हमारे समाज में नारी का स्थान
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किसी ने इस पर टिप्पणी में कहा है कि प्रस्तुत लेख लिखनेवाले की कलम से भी थोड़ी सी पुरुष-गंध तो आती ही है ।
एकदम सटीक टिप्पणी है यह, और इस बेबाक टिप्पणी की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है । यह हमारे युग के औसत पुरुष के वास्तविक चारित्रिक मूल्य की ओर भी स्पष्ट संकेत है ।
मैं सोच रहा था कि यह प्रश्न अनुत्तरणीय है क्योंकि समाजशास्त्र के आधार पर, उस सन्दर्भ में इसका ’अध्ययन’ तो किया जा सकता है, किन्तु तब यह महज़ एक ’बौद्धिक’ कवायद तक ही किसी हद तक सार्थक हो सकता है ।
फिर मुझे खयाल आया कि ’भारतीय-संस्कृति’ के परिप्रेक्ष्य में इस प्रश्न पर विचार किया जाना तुरंत ही प्रश्न को समस्या न बनाते हुए उससे सीधे सामना करने में हमें सौ प्रतिशत सहायक हो सकता है ।
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किसी ने इस पर टिप्पणी में कहा है कि प्रस्तुत लेख लिखनेवाले की कलम से भी थोड़ी सी पुरुष-गंध तो आती ही है ।
एकदम सटीक टिप्पणी है यह, और इस बेबाक टिप्पणी की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है । यह हमारे युग के औसत पुरुष के वास्तविक चारित्रिक मूल्य की ओर भी स्पष्ट संकेत है ।
मैं सोच रहा था कि यह प्रश्न अनुत्तरणीय है क्योंकि समाजशास्त्र के आधार पर, उस सन्दर्भ में इसका ’अध्ययन’ तो किया जा सकता है, किन्तु तब यह महज़ एक ’बौद्धिक’ कवायद तक ही किसी हद तक सार्थक हो सकता है ।
फिर मुझे खयाल आया कि ’भारतीय-संस्कृति’ के परिप्रेक्ष्य में इस प्रश्न पर विचार किया जाना तुरंत ही प्रश्न को समस्या न बनाते हुए उससे सीधे सामना करने में हमें सौ प्रतिशत सहायक हो सकता है ।
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और इसी बारे में आगे कुछ लिखने जा रहा हूँ। थोड़ा इंतज़ार करना होगा।
अतीत में भारतीय परंपरा में समाज प्रमुख रूप से 'वर्णाश्रम-धर्म' की व्यवस्था से संचालित होता रहा है। यह व्यवस्था भारतीय समाज की रीढ़ की हड्डी की तरह था, जिसमें कट्टरता के लिए ज़रा भी स्थान नहीं था। ज़ाहिर है इस व्यवस्था की मूल संकल्पना वेदों व तत्संबंधित ग्रंथों में सुपरिभाषित और सुगठित रूप से स्थापित की गयी थी। वेदों में ही समाज में नारी का तथा पुरुष का भी उपयुक्त स्थान क्या हो सकता है, इस बारे में पर्याप्त विवेचन किया गया है।
हम मूल प्रश्न पर आएँ।
नारी के लिए संस्कृत में स्त्री, माता, भगिनी, कन्या, बालिका, संतान, पुत्री, स्वसृ, पत्नी, भार्या, अर्द्धांगिनी, गृहिणी, वधू आदि शब्दों का प्रयोग बतलाता है कि समाज में और वेदों में स्त्री और पुरुष की शारीरिक-बनावट के भेद के वर्णन और विवेचन पर न तो कोई प्रतिबन्ध न उस बारे में कोई असमंजस रहा है। मुख्य प्रश्न जो आज हमारे लिए यह दुरूह समस्या बन गया है वह उस समाज में पैदा तक नहीं हुआ था।
