Saturday, 16 August 2025

THE CRITERIA.

चन्द्रमा मनसो जातः 

The Moon is Man-made.


प्रायः वेद और सनातन धर्म के विरोधी प्रश्न उठाते हैं कि क्या वेद विज्ञान-सम्मत है?

पूर्वाग्रह से पूर्ण इस प्रश्न में पहले से ही यह मान लिया जाता है कि अंतिम और पूर्ण सत्य विज्ञान-सम्मत होना चाहिए। जबकि यू-ट्यूब के इस वीडियो से स्पष्ट है कि इसकी कसौटी तो यह होना चाहिए कि इसके विपरीत क्या विज्ञान वेद सम्मत है? वेद किसी प्रकार का आग्रह नहीं करता इसलिए उसके विज्ञान-सम्मत होने या न होने का प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु वेद के वचनों के परीक्षा करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वेद विज्ञान-विरोधी भी नहीं है।

पुरुष-सूक्तम् में कहा गया है :

चन्द्रमा मनसो जातः।। 

अर्थात् चन्द्रमा की उत्पत्ति मन से होती है और मन का अर्थ है मनुष्य का मन न कि मनुष्येतर किसी भी दूसरे प्राणी का मन या बुद्धि। क्योंकि तारतम्य युक्त बुद्धि मनुष्य के ही मन का पर्याय है।

चन्द्रमा संभवतः पृथ्वी पर रहनेवाले किसी मनुष्य के द्वारा निर्मित और पृथ्वी के कृत्रिम उपग्रह के रूप में प्रक्षेपित किया गया ऐसा उपग्रह हो सकता है।

प्रथमतः तो यही पुरुष-सूक्तम् से प्राप्त निष्कर्ष और विज्ञान-सम्मत सत्य जान पड़ता है।

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Tuesday, 22 July 2025

Expectations, Fears,

Doubts and Uncertainties  .

The Fragile Dreams

P O E T R Y. 

A moment in life,

When a mission has been accomplished,

And you're sitting silently, 

In your armchair,

Or on a sofa, 

Placed before a T V,

Enjoying a favorite Channel,

And The very next moment,

Brings the news about something,

All your peace of mind, 

Is shattered like glass,

You may switch off the T V,

May try to get up,

To Leave the place,

Still the pieces of the shattered glass, 

Obstruct your steps.

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Friday, 9 May 2025

Operation Sindoor!

वन्दे मातरम्!

स जयति सिन्धुर् वदनो देवो यत्पादपंकजस्मरणम्।

वासरमणिरिव तमसां राशीन्नाशयति विघ्नानाम्।।

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पता नहीं किसी का ध्यान इस पर गया भी है या नहीं कि 

सिन्दूर / Vermilion / HgCl 

एक अत्यन्त शक्तिशाली रसायन, द्रव्य है जिसका प्रयोग अनेक तांत्रिक क्रियाओं में, और विशिष्ट दैवी शक्तियों जैसे गणेश, दुर्गा और हनुमान का आवाहन करने और उनकी उपासना करने के लिए और उन्हें प्रसन्न करने के लिए किया जाता है।

यह केवल एक संयोग नहीं है कि भारत और भारत के  प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने,

यह एक शब्द-बाण चलाकर पूरे विश्व के समक्ष भारत की क्षमताओं का प्रदर्शन कर दिया है। 

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Friday, 28 March 2025

This Morning!

