प्रासंगिक / श्राद्ध क्यों ?
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इस लेख को मैं यथासंभव सरल और संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
इसमें चूँकि कुछ व्यक्तिगत तथ्यों का विवरण है जिन्हें लिखूँ या नहीं इस बारे में थोड़ा असमंजस है, इसलिए न चाहते हुए भी केवल लोक-हित की तथा प्राप्त कर्तव्य के निर्वाह की भावना से इसे लिख रहा हूँ ।
इस पर कोई विश्वास करे ही ऐसा मेरा आग्रह भी नहीं है । वर्ष 1997 की 24 जुलाई को मेरे पिताजी का स्वर्गवास हुआ । जिस अस्पताल में उन्हें चिकित्सा के लिए भर्ती किया गया था उसके छोटे से कमरे में अर्धनिद्रा की स्थिति में सोया हुआ मैं सुबह के साढ़े चार बजे स्वप्न देख रहा था । मैंने देखा कि स्वप्न में उसी कमरे में एक पतला बारीक चमकदार सर्प कहीं से आया और देखते ही देखते आँखों से लुप्त हो गया । मेरे स्वप्न में ही, मैं कमरे में खड़ा हो गया और उस समय वही लुंगी मैंने पहन रखी थी जिसे पहनकर सो रहा था । फिर मुझे शंका हुई कि सर्प मेरी लुंगी में जाकर तो नहीं छिप गया, तो मैं तुरंत लुंगी उतारने लगा । तभी एक आवाज से मेरी नींद खुली । पिताजी अंतिम साँसें ले रहे थे और किसी ने मुझे जगाकर कहा, अरे देखो तो विनय,...। मैं उठ खड़ा हुआ और पिता की शैया के पास गया । फिर जाकर पास के कमरे से नर्स को बुलाया, जिसने ब्लड-प्रेशर चेक कर निराशा प्रकट करते हुए मुख-मुद्रा से संकेत दिया कि वे शान्त हो चुके हैं । चूँकि वे सतत जप में संलग्न रहते थे और उनकी मनोदशा जानने के लिए उनकी बेहोशी / निद्रा जैसी स्थिति में उनकी उंगलियों की गतिविधि से मैंने अनुमान लगाया था कि वे मन ही मन ’जप’ कर रहे हैं इसलिए अपने अनुमान की सत्यता की परीक्षा के लिए मैंने उन्हें एक डोरी दी तो उनकी उंगलियाँ तुरंत ही उस डोरी के टुकड़े पर जपमाला की तरह चलने लगीं थीं । फिर हमने घर से उनकी जपमाला लाकर उन्हें दी । इसके दो दिन बाद ही वे चले गये थे । मैं बस उनकी अंत्येष्टि में और श्राद्ध के अंतिम दिन की ही विधि में जा पाया था । उनकी मृत्यु होने के बाद अनेक बार वे मुझे स्वप्न में दिखाई देते रहे । लगभग हर बार मुझे ध्यान रहता था कि उनकी मृत्यु हो चुकी है और उनका दाह-संस्कार भी हो चुका है, (इसलिए भी) उनसे मैं जिस ’लोक’ में मिल रहा हूँ वह मृत्युलोक नहीं है । चूँकि उनकी मृत्यु से बरसों पहले मैं अपने स्वर्गीय नानाजी से भी इसी प्रकार से मिल चुका था, जिन्होंने बिना आवाज किए हँसते-हँसते मुझसे कहा था : ’यहाँ मैं बिलकुल ठीक हूँ’, इसलिए मुझे अपने पिता से अपनी इन मुलाक़ातों के बारे में कोई शंका नहीं होती थी । नींद से जागने पर थोड़ा आश्चर्य ज़रूर होता था ।
वर्ष 2014 के अगस्त की 25 तारीख को मेरी माताजी भी दिवंगत हो गई, और थोड़े आश्चर्य की बात कि उनकी मृत्यु के बाद वे मुझे स्वप्न में कभी-कभी दिखाई देती थी और तब भी मुझे स्मरण रहता था कि उनका निधन हो चुका है । इस बारे में यहाँ देखें । किंतु यह भी सच है कि माताजी प्रायः प्रसन्न और संतुष्ट दिखलाई देती थी । उनकी मृत्यु होने के बाद उनकी अंत्येष्टि के समय मुझे जो अनुभव प्राप्त हुआ उसे यहाँ लिखना अनावश्यक है, किंतु उससे भी मुझे स्पष्ट हो गया कि मेरे पिता की आत्मा क्यों अतृप्त रहकर भटक रही थी जबकि माताजी की आत्मा पूर्णतः शांत और प्रसन्न भी थी ।
पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मेरा भाई और मेरे जीजाजी उनकी अस्थियाँ लेकर नर्मदा किनारे गए थे और वहीं उनका विसर्जन कर दिया था ।
पिता की मृत्यु के बाद वे मुझे अनेक बार दिखाई दिये किन्तु अंतिम बार वे बहुत त्रस्त जान पड़े । उस अंधेरे लोक में उन्होंने मुझसे बस इतना कहा :
’गुलाब मुझे यहाँ ले आया ।’
मुझे पता है कि गुलाब कौन / क्या है, किंतु यहाँ इस बारे में नहीं लिखना है ।
दो-तीन दिन इस बारे में सोचता रहा और तीसरे दिन एक ख़याल आया ।
’नियति’ इस जुलाई (2016) में किन्हीं कारणों से मुझे नर्मदा किनारे उसी घाट के समीप ले आई जहाँ लोग श्राद्धकर्म किया करते हैं । जहाँ मेरे पिता की अस्थियाँ विसर्जित की गईं थीं ।
अगले दिन मैं दोपहर को घाट पर गया, घाट पर स्थित फूल की दुकान से दो गुलाब के फूल लिए, पिता का ध्यान किया तो तत्क्षण वे वहाँ उपस्थित थे । एक फूल मैंने उन्हें दिया और उनसे अपनी मातृभाषा में कहा :
"यह लीजिए गुलाब! यह आपको ’माई’ के पास ले जाएगा और आप ’माई’ की शरण में चले जाएँगे, वहीं आपकी सद्गति होगी ।"
वैसे तो ’माई’ से मेरा आशय ’नर्मदा-माई’ था किंतु अचानक ध्यान आया कि अपनी स्वर्गीय माँ को हम ’माई’ ही कहते थे ।
इसके कुछ दिनों बाद पुनः एक स्वप्न आया जिसमें मेरे माता-पिता साथ थे । माताजी थोड़ी दूर खड़ी शांत प्रसन्न मुख से मुझे देख रही थीं और पिताजी पास ही एक चौकोर, कुर्सी जैसे पत्थर पर आराम से बैठे संतुष्ट दिखाई दे रहे थे ।
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यह वृत्तांत मैं शायद ही लिखता, क्योंकि एक तो यह नितांत वैयक्तिक है दूसरे इसका किसी दूसरे से कोई संबंध भी नहीं है, किंतु आज सुबह के एक स्वप्न ने मुझे इसे लिखने के लिए बाध्य कर दिया ।
मैं जिस बैंक में कार्य करता था वहाँ के मेरे एक अधिकारी की मृत्यु मार्च 2006 में हुई थी । उनका मुझ पर विशेष स्नेह था । आज सुबह स्वप्न में मैं अपने किसी ’घर’ में बैठा ’ध्यानयोग’ की कोई पुस्तक पढ़ रहा था कि वे सुनील नामक एक दूसरे बैंक-अधिकारी / कर्मचारी के साथ मेरे ’घर’ आए । वह समय था ’बैंक’ खुलने का । मैंने उनसे बैठने के लिए कहा और पिछले कमरे में जाकर गिलास ढूँढने लगा ताकि उन्हें जल दे सकूँ जैसा कि हम घर पर आनेवाले को प्रायः देते हैं । घर में अंधेरा था इसलिए मैंने सोचा कि बाहर के कमरे का दरवाजा खोलूँ, तो वे बोले : ’नहीं उसे बन्द ही रहने दो’। फिर जब मैं गिलास ढूँढने लगा तो मुझे शीशे के चार गिलास, -दो छोटे, और दो बड़े दिखलाई दिए और मैं सोच ही रहा था कि इन्हें धोकर साफ़ कर लूँ, कि मेरी नींद खुल गई ।
अस्तु ।
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उठते ही सोचने लगा कि इस स्वप्न का क्या अर्थ और प्रयोजन है?
