Tuesday, 27 September 2016

प्रसंगवश / श्राद्ध क्यों ? -2

प्रसंगवश / श्राद्ध क्यों ? -2
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श्रीमद्भगवद्गीता
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अध्याय 17, श्लोक 4,

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥
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(यजन्ते सात्त्विकाः देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान् भूतगणान् च अन्ये यजन्ते तामसाः जनाः ॥)
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भावार्थ :
सात्त्विक मन-बुद्धि वाले मनुष्य तो देवताओं की उपासना करते हैं, राजस प्रवृत्तिवाले यक्ष और राक्षसों की, तथा तामस प्रवृत्ति से युक्त मनुष्य प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं ।
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अध्याय 9, श्लोक 25,
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।
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(यान्ति देवव्रताः देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनः अपि माम् ॥)
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भावार्थ :
देवताओं की उपासना / पूजा करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं ( अर्थात् मृत्यु के बाद उनके लोक में स्थान पाते हैं), पितरों की उपासना / पूजा करनेवाले पितृलोक में, तथा भूतों की उपासना / पूजा करनेवाले भूतलोक अर्थात् मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरा यजन अर्थात् भक्ति / उपासना, पूजन, आदि करनेवाला मुझे / मेरे ही लोक (धाम) को प्राप्त होता है  ।
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टिप्पणी :
स्पष्ट है कि मृत्यु के अनन्तर किसी मनुष्य की क्या गति होती है, इस बारे में इस श्लोक के आधार से अनुमान लगाया जा सकता है ।
भगवान् श्रीकृष्ण के धाम का वर्णन संक्षेप में अध्याय 8, श्लोक 21 में इस प्रकार से वर्णित किया गया है :
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अध्याय 8, श्लोक 21,

अव्यक्तोऽक्षर इत्याहुस्तमाहुः परमां गतिं ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
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(अव्यक्तः अक्षरः इति उक्तः तम् आहुः परमाम् गतिम् ।
यम् प्राप्य न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम ॥)
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भावार्थ :
अव्यक्त (अर्थात् जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, स्मृति आदि से किसी व्यक्त विषय की भाँति ग्रहण नहीं किया जा सकता, किन्तु इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, स्मृति आदि जो उसके ही व्यक्त रूप हैं और उसके ही द्वारा प्रेरित किए जाने पर अपना अपना कार्य करते हैं), अक्षर अर्थात् अविनाशी, इस प्रकार से (जिस) उस परम गति का वर्णन किया जाता है, जिसे प्राप्त होने के बाद कोई पुनः संसार रूपी दुःख में नहीं जन्म लेता, वह मेरा परम धाम है ।
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Chapter 17, śloka 4,

yajante sāttvikā devān-
yakṣarakṣāṃsi rājasāḥ |
pretānbhūtagaṇāṃś-
cānye yajante tāmasā janāḥ |
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(yajante sāttvikāḥ devān
yakṣarakṣāṃsi rājasāḥ |
pretān bhūtagaṇān ca anye
yajante tāmasāḥ janāḥ ||)
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Meaning :
Those of the sāttvika tendencies worship the spiritual entities of the divine nature, and those of the rājasa tendencies worship spiritual entities like yakṣa and rākṣasa, who possess occult powers. While those having tāmasa tendencies worship the spirits of physical elements, - of the departed souls.
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Note :
Here a reference to the śloka 25 of Chapter 9 is relevant :

Chapter 9, śloka 25,

yānti devavratā devān-
pitr̥̄nyānti pitṛvratāḥ |
bhūtāni yānti bhūtejyā
yānti madyājino:'pi mām |
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(yānti devavratāḥ devān
pitr̥̄n yānti pitṛvratāḥ |
bhūtāni yānti bhūtejyā
yānti madyājinaḥ api mām ||)
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Meaning :
Those who worship spiritual entities of the divine nature (deva, devatā), attain their place (swarga-loka), while those who worship the fore-fathers (pitaras), attain their abode (pitṛloka), Those who worship the physical elements ( bhūta-s / spirits) attain their state of being after the death of this physical body, And those who are devoted to ME attain Me / My abode only.
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Note :
What is śrīkṛṣṇa's abode, He is referring to, by saying 'MY'?
This has been pointed out in 21 of Chapter 8 of this sacred text śrīmadbhagvadgītā, in the following words :
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avyakto:'kṣara ityāhus-
tamāhuḥ paramāṃ gatiṃ |
yaṃ prāpya na nivartante
taddhāma paramaṃ mama ||
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(avyaktaḥ akṣaraḥ iti uktaḥ
tam āhuḥ paramām gatim |
yam prāpya na nivartante
tat dhāma paramam mama ||)
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Meaning :
'Immanent, not manifest, Imperishable, Eternal,...', the Supreme state, that is described in these words, is My abode ultimate, having attained this, no one ever returns (in the world of birth and rebirth of endless misery)
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Note : And though we fail to note the direct instruction given by śrīkṛṣṇa in śrīmadbhagvadgītā, this secret has been clearly and repeatedly, frequently revealed before us, by the sages and Guru-s like śrī ramaṇa maharṣhi and śrī nisargadatta mahārāja.
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उपरोक्त श्लोकों से पूजा और श्राद्ध का अंतर क्या है यह समझा जा सकता है । चूँकि पितर / पितृगण, दिवंगत आत्माएँ हमसे अपेक्षाएँ रखती हैं और उन अपेक्षाओँ के पूर्ण न होने पर अतृप्त रह जाती हैं इसलिए उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्राद्धकर्म का अनुष्ठान (अपनी श्रद्धा हो तो) अवश्य करना चाहिए जबकि स्वयं अपने आध्यात्मिक कल्याण के लिए केवल परमेश्वर की ही उपासना पर्याप्त है । श्राद्धकर्म के अनुष्ठान से उनकी मुक्ति नहीं होती केवल उनके अशुभ कर्मों का क्षय भर होता है और मृत्युलोक से भिन्न उन लोकों में उन्हें क्लेश नहीं उठाने पड़ते ।   
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It is evident from the above passages in Srimad-bhagvadgita that though one should offer the due respects to the departed souls and try to fulfill their wishes, what they might have had expected from us. But for our own spiritual benefit and goal we should worship the Lord Supreme only.
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Monday, 26 September 2016

