Tuesday, 29 September 2015

ग्रीष्म-अयनान्त / grīṣma-ayanānta / Summer-Solstice.

ग्रीष्म-अयनान्त / grīṣma-ayanānta .
Summer-Solstice.  

महालये तु प्रारंभे पितरः आगच्छन्ति वै ।
तर्पणेन तुष्टिर्भूते प्रयान्ति ते धामं स्वकं ॥
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mahālaye tu prāraṃbhe pitaraḥ āgacchanti vai |
tarpaṇena tuṣṭirbhūte prayānti te dhāmaṃ svakaṃ ||
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अर्थ :
महालय प्रारंभ होते ही, (शारदीय नवरात्र के प्रारंभ होने से पहले के श्राद्ध-पक्ष में) पितर अवश्य ही मृत्युलोक में अपने वंशजों को देखने के लिए आते हैं, और तर्पण से प्रसन्न होकर पुनः अपने निज धाम (सूर्यलोक) को लौट जाते हैं ।
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Meaning :
At the time of summer-solstice, Manes (the departed souls) do come on the earth to see their descendants and when offered due respects, are satisfied and return to their heavenly abode (The Solar plane) happily.
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हमारे समाज में नारी का स्थान

हमारे समाज में नारी  का स्थान
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किसी ने इस पर टिप्पणी में कहा है कि प्रस्तुत लेख लिखनेवाले की कलम से भी थोड़ी सी पुरुष-गंध तो आती ही है ।
एकदम सटीक टिप्पणी है यह, और इस बेबाक टिप्पणी की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है । यह हमारे युग के औसत पुरुष के वास्तविक चारित्रिक मूल्य की ओर भी स्पष्ट संकेत है ।
मैं सोच रहा था कि यह प्रश्न अनुत्तरणीय है क्योंकि समाजशास्त्र के आधार पर, उस सन्दर्भ में इसका ’अध्ययन’ तो किया जा सकता है, किन्तु  तब यह महज़ एक ’बौद्धिक’ कवायद तक ही किसी हद तक सार्थक  हो सकता है ।
फिर मुझे खयाल आया कि ’भारतीय-संस्कृति’ के परिप्रेक्ष्य में इस प्रश्न पर विचार किया जाना तुरंत ही प्रश्न को समस्या न बनाते हुए उससे सीधे सामना करने में हमें सौ प्रतिशत सहायक हो सकता है ।
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और इसी बारे में आगे कुछ लिखने जा रहा हूँ। थोड़ा इंतज़ार करना होगा।
अतीत में भारतीय परंपरा में समाज प्रमुख रूप से 'वर्णाश्रम-धर्म' की व्यवस्था से संचालित होता रहा है।  यह व्यवस्था भारतीय समाज की रीढ़ की हड्डी की तरह था, जिसमें कट्टरता के लिए ज़रा भी स्थान नहीं था। ज़ाहिर है इस व्यवस्था की मूल संकल्पना वेदों व तत्संबंधित ग्रंथों में सुपरिभाषित और सुगठित रूप से स्थापित की गयी थी।  वेदों में ही समाज में नारी का तथा पुरुष का भी उपयुक्त स्थान क्या हो सकता है, इस  बारे में पर्याप्त विवेचन किया गया है।
हम मूल प्रश्न पर आएँ।
नारी के लिए संस्कृत में स्त्री, माता, भगिनी, कन्या, बालिका, संतान, पुत्री, स्वसृ, पत्नी, भार्या, अर्द्धांगिनी, गृहिणी, वधू आदि शब्दों  का प्रयोग बतलाता है कि समाज में और वेदों में स्त्री और पुरुष की शारीरिक-बनावट के भेद के वर्णन और विवेचन पर न तो कोई प्रतिबन्ध न उस बारे में कोई असमंजस रहा है।  मुख्य प्रश्न जो आज हमारे लिए यह दुरूह समस्या बन गया है वह उस समाज में पैदा तक नहीं हुआ था।
यदि संस्कृत में लिखे सभी ग्रंथों को देखें तो जहाँ वधू (ऊह्यते पितृ गृहात्, सा वधू), ऊह्या > ऊढा > नवोढा > वधू > नववधू) के अनुसार जिस कन्या को उसके पिता के घर से विवाहकर / ब्याहकर 'लाया' जाता है वह ऊढा या नवोढा है।  यहाँ यह जानना रोचक होगा कि इसी 'उह्' धातु से बनता  है, - 'उक्षन्' जिसका अर्थ है 'ढोनेवाला बैल' जो अंग्रेज़ी में 'oxen' हो जाता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि जहाँ  भारतीय परम्परा में पुरुष के लिए अनेक विवाह करने की अनुमति  है, स्त्री के लिए क्यों नहीं? द्रौपदी का उदाहरण इस बारे में काफी कुछ स्पष्ट कर देता है, द्रौपदी को न सिर्फ पांच भाइयों से उसके विवाह के लिए याद रखा जाता है बल्कि उसे 'सती' अर्थात् 'पतिव्रता' तक कहा गया है। तात्पर्य यह कि भारतीय परंपरा में बहुविवाह, एक से अधिक पति या पत्नियाँ होना निषिद्ध / निंदनीय तक नहीं था। क्या यह भारतीय परंपरा की उदारता ही नहीं कही जा सकती।