अभी बस सोच ही रहा हूँ ।
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कल ही विनायक रजत का ’नारी’ पर लिखा लेख पढ़ा था जिसमें वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड के सर्ग 29 के श्लोक 18 को पढ़ते ही ध्यान आया था कि जल का एक नाम ’नारा’ भी है, जिसका उल्लेख करना श्री विनायक रजत भूल गए थे । नृ > नारा > नारायण, नर / नारी .....। जल के बिना किसी भी प्रकार का धार्मिक आध्यात्मिक कार्य अधूरा रहता है । संदर्भित श्लोक में यही कहा गया है कि कन्या का पिता ’जल’ के माध्यम से कन्या का हाथ वर को सौंपता है और इसके बाद उस कन्या / नारी का संपूर्ण दायित्व वर के उस कुल पर होता है । दो दिन पूर्व ही किसी ’प्रगतिशील’ ’मुक्त-सोच’ वाली नारी का लेख भी पढ़ा था जिसमें ’यौन-तुष्टि’ को ही विवाह का एकमात्र आधार / प्रयोजन कहकर मनुष्य को बन्दर के समकक्ष रखा गया था । उन भगिनी (तथा और भी अनेक बुद्धिजीवी भौतिकवादी, वेद-विरोधी ...) को संभवतः कल्पना भी नहीं है कि वेद-धर्म के अनुसार ’विवाह’ का आधार वर्णाश्रम-धर्म और ’कुल’ की शुद्धता को अक्षुण्ण रखना है । ’यौन-प्रवृत्ति’ की संतुष्टि तो गौण तक नहीं है । किंतु वेद किसी पर अपनी दृष्टि थोपता भी नहीं । वेद सिर्फ़ ’विधि’, ’धर्म’ और ’अधर्म’ क्या है, शुभ-अशुभ कर्म और उनके शुभ-अशुभ परिणामों के बारे में स्पष्ट करता है और मनुष्य के लिए क्या कर्तव्य है जिसके करने से उसे श्रेयस्कर की प्राप्ति होगी, यह भी ।
अर्जुन ने गीता में यही प्रश्न भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा था कि कुल-परंपरा नष्ट हो जाने से ....
किंतु भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा :
"ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य में प्रवृत्त होता है..."
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वैदिक ज्यौतिषीय 'सिद्धांत' के अनुसार 'पितृ-पक्ष' वह चंद्र मासार्ध है जब दिवंगत आत्माएँ मृत्युलोक में आकर अपने परिजनों से स्वधा (तर्पण) स्वीकार करती हैं । चूँकि सूर्य (अर्यमा) पितृलोक का अधिष्ठाता देवता है, और चन्द्र जल तथा मन का, इसलिए इस विशिष्ट पक्ष में, जो वर्षार्ध का अंतिम पक्ष तथा शारदीय नवरात्र के पहले आने वाला समय है, सभी दिवंगत आत्माओं से संपर्क सरलता से किया जा सकता है । जरूरी नहीं कि वैदिक मंत्रों तथा विधि से ही श्राद्ध का अनुष्ठान किया जाए, किन्तु जल अपरिहार्यतः आवश्यक है । सूर्य (अर्यमा) को जल अर्पित करें, फिर दिवंगत आत्मा स्मरण, ध्यान और आवाहन करें और जैसे सूर्य को जल चढ़ाते हैं ही उस आत्मा को जल चढ़ायें । यदि संभव हो तो यह कार्य नदी-तट या सरोवर समीप करें ।
उत्-(घञ्) > क > उदक: / उदकं ।
'उदक' अर्थात् जल स्वयं पतित होकर भी उस आत्मा को ऊपर उठा देता, श्रेष्ठतर स्थिति देता है ।
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इस लेख को मैं यथासंभव सरल और संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
