Monday, 26 September 2016

मन को वश में करने के उपाय

मन को वश में करने के उपाय
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बचपन में जब मैं क़रीब 15 साल का था इस शीर्षक की एक पुस्तक मेरे घर में रखी थी जिसे पिताजी कभी-कभी पढ़ते थे ।
मैंने भी उस पुस्तक को कई बार पढ़ा था और किसी हद तक उससे प्रभावित भी था ।
प्रायः बचपन से ही हर किसी का ऐसे साहित्य से सामना होना आम बात है । हाँ कुछ लोग इसकी उपेक्षा कर देते हैं जबकि कुछ इसमें रुचि लेने लगते हैं । कुछ तो इसमें इतने रम जाते हैं कि गंभीरतापूर्वक इस बारे में सोचने लगते हैं । मैं भी इस पुस्तक से प्रभावित होकर सोचने लगा था कि मन का सुधार करना कैसे करें ? इस पुस्तक में अनेक उपाय बतलाये गये थे जिनमें ’ध्यान’, ’जप’, पूजा-पाठ, प्राणायाम, आहार और आचार-विचार से संबंधित अनेक बातें विस्तार से, और अधिकारपूर्वक समझाईं  गई थीं किंतु इस प्रश्न का उत्तर कहीं नहीं दिया गया था कि मन का सुधार करनेवाला क्या मन से भिन्न है?  ’ध्यान’, ’जप’, पूजा-पाठ, प्राणायाम, आहार और आचार-विचार से हो सकता है कि मन अधिक सूक्ष्म एकाग्र और शायद शुद्ध तथा सरल हो जाए पर वह सब मन को वश में करने में कितना सहायक हो सकता है, यह भी देखना होगा । जैसे जब हम किसी बिगड़ी हुई वस्तु का सुधार करते हैं तो स्पष्ट है कि वह वस्तु हमसे भिन्न और पृथक् होती है । किंतु इस प्रकार के किसी सुधार का प्रयास ’मन’ को एक वस्तु मानकर उस रूप में मन के लिए किया जाना क्या संभव है? क्या सुधार करनेवाला मन और जिसका सुधार किया जाना अपेक्षित है वह, मनुष्य में क्या ऐसे दो मन हुआ करते हैं ? मनुष्य अपने शरीर को एक हद तक सुधार सकता है किंतु जिसे मन कहा जाता है, क्या उसे भी इस प्रकार से सुधारा जाना संभव है?
उन्हीं दिनों मुझे शतरंज सीखने का अवसर मिला और कोई और साथी न मिलने पर कभी-कभी मैंने अकेले ही अपने-आपसे (?) खेलने की क़ोशिश भी की थी ।  मुझे जल्दी ही समझ में आ गया कि यह बहुत मुश्किल है । इसकी तुलना मैंने ’पैशन्स’ (कार्ड-गेम) से की, और समझ में आया कि उसमें एक अदृश्य खिलाड़ी होता है जिससे हम खेलते हैं, जबकि शतरंज में ऐसा खिलाड़ी या तो कोई दूसरा मेरे जैसा मनुष्य, या शायद कंप्यूटर ही हो सकता है । ’सुडोकू’ या बहुत से ’ब्रैन-टीज़र्स’ भी ऐसे ही  होते हैं । किंतु ज़रूरी नहीं कि ऐसे गेम्स ही मन को व्यस्त रखते हों । प्रायः ही मन स्वयं ही अपने-आपको विभाजित कर स्वयं से खेलता या लड़ता-झगड़ता भी रहता है । और थक जाने पर वही मन कहता है : ’मैं बहुत दुविधा में हूँ ।’ ऐसा कहनेवाला मन, क्या मन का ही कोई तीसरा रूप नहीं होता? वे दो रूप भी, जो परस्पर खेल रहे थे, या झगड़ रहे थे, बहस कर रहे थे, एक ही मन के दो रूप नहीं होते?
मन को वश में करना क्या ऐसा ही एक खेल, प्रयास, या विचारमात्र नहीं होता?
