मन पर बुद्धि की विजय ?
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क्या ’मन’ और ’बुद्धि’ एक दूसरे से भिन्न दो अलग-अलग ’स्वतन्त्र’ तत्व हैं ?
क्या ’मन’ के बिना ’बुद्धि’ का अस्तित्व संभव है?
क्या ’बुद्धिरहित मन’ जैसा कोई ’मन’ हो, यह हो सकता है?
क्या आपका प्रश्न अपने-आप में त्रुटिरहित है?
उदाहरण के लिए मन / बुद्धि और शरीर परस्पर एक दूसरे से भिन्न दो अलग-अलग ’स्वतन्त्र’ तत्व हैं, क्योंकि स्पष्ट है कि मन / बुद्धि ही शरीर (और संसार) को 'जानता' है, या मन/ बुद्धि से ही शरीर (और संसार) को ’जाना’ जाता है । किन्तु क्या शरीर ’मन / ’बुद्धि’ को जानता / जान सकता होगा? जो भी हो, ’जानने’ में मन / बुद्धि ’जानने’ के विषय हैं । मन / बुद्धि के लिए शरीर (और संसार) ’जानने’ का विषय है । इस प्रकार ’मन’ तथा ’बुद्धि’ यद्यपि दो भिन्न वस्तुओं जैसे प्रतीत होते हैं किंतु ध्यान से देखने से स्पष्ट हो जाता है कि वे एक ही वस्तु के दो नाम / रूप हैं ।
’जिसे मन जानता है वह नहीं, बल्कि 'जिससे' मन को जाना जाता है वह ब्रह्म है ।’ -उपनिषद्
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क्या ’मन’ और ’बुद्धि’ एक दूसरे से भिन्न दो अलग-अलग ’स्वतन्त्र’ तत्व हैं ?
क्या ’मन’ के बिना ’बुद्धि’ का अस्तित्व संभव है?
क्या ’बुद्धिरहित मन’ जैसा कोई ’मन’ हो, यह हो सकता है?
क्या आपका प्रश्न अपने-आप में त्रुटिरहित है?
उदाहरण के लिए मन / बुद्धि और शरीर परस्पर एक दूसरे से भिन्न दो अलग-अलग ’स्वतन्त्र’ तत्व हैं, क्योंकि स्पष्ट है कि मन / बुद्धि ही शरीर (और संसार) को 'जानता' है, या मन/ बुद्धि से ही शरीर (और संसार) को ’जाना’ जाता है । किन्तु क्या शरीर ’मन / ’बुद्धि’ को जानता / जान सकता होगा? जो भी हो, ’जानने’ में मन / बुद्धि ’जानने’ के विषय हैं । मन / बुद्धि के लिए शरीर (और संसार) ’जानने’ का विषय है । इस प्रकार ’मन’ तथा ’बुद्धि’ यद्यपि दो भिन्न वस्तुओं जैसे प्रतीत होते हैं किंतु ध्यान से देखने से स्पष्ट हो जाता है कि वे एक ही वस्तु के दो नाम / रूप हैं ।
’जिसे मन जानता है वह नहीं, बल्कि 'जिससे' मन को जाना जाता है वह ब्रह्म है ।’ -उपनिषद्
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