यदि संस्कृत में लिखे सभी ग्रंथों को देखें तो जहाँ वधू (ऊह्यते पितृ गृहात्, सा वधू), ऊह्या > ऊढा > नवोढा > वधू > नववधू) के अनुसार जिस कन्या को उसके पिता के घर से विवाहकर / ब्याहकर 'लाया' जाता है वह ऊढा या नवोढा है। यहाँ यह जानना रोचक होगा कि इसी 'उह्' धातु से बनता है, - 'उक्षन्' जिसका अर्थ है 'ढोनेवाला बैल' जो अंग्रेज़ी में 'oxen' हो जाता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि जहाँ भारतीय परम्परा में पुरुष के लिए अनेक विवाह करने की अनुमति है, स्त्री के लिए क्यों नहीं? द्रौपदी का उदाहरण इस बारे में काफी कुछ स्पष्ट कर देता है, द्रौपदी को न सिर्फ पांच भाइयों से उसके विवाह के लिए याद रखा जाता है बल्कि उसे 'सती' अर्थात् 'पतिव्रता' तक कहा गया है। तात्पर्य यह कि भारतीय परंपरा में बहुविवाह, एक से अधिक पति या पत्नियाँ होना निषिद्ध / निंदनीय तक नहीं था। क्या यह भारतीय परंपरा की उदारता ही नहीं कही जा सकती।
वेदों के अनुसार मनुष्य सामाजिक पशु है और विवाह का उद्देश्य श्रेष्ठ कुल का संरक्षण है। कुल के आधार पर ही वर्णाश्रम परंपरा बनी रह सकती है। और वर्णाश्रम धर्म के अभाव में वेद धर्म के बारे में कुछ नहीं कहते। इस प्रकार अवैदिक धर्म के आचरण करनेवालों के लिए वेद निषिद्ध तक हैं।
वेद जब मनुष्य को सामाजिक पशु कहते हैं तो उन पशु-बुद्धि युक्त मनुष्यों के लिए वे कुछ ऐसी शिक्षाएँ भी देते हैं जिन पर उन्हें आचरण करने से उनका अधिकतम हित हो। और जैसे पशुओं के समूह में एक राजा होता है, वैसे ही परिवार में एक पुरुष ही परिवार की देखभाल सुरक्षा पालन-पोषण अधिक अच्छी तरह कर सकता है। यौन-सुख विवाह का गौण उद्देश्य है न कि प्रधान। इसलिए केवल यौन-सुख के लिए किए जानेवाले स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को हेय दृष्टि से देखा जाता है, जबकि विधिपूर्वक संतानोत्पत्ति और वंश-परंपरा चलाने के उद्देश्य से किए जानेवाले विवाह को श्रेष्ठ माना जाता है।
आज की परिस्थितियों में इन सब की हम कल्पना तक नहीं कर पाते।
यदि पुरुष स्त्री को पशु-बुद्धि से देखता है तो उसे किसी भी स्त्री से मित्रवत् व्यवहार करना कठिन हो जाएगा। इसी प्रकार अगर स्त्री यौन-सुख में स्वयं को पुरुष के समान स्वतंत्र अधिकार रखने की कल्पना करती है तो वह अपने आपको एक बिकाऊ सामान की तरह मानती है। वह पुरुष को खरीदना और उसका उपभोग करना चाहती है। समस्या क्या है?
'काम' और धर्म
अत्यंत प्राचीन काल से ही मनुष्य चित्रों की भाषा का प्रयोग करता चला आ रहा है, आज भी शिवलिङ्ग के रूप में शिव अर्थात् परमेश्वर की पूजा, उपासना, आराधना, भारतीय समाज में एक प्रचलित सर्वमान्य तथ्य है। शिवलिङ्ग मूर्त रूप में जहाँ एक ओर स्पष्टतः पुरुष के उत्थित लिङ्ग के समान है वहीं दूसरी ओर 'शिव' और 'लिङ्ग' शब्दों के संस्कृत व्याकरणसम्मत गूढ अर्थों का भी द्योतक है। जहाँ एक ओर इस सरल प्रतीकचिह्न को अत्यंत अशिक्षित मनुष्य भी सृष्टि के परमपिता के लिङ्ग के रूप में देख सकता है, जहाँ से 'सृष्टि' का बीज जगज्जननी माता के भग (योनि) में स्खलित होकर सृष्टि की रचना करता है। सृष्टि के इस उद्भव की प्रक्रिया में, चाहे वह मनुष्य, पशु-पक्षी, या वनस्पति के रूप में ही क्यों हो, निंदनीय या हास्यास्पद जैसा क्या है ?