वेदों के अनुसार मनुष्य सामाजिक पशु है और विवाह का उद्देश्य श्रेष्ठ कुल का संरक्षण है।  कुल के आधार पर ही वर्णाश्रम परंपरा बनी रह सकती है। और वर्णाश्रम धर्म के अभाव में वेद धर्म के बारे में कुछ नहीं कहते। इस प्रकार अवैदिक धर्म के आचरण करनेवालों के लिए वेद निषिद्ध तक हैं।
वेद जब  मनुष्य को सामाजिक पशु कहते हैं तो उन पशु-बुद्धि युक्त मनुष्यों के लिए वे कुछ ऐसी शिक्षाएँ भी देते हैं जिन पर उन्हें आचरण करने से उनका अधिकतम हित हो। और जैसे पशुओं के समूह में एक राजा होता है, वैसे ही परिवार में एक पुरुष ही परिवार की देखभाल सुरक्षा पालन-पोषण अधिक अच्छी तरह कर सकता है। यौन-सुख विवाह का गौण उद्देश्य है न कि प्रधान।  इसलिए केवल यौन-सुख के लिए किए जानेवाले स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को हेय दृष्टि से देखा जाता है, जबकि विधिपूर्वक संतानोत्पत्ति और वंश-परंपरा चलाने के उद्देश्य से किए जानेवाले विवाह को श्रेष्ठ माना जाता है।
आज की परिस्थितियों में इन सब की हम कल्पना तक नहीं कर पाते।
यदि पुरुष स्त्री को पशु-बुद्धि से देखता है तो उसे किसी भी स्त्री से मित्रवत् व्यवहार करना कठिन हो जाएगा। इसी प्रकार अगर स्त्री यौन-सुख में स्वयं को पुरुष के समान स्वतंत्र अधिकार रखने की कल्पना करती है तो वह अपने आपको एक बिकाऊ सामान की तरह मानती है। वह पुरुष को खरीदना और उसका उपभोग करना चाहती है।  समस्या क्या है?
'काम' और धर्म
अत्यंत प्राचीन काल से ही मनुष्य चित्रों की भाषा का प्रयोग करता चला आ रहा है, आज भी शिवलिङ्ग के रूप में शिव अर्थात् परमेश्वर की पूजा, उपासना, आराधना, भारतीय समाज में एक प्रचलित सर्वमान्य तथ्य है। शिवलिङ्ग मूर्त रूप में जहाँ एक ओर स्पष्टतः पुरुष के उत्थित लिङ्ग के समान है वहीं दूसरी ओर 'शिव' और 'लिङ्ग' शब्दों के संस्कृत व्याकरणसम्मत गूढ अर्थों का भी द्योतक है। जहाँ एक ओर इस सरल प्रतीकचिह्न को अत्यंत अशिक्षित मनुष्य भी सृष्टि के परमपिता के लिङ्ग के रूप में देख सकता है, जहाँ से 'सृष्टि' का बीज जगज्जननी माता के भग (योनि) में स्खलित होकर सृष्टि की रचना करता है।  सृष्टि के इस उद्भव की प्रक्रिया में, चाहे वह मनुष्य, पशु-पक्षी, या वनस्पति के रूप में ही क्यों हो, निंदनीय या हास्यास्पद जैसा क्या है ?
'काम' जब सृजन के रूप में होता है वह जीव-मात्र के लिए प्रजा की उत्पत्ति का साधन है।  पशु और मनुष्य से भिन्न अन्य जीव 'काम-वृत्ति' से मोहित होकर संतानोत्पत्ति करने के लिए बाध्य हैं और विधाता ने उसमें सुख-बुद्धि का संयोग इसलिए किया है कि यदि वह न होता तो जीव प्रजा की उत्पत्ति करने में उत्सुक ही नहीं होता। किन्तु मनुष्यों के लिए -  
गीता अध्याय 7  श्लोक 11 के  अनुसार :
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥
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(बलम् बलवताम् च अहम् कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धः भूतेषु कामः अस्मि भरतर्षभ ॥ )
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भावार्थ :
बलवानों में कामना और आसक्तिरहित अर्थात् मदरहित बल मैं हूँ, हे भरतर्षभ (अर्जुन) ! सम्पूर्ण प्राणियों में प्रजनन का हेतु धर्म से अविरुद्ध अर्थात् धर्मसंगत काम मैं हूँ ।
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टिप्पणी :
यह श्लोक मनुष्य तथा जीवों की सहज नैसर्गिक प्रवृत्ति(यों) और सामाजिक दबावों के व्यक्ति एवं उसके व्यवहार पर पड़नेवाले प्रभाव के संबंध की ओर संक्षेप में किन्तु विस्तार और गहराई से प्रकाश डालता है ।
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वर्णाश्रम धर्म का पालन करनेवालों गृहस्थ मनुष्यों के लिए यह आवश्यक है कि वे संतान की उत्पत्ति करने के लिए कामोपभोग करें। संतान की उत्पत्ति कामोपभोग करने से होगी ही यह भी सुनिश्चित नहीं है इसलिए पुरुष एक से अधिक विवाह कर सकता है। स्त्री के लिए पति के अतिरिक्त किसी पुरुष से संबंध रखना प्रायः निषिद्ध है किन्तु 'नियोग' के बारे में वर्णन देखने पर वेदों में इसके औचित्य को स्वीकार किया गया है।
