वेताल-कथा / निष्ठा और संकल्प
विक्रमार्क ने हठ नहीं छोड़ा ।
वह पेड़ के पास गया... पेड़ पर स्थित शव को कंधे पर रखकर जब वह गुरु की कुटी की ओर जाने लगा तो शव में स्थित वेताल ने उससे कहा !
राजन् ! संकल्प तुम्हारी प्रकृति में वैसे ही है जैसे जल और वायु में प्रवाह होता है । जल और वायु का प्रवाह बाह्य स्थितियों के अनुकूल या प्रतिकूल होने से तीव्र अथवा क्षीण होता है किंतु तुम्हारा संकल्प किसी भी बाह्य स्थिति से प्रभावित नहीं होता ।
तुम्हारे संकल्प से तुम्हें अनायास ही इतनी शक्ति प्राप्त होती है जिससे तुम्हारे कर्म में आनेवाली बाधाओं को तुम सरलता से समाप्त कर देते हो ।
किंतु मनुष्य में संकल्प का बल भी निष्ठा के अनुसार ही हुआ करता है । तुम्हारे श्रम की थकान से निवृत्ति के लिए यह कथा ध्यानपूर्वक सुनो !
किसी ब्रह्मा के किसी कल्प में, किसी युग में, किसी मन्वन्तर में, पृथ्वी पर राजा हारीत नामक राजा राज्य करते थे । उनकी निष्ठा कर्म में थी और धर्म का तत्व जानते हुए वे सांख्य-धर्म की अपनी निष्ठा से प्रेरित होकर निष्काम-भाव से, प्रमादरहित होकर, शास्त्र-विहित कर्मों का अनुष्ठान किया करते थे । संक्षेप में; प्रजा की रक्षा करना और सबके लिए हितकारी अपने कर्तव्यों का समुचित पालन करना । उनके धर्मव्रत नामक एक गुरु थे जो कुल से ही उनके राजपुरोहित भी थे । उनकी अनुमति से वे अपने कर्तव्यों का सावधानी से पालन करते थे । कहना न होगा कि उनके राज्य में प्रजा सुखी थी और सभी की प्रवृत्ति अपने अपने वर्णाश्रम-धर्म या अवर्ण-धर्म के सम्यक् पालन में दृढ रहती थी ।
राजपुरोहित धर्मव्रत भी धर्म-अधर्म के तत्व और भेद को भलीभांति जानते थे । और राजा हारीत को समय के अनुसार उचित मार्गदर्शन देते रहते थे ।
उनकी तीन पत्नियाँ थीं यद्यपि तीनों ही पतिव्रता थीं किंतु उनकी निष्ठा भिन्न-भिन्न प्रकृति की होने से उनका संकल्प भिन्न-भिन्न प्रकार का था ।
सुमति नामक उनकी पहली पत्नी की निष्ठा व्रतों के अनुष्ठान में थी, और वह निर्जला एकादशी के व्रत का अनुष्ठान नियमपूर्वक करती थी ।
सुरुचि नामक उनकी दूसरी पत्नी की निष्ठा निर्जरा व्रत के प्रति थी इसलिए वह पापों और संस्कारों के निवारण के लिए अभ्यास-योग में संलग्न रहती थी ।
सुनीति नामक उनकी तीसरी पत्नी की निष्ठा अन्तर्मन से निरंतर आनेवाली अन्तर्दृष्टि के प्रति थी और वह निर्झरा व्रत का पालन करती थी ।
राजपुरोहित धर्मव्रत उन तीनों के प्रति समान स्नेह रखते थे और उनकी निष्ठा को किसी प्रकार से विचलित नहीं होने देते थे ।
संयोग की बात कि बहुत वृद्ध हो जाने के बाद एक ही तिथि और एक ही दिन, उनके देहत्याग करने का समय आ गया ।
धर्मव्रत ने राजा हारीत को अपना तथा तीनों पत्नियों का देहावसान होने के बारे में बहुत पहले से ही सूचित कर रखा था ताकि उनकी देह की अन्त्येष्टि की व्यवस्था राजा यथाविधि कर सके ।
राजपुरोहित पद्मासनस्थ धर्मव्रत के शव के लिए तो राजा हारीत ने समाधि के लिए पहले से निर्धारित भूमि पर निर्माण कार्य कर रखा था और विधिपूर्वक उन्हें भूमि-समाधि दी गई ।
सुमति को जल-समाधि दी गई और उसका शव किसी तीर्थ में विसर्जित कर दिया गया ।
सुरुचि का अंतिम संस्कार श्मशान में ले जाकर दाह-संस्कार के रूप में किया गया ।
जबकि सुनीति के शव को धर्मव्रत की समाधि के समीप भूमि में समाधि दी गई ।
राजन् मैं राजा हारीत का मंत्री था, -मेरा नाम मान्यवर था, और इन सब कार्यों की देखरेख मैंने ही की थी । किंतु इन चारों का अंतिम संस्कार भिन्न-भिन्न रीति से क्यों हुआ यह मुझे कभी स्पष्ट न हो सका ।
और जब मैंने राजा हारीत से इस विषय में एक बार प्रश्न किया था, तो उन्होंने मुझसे संक्षेप में इतना ही कहा :
"राजा विक्रमार्क ही तुम्हारी शंका का समाधान करेंगे ।"
तब मैंने इस बारे में विशेष विचार नहीं किया किंतु आज तुम्हारे आते ही मुझे अपना वह संकल्प याद आ गया ।
हे राजन्! यदि तुमने जानते हुए भी मेरी इस शंका का निवारण नहीं किया तो ....."