'काम' जब सृजन के रूप में होता है वह जीव-मात्र के लिए प्रजा की उत्पत्ति का साधन है। पशु और मनुष्य से भिन्न अन्य जीव 'काम-वृत्ति' से मोहित होकर संतानोत्पत्ति करने के लिए बाध्य हैं और विधाता ने उसमें सुख-बुद्धि का संयोग इसलिए किया है कि यदि वह न होता तो जीव प्रजा की उत्पत्ति करने में उत्सुक ही नहीं होता। किन्तु मनुष्यों के लिए -
गीता अध्याय 7 श्लोक 11 के अनुसार :
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥
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(बलम् बलवताम् च अहम् कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धः भूतेषु कामः अस्मि भरतर्षभ ॥ )
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भावार्थ :
बलवानों में कामना और आसक्तिरहित अर्थात् मदरहित बल मैं हूँ, हे भरतर्षभ (अर्जुन) ! सम्पूर्ण प्राणियों में प्रजनन का हेतु धर्म से अविरुद्ध अर्थात् धर्मसंगत काम मैं हूँ ।
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टिप्पणी :
यह श्लोक मनुष्य तथा जीवों की सहज नैसर्गिक प्रवृत्ति(यों) और सामाजिक दबावों के व्यक्ति एवं उसके व्यवहार पर पड़नेवाले प्रभाव के संबंध की ओर संक्षेप में किन्तु विस्तार और गहराई से प्रकाश डालता है ।
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वर्णाश्रम धर्म का पालन करनेवालों गृहस्थ मनुष्यों के लिए यह आवश्यक है कि वे संतान की उत्पत्ति करने के लिए कामोपभोग करें। संतान की उत्पत्ति कामोपभोग करने से होगी ही यह भी सुनिश्चित नहीं है इसलिए पुरुष एक से अधिक विवाह कर सकता है। स्त्री के लिए पति के अतिरिक्त किसी पुरुष से संबंध रखना प्रायः निषिद्ध है किन्तु 'नियोग' के बारे में वर्णन देखने पर वेदों में इसके औचित्य को स्वीकार किया गया है।
वैदिक / वर्णाश्रम धर्म की शिक्षा में जोर इस बात पर है कि 'काम' भोग की वस्तु नहीं है विधिबाह्य रीति से काम भोग मनुष्य और समाज के विनाश का ही कारण है।
काम जब साहित्य और कला की अभिव्यक्ति के लिए सन्दर्भ बनता है तो वह श्रृंगार का रूप लेता है। इसमें शारीरिक उत्तेजनाओं का चरम प्राकट्य हो भी तो भी उसमें कुत्सा या वीभत्सता का लेशमात्र भी नहीं होना चाहिए। हम रावणकृत शिवतांडव स्तोत्र को पढ़ें तो पाएंगे रावण ने शिव-पार्वती के प्रणय का कितना सुन्दर और स्पष्ट वर्णन किया है :
करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥
(रावणकृत शिवताण्डव स्तोत्रम् श्लोक 7)
या, अध्यात्मरामायण में राम-सीता के विवाह के समय जनकनन्दिनी सीता के 'पीन-पयोधरों' का वर्णन जिनकी शोभा और उभार उनकी पारदर्शक कंचुकी से दिखलाई देता था।
ऐसे अनेक वर्णन श्रीमद्भागवत् या जयदेव की रचनाओं में भी देखे जा सकते हैं। इसे कुत्सायुक्त मनोभावना से भी ग्रहण किया जा सकता है या इसे काम के दिव्य प्रकार के वर्णन के रूप में भी समझा जा सकता है। किन्तु इसमें विकृत मनोभावनाओं की तुष्टि (?) के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।
संस्कृत में एक प्रचलित उक्ति है :
पुत्रीकुचकाठिन्यं पिता जानाति कुतो ...