वैदिक / वर्णाश्रम धर्म की शिक्षा में जोर इस बात पर है कि 'काम' भोग की वस्तु नहीं है विधिबाह्य रीति से काम भोग मनुष्य और समाज के विनाश का ही कारण है।
काम जब साहित्य और कला की अभिव्यक्ति के लिए सन्दर्भ बनता है तो वह श्रृंगार का रूप लेता है।  इसमें शारीरिक उत्तेजनाओं का चरम प्राकट्य हो भी तो भी उसमें कुत्सा या वीभत्सता का लेशमात्र भी नहीं होना चाहिए।  हम रावणकृत शिवतांडव स्तोत्र को पढ़ें तो पाएंगे रावण ने शिव-पार्वती के प्रणय का कितना सुन्दर और स्पष्ट वर्णन किया है :
करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥
(रावणकृत शिवताण्डव स्तोत्रम् श्लोक 7)
या, अध्यात्मरामायण में राम-सीता के विवाह के समय जनकनन्दिनी सीता के 'पीन-पयोधरों' का वर्णन जिनकी शोभा और उभार उनकी पारदर्शक कंचुकी से दिखलाई देता था।
ऐसे अनेक वर्णन श्रीमद्भागवत् या जयदेव की रचनाओं में भी देखे जा सकते हैं।  इसे कुत्सायुक्त मनोभावना से भी ग्रहण किया जा सकता है या इसे काम के दिव्य प्रकार के वर्णन के रूप में भी समझा जा सकता है। किन्तु इसमें विकृत मनोभावनाओं की तुष्टि (?) के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।
संस्कृत में एक प्रचलित उक्ति है :
पुत्रीकुचकाठिन्यं पिता जानाति कुतो ...
इसी प्रकार शङ्कराचार्य कहते हैं :
अत्यन्तकामुकस्यापि वृत्तिः कुण्ठति मातरि।
तथैव ब्रह्मणि ज्ञाते पूर्णानन्दे मनीषिणः ॥
(विवेकचूडामणि श्लोक 444)
अपने माता-पिता या परिवार के अन्य लोगों के प्रति, यहाँ तक कि पत्नी या पति के प्रति भी दूषित बुद्धि  होने पर हम काम के प्रति स्वस्थ-दृष्टि नहीं रख सकते, जबकि प्रेम तथा काम की शुद्धता और आवेग होने पर हर मनुष्य से अपने संबंध को ईश्वरीय प्रसाद की तरह ग्रहण कर सकते हैं।  हाँ कामोपभोग भी उसका एक विशिष्ट अत्यंत महत्वपूर्ण रूप है इससे इंकार नहीं । किन्तु यदि हम स्त्री-पुरुष  समानता और स्वतन्त्रता के नाम पर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करते या होने देते हैं जहाँ हमारा मन विकृत कल्पनाओं में दूषित आनंद की प्राप्ति  की आशा करने लगे, तो वह हमारा मूर्खतापूर्ण भ्रम और मनोविकार मात्र  है जो समाज को अधःपतन की ओर ले जाता है।   
यदि मनुष्य की काम के प्रति स्वस्थ दृष्टि है तो स्त्री-पुरुष संबंध उसके लिए समस्या नहीं बनना चाहिए। किन्तु जब चारों तरफ ऐसा वातावरण हो जो इस स्वस्थ दृष्टि को पैदा ही न होने दे बल्कि उसे विकृत, दूषित और निन्दित , दमित तथा दुरूह बना दे तो वही होता है, हो रहा है।  क्या समाजशास्त्री और विचारकों के पास ऐसी दृष्टि है? भारतीय परंपरा में सनातन-धर्म के समानांतर शैव सिद्धांत हैं जिनमें पञ्च-मकार का अपना स्थान है। और तंत्र की इन 'विधियों' को गुप्त रखने का प्रयोजन यह नहीं है कि वे निंदनीय हैं, बल्कि इसका एकमात्र कारण यह है कि सामान्यतः बिरला ही कोई इसका अधिकारी / पात्र  होता है।  सूत्र है, चित्त की शुद्धि।  यदि कोई भोग-बुद्धि से इस दिशा में प्रवृत्त होता है तो वह प्रारम्भ से ही अत्यंत भ्रमित है।
इसलिए जिन्हें 'शिवलिङ्ग का पूजन क्यों?'  यह समझ में नहीं आता, उन्हें पहले यह समझना होगा कि सृष्टि की प्रक्रिया में गर्हित, हास्यास्पद या निंदनीय क्या है!  स्पष्ट है कि दमित और विकृत 'काम-भावना' ही वह कारण है जिससे ग्रस्त हमारा मन इस सरल से तथ्य को नहीं देख पाता।                          
दूसरी ओर, भक्ति और ज्ञान की परंपराओं में , संस्कृत साहित्य में, जहाँ श्रृंगाररस का वर्णन पाया जाता है वह काम के उदात्त स्वरूप में है न कि वीभत्स, कुत्सित या विकृत रूप में। और सबसे बड़ी बात जिसे हम भूल बैठे हैं  वह है भक्ति ज्ञान योग कर्म या संक्षेप में 'अध्यात्म' या धर्म में मनोरंजन के लिए कोई स्थान नहीं है।  किन्तु हमने धर्म और अध्यात्म को भी मनोरंजन तथा भौतिक इच्छाओं की पूर्ति का साधन समझ रखा है।    
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Saturday, 26 September 2015