मन को वश में करने के उपाय

मन को वश में करने के उपाय
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बचपन में जब मैं क़रीब 15 साल का था इस शीर्षक की एक पुस्तक मेरे घर में रखी थी जिसे पिताजी कभी-कभी पढ़ते थे ।
मैंने भी उस पुस्तक को कई बार पढ़ा था और किसी हद तक उससे प्रभावित भी था ।
प्रायः बचपन से ही हर किसी का ऐसे साहित्य से सामना होना आम बात है । हाँ कुछ लोग इसकी उपेक्षा कर देते हैं जबकि कुछ इसमें रुचि लेने लगते हैं । कुछ तो इसमें इतने रम जाते हैं कि गंभीरतापूर्वक इस बारे में सोचने लगते हैं । मैं भी इस पुस्तक से प्रभावित होकर सोचने लगा था कि मन का सुधार करना कैसे करें ? इस पुस्तक में अनेक उपाय बतलाये गये थे जिनमें ’ध्यान’, ’जप’, पूजा-पाठ, प्राणायाम, आहार और आचार-विचार से संबंधित अनेक बातें विस्तार से, और अधिकारपूर्वक समझाईं  गई थीं किंतु इस प्रश्न का उत्तर कहीं नहीं दिया गया था कि मन का सुधार करनेवाला क्या मन से भिन्न है?  ’ध्यान’, ’जप’, पूजा-पाठ, प्राणायाम, आहार और आचार-विचार से हो सकता है कि मन अधिक सूक्ष्म एकाग्र और शायद शुद्ध तथा सरल हो जाए पर वह सब मन को वश में करने में कितना सहायक हो सकता है, यह भी देखना होगा । जैसे जब हम किसी बिगड़ी हुई वस्तु का सुधार करते हैं तो स्पष्ट है कि वह वस्तु हमसे भिन्न और पृथक् होती है । किंतु इस प्रकार के किसी सुधार का प्रयास ’मन’ को एक वस्तु मानकर उस रूप में मन के लिए किया जाना क्या संभव है? क्या सुधार करनेवाला मन और जिसका सुधार किया जाना अपेक्षित है वह, मनुष्य में क्या ऐसे दो मन हुआ करते हैं ? मनुष्य अपने शरीर को एक हद तक सुधार सकता है किंतु जिसे मन कहा जाता है, क्या उसे भी इस प्रकार से सुधारा जाना संभव है?
उन्हीं दिनों मुझे शतरंज सीखने का अवसर मिला और कोई और साथी न मिलने पर कभी-कभी मैंने अकेले ही अपने-आपसे (?) खेलने की क़ोशिश भी की थी ।  मुझे जल्दी ही समझ में आ गया कि यह बहुत मुश्किल है । इसकी तुलना मैंने ’पैशन्स’ (कार्ड-गेम) से की, और समझ में आया कि उसमें एक अदृश्य खिलाड़ी होता है जिससे हम खेलते हैं, जबकि शतरंज में ऐसा खिलाड़ी या तो कोई दूसरा मेरे जैसा मनुष्य, या शायद कंप्यूटर ही हो सकता है । ’सुडोकू’ या बहुत से ’ब्रैन-टीज़र्स’ भी ऐसे ही  होते हैं । किंतु ज़रूरी नहीं कि ऐसे गेम्स ही मन को व्यस्त रखते हों । प्रायः ही मन स्वयं ही अपने-आपको विभाजित कर स्वयं से खेलता या लड़ता-झगड़ता भी रहता है । और थक जाने पर वही मन कहता है : ’मैं बहुत दुविधा में हूँ ।’ ऐसा कहनेवाला मन, क्या मन का ही कोई तीसरा रूप नहीं होता? वे दो रूप भी, जो परस्पर खेल रहे थे, या झगड़ रहे थे, बहस कर रहे थे, एक ही मन के दो रूप नहीं होते?
मन को वश में करना क्या ऐसा ही एक खेल, प्रयास, या विचारमात्र नहीं होता?
किंतु हमें (या मन को?) कल्पना तक नहीं होती कि हमारे प्रश्न में ही भूल है ।
हम कितना भी चिन्तन (अर्थात् विचार) कर लें, जब तक मन को वश में करने, उसे जीतने या हराने के लिए प्रयत्न कर रहे होते हैं, ऐसा संकल्प कर लेते हैं तब तक मन ही स्वयं को दो हिस्सों में बाँटकर यह सब किया करता है । विचार स्वयं मन है ही विचार जिसे सुधारने / बदलने बात करता  है,वह भी मन ही तो होता है ।  और ऐसा कोई भी प्रयास अपने-आपमें एक भ्रान्ति ही है ।  यही मूल विभ्रम है जिससे मन असावधानी / प्रमाद के कारण ग्रस्त हो जाता है और स्वयं ही स्वयं पर विजय पाने का स्वप्न देखने लगता है, कल्पना करने लगता है । इस विभ्रम को ध्यान से देख और समझ लिए जाने पर मन को वश में करने, या इसके लिए कोई उपाय करने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है ।
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The mind-Control :  How to control the mind 
In my childhood days, when I was about 15 years of age, We had a book in Hind titled :
मन को वश में करने के उपाय , which my father used to read sometimes. I don't know if except me and my father, any of my sisters and my younger brother might have read this book.
I too had gone through the book several times, but as I was not of a mature mind could not grasp well the text; its purpose and context. Though I started thinking in terms of the apparent meaning.
This book was of a spiritual kind and in our society and tradition we often end-up mixing the spirituality with religion, this was no exception. The purpose it stated was, a help in attaining 'God-Realization', and that required maturity, purity and kind of great efforts of mind. The book suggested that controlling the mind, the senses and the thoughts was the essentials to get at that stage of that maturity, and purity of mind.
I too was influenced to a great extent by the teachings and the techniques / methods / ways described there-in that the book said will help in controlling the mind. And these methods included chanting the names / mantra, glory of God, ’जप’, मंत्रजप,  meditations of various kinds, easy and difficult - ’ध्यान’, breath-control - प्राणायाम, worshiping the images in the ritual way - पूजा-पाठ, directions for taking right kind of foods and developing other habits conducive to make the mind still, one-pointed, pure and subtle.
Though this all was narrated in great details and simple language, I could not find the answer to my question there, that kept coming to my mind repeatedly.
All I wanted to know was the answer to my question :
"Are there two minds in man?"
Are there two minds in man, one controlling the other?
I shall presently try to explain what I meant by this.
When we talk of controlling and making something right, orderly, when we try improving, changing a thing, we are very clear that the thing we are going to control, repair, reform, reconstruct, is different and distinct from the one that is going to exercise his effort in bringing up the desired change.
One can control one's body, habits, manners up-to a certain extent and that takes place by routine exercise. Could we apply the same logic in control of mind also?
During those days I was a high-school student and had newly learnt how to play chess. I often missed some-one who could play with me this game. So I tried to see if I could play this with myself.
And this attempt was soon seen by me, as a ridiculous idea, not foolish, but absurd.
Because I was both the players and this meant I was trying to engage in a duel with myself.
And this took no time to discard the idea.
In those very days, I discovered the 'passions', -the card-game. And I saw I can play this for long hours.
Then I thought, why couldn't I do this while playing the chess?
And at once I realized, there is (∃) another player, overt or covert while I play 'passions'.
Is there such a rival / competitor when I deal with 'mind'?
The same reasoning helped me understand how in 'sudoku' and / or various 'brain-teasers' play the same trick. A thinker creates in his imagination another player who shares the same set of information that is there 'stored-up' in brain, what we call 'memory'.
This kind of 'thinking', literally 'in a box' can never take you to an answer 'out of the box'.
And I at once realized the absurdity of all mathematics, science and Philosophy.
But every-one without almost no exception falls prey to this kind of 'thinking'.
सांख्य-दर्शन  sāṃkhya-darśana based on 'Reasoning' suggests us logic can never take you beyond the 'known'. दर्शन / darśana is in fact 'reasoning', 'thinking out of the box'. Translating दर्शन / darśana as 'Philosophy' is a misnomer.
The idea of 'Controlling' the mind,... Is it not basically a contradiction?
Thought leads us to fragmentation of mind. And the thinker / subject / (which has no existence apart from thought) and the object (thing) are thus apparently divided into two.
Once this is understood, thought is just discarded. Though thought is very useful in dealing with things of the world, it is but incompetent, even futile, when we use this tool in controlling the 'mind'.
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Saturday, 24 September 2016