इसी प्रकार शङ्कराचार्य कहते हैं :
अत्यन्तकामुकस्यापि वृत्तिः कुण्ठति मातरि।
तथैव ब्रह्मणि ज्ञाते पूर्णानन्दे मनीषिणः ॥
(विवेकचूडामणि श्लोक 444)
अपने माता-पिता या परिवार के अन्य लोगों के प्रति, यहाँ तक कि पत्नी या पति के प्रति भी दूषित बुद्धि होने पर हम काम के प्रति स्वस्थ-दृष्टि नहीं रख सकते, जबकि प्रेम तथा काम की शुद्धता और आवेग होने पर हर मनुष्य से अपने संबंध को ईश्वरीय प्रसाद की तरह ग्रहण कर सकते हैं। हाँ कामोपभोग भी उसका एक विशिष्ट अत्यंत महत्वपूर्ण रूप है इससे इंकार नहीं । किन्तु यदि हम स्त्री-पुरुष समानता और स्वतन्त्रता के नाम पर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करते या होने देते हैं जहाँ हमारा मन विकृत कल्पनाओं में दूषित आनंद की प्राप्ति की आशा करने लगे, तो वह हमारा मूर्खतापूर्ण भ्रम और मनोविकार मात्र है जो समाज को अधःपतन की ओर ले जाता है।
यदि मनुष्य की काम के प्रति स्वस्थ दृष्टि है तो स्त्री-पुरुष संबंध उसके लिए समस्या नहीं बनना चाहिए। किन्तु जब चारों तरफ ऐसा वातावरण हो जो इस स्वस्थ दृष्टि को पैदा ही न होने दे बल्कि उसे विकृत, दूषित और निन्दित , दमित तथा दुरूह बना दे तो वही होता है, हो रहा है। क्या समाजशास्त्री और विचारकों के पास ऐसी दृष्टि है? भारतीय परंपरा में सनातन-धर्म के समानांतर शैव सिद्धांत हैं जिनमें पञ्च-मकार का अपना स्थान है। और तंत्र की इन 'विधियों' को गुप्त रखने का प्रयोजन यह नहीं है कि वे निंदनीय हैं, बल्कि इसका एकमात्र कारण यह है कि सामान्यतः बिरला ही कोई इसका अधिकारी / पात्र होता है। सूत्र है, चित्त की शुद्धि। यदि कोई भोग-बुद्धि से इस दिशा में प्रवृत्त होता है तो वह प्रारम्भ से ही अत्यंत भ्रमित है।
इसलिए जिन्हें 'शिवलिङ्ग का पूजन क्यों?' यह समझ में नहीं आता, उन्हें पहले यह समझना होगा कि सृष्टि की प्रक्रिया में गर्हित, हास्यास्पद या निंदनीय क्या है! स्पष्ट है कि दमित और विकृत 'काम-भावना' ही वह कारण है जिससे ग्रस्त हमारा मन इस सरल से तथ्य को नहीं देख पाता।
दूसरी ओर, भक्ति और ज्ञान की परंपराओं में , संस्कृत साहित्य में, जहाँ श्रृंगाररस का वर्णन पाया जाता है वह काम के उदात्त स्वरूप में है न कि वीभत्स, कुत्सित या विकृत रूप में। और सबसे बड़ी बात जिसे हम भूल बैठे हैं वह है भक्ति ज्ञान योग कर्म या संक्षेप में 'अध्यात्म' या धर्म में मनोरंजन के लिए कोई स्थान नहीं है। किन्तु हमने धर्म और अध्यात्म को भी मनोरंजन तथा भौतिक इच्छाओं की पूर्ति का साधन समझ रखा है।
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अतीत में भारतीय परंपरा में समाज प्रमुख रूप से 'वर्णाश्रम-धर्म' की व्यवस्था से संचालित होता रहा है। यह व्यवस्था भारतीय समाज की रीढ़ की हड्डी की तरह था, जिसमें कट्टरता के लिए ज़रा भी स्थान नहीं था। ज़ाहिर है इस व्यवस्था की मूल संकल्पना वेदों व तत्संबंधित ग्रंथों में सुपरिभाषित और सुगठित रूप से स्थापित की गयी थी। वेदों में ही समाज में नारी का तथा पुरुष का भी उपयुक्त स्थान क्या हो सकता है, इस बारे में पर्याप्त विवेचन किया गया है।