विचार और ध्यान

कुछ समय से, दो तीन महीनों से सारा क्रम बदल गया है। रोज ही रात को 08:00 बजे नींद आने लगती है तो सो जाता हूँ रात 01:00 के बाद नींद खुल जाती है, और कभी कभी सुबह तक नहीं आती। सुबह 06:00 बजे के आसपास घूमने निकल जाता हूँ, और 07:15 तक लौट आता हूँ। फिर 09:00 तक सुबह के काम, सफाई और किचन का काम, फिर दोपहर 12:00 तक खाना खाकर विश्राम - 01:00 से 02:00 या 02: 30 तक। लेकिन कुछ तय नहीं। फिर बस छत पर या बाहर जंगल में या रोड पर टहलते रहना। कभी कभी किसी का कॉल आने  पर आधे एक घंटे तक या उससे भी अधिक समय तक बातें करते रहना। हर दो चार दिनों में एक, दो या अधिक बार भी। जब नींद आ रही हो तब सो जाना और नींद पूरी हो जाने पर उठकर बैठ जाना या किसी शारीरिक काम में लग जाना जिसमें "सोचने" की आवश्यकता नहीं होती। वास्तव में "सोचना" वह भाषागत और मानसिक विधा / गतिविधि होती है जो कि शारीरिक कार्य के साथ कभी तो समायोजित हो सकती है और कभी कभी नहीं भी हो पाती है। जैसे कि साइकल चलाना या कि स्विमिंग करना। आप जब साइकल चलाना या तैरना सीख रहे होते हैं, तब आपका ध्यान साइकल चलाने या तैरने की तकनीक पर ऐसा एकाग्र होता है कि आपके लिए विचार कर पाना संभव नहीं हो पाता। और जब आप साइकल चलाने या तैरने की तकनीक अच्छी तरह से सीख लेते हैं तो किसी से बातें करते हुए, मन ही मन कुछ "सोचते" या कुछ गुनगुनाते हुए भी उस कार्य को आसानी से और  अच्छी तरह से करने लगते हैं। कमरे में, बाहर कहीं भी, छत पर या सड़क पर चुपचाप टहलते रहना, क्योंकि तब कुछ "सोचना" आवश्यक नहीं होता। आप यदि थक गए हों तो सोफ़े पर या कुर्सी पर चुपचाप बैठे रह सकते हैं। प्यास लग रही हो तो पानी पी सकते हैं, भूख लग रही हो तो कुछ खा सकते हैं। इन सभी चेष्टाओं में शरीर उसका कार्य - जो केवल तकनीकी होता है, अनायास ही करने लगता है और वहाँ "सोचने" की कोई भूमिका नहीं होती। और यदि शरीर में किसी प्रकार की परेशानी हो तो उस परेशानी को चूँकि शरीर स्वयं ही दूर कर लेता है इसलिए "सोचना" आवश्यक नहीं होता। तब किन्तु "सोचने" का अभ्यस्त "मन" - आदतन कुछ सोच रहा होता है इसलिए "सोचने" से बाहर न आने का कोई बहाना खोज लेता है और यंत्रवत "सोचते हुए" सोचने के कार्य में डूबा रहता है। "मन" तब "सोचने" का ऐसा गुलाम हो जाता है कि उसकी "समझ पाने" की क्षमता खो जाती है। वह "मैं क्या करूँ!" इस सोच से प्रभावित होकर स्वयं से ही यह सवाल कर बैठता है और उसका प्रत्युत्तर भी "सोच" में खोजता है। इस प्रयास में उसका "ध्यान" / attention किसी विषय पर जाता है और उस विषय के प्रिय होने पर उससे संलग्न हो जाता है, या अप्रिय होने पर उससे दूर हट जाता है। इस प्रकार "विचार", "मन" को हमेशा ही अंकुश में रखता है और इस विकट स्थिति पर शायद कभी किसी का ध्यान तब तक नहीं जाता, जब तक कि कोई दूसरा व्यक्ति या दूसरी परिस्थिति इसके लिए उसे बाध्य नहीं कर देती। "ध्यान होने" और "विचार होने" तथा "ध्यान करने" और "विचार करने" के बीच का यह मौलिक भेद समझते ही "मन" आदतन / अभ्यस्त होकर सोचते रहने की इस "बाध्यता" से मुक्त हो जाता है, और सहज ही तय कर सकता है कि चुप कैसे रहा जाता है। कब चुप रहना है और कब भाषागत "विचार" को किसी कार्य को करने की अनुमति देना है।

इस सब पर पिछले दो तीन महीनों में ध्यान जा पाया। उससे पहले ऐसा नहीं था। तब एक दिन एकाएक समझ में आया कि "सोचना" असावधानी / प्रमाद / लापरवाही से पैदा हो जानेवाली एक ऐसी आदत है जिस पर ध्यान दिए जाते ही "सोचना" अनैच्छिक बाध्यता से ऐच्छिक मानसिक कार्य में रूपान्तरित हो सकता है। जैसे किसी को असावधानी से सिगरेट पीने की आदत हो जाती है, सोचना भी उसी तरह लापरवाही से पैदा हुई अभ्यस्तता और बाध्यता हो सकता है। और जैसे सिगरेट पीने की आदत जिसे होती है उसके लिए इस आदत को छोड़ पाना आसान नहीं होता ठीक उसी तरह, असावधानी से "सोचने" का अभ्यस्त व्यक्ति ऊलजलूल, व्यर्थ की चीजें सोचने के लिए बाध्य होता है और उसका "सोचते रहने" का यह रोग निरन्तर बढ़ता ही चला जाता है।