प्रासंगिक / श्राद्ध क्यों ?

प्रासंगिक / श्राद्ध क्यों ?
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इस लेख को मैं यथासंभव सरल और संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
इसमें चूँकि कुछ व्यक्तिगत तथ्यों का विवरण है जिन्हें लिखूँ या नहीं इस बारे में थोड़ा असमंजस है, इसलिए न चाहते हुए भी केवल लोक-हित की तथा प्राप्त कर्तव्य के निर्वाह की भावना से इसे लिख रहा हूँ ।
इस पर कोई विश्वास करे ही ऐसा मेरा आग्रह भी नहीं है । वर्ष 1997 की 24 जुलाई को मेरे पिताजी का स्वर्गवास हुआ । जिस अस्पताल में उन्हें चिकित्सा के लिए भर्ती किया गया था उसके छोटे से कमरे में अर्धनिद्रा की स्थिति में सोया हुआ मैं सुबह के साढ़े चार बजे स्वप्न देख रहा था । मैंने देखा कि स्वप्न में उसी कमरे में एक पतला बारीक चमकदार सर्प कहीं से आया और देखते ही देखते आँखों से लुप्त हो गया । मेरे स्वप्न में ही, मैं कमरे में खड़ा हो गया और उस समय वही लुंगी मैंने पहन रखी थी जिसे पहनकर सो रहा था । फिर मुझे शंका हुई कि सर्प मेरी लुंगी में जाकर तो नहीं छिप गया, तो मैं तुरंत लुंगी उतारने लगा । तभी एक आवाज से मेरी नींद खुली । पिताजी अंतिम साँसें ले रहे थे और किसी ने मुझे जगाकर कहा, अरे देखो तो विनय,...। मैं उठ खड़ा हुआ और पिता की शैया के पास गया । फिर जाकर पास के कमरे से नर्स को बुलाया, जिसने ब्लड-प्रेशर चेक कर निराशा प्रकट करते हुए मुख-मुद्रा से संकेत दिया कि वे शान्त हो चुके हैं । चूँकि वे सतत जप में संलग्न रहते थे और उनकी मनोदशा जानने के लिए उनकी बेहोशी / निद्रा जैसी स्थिति में उनकी उंगलियों  की गतिविधि से मैंने अनुमान लगाया था कि वे मन ही मन ’जप’ कर रहे हैं इसलिए अपने अनुमान की सत्यता की परीक्षा के लिए मैंने उन्हें एक डोरी दी तो उनकी उंगलियाँ तुरंत ही उस डोरी के टुकड़े पर जपमाला की तरह चलने लगीं थीं । फिर हमने घर से उनकी जपमाला लाकर उन्हें दी । इसके दो दिन बाद ही वे चले गये थे । मैं बस उनकी अंत्येष्टि में और श्राद्ध के अंतिम दिन की ही विधि में जा पाया था । उनकी मृत्यु होने के बाद अनेक बार वे मुझे स्वप्न में दिखाई देते रहे । लगभग हर बार मुझे ध्यान रहता था कि उनकी मृत्यु हो चुकी है और उनका दाह-संस्कार भी हो चुका है, (इसलिए भी) उनसे मैं जिस ’लोक’ में मिल रहा हूँ वह मृत्युलोक नहीं है । चूँकि उनकी मृत्यु से बरसों पहले मैं अपने स्वर्गीय नानाजी से भी इसी प्रकार से मिल चुका था, जिन्होंने बिना आवाज किए हँसते-हँसते मुझसे कहा था : ’यहाँ मैं बिलकुल ठीक हूँ’, इसलिए मुझे अपने पिता से अपनी इन मुलाक़ातों के बारे में कोई शंका नहीं होती थी । नींद से जागने पर थोड़ा आश्चर्य ज़रूर होता था ।
वर्ष 2014 के अगस्त की 25 तारीख को मेरी माताजी भी दिवंगत हो गई, और थोड़े आश्चर्य की बात कि उनकी मृत्यु के बाद वे मुझे स्वप्न में कभी-कभी दिखाई देती थी और तब भी मुझे स्मरण रहता था कि उनका निधन हो चुका है । इस बारे में यहाँ देखें । किंतु यह भी सच है कि माताजी प्रायः प्रसन्न और संतुष्ट दिखलाई देती थी । उनकी मृत्यु होने के बाद उनकी अंत्येष्टि के समय मुझे जो अनुभव प्राप्त हुआ उसे यहाँ लिखना अनावश्यक है, किंतु उससे भी मुझे स्पष्ट हो गया कि मेरे पिता की आत्मा क्यों अतृप्त रहकर भटक रही थी जबकि माताजी की आत्मा पूर्णतः शांत और प्रसन्न भी थी ।
पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मेरा भाई और मेरे जीजाजी उनकी अस्थियाँ लेकर नर्मदा किनारे गए थे और वहीं उनका विसर्जन कर दिया था ।
पिता की मृत्यु के बाद वे मुझे अनेक बार दिखाई दिये किन्तु अंतिम बार वे बहुत त्रस्त जान पड़े । उस अंधेरे लोक में उन्होंने मुझसे बस इतना कहा :
’गुलाब मुझे यहाँ ले आया ।’
मुझे पता है कि गुलाब कौन / क्या है, किंतु यहाँ इस बारे में नहीं लिखना है ।
दो-तीन दिन इस बारे में सोचता रहा और तीसरे दिन एक ख़याल आया ।
’नियति’ इस जुलाई (2016) में किन्हीं कारणों से मुझे नर्मदा किनारे उसी घाट के समीप ले आई जहाँ लोग श्राद्धकर्म किया करते हैं । जहाँ मेरे पिता की अस्थियाँ विसर्जित की गईं थीं ।
अगले दिन मैं दोपहर को घाट पर गया, घाट पर स्थित फूल की दुकान से दो गुलाब के फूल लिए, पिता का ध्यान किया तो तत्क्षण वे वहाँ उपस्थित थे । एक फूल मैंने उन्हें दिया और उनसे अपनी मातृभाषा में कहा :
"यह लीजिए गुलाब! यह आपको ’माई’ के पास ले जाएगा और आप ’माई’ की शरण में चले जाएँगे, वहीं आपकी सद्गति होगी ।"