तब विक्रमार्क ने उत्तर देते हुए कहा :
"हे मान्यवर! धर्मव्रत उनके नाम के अनुसार अपने स्वाभाविक धर्म का आचरण अनायास ही करते थे और उनके आत्म-ज्ञानी और जीवन्मुक्त होने के बारे में प्रश्न ही नहीं उठता । स्व-इच्छा, ईश्वरेच्छा, परेच्छा या अनिच्छा से भी वे धर्म से विचलित नहीं होते थे और आयु क्षीण होने तक प्रारब्ध का उपभोग करते रहे ।
सुमति को जल-समाधि दी गई क्योंकि जल में विलीन होकर उसने अपने इष्ट नारायण से सायुज्य प्राप्त कर लिया ।
सुरुचि ने जीवन भर अपने पूर्व संस्कारों और कर्म-समुच्चय का प्रक्षालन किया और मृत्यु होने तक शुद्ध निरंजन आत्म-स्वरूप में स्थित हो सकी इसलिए उसे अग्नि को समर्पित कर दिया गया ।
सुनीति उस चेतना से एकाकार हो गई जो अविरल अजस्र निर्झर के रूप में अस्तित्व में सर्वत्र सनातन रूप से, चिरंतन रूप से नित्य प्रवाहित है । और इसलिए उसे भूमि में समाधि दी गई ।
विक्रमार्क का उत्तर पूर्ण होते ही मान्यवर ने उसे प्रणाम किया और शव को छोड़कर अनंत यात्रा पर उड़ चला ।
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विक्रमार्क ने हठ नहीं छोड़ा ।
वह पेड़ के पास गया... पेड़ पर स्थित शव को कंधे पर रखकर जब वह गुरु की कुटी की ओर जाने लगा तो शव में स्थित वेताल ने उससे कहा !
राजन् ! संकल्प तुम्हारी प्रकृति में वैसे ही है जैसे जल और वायु में प्रवाह होता है । जल और वायु का प्रवाह बाह्य स्थितियों के अनुकूल या प्रतिकूल होने से तीव्र अथवा क्षीण होता है किंतु तुम्हारा संकल्प किसी भी बाह्य स्थिति से प्रभावित नहीं होता ।
तुम्हारे संकल्प से तुम्हें अनायास ही इतनी शक्ति प्राप्त होती है जिससे तुम्हारे कर्म में आनेवाली बाधाओं को तुम सरलता से समाप्त कर देते हो ।
किंतु मनुष्य में संकल्प का बल भी निष्ठा के अनुसार ही हुआ करता है । तुम्हारे श्रम की थकान से निवृत्ति के लिए यह कथा ध्यानपूर्वक सुनो !