अपना बचपन याद आता है तो स्मरण आता है कि बच्चा बिना प्रयास ही भाषा से अनभिज्ञ होने से केवल अनुभव में जीता है और किसी भी अनुभव को शब्द नहीं देता है। फिर वह दूसरों के शब्दों को सुनते हुए कुछ ऐसे शब्दों को दोहराना सीख लेता है जिनका अर्थ उसे कभी कभी तो स्पष्ट होता है किन्तु कभी कभी उसके लिए यह संभव नहीं होता क्योंकि कुछ शब्द किसी वस्तु, व्यक्ति, समूह, स्थान, घटना या अनुभव विशेष के द्योतक होते हैं, और कुछ शब्द केवल किसी भाव विशेष के द्योतक होते हैं। इसलिए अपनी स्मृति में वस्तु, व्यक्ति, समूह या स्थान के लिए प्रयुक्त किसी शब्द विशेष को तो उस वस्तु, व्यक्ति, समूह या स्थान आदि से संबद्ध कर लिया जाता है, और उस तरीके से भाषा को स्मृति में स्थान दे दिया जाता है। भाष पर आश्रित केवल शाब्दिक ज्ञान अर्थात् "सूचना" / स्मृति information ही तो कृत्रिम ज्ञान Artificial intelligence का जनक है।

ध्यान सहज, स्वाभाविक, अनायास, स्वतंत्र और निरपेक्ष अकृत्रिम नित्य भान है,

जबकि विचार -

जानकारी, सूचना पर आश्रित कृत्रिम ज्ञान मात्र होता है। 

.... क्रमशः ... 

***


 

 

Thursday, 27 March 2025

The Sun and The Moon

Gita 10/6 and 10/21

धर्म-क्षेत्र, कार्य-क्षेत्र और अधिकार-क्षेत्र

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संपूर्ण अस्तित्व धर्मक्षेत्र है जिसमें समस्त चर-अचर भूत-मात्र का अपना अपना अलग अलग विशिष्ट कार्य-क्षेत्र और अधिकार-क्षेत्र है।

जब तक समस्त चर और अचर भूतमात्र अपनी मर्यादा में रहते हुए इस अपने अपने विशिष्ट कार्य-क्षेत्र में धर्म का आचरण करते हैं तब तक सर्वत्र सामञ्जस्य सुख शान्ति होती है। इनमें से कोई भी जब इस मर्यादा का उल्लंघन करते हैं यह सुख शान्ति, सामञ्जस्य, व्यवस्था भंग हो जाती है और संसार में असन्तुलन, अशान्ति, असन्तोष, अराजकता और उपद्रव होने लगते हैं। जब तक ऐसा रहता है, तब तक संसार का कार्य सुचारु, सुव्यवस्थित रूप से नहीं चल सकता। किन्तु कालक्रम से नियन्ता के द्वारा स्थापित धर्म से ही यह क्रम भी अंततः समाप्त हो जाता है। आकाशीय और अन्तरिक्ष में स्थित समस्त पिंड इस कालक्रम के द्योतक लक्षण होते हैं। 

इसका प्रारंभ के सूचक आकाश में स्थित स्वस्तिक मंडल में स्थित सात नक्षत्र अर्थात् सप्तर्षि हैं -

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारः मनवस्तथा। 

मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमा प्रजाः।।६।।

श्रीभगवानुवाच 

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।

प्रधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।१९।।

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।

अहमादिश्च मध्यश्च भूतानामन्तमेव च।।२०।।

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।

मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं अहं शशी।।२१।।

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।२२।।

रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।

वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।२३।।

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।।

सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।२४।।

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।२५।।

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।२६।।

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि मामृतोद्भवम्।

ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।।२७।।

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।

प्रजनश्चास्मि कन्दर्पो सर्पाणामस्मि वासुकिः।।२८।।

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।

पित्-रृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतातमहम्।।२९।।

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।

मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।।३०।।

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।३१।।

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।

अध्यात्मविद्याविद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।३२।।

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।

अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।३३।।

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।३४।।

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।

मासानां मार्गशीर्षोऽहं ऋतूनां कुसुमाकरः।।३५।।

द्यूतं छलयितामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्। 

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।३६।।

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।३७।।

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषिताम्।

मौनं चास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।३८।।

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

(*तस्याहमर्जुन?)