वैसे तो ’माई’ से मेरा आशय ’नर्मदा-माई’ था किंतु अचानक ध्यान आया कि अपनी स्वर्गीय माँ को हम ’माई’ ही कहते थे ।
इसके कुछ दिनों बाद पुनः एक स्वप्न आया जिसमें मेरे माता-पिता साथ थे । माताजी थोड़ी दूर खड़ी शांत प्रसन्न मुख से मुझे देख रही थीं और पिताजी पास ही एक चौकोर, कुर्सी जैसे पत्थर पर आराम से बैठे संतुष्ट दिखाई दे रहे थे ।
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यह वृत्तांत मैं शायद ही लिखता, क्योंकि एक तो यह नितांत वैयक्तिक है दूसरे इसका किसी दूसरे से कोई संबंध भी नहीं है, किंतु आज सुबह के एक स्वप्न ने मुझे इसे लिखने के लिए बाध्य कर दिया ।
मैं जिस बैंक में कार्य करता था वहाँ के मेरे एक अधिकारी की मृत्यु मार्च 2006 में हुई थी । उनका मुझ पर विशेष स्नेह था । आज सुबह स्वप्न में मैं अपने किसी ’घर’ में बैठा ’ध्यानयोग’ की कोई पुस्तक पढ़ रहा था कि वे सुनील नामक एक दूसरे बैंक-अधिकारी / कर्मचारी के साथ मेरे ’घर’ आए । वह समय था ’बैंक’ खुलने का । मैंने उनसे बैठने के लिए कहा और पिछले कमरे में जाकर गिलास ढूँढने लगा ताकि उन्हें जल दे सकूँ जैसा कि हम घर पर आनेवाले को प्रायः देते हैं । घर में अंधेरा था इसलिए मैंने सोचा कि बाहर के कमरे का दरवाजा खोलूँ, तो वे बोले : ’नहीं उसे बन्द ही रहने दो’। फिर जब मैं गिलास ढूँढने लगा तो मुझे शीशे के चार गिलास, -दो छोटे, और दो बड़े दिखलाई दिए और मैं सोच ही रहा था कि इन्हें धोकर साफ़ कर लूँ, कि मेरी नींद खुल गई ।
अस्तु ।
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उठते ही सोचने लगा कि इस स्वप्न का क्या अर्थ और प्रयोजन है?
अभी बस सोच ही रहा हूँ ।
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कल ही विनायक रजत का ’नारी’ पर लिखा लेख पढ़ा था जिसमें वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड के सर्ग 29 के श्लोक 18 को पढ़ते ही ध्यान आया था कि जल का एक नाम ’नारा’ भी है, जिसका उल्लेख करना श्री विनायक रजत भूल गए थे । नृ > नारा > नारायण, नर / नारी .....। जल के बिना किसी भी प्रकार का धार्मिक आध्यात्मिक कार्य अधूरा रहता है । संदर्भित श्लोक में यही कहा गया है कि कन्या का पिता ’जल’ के माध्यम से कन्या का हाथ वर को सौंपता है और इसके बाद उस कन्या / नारी का संपूर्ण दायित्व वर के उस कुल पर होता है । दो दिन पूर्व ही किसी ’प्रगतिशील’ ’मुक्त-सोच’ वाली नारी का लेख भी पढ़ा था जिसमें ’यौन-तुष्टि’ को ही विवाह का एकमात्र आधार / प्रयोजन कहकर मनुष्य को बन्दर के समकक्ष रखा गया था । उन भगिनी (तथा और भी अनेक बुद्धिजीवी भौतिकवादी, वेद-विरोधी ...) को संभवतः कल्पना भी नहीं है कि वेद-धर्म के अनुसार ’विवाह’ का आधार वर्णाश्रम-धर्म और ’कुल’ की शुद्धता को अक्षुण्ण रखना है । ’यौन-प्रवृत्ति’ की संतुष्टि तो गौण तक नहीं है । किंतु वेद किसी पर अपनी दृष्टि थोपता भी नहीं । वेद सिर्फ़ ’विधि’, ’धर्म’ और ’अधर्म’ क्या है, शुभ-अशुभ कर्म और उनके शुभ-अशुभ परिणामों के बारे में स्पष्ट करता है और मनुष्य के लिए क्या कर्तव्य है जिसके करने से उसे श्रेयस्कर की प्राप्ति होगी, यह भी ।
अर्जुन ने गीता में यही प्रश्न भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा था कि कुल-परंपरा नष्ट हो जाने से ....
किंतु भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा :
"ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य में प्रवृत्त होता है..."
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वैदिक ज्यौतिषीय 'सिद्धांत' के अनुसार 'पितृ-पक्ष' वह चंद्र मासार्ध है जब दिवंगत आत्माएँ मृत्युलोक में आकर अपने परिजनों से स्वधा (तर्पण) स्वीकार करती हैं । चूँकि सूर्य (अर्यमा) पितृलोक का अधिष्ठाता देवता है, और चन्द्र जल तथा मन का, इसलिए इस विशिष्ट पक्ष में, जो वर्षार्ध का अंतिम पक्ष तथा शारदीय नवरात्र के पहले आने वाला समय है, सभी दिवंगत आत्माओं से संपर्क सरलता से किया जा सकता है । जरूरी नहीं कि वैदिक मंत्रों तथा विधि से ही श्राद्ध का अनुष्ठान किया जाए, किन्तु जल अपरिहार्यतः आवश्यक है । सूर्य (अर्यमा) को जल अर्पित करें, फिर दिवंगत आत्मा  स्मरण, ध्यान और आवाहन करें और जैसे सूर्य को जल चढ़ाते हैं ही उस आत्मा को जल चढ़ायें । यदि संभव हो तो यह कार्य नदी-तट या सरोवर  समीप करें ।
उत्-(घञ्) > क > उदक: / उदकं ।
'उदक' अर्थात् जल स्वयं पतित होकर भी उस आत्मा को ऊपर उठा देता, श्रेष्ठतर स्थिति देता है ।
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मन पर बुद्धि की विजय