शस्त / Chaste

शस्त / Chaste


√शस् > [हिंसायाम् शसति] > शस्त्र
√śas > [hiṃsāyām śasati] > śastra > weapon
√शस् > शङ्क् > शंस् > प्रशस्त, प्रशंसित,
√śas > śaṅk > śaṃs > praśast, praśaṃsita, > to praise, admire,
शस्त / शास्त > न्यायोचित, युक्तिसंगत (आचरण)
 śast > chaste, immaculate, unspoiled,
 अशस्त > अशुद्ध, दोषपूर्ण,  
 un-śast > a-śast > unchaste / incest
अशिष्टं > अन् शिष्ट > असभ्य, असंस्कृत, अशालीन,  
aśiṣṭaṃ / an-śiṣṭam > unchaste / incest
√शास् > [शास्ति] > शिक्षा देना, न्याययुक्त शासन करना, 
 √śāsti >  to teach,  to administrate / to rule over with justice.
√छिद् > काटना, तोड़ना, टुकड़े करना,         
√chid > to cut into parts, to severe, to check, to segment, to segregate.
√ग्रथ्  > गूँथना,  √ग्रह् > ग्रहण करना, 
√grath > to associate,
 √grah > to get, to take, to accept, to select,
ग्रहीत > ग्रहण किया हुआ,
grahīta > collected
अवग्रहीत > स्वीकार किया हुआ
ava-grahīta > aggregate,
छिद्-ग्रहीत >
chid-grahīta > segregated / segregate
√लग् > लगना, संलग्न होना,
√lag > to lag behind, leg, lug, ligate.   
लग्नम् > जुड़ा हुआ,
lagna > log-in, log -on,
अवलग्नम् च > साथ संलग्न,
avalagnaṃ ca > allegiance > being related to 
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Monday, 21 September 2015

In awareness...,

In Awarenes....,

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In awareness, is there any kind of division as object and subject? This division appears and disappears in thought / intellect only, which again arises in awareness only that has neither beginning nor end. Thought / intellect has a beginning and end, when this fact is understood though thought / intellect keep on emerging from and merging again into that awareness which is neither thought nor intellect, there is intelligence. This intelligence that is movement of awareness only, has like-wise awareness, no beginning nor ending / end. It is there as a steady light of Self and verily the Self only.

The thought / intellect has a form and a content. The thought that appears and subsequently is dissolved, is seen in its 'form'. We all know what thought is there in mind. The brain tends to associate another thought of 'me' to this prevalent specific thought. And brain says / translates this as 'my thought'. This 'my' is again another thought only. This sequence / link / chain is caught into itself. And all this fascinating happening appears to take place in awareness. This movement of thought is intellect. Every thought comes to end on its own without exception. But the movement and the 'me' keep intact. But there is yet another kind of ending when this 'content', -this 'me-thought' ends for ever. That means this 'association' of 'me-thought' with other thoughts is snapped. Then though other thought(s) / intellect emerge and are lost, the thought as 'content' has no existence. The 'form' remains as long as there is vital breath that keeps brain alive, but there is no 'me' as subject or object.
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Why this © is here ?
Just to indicate that the writer of this post has written this post independently by himself and has not copied-down from anywhere-else. 