इसमें चूँकि कुछ व्यक्तिगत तथ्यों का विवरण है जिन्हें लिखूँ या नहीं इस बारे में थोड़ा असमंजस है, इसलिए न चाहते हुए भी केवल लोक-हित की तथा प्राप्त कर्तव्य के निर्वाह की भावना से इसे लिख रहा हूँ ।
इस पर कोई विश्वास करे ही ऐसा मेरा आग्रह भी नहीं है । वर्ष 1997 की 24 जुलाई को मेरे पिताजी का स्वर्गवास हुआ । जिस अस्पताल में उन्हें चिकित्सा के लिए भर्ती किया गया था उसके छोटे से कमरे में अर्धनिद्रा की स्थिति में सोया हुआ मैं सुबह के साढ़े चार बजे स्वप्न देख रहा था । मैंने देखा कि स्वप्न में उसी कमरे में एक पतला बारीक चमकदार सर्प कहीं से आया और देखते ही देखते आँखों से लुप्त हो गया । मेरे स्वप्न में ही, मैं कमरे में खड़ा हो गया और उस समय वही लुंगी मैंने पहन रखी थी जिसे पहनकर सो रहा था । फिर मुझे शंका हुई कि सर्प मेरी लुंगी में जाकर तो नहीं छिप गया, तो मैं तुरंत लुंगी उतारने लगा । तभी एक आवाज से मेरी नींद खुली । पिताजी अंतिम साँसें ले रहे थे और किसी ने मुझे जगाकर कहा, अरे देखो तो विनय,...। मैं उठ खड़ा हुआ और पिता की शैया के पास गया । फिर जाकर पास के कमरे से नर्स को बुलाया, जिसने ब्लड-प्रेशर चेक कर निराशा प्रकट करते हुए मुख-मुद्रा से संकेत दिया कि वे शान्त हो चुके हैं । चूँकि वे सतत जप में संलग्न रहते थे और उनकी मनोदशा जानने के लिए उनकी बेहोशी / निद्रा जैसी स्थिति में उनकी उंगलियों की गतिविधि से मैंने अनुमान लगाया था कि वे मन ही मन ’जप’ कर रहे हैं इसलिए अपने अनुमान की सत्यता की परीक्षा के लिए मैंने उन्हें एक डोरी दी तो उनकी उंगलियाँ तुरंत ही उस डोरी के टुकड़े पर जपमाला की तरह चलने लगीं थीं । फिर हमने घर से उनकी जपमाला लाकर उन्हें दी । इसके दो दिन बाद ही वे चले गये थे । मैं बस उनकी अंत्येष्टि में और श्राद्ध के अंतिम दिन की ही विधि में जा पाया था । उनकी मृत्यु होने के बाद अनेक बार वे मुझे स्वप्न में दिखाई देते रहे । लगभग हर बार मुझे ध्यान रहता था कि उनकी मृत्यु हो चुकी है और उनका दाह-संस्कार भी हो चुका है, (इसलिए भी) उनसे मैं जिस ’लोक’ में मिल रहा हूँ वह मृत्युलोक नहीं है । चूँकि उनकी मृत्यु से बरसों पहले मैं अपने स्वर्गीय नानाजी से भी इसी प्रकार से मिल चुका था, जिन्होंने बिना आवाज किए हँसते-हँसते मुझसे कहा था : ’यहाँ मैं बिलकुल ठीक हूँ’, इसलिए मुझे अपने पिता से अपनी इन मुलाक़ातों के बारे में कोई शंका नहीं होती थी । नींद से जागने पर थोड़ा आश्चर्य ज़रूर होता था ।
वर्ष 2014 के अगस्त की 25 तारीख को मेरी माताजी भी दिवंगत हो गई, और थोड़े आश्चर्य की बात कि उनकी मृत्यु के बाद वे मुझे स्वप्न में कभी-कभी दिखाई देती थी और तब भी मुझे स्मरण रहता था कि उनका निधन हो चुका है । इस बारे में यहाँ देखें । किंतु यह भी सच है कि माताजी प्रायः प्रसन्न और संतुष्ट दिखलाई देती थी । उनकी मृत्यु होने के बाद उनकी अंत्येष्टि के समय मुझे जो अनुभव प्राप्त हुआ उसे यहाँ लिखना अनावश्यक है, किंतु उससे भी मुझे स्पष्ट हो गया कि मेरे पिता की आत्मा क्यों अतृप्त रहकर भटक रही थी जबकि माताजी की आत्मा पूर्णतः शांत और प्रसन्न भी थी ।
पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मेरा भाई और मेरे जीजाजी उनकी अस्थियाँ लेकर नर्मदा किनारे गए थे और वहीं उनका विसर्जन कर दिया था ।
पिता की मृत्यु के बाद वे मुझे अनेक बार दिखाई दिये किन्तु अंतिम बार वे बहुत त्रस्त जान पड़े । उस अंधेरे लोक में उन्होंने मुझसे बस इतना कहा :
’गुलाब मुझे यहाँ ले आया ।’
मुझे पता है कि गुलाब कौन / क्या है, किंतु यहाँ इस बारे में नहीं लिखना है ।
दो-तीन दिन इस बारे में सोचता रहा और तीसरे दिन एक ख़याल आया ।
’नियति’ इस जुलाई (2016) में किन्हीं कारणों से मुझे नर्मदा किनारे उसी घाट के समीप ले आई जहाँ लोग श्राद्धकर्म किया करते हैं । जहाँ मेरे पिता की अस्थियाँ विसर्जित की गईं थीं ।
अगले दिन मैं दोपहर को घाट पर गया, घाट पर स्थित फूल की दुकान से दो गुलाब के फूल लिए, पिता का ध्यान किया तो तत्क्षण वे वहाँ उपस्थित थे । एक फूल मैंने उन्हें दिया और उनसे अपनी मातृभाषा में कहा :
"यह लीजिए गुलाब! यह आपको ’माई’ के पास ले जाएगा और आप ’माई’ की शरण में चले जाएँगे, वहीं आपकी सद्गति होगी ।"
वैसे तो ’माई’ से मेरा आशय ’नर्मदा-माई’ था किंतु अचानक ध्यान आया कि अपनी स्वर्गीय माँ को हम ’माई’ ही कहते थे ।
इसके कुछ दिनों बाद पुनः एक स्वप्न आया जिसमें मेरे माता-पिता साथ थे । माताजी थोड़ी दूर खड़ी शांत प्रसन्न मुख से मुझे देख रही थीं और पिताजी पास ही एक चौकोर, कुर्सी जैसे पत्थर पर आराम से बैठे संतुष्ट दिखाई दे रहे थे ।
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यह वृत्तांत मैं शायद ही लिखता, क्योंकि एक तो यह नितांत वैयक्तिक है दूसरे इसका किसी दूसरे से कोई संबंध भी नहीं है, किंतु आज सुबह के एक स्वप्न ने मुझे इसे लिखने के लिए बाध्य कर दिया ।
मैं जिस बैंक में कार्य करता था वहाँ के मेरे एक अधिकारी की मृत्यु मार्च 2006 में हुई थी । उनका मुझ पर विशेष स्नेह था । आज सुबह स्वप्न में मैं अपने किसी ’घर’ में बैठा ’ध्यानयोग’ की कोई पुस्तक पढ़ रहा था कि वे सुनील नामक एक दूसरे बैंक-अधिकारी / कर्मचारी के साथ मेरे ’घर’ आए । वह समय था ’बैंक’ खुलने का । मैंने उनसे बैठने के लिए कहा और पिछले कमरे में जाकर गिलास ढूँढने लगा ताकि उन्हें जल दे सकूँ जैसा कि हम घर पर आनेवाले को प्रायः देते हैं । घर में अंधेरा था इसलिए मैंने सोचा कि बाहर के कमरे का दरवाजा खोलूँ, तो वे बोले : ’नहीं उसे बन्द ही रहने दो’। फिर जब मैं गिलास ढूँढने लगा तो मुझे शीशे के चार गिलास, -दो छोटे, और दो बड़े दिखलाई दिए और मैं सोच ही रहा था कि इन्हें धोकर साफ़ कर लूँ, कि मेरी नींद खुल गई ।
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उठते ही सोचने लगा कि इस स्वप्न का क्या अर्थ और प्रयोजन है?