मन पर बुद्धि की विजय ?
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क्या ’मन’ और ’बुद्धि’ एक दूसरे से भिन्न दो अलग-अलग ’स्वतन्त्र’ तत्व हैं ?
क्या ’मन’ के बिना ’बुद्धि’ का अस्तित्व संभव है?
क्या ’बुद्धिरहित मन’ जैसा कोई ’मन’ हो, यह हो सकता है?
क्या आपका प्रश्न अपने-आप में त्रुटिरहित है?
उदाहरण के लिए मन / बुद्धि और शरीर परस्पर एक दूसरे से भिन्न दो अलग-अलग ’स्वतन्त्र’ तत्व हैं, क्योंकि स्पष्ट है कि मन / बुद्धि ही शरीर (और संसार) को 'जानता' है, या मन/ बुद्धि से ही शरीर (और संसार) को ’जाना’ जाता है । किन्तु क्या शरीर ’मन / ’बुद्धि’ को जानता / जान सकता होगा? जो भी हो, ’जानने’ में मन / बुद्धि ’जानने’ के विषय हैं । मन / बुद्धि के लिए शरीर (और संसार) ’जानने’ का विषय है । इस प्रकार ’मन’ तथा ’बुद्धि’ यद्यपि दो भिन्न वस्तुओं जैसे प्रतीत होते हैं किंतु ध्यान से देखने से स्पष्ट हो जाता है कि वे एक ही वस्तु के दो नाम / रूप हैं ।
’जिसे मन जानता है वह नहीं, बल्कि 'जिससे' मन को जाना जाता है वह ब्रह्म है ।’ -उपनिषद्
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Thursday, 22 September 2016

शारदीय नवरात्र / Autumnal Equinox

इस शारदीय नवरात्र पर 
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शारदीय नवरात्र / Autumnal Equinox 
अश्व / अश्विन्-ऊक्षिणौ
aśva / aśvin / ūkṣiṇau
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राम-लक्ष्मणौ > राम तथा लक्ष्मण
rāma-lakṣmaṇau > rāma lakṣmaṇa
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अश्व और वृषभ जो भारत के राष्ट्रीय चिह्न में दिखलाई देते हैं,
भारत की राष्ट्रीय अस्मिता के श्रेष्ठ उदाहरण हैं ।
चार दिशाओं का सिंहावलोकन करता सिंह शासन का प्रतीक है, अश्व तथा वृषभ क्रमशः भारत राष्ट्र के नगरीय तथा ग्रामीण संस्कृति को दर्शाते हैं, अश्व तथा ऊक्षिन् (वृषभ) वर्ष के बारह मास में आनेवाली चार संधियों को । अश्व + ऊक्षन् > दो विषुवों (शरद तथा वसंत) के तथा दो संक्रान्तियों (कर्क तथा मकर) संक्रान्तियों के । अश्विनौक्षिणौ / अश्वोक्षिणौ, aśvinaukṣiṇau / aśvokṣiṇau
से बना है ग्रीक शब्द इक्विनॉक्स (Equinox) ।
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शारदीय नवरात्र / Autumnal Equinox
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The National Emblem of India depict a 4 lions casting a glance over the 4 directions.
The King sitting on the throne guarded by lions सिंहासन / siṃhāsana is supposed to rein over the 4 directions . अश्विनौक्षिणौ / अश्वोक्षिणौ, aśvinaukṣiṇau / aśvokṣiṇau , The horse and the bull represent the beginning of two equinoxes and two solstices around which revolves the year.
These 2 symbols represent the vedika culture that is driven by has the horse and bull that are the key-forces. Veda mention the 3 in great details.
All Vedika traditions (dharma)  closely related to these 2 Astronomical phenomena (Equinox and Solstice) And the Big Dipper  ( सप्तर्षि / saptarṣi) that revolves round the North-Star ध्रुव / dhruva is the pivot of the wheel of धर्म / dharma . सप्तर्षि / saptarṣi also revolves round the North-Star ध्रुव / dhruva that creates the स्वस्तिक / svastika and the 2 seasons namely शरद  / śarada vasaṃta ( Autumn and Spring) respectively.
The Vedika year (> era, earth,  इरा / irā ) begins in चैत्र शुक्ल प्रतिपदा / caitra śukla pratipadā the time of solstice when the वसंत / vasaṃta / Spring has left and Summer ग्रीष्म / grīṣma has arrived.
The शारदीय नवरात्र śāradīya navarātra and the वासंतीय नवरात्र  vāsaṃtīya navarātra are the 2 focal points, which form the axis of the wheel of the year.  These 2 are the 2 eyes of the year. while the 2 solstices, -  विषुव संक्रान्ति / viṣuva saṃkrānti , namely कर्क-संक्रान्ति and  मकर-संक्रान्ति,karka-saṃkrānti makara-saṃkrānti when Sun enters the Cancer and the Capricorn are the 2 legs (feet).
नवरात्रि की शुभकामनाएँ     
Equinox Greetings !
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Sunday, 18 September 2016

अश्विनौ / Equinoxes and अरुणाचल शिव / aruṇācala śiva.

अश्विनौ परिक्राम्यन्तौ वत्सरे सं अचले,
कालवृत्ते प्रदक्षिणया सततं अरुणाचलं ॥
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aśvinau parikrāmyantau vatsare saṃ acale,
kālavṛtte pradakṣiṇayā satataṃ aruṇācalaṃ ||
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Equinoxes move around the Timeless Immovable Shiva (Mahākāla).They traverse the path encircling aruṇācala, and complete one pradakṣiṇā in one solar year.
Just as हाटकेश्वर / hāṭakeśvara is shiva in the पाताल / pātāla, So is He all over the existence.
( हाटकेश्वर तु पाताले / hāṭakeśvara tu pātāle )
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And if we consider the 2 equinoxes + 2 solstices as the legs of the cosmic horse this becomes one great vehicle of the Lord Mahākāla, Btw.
अश्व > aśva and, ऊक्षन् > ūkṣan are the संस्कृत पद / saṃskṛta pada (terms)  for horse and ox / oxen respectively, meaning the same as horse and the bull.
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Btw. :
There is a constellation अश्विनी / aśvinī which is the first of the 27 constellations in Vedika calandar. अभिजित / abhijita is the last but is part of अश्विनी / aśvinī which constitute the whole zodiac. These are celestial 'beings' and not only inert objects like stones. Though stones too are 'beings' in Self. That may be one reason why we worship stone Lingam.
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मनुस्मृतिः / मांसाहार