किसी ब्रह्मा के किसी कल्प में, किसी युग में, किसी मन्वन्तर में, पृथ्वी पर राजा हारीत नामक राजा राज्य करते थे । उनकी निष्ठा कर्म में थी और धर्म का तत्व जानते हुए वे सांख्य-धर्म की अपनी निष्ठा से प्रेरित होकर निष्काम-भाव से, प्रमादरहित होकर, शास्त्र-विहित कर्मों का अनुष्ठान किया करते थे । संक्षेप में; प्रजा की रक्षा करना और सबके लिए हितकारी अपने कर्तव्यों का समुचित पालन करना । उनके धर्मव्रत नामक एक गुरु थे जो कुल से ही उनके राजपुरोहित भी थे । उनकी अनुमति से वे अपने कर्तव्यों का सावधानी से पालन करते थे । कहना न होगा कि उनके राज्य में प्रजा सुखी थी और सभी की प्रवृत्ति अपने अपने वर्णाश्रम-धर्म या अवर्ण-धर्म के सम्यक् पालन में दृढ रहती थी ।
राजपुरोहित धर्मव्रत भी धर्म-अधर्म के तत्व और भेद को भलीभांति जानते थे । और राजा हारीत को समय के अनुसार उचित मार्गदर्शन देते रहते थे ।
उनकी तीन पत्नियाँ थीं यद्यपि तीनों ही पतिव्रता थीं किंतु उनकी निष्ठा भिन्न-भिन्न प्रकृति की होने से उनका संकल्प भिन्न-भिन्न प्रकार का था ।
सुमति नामक उनकी पहली पत्नी की निष्ठा व्रतों के अनुष्ठान में थी, और वह निर्जला एकादशी के व्रत का अनुष्ठान नियमपूर्वक करती थी ।
सुरुचि नामक उनकी दूसरी पत्नी की निष्ठा निर्जरा व्रत के प्रति थी इसलिए वह पापों और संस्कारों के निवारण के लिए अभ्यास-योग में संलग्न रहती थी ।
सुनीति नामक उनकी तीसरी पत्नी की निष्ठा अन्तर्मन से निरंतर आनेवाली अन्तर्दृष्टि के प्रति थी और वह निर्झरा व्रत का पालन करती थी ।
राजपुरोहित धर्मव्रत उन तीनों के प्रति समान स्नेह रखते थे और उनकी निष्ठा को किसी प्रकार से विचलित नहीं होने देते थे ।
संयोग की बात कि बहुत वृद्ध हो जाने के बाद एक ही तिथि और एक ही दिन, उनके देहत्याग करने का समय आ गया ।
धर्मव्रत ने राजा हारीत को अपना तथा तीनों पत्नियों का देहावसान होने के बारे में बहुत पहले से ही सूचित कर रखा था ताकि उनकी देह की अन्त्येष्टि की व्यवस्था राजा यथाविधि कर सके ।
राजपुरोहित पद्मासनस्थ धर्मव्रत के शव के लिए तो राजा हारीत ने समाधि के लिए पहले से निर्धारित भूमि पर निर्माण कार्य कर रखा था और विधिपूर्वक उन्हें भूमि-समाधि दी गई ।
सुमति को जल-समाधि दी गई और उसका शव किसी तीर्थ में विसर्जित कर दिया गया ।
सुरुचि का अंतिम संस्कार श्मशान में ले जाकर दाह-संस्कार के रूप में किया गया ।
जबकि सुनीति के शव को धर्मव्रत की समाधि के समीप भूमि में समाधि दी गई ।
राजन् मैं राजा हारीत का मंत्री था, -मेरा नाम मान्यवर था, और इन सब कार्यों की देखरेख मैंने ही की थी । किंतु इन चारों का अंतिम संस्कार भिन्न-भिन्न रीति से क्यों हुआ यह मुझे कभी स्पष्ट न हो सका ।
और जब मैंने राजा हारीत से इस विषय में एक बार प्रश्न किया था, तो उन्होंने मुझसे संक्षेप में इतना ही कहा :
"राजा विक्रमार्क ही तुम्हारी शंका का समाधान करेंगे ।"
तब मैंने इस बारे में विशेष विचार नहीं किया किंतु आज तुम्हारे आते ही मुझे अपना वह संकल्प याद आ गया ।
हे राजन्! यदि तुमने जानते हुए भी मेरी इस शंका का निवारण नहीं किया तो ....."
तब विक्रमार्क ने उत्तर देते हुए कहा :
"हे मान्यवर! धर्मव्रत उनके नाम के अनुसार अपने स्वाभाविक धर्म का आचरण अनायास ही करते थे और उनके आत्म-ज्ञानी और जीवन्मुक्त होने के बारे में प्रश्न ही नहीं उठता । स्व-इच्छा, ईश्वरेच्छा, परेच्छा या अनिच्छा से भी वे धर्म से विचलित नहीं होते थे और आयु क्षीण होने तक प्रारब्ध का उपभोग करते रहे ।
सुमति को जल-समाधि दी गई क्योंकि जल में विलीन होकर उसने अपने इष्ट नारायण से सायुज्य प्राप्त कर लिया ।
सुरुचि ने जीवन भर अपने पूर्व संस्कारों और कर्म-समुच्चय का प्रक्षालन किया और मृत्यु होने तक शुद्ध निरंजन आत्म-स्वरूप में स्थित हो सकी इसलिए उसे अग्नि को समर्पित कर दिया गया ।
सुनीति उस चेतना से एकाकार हो गई जो अविरल अजस्र निर्झर के रूप में अस्तित्व में सर्वत्र सनातन रूप से, चिरंतन रूप से नित्य प्रवाहित है । और इसलिए उसे भूमि में समाधि दी गई ।
विक्रमार्क का उत्तर पूर्ण होते ही मान्यवर ने उसे प्रणाम किया और शव को छोड़कर अनंत यात्रा पर उड़ चला ।
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