Sunday, 20 September 2015

एक रोचक वाक़या / An interesting incidence :

एक रोचक वाक़या  
An interesting incidence :
आकाशवाणी ने ’ट्वीट्’ किया :
इतिहास हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है । इतिहास से अगर नाता छूट जाता है, तो इतिहास बनाने की संभावनाओं को भी पूर्ण विराम लग जाता है ।
एक मित्र ने उसे ’रि-ट्वीट्’ किया जिसके ’रिप्लाय’ में मैंने ’ट्वीट्’ किया :
क्या हमारी कोई सुनिश्चित पहचान है भी? यदि है तो किस रूप में ?
यदि नहीं तो इतिहास विचारमात्र है । और विचार कोरा भ्रम है जिसकी जड़ें ही नहीं होतीं...और विचार का इतिहास भी नहीं होता जिसके बनने-मिटने या नष्ट होने का प्रश्न उठे ।
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एक रोचक वाक़या  
An interesting incidence :
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A.I.R. 'tweeted' : "History connects us with our roots. If we are lost of this relationship, the possibilities of creating a history come to a full-stop." A friend 're-tweeted' this. And I 'replied' : Do we really have a certain well-defined identity? If yes, in what form? If no, history is a only a thought. ...And thought has no history at all, -whatsoever, which could be made, preserved or lost. Thought is like amara-bel, अमरबेल, a parasitic creeper without roots.
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Monday, 14 September 2015

माण्डूक्य-उपनिषद् / māṇḍūkya-upaniṣad

माण्डूक्य-उपनिषद्
māṇḍūkya-upaniṣad
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शान्तिपाठ
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवान्सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
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ओमित्येदक्षरमिदम् सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥1
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सर्वम् ह्येतद् ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥2
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जागरितस्थानो बहिष्प्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः ॥3
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स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः प्रविविक्तभुक् तैजसो द्वितीयः पादः ॥4
यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तम् ।
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सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक्चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीय पादः ॥5
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एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रव्हवप्ययौ हि भूतानाम् ॥6
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नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम् । अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थ्यं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥7
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सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्रा श्च पादा अकार उकार मकार इति ॥8
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जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्राऽऽप्तेरादिमत्त्वाद्वाऽऽप्नोति ह वै सर्वान्कामानादिश्च भवति य एवं वेद ॥9
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स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षादुभयत्वाद्वोत्कर्षति ह वै ज्ञानसंततिं समानश्च भवति
नास्याब्रह्मवित्कुले भवति य एवं वेद ॥10
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सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा मिनोति ह वा इदं सर्वमपीतिश्च भवति य एवं वेद ॥11
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अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत एवमोङ्कार आत्मैव संविशत्यात्मनाऽऽत्मानं य एवं वेद य एवं वेद ॥12
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शान्तिपाठ
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं  पश्येमाक्षभिर्यजत्राः
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवान्सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
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माण्डूक्य-उपनिषद्
māṇḍūkya-upaniṣad
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śāntipāṭha
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om̐ bhadraṃ karṇebhiḥ śruṇuyāma devā bhadraṃ paśyemākṣabhiryajatrāḥ
sthirairaṅgaistuṣṭuvānsastanūbhirvyaśema devahitaṃ yadāyuḥ |
svasti na indro vṛddhaśravāḥ svasti naḥ pūṣā viśvavedāḥ |
svasti nastārkṣyo ariṣṭanemiḥ svasti no bṛhaspatirdadhātu ||
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omityedakṣaramidam sarvaṃ tasyopavyākhyānaṃ bhūtaṃ bhaviṣyaditi sarvamoṅkāra eva | yaccānyat trikālātītaṃ tadapyoṅkāra eva ||1
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sarvam hyetad brahmāyamātmā brahma so:'yamātmā catuṣpāt ||2
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jāgarita-sthāno bahiṣprajñaḥ saptāṅga ekonaviṃśatimukhaḥ sthūla-bhugvaiśvānaraḥ prathamaḥ pādaḥ ||3
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svapnasthāno:'ntaḥprajñaḥ saptāṅga ekonaviṃśatimukhaḥ praviviktabhuk taijaso dvitīyaḥ pādaḥ ||4
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yatra supto na kañcana kāmaṃ kāmayate na kañcana svapnaṃ paśyati tatsuṣuptam |
suṣuptasthāna ekībhūtaḥ prajñānaghana evānandamayo hyānandabhukcetomukhaḥ prājñastṛtīya pādaḥ ||5
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eṣa sarveśvara eṣa sarvajña eṣo:'ntaryāmyeṣa yoniḥ sarvasya pravhavapyayau hi bhūtānām ||6
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nāntaḥprajñaṃ na bahiṣprajñaṃ nobhayataḥprajñaṃ na prajñānaghanaṃ na prajñaṃ nāprajñam | adṛṣṭamavyavahāryamagrāhyamalakṣaṇamacintyamavyapadeśyamekātmapratyayasāraṃ prapañcopaśamaṃ śāntaṃ śivamadvaitaṃ caturthyaṃ manyante sa ātmā sa vijñeyaḥ ||7
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so:'yamātmādhyakṣaramoṅkāro:'dhimātraṃ pādā mātrā mātrā śca pādā akāra ukāra makāra iti ||8
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jāgaritasthāno vaiśvānaro:'kāraḥ prathamā mātrā:':'pterādimattvādvā:':'pnoti ha vai sarvānkāmānādiśca bhavati ya evaṃ veda ||9
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svapnasthānastaijasa ukāro dvitīyā mātrotkarṣādubhayatvādvotkarṣati ha vai jñānasaṃtatiṃ samānaśca bhavati nāsyābrahmavitkule bhavati ya evaṃ veda ||10
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suṣuptasthānaḥ prājño makārastṛtīyā mātrā miterapītervā minoti ha vā idaṃ sarvamapītiśca bhavati ya evaṃ veda ||11
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amātraścaturtho:'vyavahāryaḥ prapañcopaśamaḥ śivo:'dvaita evamoṅkāra ātmaiva saṃviśatyātmanā:':'tmānaṃ ya evaṃ veda ya evaṃ veda ||12
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śāntipāṭha
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om̐ bhadraṃ karṇebhiḥ śruṇuyāma devā bhadraṃ paśyemākṣabhiryajatrāḥ
sthirairaṅgaistuṣṭuvānsastanūbhirvyaśema devahitaṃ yadāyuḥ |
svasti na indro vṛddhaśravāḥ svasti naḥ pūṣā viśvavedāḥ |
svasti nastārkṣyo ariṣṭanemiḥ svasti no bṛhaspatirdadhātu ||
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माण्डूक्य-उपनिषद् / māṇḍūkya-upaniṣad 1.