मनुस्मृतिः
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अध्याय 5, श्लोक 55
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मां सः भक्षयिता अमुत्र
यस्य मांसं इह अद्मि अहम् ।
एतत्-मांसस्य मांसत्वं
प्रवदन्ति मनीषिणः ॥
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अर्थ :
वह उस परलोक में मुझे खाता है, जिसका मांस मैं इस लोक में खाता हूँ । मनीषी इसे ही मांस का मांसत्व कहते हैं !
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manusmṛtiḥ 
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Chapter / adhyāya 5, 
stanza / śloka 55
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māṃ saḥ bhakṣayitā amutra
yasya māṃsaṃ iha admi aham |
etat-māṃsasya māṃsatvaṃ 
pravadanti manīṣiṇaḥ ||
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One whose flesh I consume in this world (life), consumes my own in the next world (life).
This is indeed the meaning of māṃsaḥ (flesh).
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Thursday, 15 September 2016

G. U. Pope / Tiruvachakam / Manickavasagar / Elisha

22nd June, 1936
Talk 215.
Maharshi was reading G. U. Pope’s translation of Tiruvachakam
and came across the stanzas describing the intense feeling of bhakti
as thrilling the whole frame, melting the flesh and bones, etc. He
remarked: “Manickavasagar is one of those whose body finally
resolved itself in a blazing light, without leaving a corpse behind.”
Another devotee asked how it could be.
Maharshi said the gross body is only the concrete form of the subtle
stuff - the mind. When the mind melts away and blazes forth as light,
the body is consumed in that process. Nandanar is another whose
body disappeared in blazing light.
Maj. Chadwick pointed out that Elisha disappeared in the same way.
He desired to know if the disappearance of Christ’s body from the
tomb was like that.
M.: No. Christ’s body was left as a corpse which was at first entombed,
whereas the others did not leave corpses behind.
In the course of conversation, Maharshi said that the subtle body is
composed of light and sound and the gross body is a concrete form
of the same.
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Tuesday, 13 September 2016

वेताल-कथा / निष्ठा और संकल्प

वेताल-कथा / निष्ठा और संकल्प
विक्रमार्क ने हठ नहीं छोड़ा ।
वह पेड़ के पास गया... पेड़ पर स्थित शव को कंधे पर रखकर जब वह गुरु की कुटी की ओर जाने लगा तो शव में स्थित वेताल ने उससे कहा !
राजन् ! संकल्प तुम्हारी प्रकृति में वैसे ही है जैसे जल और वायु में प्रवाह होता है । जल और वायु का प्रवाह बाह्य स्थितियों के अनुकूल या प्रतिकूल होने से तीव्र अथवा क्षीण होता है किंतु तुम्हारा संकल्प किसी भी बाह्य स्थिति से प्रभावित नहीं होता ।
तुम्हारे संकल्प से तुम्हें अनायास ही इतनी शक्ति प्राप्त होती है जिससे तुम्हारे कर्म में आनेवाली बाधाओं को तुम सरलता से समाप्त कर देते हो ।
किंतु मनुष्य में संकल्प का बल भी निष्ठा के अनुसार ही हुआ करता है । तुम्हारे श्रम की थकान से निवृत्ति के लिए यह कथा ध्यानपूर्वक सुनो !
किसी ब्रह्मा के किसी कल्प में, किसी युग में, किसी मन्वन्तर में, पृथ्वी पर राजा हारीत नामक राजा राज्य करते थे । उनकी निष्ठा कर्म में थी और धर्म का तत्व जानते हुए वे सांख्य-धर्म की अपनी निष्ठा से प्रेरित होकर निष्काम-भाव से, प्रमादरहित होकर, शास्त्र-विहित कर्मों का अनुष्ठान किया करते थे । संक्षेप में;  प्रजा की रक्षा करना और सबके लिए हितकारी अपने कर्तव्यों का समुचित पालन करना । उनके धर्मव्रत नामक एक गुरु थे जो कुल से ही उनके राजपुरोहित भी थे । उनकी अनुमति से वे अपने कर्तव्यों का सावधानी से पालन करते थे । कहना न होगा कि उनके राज्य में प्रजा सुखी थी और सभी की प्रवृत्ति अपने अपने वर्णाश्रम-धर्म या अवर्ण-धर्म के सम्यक् पालन में दृढ रहती थी ।
राजपुरोहित धर्मव्रत भी धर्म-अधर्म के तत्व और भेद को भलीभांति जानते थे । और राजा हारीत को समय के अनुसार उचित मार्गदर्शन देते रहते थे ।
उनकी तीन पत्नियाँ थीं यद्यपि तीनों ही पतिव्रता थीं किंतु उनकी निष्ठा भिन्न-भिन्न प्रकृति की होने से उनका संकल्प भिन्न-भिन्न प्रकार का था ।
सुमति नामक उनकी पहली पत्नी की निष्ठा व्रतों के अनुष्ठान में थी, और वह निर्जला एकादशी के व्रत का अनुष्ठान नियमपूर्वक करती थी ।
सुरुचि नामक उनकी दूसरी पत्नी की निष्ठा निर्जरा व्रत के प्रति थी इसलिए वह पापों और संस्कारों के निवारण के लिए अभ्यास-योग में संलग्न रहती थी ।
सुनीति नामक उनकी तीसरी पत्नी की निष्ठा अन्तर्मन से निरंतर आनेवाली अन्तर्दृष्टि के प्रति थी और वह निर्झरा व्रत का पालन करती थी ।
राजपुरोहित धर्मव्रत उन तीनों के प्रति समान स्नेह रखते थे और उनकी निष्ठा को किसी प्रकार से विचलित नहीं होने देते थे ।
संयोग की बात कि बहुत वृद्ध हो जाने के बाद एक ही तिथि और एक ही दिन, उनके देहत्याग करने का समय आ गया ।
धर्मव्रत ने राजा हारीत को अपना तथा तीनों पत्नियों का देहावसान होने के बारे में बहुत पहले से ही सूचित कर रखा था ताकि उनकी देह की अन्त्येष्टि की व्यवस्था राजा यथाविधि कर सके ।
राजपुरोहित पद्मासनस्थ धर्मव्रत के शव के लिए तो राजा हारीत ने समाधि के लिए पहले से निर्धारित भूमि पर निर्माण कार्य कर रखा था और विधिपूर्वक उन्हें भूमि-समाधि दी गई ।
सुमति को जल-समाधि दी गई और उसका शव किसी तीर्थ में विसर्जित कर दिया गया ।
सुरुचि का अंतिम संस्कार श्मशान में ले जाकर दाह-संस्कार के रूप में किया गया ।
जबकि सुनीति के शव को धर्मव्रत की समाधि के समीप भूमि में समाधि दी गई ।
राजन् मैं राजा हारीत का मंत्री था, -मेरा नाम मान्यवर था, और इन सब कार्यों की देखरेख मैंने ही की थी । किंतु इन चारों का अंतिम संस्कार भिन्न-भिन्न रीति से क्यों हुआ यह मुझे कभी स्पष्ट न हो सका ।
और जब मैंने राजा हारीत से इस विषय में एक बार प्रश्न किया था, तो उन्होंने मुझसे संक्षेप में इतना ही कहा :
"राजा विक्रमार्क ही तुम्हारी शंका का समाधान करेंगे ।"
तब मैंने इस बारे में विशेष विचार नहीं किया किंतु आज तुम्हारे आते ही मुझे अपना वह संकल्प याद आ गया ।
हे राजन्! यदि तुमने जानते हुए भी मेरी इस शंका का निवारण नहीं किया तो ....."
तब विक्रमार्क ने उत्तर देते हुए कहा :
"हे मान्यवर! धर्मव्रत उनके नाम के अनुसार अपने स्वाभाविक धर्म का आचरण अनायास ही करते थे और उनके आत्म-ज्ञानी और जीवन्मुक्त होने के बारे में प्रश्न ही नहीं उठता । स्व-इच्छा, ईश्वरेच्छा, परेच्छा या अनिच्छा से भी वे धर्म से विचलित नहीं होते थे और आयु क्षीण होने तक प्रारब्ध का उपभोग करते रहे ।
सुमति को जल-समाधि दी गई क्योंकि जल में विलीन होकर उसने अपने इष्ट नारायण से सायुज्य प्राप्त कर लिया ।
सुरुचि ने जीवन भर अपने पूर्व संस्कारों और कर्म-समुच्चय का प्रक्षालन किया और मृत्यु होने तक शुद्ध निरंजन आत्म-स्वरूप में स्थित हो सकी इसलिए उसे अग्नि को समर्पित कर दिया गया ।
सुनीति उस चेतना से एकाकार हो गई जो अविरल अजस्र निर्झर के रूप में अस्तित्व में सर्वत्र सनातन रूप से, चिरंतन रूप से नित्य प्रवाहित है । और इसलिए उसे भूमि में समाधि दी गई ।
विक्रमार्क का उत्तर पूर्ण होते ही मान्यवर ने उसे प्रणाम किया और शव को छोड़कर अनंत यात्रा पर उड़ चला ।
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Monday, 12 September 2016

