्वत और अविकारी है), अस्तेय (अर्थात् अपने अधिकार से बाहर की वस्तु को बलपूर्वक न प्राप्त करना, चोरी न करना, छल-कपट न करना) ब्रह्मचर्य (नैतिक और नैष्ठिक दृष्टि से संसार को ब्रह्म की तरह सर्वत्र देखना और उच्छृंखल आचरण न करना) अपरिग्रह (जिसकी आवश्यकता न हो, जो अपने लिए वास्तव में अभी या परिणाम में हानिप्रद और अंततः पतन का ही कारण हो, उसे केवल कौतूहल, उत्सुकता, भय या प्रलोभन से ग्रहण करने से बचना) इन्हें 'यम' [यम् - संस्कृत --(नि )+यम् - नियच्छति -- रोकना] कहा जाता है।
ये ही 'यम', - जाति (जन्म), देश (स्थानविशेष), काल (व्यापक आदि अंत से रहित), समय (आदि अंत वाला) इन सब से अबाधित, अछूते / स्वतंत्र रूप से सदा और सर्वत्र सबके लिए अनुकूल तथा पालनीय 'महाव्रत' / धर्म हैं।
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'यम' --यम् - संस्कृत --(नि )+यम् - नियच्छति -- रोकना -- का ही उल्लेख महर्षि पतञ्जलि ने अगले सूत्र में किया है :
शौचसन्तोष तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। ३२
बाह्य और अंतर्मन और हृदय की निर्मलता, तप (श्रम से जी न चुराना), स्वाध्याय (मेरे लिए यह ब्लॉग भी इसका एक उदाहरण हो सकता है। ) ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर या उस दिव्य परम सत्ता के अस्तित्व पर श्रद्धा होना जो सर्वत्र और सब-कुछ है, और उससे द्वैत अथवा अद्वैत की अपनी स्वाभाविक रूचि और भावना के अनुसार अपने संबंध को स्मरण रखना, ऐसी अनन्य भक्ति)
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(जैसा मैंने समझा) महात्मा गाँधी के अनुसार 'सत्य' का स्थान 'ईश्वर' से भी ऊपर है और 'स्वच्छता' (शुद्ध आचार, विचार, कर्म) का स्थान 'ईश्वर' के बाद ।
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इसलिए 'ईश्वर' एक है या अनेक, 'है' या 'नहीं हैँ' इत्यादि विचार का आग्रह करनेवालों तथा दूसरों के लिए भी, - सभी के लिए महात्मा गाँधी की शिक्षाओं को गाँधीवाद कहा जा सकता है।
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'राम' से शायद महात्मा गाँधी यही तात्पर्य ग्रहण करते थे।
श्रीरामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ !
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पतञ्जलि, राजयोग, क्रियायोग, सार्वभौम व्रत,
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महात्मा गाँधी ने जीवन को जिन प्रेरणाओं से प्रेरित होकर जीने का प्रयास किया उन्हें जानना, और उन्हें तथा उनके जीवन को हमने अपनी बौद्धिक समझ के अनुसार व्याख्यायित कर जिन सिद्धांतों को गाँधीवाद समझा, उनके बीच की दूरी को पाटने के लिए और संक्षेप में "गाँधीवाद क्या है ?" इसे महर्षि पतञ्जलि के योग-सूत्र के माध्यम से इस प्रकार से देखा जा सकता है।
प्रथम अध्याय 'समाधिपाद' में महर्षि पतञ्जलि ने 'चित्त' और 'चित्तवृत्ति' क्या है, तथा समाधि के माध्यम से चित्त किस प्रकार वृत्तिरहित 'स्वरूप' का आविष्कार कर उसकी ओर लौटता है इसे स्पष्ट किया है :
अथ योगानुशासनम्। १
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। २
द्वितीय अध्याय 'साधनपाद' में 'क्रियायोग' के बारे में कहा गया है अर्थात् जीवन में जिन साधनों का प्रयोग करने से योग की सिद्धि होती है उनका उल्लेख किया गया है।
[तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः। १ ]
महात्मा गाँधी ने जीवन को जिन प्रेरणाओं से प्रेरित होकर जीने का प्रयास किया उन्हें संक्षेप में इस दूसरे अध्याय के सूत्र ३० एवं ३१ में कहा गया है :
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यमापरिग्रहा यमाः । ३०
तथा,
जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्। ३१
मुझे पता नहीं कि बापू ने उनके द्वारा आचरण में लाये जानेवाले सिद्धांतों को 'राजयोग' में पढ़ने के बाद अपने लिए तय किया या अनायास अपनी अंतःप्रेरणाओं पर चलते हुए उन्हें इसकी उपलब्धि हुई लेकिन यह अवश्य कहा जा सकता है कि उनका व्यक्तिगत जीवन इन्हीं मूल्यों का विकास था।
अहिंसा (किसी भी प्राणिमात्र को कष्ट, दुःख और भय न पहुँचाना), सत्य (जो नित्य, सनातन, शाश्वत और अविकारी है), अस्तेय (अर्थात् अपने अधिकार से बाहर की वस्तु को बलपूर्वक न प्राप्त करना, चोरी न करना, छल-कपट न करना) ब्रह्मचर्य (नैतिक और नैष्ठिक दृष्टि से संसार को ब्रह्म की तरह सर्वत्र देखना और उच्छृंखल आचरण न करना) अपरिग्रह (जिसकी आवश्यकता न हो, जो अपने लिए वास्तव में अभी या परिणाम में हानिप्रद और अंततः पतन का ही कारण हो, उसे केवल कौतूहल, उत्सुकता, भय या प्रलोभन से ग्रहण करने से बचना) इन्हें 'यम' [यम् - संस्कृत --(नि )+यम् - नियच्छति -- रोकना] कहा जाता है।
ये ही 'यम', - जाति (जन्म), देश (स्थानविशेष), काल (व्यापक आदि अंत से रहित), समय (आदि अंत वाला) इन सब से अबाधित, अछूते / स्वतंत्र रूप से सदा और सर्वत्र सबके लिए अनुकूल तथा पालनीय 'महाव्रत' / धर्म हैं।
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'यम' --यम् - संस्कृत --(नि )+यम् - नियच्छति -- रोकना -- का ही उल्लेख महर्षि पतञ्जलि ने अगले सूत्र में किया है :
शौचसन्तोष तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। ३२
बाह्य और अंतर्मन और हृदय की निर्मलता, तप (श्रम से जी न चुराना), स्वाध्याय (मेरे लिए यह ब्लॉग भी इसका एक उदाहरण हो सकता है। ) ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर या उस दिव्य परम सत्ता के अस्तित्व पर श्रद्धा होना जो सर्वत्र और सब-कुछ है, और उससे द्वैत अथवा अद्वैत की अपनी स्वाभाविक रूचि और भावना के अनुसार अपने संबंध को स्मरण रखना, ऐसी अनन्य भक्ति)
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(जैसा मैंने समझा) महात्मा गाँधी के अनुसार 'सत्य' का स्थान 'ईश्वर' से भी ऊपर है और 'स्वच्छता' (शुद्ध आचार, विचार, कर्म) का स्थान 'ईश्वर' के बाद ।
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इसलिए 'ईश्वर' एक है या अनेक, 'है' या 'नहीं हैँ' इत्यादि विचार का आग्रह करनेवालों तथा दूसरों के लिए भी, - सभी के लिए महात्मा गाँधी की शिक्षाओं को गाँधीवाद कहा जा सकता है।
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'राम' से शायद महात्मा गाँधी यही तात्पर्य ग्रहण करते थे।
श्रीरामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ !
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