Attention and the three states of consciousness.
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I found this link is useful in explaining and understanding a core-problem of  our states of consciousness.

The picture though a two-dimensional presentation of a three-dimensional object also serves as an example of optical illusion, where 2-D and 3-D are confounded in perception.
To understand this the context of the माण्डूक्य-उपनिषद् / māṇḍūkya-upaniṣad will be also of immense help.The reader may find the relevant references elsewhere. And it is abundantly available, so I am not presenting that scripture here any more.
'Attention' is the most common and prominent evidence of all conscious being.
In other words,
 Consciousness implies presence of attention, and Conversely, Presence of Consciousness implies presence of 'attention'.The absence of attention is also known because of attention only and can't exist on its own.I don't think this needs any more elaboration.Again, the three states of consciousness which may be taken as another word of 'mind' in active state, namely
1. The waking state when there is thought or perception of a world and a response to the sensory perceptions.
2. The dream state when the sensory perceptions of a 'world' stop, but another dimension of consciousness opens up where at a subtle thought-level or dream-level appears and though this dream is similar to the 'world', this world exists with dream-state only, and is gone in,
3. Deep dreamless state of consciousness which we call 'sleep'.In this third state though one could be waken up from some agency, one has no evidence of that agency while absorbed in deep sleep.This indicates that the attention is usually focused in one state of consciousness only at a time.
The moving round ball in the photo in the link given above could be treated as 'attention'.Though the ball moves in 2-D and 3-D paths, we can't see the 2 images of this object in the picture in the same moment.That is because of optical illusion.
Similarly, while we are awake, we can't enter the dream state or the sleep-state.In fact these three states are mutually exclusive and are registered in memory because of attention only.
माण्डूक्य-उपनिषद् / māṇḍūkya-upaniṣad precisely deals with the Reality-Principle on this fundamental understanding and approach.
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Thursday, 10 September 2015