शारदा-वंदना

शारदा-वंदना
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हरितोपवने पल्लविता,
शुभ्रानने शारदे ।
कुंकुमराजिते भाले
मायागंध-विरहिते !
सौम्यवेषे स्निग्धरूपे
स्मितानने जाड्यहारिणे ।
सामवेदश्रुतिसारे
नमामि माते भारति ॥
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Sunday, 11 September 2016

ऐन्दव आख्यानम् । aindava ākhyānam ।

स्वस्ति नः तार्क्ष्योऽरिष्टनेमि ...॥
svasti naḥ tārkṣyo:'riṣṭanemi
...॥
ऐन्दव आख्यानम् ।
aindava ākhyānam ।
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इन्दु / चन्द्र
indu / candra
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संस्कृत / saṃskṛta > सनातन-धर्म / sanātana dharma
/
स्वस्ति नः तार्क्ष्योऽरिष्टनेमि ...॥
svasti naḥ tārkṣyo:'riṣṭanemi ...॥
त्रिपुरा-रहस्ये ज्ञान-खण्डे ऐन्दव-आख्यानम्
इन्दु > ऐन्दव > इन्द्वीय > इन्दवी > इन्दसः > हिन्दसा (उर्दू अरेबिक / पर्शियन्), हिन्दी, इन्दोनेशिया
अमेरिकन-इंडियन्, इन् > चन्द्र > सिन ( Sin- Goddess) > चन्द्रमा देवता (स्त्रीलिङ्ग) सिनीवाली अमावास्या ...
all point-out The presence and prevalence of 'Indu' (not Hindu) -culture all over the Globe.
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In Tamizh, They write 'हिंदी' as  'इंदी', the word that begins with 'इ'.
This is the root of 'Hindu' while we have been mislead in the concept that 'Hindu' came from The River Sindhu.
वाल्मीकि रामायण / उत्तरकाण्ड सर्ग 101 Valmiki Ramayana uttarakāṇḍa sarga 101 describes how the 2 princes लव-कुश lava-kuśa of The King श्रीराम śrīrāma were given the Kingdom of गन्धर्व / गान्धार / कन्धार gandharva / gāndhāra / kandhāra (Present-day Afghanistan) and the River  सिन्धु Sindhu demarcated the border of the 2 Kingdoms.
Thus the Hills of Sindhu-kusha were named.
The part south of Sindhu (Present-day Lahore) was the citadel of Lava, while the part north of The River was of Kusha.
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Summarily 'Hindutva' / 'Hindu' is but distortion of 'indu' and may be a culture and tradition but NOT A RELIGION.
'India' is quite appropriate the name of this country which reflects the ethnicity of all Indians and all those all over the globe who follow सनातन-धर्म / sanātana dharma, whatever be their cultural preferences.
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आत्माऽयम् / The 'Self'

आत्माऽयम् / The 'Self'
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"अपरिग्रह: निरहम् भावः ।"
वदतु कोऽपि ।
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कस्य वा कस्मै ? निरहंभावे न तु कर्ता, न ध्येयो विद्येते । न चापि लोको ! न परो / अपरो च । आत्मा तु स्वरूपेण हि अविकारी । का वार्ता अस्य परिवर्तन-यत्ने?आत्मा तु विदितव्यः न तु परिमार्जितव्यः । न तु परिमार्जितव्यः, वरञ्च परिमार्गितव्यः । दृष्टव्यः, श्रोतव्यः, मन्तव्यः, निदिध्यासितव्यः ।
आत्माऽयम् ।
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आत्माऽयम् / The 'Self'
English Translation :
"A tendency to keep away from things one doesn't need / possessiveness is equivalent to being ego-less."
Says some-one.
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Whose or For who?
In the state of an ego-less mind, there is no scope for rising up the sense : 'I do' or the ego. Neither is there a goal to achieve. There is such a world where one needs to strive for. Neither me, nor not-me / other. Self is by very nature immutable. What a talk making efforts of transforming the Self?
Self is to be realized. And not to be transformed. Not to be transformed, Rather inquired into. To be seen with the eye of wisdom. To be contemplated upon. To stay / abide firmly into.
Is the Self.
This Self.  
  