हम मूल प्रश्न पर आएँ।
नारी के लिए संस्कृत में स्त्री, माता, भगिनी, कन्या, बालिका, संतान, पुत्री, स्वसृ, पत्नी, भार्या, अर्द्धांगिनी, गृहिणी, वधू आदि शब्दों का प्रयोग बतलाता है कि समाज में और वेदों में स्त्री और पुरुष की शारीरिक-बनावट के भेद के वर्णन और विवेचन पर न तो कोई प्रतिबन्ध न उस बारे में कोई असमंजस रहा है। मुख्य प्रश्न जो आज हमारे लिए यह दुरूह समस्या बन गया है वह उस समाज में पैदा तक नहीं हुआ था।
यदि संस्कृत में लिखे सभी ग्रंथों को देखें तो जहाँ वधू (ऊह्यते पितृ गृहात्, सा वधू), ऊह्या > ऊढा > नवोढा > वधू > नववधू) के अनुसार जिस कन्या को उसके पिता के घर से विवाहकर / ब्याहकर 'लाया' जाता है वह ऊढा या नवोढा है। यहाँ यह जानना रोचक होगा कि इसी 'उह्' धातु से बनता है, - 'उक्षन्' जिसका अर्थ है 'ढोनेवाला बैल' जो अंग्रेज़ी में 'oxen' हो जाता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि जहाँ भारतीय परम्परा में पुरुष के लिए अनेक विवाह करने की अनुमति है, स्त्री के लिए क्यों नहीं? द्रौपदी का उदाहरण इस बारे में काफी कुछ स्पष्ट कर देता है, द्रौपदी को न सिर्फ पांच भाइयों से उसके विवाह के लिए याद रखा जाता है बल्कि उसे 'सती' अर्थात् 'पतिव्रता' तक कहा गया है। तात्पर्य यह कि भारतीय परंपरा में बहुविवाह, एक से अधिक पति या पत्नियाँ होना निषिद्ध / निंदनीय तक नहीं था। क्या यह भारतीय परंपरा की उदारता ही नहीं कही जा सकती।
वेदों के अनुसार मनुष्य सामाजिक पशु है और विवाह का उद्देश्य श्रेष्ठ कुल का संरक्षण है। कुल के आधार पर ही वर्णाश्रम परंपरा बनी रह सकती है। और वर्णाश्रम धर्म के अभाव में वेद धर्म के बारे में कुछ नहीं कहते। इस प्रकार अवैदिक धर्म के आचरण करनेवालों के लिए वेद निषिद्ध तक हैं।
वेद जब मनुष्य को सामाजिक पशु कहते हैं तो उन पशु-बुद्धि युक्त मनुष्यों के लिए वे कुछ ऐसी शिक्षाएँ भी देते हैं जिन पर उन्हें आचरण करने से उनका अधिकतम हित हो। और जैसे पशुओं के समूह में एक राजा होता है, वैसे ही परिवार में एक पुरुष ही परिवार की देखभाल सुरक्षा पालन-पोषण अधिक अच्छी तरह कर सकता है। यौन-सुख विवाह का गौण उद्देश्य है न कि प्रधान। इसलिए केवल यौन-सुख के लिए किए जानेवाले स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को हेय दृष्टि से देखा जाता है, जबकि विधिपूर्वक संतानोत्पत्ति और वंश-परंपरा चलाने के उद्देश्य से किए जानेवाले विवाह को श्रेष्ठ माना जाता है।
आज की परिस्थितियों में इन सब की हम कल्पना तक नहीं कर पाते।
यदि पुरुष स्त्री को पशु-बुद्धि से देखता है तो उसे किसी भी स्त्री से मित्रवत् व्यवहार करना कठिन हो जाएगा। इसी प्रकार अगर स्त्री यौन-सुख में स्वयं को पुरुष के समान स्वतंत्र अधिकार रखने की कल्पना करती है तो वह अपने आपको एक बिकाऊ सामान की तरह मानती है। वह पुरुष को खरीदना और उसका उपभोग करना चाहती है। समस्या क्या है?