विश्व-हिन्दी-सम्मेलन :2015

विश्व-हिन्दी-सम्मेलन :2015
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आज सुबह ही ’रेडिफ़्’ के एक समाचार पर यह टिप्पणी की थी :
To-day I had posted a comment on a Business-Standard News-blog on 'Rediff'.
Believe it or not, Hindi is going to be the future world-language, one among the topmost.
This is not exaggeration or emotional out-break, but there are reasons to hope this.
अभी 4:00 बजे आकाशवाणी की एस्-एम्.एस्. सेवा में प्रधानमंत्री जी का यह संदेश पढ़ा :
"हिन्दी आनेवाले समय में विश्व की 3 सर्वाधिक प्रचलित, बोली-समझी, जानी-जानेवाली और प्रयुक्त भाषा होगी ।"
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और पौने चार बजे नींद से जागने के पूर्व यह रचना मन में प्रकट हुई :
एकदा ब्रह्मणा उक्तम् :
’एकोऽहं बहुस्यामि..."
ततो वाचजायत् ।
वाचा कथितम् :
"अहमपि"
"कथं?"
पप्रच्छ स ।
सा उवाच :
"भवितास्मि बहुला, बहुरूपा वा ॥
"आम्!"
उक्तवान् ब्रह्मन् ।
"आम्" "आङ्" प्रत्ययेन ग्लानिर्भूता  आङ्ग्लभाषा बभूव सा।
अथञ्च प्रीत्या फ्रेञ्च,
जीर्यमाणा जर्मन्,
दैन्यत्वेन डेन्,
स्वीयत्वेन स्वीदिश्,
स्वित् / स्विद्
चिह्नत्वेन चिन् / चैनं
ब्रह्मत्वेन ब्राह्मणी / बर्मन् वा,
तमत्वेन तमिलं,
शकैः शाक्या / चेगिति,
पञ्चनद्यैः पञ्चाप / पंजाबिति,
त्रिविदाः त्रिवता / तिब्बतीया,
शार्दूलत्वेन सिंहिकायाः सिंहला,
अपि च तैलङ्गत्वेन तेलुगुः।
कर्णत्वेन कर्णाटकीया,
तथा च मलयाद्रि-प्रवहती मलया,
मलयालम् / मलयापि,
इन्दुदेशे इन्दवीया / हिन्दवी / ऐन्दवं,
इन्दोनेशियाम् अपि ।
सिंधुदेशे सैंधवी।
प्रकृत्या प्राकृत, पालिता च पालिनाम्ना,
वामत्वेन वंग-बंग,
उडुत्वेन औडीया / ओडिशिया।
केसरत्वेन काश्मीरा,
पुष्टा च पष्तोः ।
पिशाचैः पैशाची,
शरदत्वेन शारदा।
ब्राह्मी अतो हि ब्रह्मरूपा "
"आम्"
आशीरुवाच ब्रह्म। … 
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And received a message from AIR news Service :
P.M. Narendra Modi said in his address on the occasion of World-Hindi-Conference in Bhopal to-day:
"Hindi will be one of the top 3 languages prominantly spoken and understood in the coming times..."  And before wakung up from my afternoon nap, I was composing this in my dream-like state :    
ekadā brahmaṇā uktam :
’eko:'haṃ bahusyāmi..."
tato vācajāyat |
vācā kathitam :
"ahamapi"
"kathaṃ?"
papraccha sa |
sā uvāca :
"bhavitāsmi bahulā, bahurūpā vā ||
"ām!"
uktavān brahman |
"ām" "āṅ" pratyayena glānirbhūtā  āṅglabhāṣā babhūva sā|
athañca prītyā phreñca,
jīryamāṇā jarman,
dainyatvena ḍen,
svīyatvena svīdiś,
cihnatvena cin / cainaṃ
brahmatvena brāhmaṇī / barman vā,
tamatvena tamilaṃ,
śakaiḥ śākyā / cegiti,
pañcanadyaiḥ pañcāpa / paṃjābiti,
trividāḥ trivatā / tibbatīyā,
śārdūlatvena siṃhikāyāḥ siṃhalā,
api ca tailaṅgatvena teluguḥ|
karṇatvena karṇāṭakīyā,
tathā ca malayādri-pravahatī malayā,
malayālam / malayāpi,
indudeśe indavīyā / hindavī / aindavaṃ,
indoneśiyām api |
siṃdhudeśe saiṃdhavī|
prakṛtyā prākṛta, pālitā ca pālināmnā,
vāmatvena vaṃga-baṃga,
uḍutvena auḍīyā / oḍiśiyā|
kesaratvena kāśmīrā,
puṣṭā ca paṣtoḥ |
piśācaiḥ paiśācī,
śaradatvena śāradā|
brāhmī ato hi brahmarūpā "
"ām"
āśīruvāca brahma …
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The Translation is as follows :
Once brahma / the creative aspect of
Lord Supreme announced :
Though One, shall become many.
As soon He spoke these words,
Goddess 'Vak' emanated from His mouth.
Thus She was verily His daughter.
"I too!"
Exclaimed She.
"How?"
Asked brahma.
To this She replied :
"I shall be through my myriad forms.
"ām!"
brahma blessed Her.
From this ām She was just exhausted,
And āṅglabhāṣā The English was born.
With prītyā phreñca, with Her love,
Was born French,
jīryamāṇā jarman,
owing to decline, German,
dainyatvena ḍen,
Owing to humility
Dane,
svīyatvena svīdiś,
Owing to self-concern,
Sweedish,
swit / swid,
Or like-wise,
from swet,
Swiss,
cihnatvena cin / cainaṃ
Owing to 'sign'
The Chinese,
brahmatvena brāhmaṇī / barman vā,
According to Her Brahman-form,
'Brāhmī' / Burman,
tamatvena tamilaṃ,
Owing to pervasiveness Tamil,
śakaiḥ śākyā / cegiti,
Czech from Her Strength,
pañcanadyaiḥ pañcāpa / paṃjābiti,
(Apart from Ganges and yamunā),
Having 5 rivers / waters as Her form
She got the name - Punjab,
trividāḥ trivatā / tibbatīyā,
Expressing Truth in 3 ways,
She became Tibetan,
śārdūlatvena siṃhikāyāḥ siṃhalā,
cub to lioness
Became siṃhalā, (Ceylonese)
api ca tailaṅgatvena teluguḥ
Again, by Her affection,
She became Telugu,
karṇatvena karṇāṭakīyā,
Because of Her generosity,
Kannada,
tathā ca malayādri-pravahatī malayā,
malayālam / malayāpi,
MalayAlam, Malaya / Malayan
Owing to Her wandering / flowing through the Malaya peaks,
indudeśe indavīyā / hindavī / aindavaṃ,
indoneśiyām api |
Her connection with moon,
Indonesian, Hindi,
indoneśiyām api |
siṃdhudeśe saiṃdhavī|
Like-wise, Sindhi, Persian,
Because She touched those places.
prakṛtyā prākṛta, pālitā ca pālināmnā,
Owing to Her inherent nature,
Became prākṛta,
pālitā,
Being loving and nourishing,
vāmatvena vaṃga-baṃga,
uḍutvena auḍīyā / oḍiśiyā|
kesaratvena kāśmīrā,
Bengali, Oriya, Kashmiri,
Because they are Her own people,
puṣṭā ca paṣtoḥ |
Nourishing, Pashto,
piśācaiḥ paiśācī,
Even to those who are cannibals,
Who ate raw flesh,
She became paiśācī,
śaradatvena śāradā|
Being Kind and Graceful,
She is śāradā
brāhmī ato hi brahmarūpā
Because I am Reality Supreme,
I am brāhmī also.
Declared She,
The Mother To All
(Languages in Language-form),
"ām"
"May Your words come true!"
āśīruvāca brahma| …
Blessing Her, spoke Brahman
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Monday, 7 September 2015