Saturday, 10 September 2016

तैत्तिरीय-उपनिषत् -1:5

तैत्तिरीय-उपनिषत् -1:5
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भूरिति प्राणः ।
भुव अपानः ।
सुवरिति व्यानः ।
महित्यन्नम् ।
अन्नेन वाव सर्वे प्राणा महीयन्ते ।
ता वा एताश्चतस्रश्चतुर्धा ।
च चतस्रो व्याहृतयः ।
ता यो वेद
स वेद ब्रह्म ।
सर्वेऽस्मै देवा बलिमावहन्ति ।
(तैत्तिरीय-उपनिषदि वल्ली 1, अनुवाक् पञ्चमः)
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tai ttirīya-upaniṣadi -1:5
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bhūriti prāṇaḥ |
bhuva apānaḥ |
suvariti vyānaḥ |
mahityannam |
annena vāva sarve prāṇā mahīyante |
tā vā etāścatasraścaturdhā |
ca catasro vyāhṛtayaḥ |
tā yo veda
sa veda brahma |
sarve:'smai devā balimāvahanti |
(tai ttirīya-upaniṣadi vallī 1, anuvāk pañcamaḥ)
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Our breath controls Whole life. 

Friday, 9 September 2016

Etymology-notes-1

ऑर्थोडॉक्स, अर्थदोषः, ऑर्थोगोनल, अर्थकोणल / अर्थकोणीय,
ôrthoḍôksa, arthadoṣaḥ ôrthogonala, arthakoṇala / arthakoṇīya,
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स्तृ > स्तर > सतह,
अवस्तर > अस्तर, ग़िलाफ़,
उत्स्तर > उत्सृज् > उत्स्तरीय > उस्तरा (शेविंग-ब्लेड), विस्तर > बिस्तर (बेड्),
प्रस्तर > पत्थर,
stṛ > stara, sataha, avastara > astara, ġilāfa,
utstara > utsṛj > utstarīya > ustarā (śeviṃga-bleḍa)
vistara > bistara, (beḍ), prastara > patthara,
,
णिक्ष् > चुंबने, ṇikṣ > ṇikṣ > cuṃbane (kisa)
,  अर्द् > हिंसायाम्, अर्दने,  > अर्द् > हिंसायाम् > अर्दने,
तुफ् / तुंफ् > हिंसायाम्, tuph / tuṃph > hiṃsāyām / ardane
,
--
तुफ् > हिंसार्थे, tuph > hiṃsārthe
,
ञिस्वप् > (स्वप्) > शयने, ñisvap (svap) > śayane,
दृश्, श्-य > पश्य, शय्, > पश्य > अवपश्य > अवपश्यन् > ऑप्शन् (option)

dṛś > paś > ( paśya) ś-ya > paśya, śay, > paśya > avapaśya >
avapaśyan > ôpśan, > ôpṭiksa, / option.
> आशय, विषय, संशय,
> āśaya, viṣaya, saṃśaya,
>
दशनं > कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः ..(शिवमहिम्न)
दन्तं > पुष्पदन्त (कुसुमदशननामा)
दन्तं > दन्तुर् > दन्तुरः > रदन्तः > radantaḥ अर्द् > हिंसायाम्, अर्दने
 > दन्तुरः > दन्तं > RODENT > the species like rats with sharp teeth
रद् > दॄ > दारयति > रदनं > अर्द् > हिंसायाम्, अर्दने
रद् > > rat, the rodent.
दन् > दंष्ट्रं > दंष्ट्रा (दाढ) >
अध्याय 11, श्लोक 27,

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति
दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु
सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः ॥
दॄ > दार्ढ्यं > दृढं,
दंष्ट्राकरालानि कालानलसंन्निभानि (गीता अध्याय 11)
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संस्कृत > saṃskṛta > √ग्रस् > √gras > to gobble, to chew / to cud >
grass (noun) > to graze (verb),√चर् > √car > √चर्व > √carv > चरना > caranā >  पशुचर > paśucara > pasture / pastor, चबाना > cabānā > chaff, to chaff (cut the grass) √गॄ > निगरणे > gṛ > nigaraṇe
> गृणं / गृणनं > gṛṇaṃ / gṛṇanaṃ > green .>  हृ > हरित > > hṛ > harita > hārita  > horti-(culture)
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Wednesday, 7 September 2016

"What is life"?

People ask :
"What is life"?
And usually forget what they had asked. They get busy with their routine things or think about life as if life were a thing like so many other tangible objects. Science and Philosophy have been of no help in answering this question. Traditional beliefs and faiths avoid, escape from this question and explain according to their concepts about life, God or 'No-God'.
Rarely one asks :
"Whose life"?
Is not this 'Who', the consciousness of such a thing as 'life', that is so explicit, plain, simple evident fact that could not be denied / refuted either by logic or by experience, is the source of all life, is the only way and key to find out the answer?
And could one ever explain, formulate, translate or describe this Reality in words?
So one who is interested, has urge to find out, has to find out himself.
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Saturday, 3 September 2016

about myself.

Today I learnt that  still I need to learn...about myself, or simply The Self.
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Learning a skill needs time, and interest. The skill is though useful, makes one a machine. Becoming a machine kills you. But learning about one's own feelings, sentiments, fears, doubts, desires and ambitions (false hopes), imaginary future and the past that is only in memory, though its effects are even now a fact, is an unending process, for then every moment is altogether a new one.And learning this implies you live and love every moment of your life without complaining or grieving. Even if you don't 'enjoy', you are never at a loss, and achieve the worth that life keeps presenting before you. This makes you more and more 'alive'.
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Friday, 2 September 2016

महेन्द्रगिरि / mahendragiri

वाल्मीकि रामायणे / vālmīkīrāmāyaṇe,
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सुन्दरकाण्ड / सर्ग 58,
ततस्तस्य गिरेः शृङ्गे महेन्द्रस्य महाबलाः ।
हनुमत्प्रमुखाः प्रीतिं हरयो जग्मुरुत्तताम् ॥1
प्रीतिमत्सूपविष्टेषु वानरेषु महात्मसु ।
तं ततः प्रतिसंहृष्टः प्रीतियुक्तं महाकपिम् ॥2
जाम्बबवान् कार्यवृत्तान्तमपृच्छदनिलात्मजम् ।
कथं दृष्टा त्वया देवी कथं वा तत्र वर्तते ॥
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युद्धकाण्ड सर्ग 27
यवीयानस्य तु भ्राता पश्यैनं पर्वतोपमम् ।
भ्राता समानो रूपेण विशिष्टस्तु पराक्रमे ॥10
स एष जाम्बवान् ...॥11
युद्धकाण्ड सर्ग 31
जाम्बवानथ जानुभ्यामुत्पतन् निहतो युधि ।
पट्टिशैर्बहुभिश्छिन्नो निकृत्तः पादपो यथा ॥27
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But I could not find the reference to Jambabvan as is mentioned here  in
sarga / Chapter 4, verse 27.