अभी बस सोच ही रहा हूँ ।
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कल ही विनायक रजत का ’नारी’ पर लिखा लेख पढ़ा था जिसमें वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड के सर्ग 29 के श्लोक 18 को पढ़ते ही ध्यान आया था कि जल का एक नाम ’नारा’ भी है, जिसका उल्लेख करना श्री विनायक रजत भूल गए थे । नृ > नारा > नारायण, नर / नारी .....। जल के बिना किसी भी प्रकार का धार्मिक आध्यात्मिक कार्य अधूरा रहता है । संदर्भित श्लोक में यही कहा गया है कि कन्या का पिता ’जल’ के माध्यम से कन्या का हाथ वर को सौंपता है और इसके बाद उस कन्या / नारी का संपूर्ण दायित्व वर के उस कुल पर होता है । दो दिन पूर्व ही किसी ’प्रगतिशील’ ’मुक्त-सोच’ वाली नारी का लेख भी पढ़ा था जिसमें ’यौन-तुष्टि’ को ही विवाह का एकमात्र आधार / प्रयोजन कहकर मनुष्य को बन्दर के समकक्ष रखा गया था । उन भगिनी (तथा और भी अनेक बुद्धिजीवी भौतिकवादी, वेद-विरोधी ...) को संभवतः कल्पना भी नहीं है कि वेद-धर्म के अनुसार ’विवाह’ का आधार वर्णाश्रम-धर्म और ’कुल’ की शुद्धता को अक्षुण्ण रखना है । ’यौन-प्रवृत्ति’ की संतुष्टि तो गौण तक नहीं है । किंतु वेद किसी पर अपनी दृष्टि थोपता भी नहीं । वेद सिर्फ़ ’विधि’, ’धर्म’ और ’अधर्म’ क्या है, शुभ-अशुभ कर्म और उनके शुभ-अशुभ परिणामों के बारे में स्पष्ट करता है और मनुष्य के लिए क्या कर्तव्य है जिसके करने से उसे श्रेयस्कर की प्राप्ति होगी, यह भी ।
अर्जुन ने गीता में यही प्रश्न भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा था कि कुल-परंपरा नष्ट हो जाने से ....
किंतु भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा :
"ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य में प्रवृत्त होता है..."
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वैदिक ज्यौतिषीय 'सिद्धांत' के अनुसार 'पितृ-पक्ष' वह चंद्र मासार्ध है जब दिवंगत आत्माएँ मृत्युलोक में आकर अपने परिजनों से स्वधा (तर्पण) स्वीकार करती हैं । चूँकि सूर्य (अर्यमा) पितृलोक का अधिष्ठाता देवता है, और चन्द्र जल तथा मन का, इसलिए इस विशिष्ट पक्ष में, जो वर्षार्ध का अंतिम पक्ष तथा शारदीय नवरात्र के पहले आने वाला समय है, सभी दिवंगत आत्माओं से संपर्क सरलता से किया जा सकता है । जरूरी नहीं कि वैदिक मंत्रों तथा विधि से ही श्राद्ध का अनुष्ठान किया जाए, किन्तु जल अपरिहार्यतः आवश्यक है । सूर्य (अर्यमा) को जल अर्पित करें, फिर दिवंगत आत्मा स्मरण, ध्यान और आवाहन करें और जैसे सूर्य को जल चढ़ाते हैं ही उस आत्मा को जल चढ़ायें । यदि संभव हो तो यह कार्य नदी-तट या सरोवर समीप करें ।
उत्-(घञ्) > क > उदक: / उदकं ।
'उदक' अर्थात् जल स्वयं पतित होकर भी उस आत्मा को ऊपर उठा देता, श्रेष्ठतर स्थिति देता है ।
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