काशी विश्वनाथ / kāśī-viśvanātha

काशी -विश्वनाथ 
आज की संस्कृत रचना
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आकाशेनावृतो काशो काशे तिष्ठति दिगम्बरो ।
गुहायाम् परमे हृदये नमो तं गुहानिवासिने ॥
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ākāśenāvṛto kāśo kāśe tiṣṭhati digambaro |
guhāyām parame hṛdaye namo taṃ guhānivāsine ||
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अर्थ : जीवाकाश बाह्य इन्द्रियगोचर आकाश से आच्छादित  है, अन्तराकाश जीव-भावरूपी आकाश से आच्छादित है, दिगम्बर परमात्मा जीव-भाव से आच्छादित है, उस दिगम्बर शिव को प्रणाम जो समस्त प्राणियों के अन्तर्हृदय में आत्म-भाव से प्रतिष्ठित है ।
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Meaning :
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The body soul is surrounded by the physical space. the embodied soul is surrounded by the space of the senses, Shiva is surrounded by the the sense of self that hides His Reality from us, I bow to That Lord Shiva who is ever so surrounded by the clothes of directions, otherwise a Bare Reality indeed.
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Note : kāśī-viśvanātha is a  शिव-लिङ्ग / śiva-liṅga in वाराणसी vārāṇasī situated in a deeper level in ground. This is also true in a deeper sense as explained in the above श्लोक śloka composed just now by myself.
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Tuesday, 1 September 2015

Mind, Consciousness and 'The Knowing'.

Mind, Consciousness and 'The Knowing'.
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Prelude :
My Face-book Status-update yesterday :
I was just thinking : In what respects the language of Art is similar to, or different from the language of dreams?
Going to check!
Good Night
p.s.
I was just dreaming, comparing Art with thinking while asleep!
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Mind, Consciousness and 'The Knowing'.

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The mind is an Artist who creates in two modes.

Narrative, - as in thought,
Descriptive / Demonstrative - as in dream.
Another way of looking at this fact may be,
There is voluntary creation and / or involuntary creation on the part of the mind.
Again, one may think either voluntarily as when one thinks in a specific direction, about something (object) of choice or compulsion.
Or, when one let the thinking just happen and let the thought takes its own course.
Another interesting fact is :
Imagination too can follow one of these ways.
To elaborate,
When it springs up on its own or is directed to some specific object of choice or compulsion.
Knowing, on the other hand is neither of the two.
Knowing is but having the perception how the creation is taking place.
Is it voluntary or involuntary.
Is it narrative, or descriptive?
Is knowing voluntary or involuntary?
Is knowing narrative or descriptive?
Is knowing a happening?
Is knowing an 'event'.
Thought / dream are kind of 'event' / happening that have a beginning and come to an end..
Is knowing an 'event' / happening that has / may have a beginning and come to an end.
True, knowing is a timeless movement  in and beyond consciousness where-as consciousness is itself an 'event' / happening that has a beginning and an end too.
This movement of knowing is timeless, because it is neither static nor confined in its movement.
The narrative and the descriptive are ever so confined in time, space and consciousness.
And these 3 constitute an event, a happening.
Knowing is the ground, the canvas over which consciousness paints a picture, -in terms of a narrative or a descriptive form.
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Corollary  :
Could we distinguish between mind and consciousness?
Or, are they two words only for the same entity?
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