'काम' और धर्म
अत्यंत प्राचीन काल से ही मनुष्य चित्रों की भाषा का प्रयोग करता चला आ रहा है, आज भी शिवलिङ्ग के रूप में शिव अर्थात् परमेश्वर की पूजा, उपासना, आराधना, भारतीय समाज में एक प्रचलित सर्वमान्य तथ्य है। शिवलिङ्ग मूर्त रूप में जहाँ एक ओर स्पष्टतः पुरुष के उत्थित लिङ्ग के समान है वहीं दूसरी ओर 'शिव' और 'लिङ्ग' शब्दों के संस्कृत व्याकरणसम्मत गूढ अर्थों का भी द्योतक है। जहाँ एक ओर इस सरल प्रतीकचिह्न को अत्यंत अशिक्षित मनुष्य भी सृष्टि के परमपिता के लिङ्ग के रूप में देख सकता है, जहाँ से 'सृष्टि' का बीज जगज्जननी माता के भग (योनि) में स्खलित होकर सृष्टि की रचना करता है। सृष्टि के इस उद्भव की प्रक्रिया में, चाहे वह मनुष्य, पशु-पक्षी, या वनस्पति के रूप में ही क्यों हो, निंदनीय या हास्यास्पद जैसा क्या है ?
'काम' जब सृजन के रूप में होता है वह जीव-मात्र के लिए प्रजा की उत्पत्ति का साधन है। पशु और मनुष्य से भिन्न अन्य जीव 'काम-वृत्ति' से मोहित होकर संतानोत्पत्ति करने के लिए बाध्य हैं और विधाता ने उसमें सुख-बुद्धि का संयोग इसलिए किया है कि यदि वह न होता तो जीव प्रजा की उत्पत्ति करने में उत्सुक ही नहीं होता। किन्तु मनुष्यों के लिए -
गीता अध्याय 7 श्लोक 11 के अनुसार :
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥
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(बलम् बलवताम् च अहम् कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धः भूतेषु कामः अस्मि भरतर्षभ ॥ )
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भावार्थ :
बलवानों में कामना और आसक्तिरहित अर्थात् मदरहित बल मैं हूँ, हे भरतर्षभ (अर्जुन) ! सम्पूर्ण प्राणियों में प्रजनन का हेतु धर्म से अविरुद्ध अर्थात् धर्मसंगत काम मैं हूँ ।
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टिप्पणी :
यह श्लोक मनुष्य तथा जीवों की सहज नैसर्गिक प्रवृत्ति(यों) और सामाजिक दबावों के व्यक्ति एवं उसके व्यवहार पर पड़नेवाले प्रभाव के संबंध की ओर संक्षेप में किन्तु विस्तार और गहराई से प्रकाश डालता है ।
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वर्णाश्रम धर्म का पालन करनेवालों गृहस्थ मनुष्यों के लिए यह आवश्यक है कि वे संतान की उत्पत्ति करने के लिए कामोपभोग करें। संतान की उत्पत्ति कामोपभोग करने से होगी ही यह भी सुनिश्चित नहीं है इसलिए पुरुष एक से अधिक विवाह कर सकता है। स्त्री के लिए पति के अतिरिक्त किसी पुरुष से संबंध रखना प्रायः निषिद्ध है किन्तु 'नियोग' के बारे में वर्णन देखने पर वेदों में इसके औचित्य को स्वीकार किया गया है।
वैदिक / वर्णाश्रम धर्म की शिक्षा में जोर इस बात पर है कि 'काम' भोग की वस्तु नहीं है विधिबाह्य रीति से काम भोग मनुष्य और समाज के विनाश का ही कारण है।
काम जब साहित्य और कला की अभिव्यक्ति के लिए सन्दर्भ बनता है तो वह श्रृंगार का रूप लेता है। इसमें शारीरिक उत्तेजनाओं का चरम प्राकट्य हो भी तो भी उसमें कुत्सा या वीभत्सता का लेशमात्र भी नहीं होना चाहिए। हम रावणकृत शिवतांडव स्तोत्र को पढ़ें तो पाएंगे रावण ने शिव-पार्वती के प्रणय का कितना सुन्दर और स्पष्ट वर्णन किया है :
करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥
(रावणकृत शिवताण्डव स्तोत्रम् श्लोक 7)
या, अध्यात्मरामायण में राम-सीता के विवाह के समय जनकनन्दिनी सीता के 'पीन-पयोधरों' का वर्णन जिनकी शोभा और उभार उनकी पारदर्शक कंचुकी से दिखलाई देता था।
ऐसे अनेक वर्णन श्रीमद्भागवत् या जयदेव की रचनाओं में भी देखे जा सकते हैं। इसे कुत्सायुक्त मनोभावना से भी ग्रहण किया जा सकता है या इसे काम के दिव्य प्रकार के वर्णन के रूप में भी समझा जा सकता है। किन्तु इसमें विकृत मनोभावनाओं की तुष्टि (?) के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।
संस्कृत में एक प्रचलित उक्ति है :
पुत्रीकुचकाठिन्यं पिता जानाति कुतो ...