किंतु हमें (या मन को?) कल्पना तक नहीं होती कि हमारे प्रश्न में ही भूल है ।
हम कितना भी चिन्तन (अर्थात् विचार) कर लें, जब तक मन को वश में करने, उसे जीतने या हराने के लिए प्रयत्न कर रहे होते हैं, ऐसा संकल्प कर लेते हैं तब तक मन ही स्वयं को दो हिस्सों में बाँटकर यह सब किया करता है । विचार स्वयं मन है ही विचार जिसे सुधारने / बदलने बात करता  है,वह भी मन ही तो होता है ।  और ऐसा कोई भी प्रयास अपने-आपमें एक भ्रान्ति ही है ।  यही मूल विभ्रम है जिससे मन असावधानी / प्रमाद के कारण ग्रस्त हो जाता है और स्वयं ही स्वयं पर विजय पाने का स्वप्न देखने लगता है, कल्पना करने लगता है । इस विभ्रम को ध्यान से देख और समझ लिए जाने पर मन को वश में करने, या इसके लिए कोई उपाय करने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है ।
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The mind-Control :  How to control the mind 
In my childhood days, when I was about 15 years of age, We had a book in Hind titled :
मन को वश में करने के उपाय , which my father used to read sometimes. I don't know if except me and my father, any of my sisters and my younger brother might have read this book.
I too had gone through the book several times, but as I was not of a mature mind could not grasp well the text; its purpose and context. Though I started thinking in terms of the apparent meaning.
This book was of a spiritual kind and in our society and tradition we often end-up mixing the spirituality with religion, this was no exception. The purpose it stated was, a help in attaining 'God-Realization', and that required maturity, purity and kind of great efforts of mind. The book suggested that controlling the mind, the senses and the thoughts was the essentials to get at that stage of that maturity, and purity of mind.
I too was influenced to a great extent by the teachings and the techniques / methods / ways described there-in that the book said will help in controlling the mind. And these methods included chanting the names / mantra, glory of God, ’जप’, मंत्रजप,  meditations of various kinds, easy and difficult - ’ध्यान’, breath-control - प्राणायाम, worshiping the images in the ritual way - पूजा-पाठ, directions for taking right kind of foods and developing other habits conducive to make the mind still, one-pointed, pure and subtle.
Though this all was narrated in great details and simple language, I could not find the answer to my question there, that kept coming to my mind repeatedly.
All I wanted to know was the answer to my question :
"Are there two minds in man?"
Are there two minds in man, one controlling the other?
I shall presently try to explain what I meant by this.
When we talk of controlling and making something right, orderly, when we try improving, changing a thing, we are very clear that the thing we are going to control, repair, reform, reconstruct, is different and distinct from the one that is going to exercise his effort in bringing up the desired change.
One can control one's body, habits, manners up-to a certain extent and that takes place by routine exercise. Could we apply the same logic in control of mind also?
During those days I was a high-school student and had newly learnt how to play chess. I often missed some-one who could play with me this game. So I tried to see if I could play this with myself.
And this attempt was soon seen by me, as a ridiculous idea, not foolish, but absurd.
Because I was both the players and this meant I was trying to engage in a duel with myself.
And this took no time to discard the idea.
In those very days, I discovered the 'passions', -the card-game. And I saw I can play this for long hours.
Then I thought, why couldn't I do this while playing the chess?
And at once I realized, there is (∃) another player, overt or covert while I play 'passions'.
Is there such a rival / competitor when I deal with 'mind'?
The same reasoning helped me understand how in 'sudoku' and / or various 'brain-teasers' play the same trick. A thinker creates in his imagination another player who shares the same set of information that is there 'stored-up' in brain, what we call 'memory'.
This kind of 'thinking', literally 'in a box' can never take you to an answer 'out of the box'.
And I at once realized the absurdity of all mathematics, science and Philosophy.
But every-one without almost no exception falls prey to this kind of 'thinking'.
सांख्य-दर्शन  sāṃkhya-darśana based on 'Reasoning' suggests us logic can never take you beyond the 'known'. दर्शन / darśana is in fact 'reasoning', 'thinking out of the box'. Translating दर्शन / darśana as 'Philosophy' is a misnomer.
The idea of 'Controlling' the mind,... Is it not basically a contradiction?
Thought leads us to fragmentation of mind. And the thinker / subject / (which has no existence apart from thought) and the object (thing) are thus apparently divided into two.
Once this is understood, thought is just discarded. Though thought is very useful in dealing with things of the world, it is but incompetent, even futile, when we use this tool in controlling the 'mind'.
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