इसी प्रकार शङ्कराचार्य कहते हैं :
अत्यन्तकामुकस्यापि वृत्तिः कुण्ठति मातरि।
तथैव ब्रह्मणि ज्ञाते पूर्णानन्दे मनीषिणः ॥
(विवेकचूडामणि श्लोक 444)
अपने माता-पिता या परिवार के अन्य लोगों के प्रति, यहाँ तक कि पत्नी या पति के प्रति भी दूषित बुद्धि होने पर हम काम के प्रति स्वस्थ-दृष्टि नहीं रख सकते, जबकि प्रेम तथा काम की शुद्धता और आवेग होने पर हर मनुष्य से अपने संबंध को ईश्वरीय प्रसाद की तरह ग्रहण कर सकते हैं। हाँ कामोपभोग भी उसका एक विशिष्ट अत्यंत महत्वपूर्ण रूप है इससे इंकार नहीं । किन्तु यदि हम स्त्री-पुरुष समानता और स्वतन्त्रता के नाम पर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करते या होने देते हैं जहाँ हमारा मन विकृत कल्पनाओं में दूषित आनंद की प्राप्ति की आशा करने लगे, तो वह हमारा मूर्खतापूर्ण भ्रम और मनोविकार मात्र है जो समाज को अधःपतन की ओर ले जाता है।
यदि मनुष्य की काम के प्रति स्वस्थ दृष्टि है तो स्त्री-पुरुष संबंध उसके लिए समस्या नहीं बनना चाहिए। किन्तु जब चारों तरफ ऐसा वातावरण हो जो इस स्वस्थ दृष्टि को पैदा ही न होने दे बल्कि उसे विकृत, दूषित और निन्दित , दमित तथा दुरूह बना दे तो वही होता है, हो रहा है। क्या समाजशास्त्री और विचारकों के पास ऐसी दृष्टि है? भारतीय परंपरा में सनातन-धर्म के समानांतर शैव सिद्धांत हैं जिनमें पञ्च-मकार का अपना स्थान है। और तंत्र की इन 'विधियों' को गुप्त रखने का प्रयोजन यह नहीं है कि वे निंदनीय हैं, बल्कि इसका एकमात्र कारण यह है कि सामान्यतः बिरला ही कोई इसका अधिकारी / पात्र होता है। सूत्र है, चित्त की शुद्धि। यदि कोई भोग-बुद्धि से इस दिशा में प्रवृत्त होता है तो वह प्रारम्भ से ही अत्यंत भ्रमित है।
इसलिए जिन्हें 'शिवलिङ्ग का पूजन क्यों?' यह समझ में नहीं आता, उन्हें पहले यह समझना होगा कि सृष्टि की प्रक्रिया में गर्हित, हास्यास्पद या निंदनीय क्या है! स्पष्ट है कि दमित और विकृत 'काम-भावना' ही वह कारण है जिससे ग्रस्त हमारा मन इस सरल से तथ्य को नहीं देख पाता।
दूसरी ओर, भक्ति और ज्ञान की परंपराओं में , संस्कृत साहित्य में, जहाँ श्रृंगाररस का वर्णन पाया जाता है वह काम के उदात्त स्वरूप में है न कि वीभत्स, कुत्सित या विकृत रूप में। और सबसे बड़ी बात जिसे हम भूल बैठे हैं वह है भक्ति ज्ञान योग कर्म या संक्षेप में 'अध्यात्म' या धर्म में मनोरंजन के लिए कोई स्थान नहीं है। किन्तु हमने धर्म और अध्यात्म को भी मनोरंजन तथा भौतिक इच्छाओं की पूर्ति का साधन समझ रखा है।
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