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।३९।।

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतिनां परन्तप।

एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।४०।।

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव च।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।४१।।

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।

विष्टभ्यामहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।४२।।

इस पूरे प्रसंग में सप्तर्षियों से लेकर समस्त ग्रहों और नक्षत्रों, राशियों और काल-स्थान के द्योतक अदृश्य ग्रहों  राहु एवं केतु सहित स्थूल जगत् की समस्त स्थूल, सूक्ष्म  वस्तुओं और भूतमात्रों के -

आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक

कार्य-क्षेत्रों और अधिकार-क्षेत्रों का वर्णन किया गया।

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महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारः मनवस्तथा।



Tuesday, 11 March 2025

Rg / Ego, Yajurveda, sAma, atharva.

ऋग्, यजु, साम, अथर्व 

Rg, Yaju, SAma, Atharva. 

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The auto-editor --

मैने लिखना चाहा था -

ऋग्, यजु, साम, अथर्व,

लेकिन  'Rg'  टाइप करते ही आटो एडिटर से यह 'Ego' हो गया! इससे अनुमान कर सकते हैं कि ऋग् अर्थात् ऋ 

"तस्य इतो  / इतः लोपो"

सूत्र के अनुसार ग् का लोप होने से ऐसा हो जाता है।

इसी प्रकार ऋक् तथा ऋज् ऋष् में भी ऋ अक्षुण्ण रहता है।

ऋ अर्थात् अद्वैत से ऋग् अर्थात् Ego  का जन्म / उत्पत्ति होने के बाद -

युज् / यज् / यजु / युग् / युगल / द्वैत की अभिव्यक्ति / उत्पत्ति होती है।

ऋष् से ही ऋषि -

ऋषयः मन्त्रदृष्टारः। 

क्योंकि ऋष् अर्थात् चलने या गति होने से ऋषित्व अभिव्यक्त होता है।  ऋग् से ऋग्वेद और यज् से यजुर्वेद का उद्भव होने पर उनके पारस्परिक व्यवहार से अराजकता / युज् का उद्भव होता है,  और उनके सम्यक् संतुलन से साम का उद्भव। थृ / थर् धातु से थर्व् अर्थात् कम्प् , इस धातु से थरथराना, काँपना और थर्वा पद का उद्भव होता है और थर्व् से ही अथर्व और अथर्वा वेद / ऋषि का । अथर्व का अर्थ हुआ - अकम्प, अविचल, स्थिर। 

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Sunday, 19 January 2025

The Omen.

Referring to Indirectly,

For He shouldn't be named. 

He is so strong and Powerful.

Like the Virtual BrahmarAkShasa.

For He is The Lord of these Times!

These are the crucial Times, 

When no-one can Fight Him,

But for sure, one can Elude and Evade Him. 

Remember this mantra, That is to be chanted with pure mind,

In the Spirit of a devotional hymn.

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कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च।

ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम्।।

It is enough to remember and chant this everyday at a certain time in the morning / evening. Please don't share this post or the mantra with anyone. 

Caution :

As, Sharing this with anyone may attract His attention and wrath too, so just be careful!

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Saturday, 11 January 2025

The Solar Transit

सायन और निरयण 

बहुत समय से इस ब्लॉग में कुछ लिखने के लिए उपयुक्त विषय नहीं दिखाई दे रहा था। किन्तु पिछले कुछ दिनों से जो ज्योतिषीय घटनाक्रम आकाश में और धरती पर भी उससे जुड़ा भौगोलिक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, घटनाक्रम दिखाई दे रहा है उससे आज शाम अभी आधे घन्टे पहले मन में यह कौंध की किस प्रकार सूर्य का धनु राशि से निकलकर मगर राशि में प्रवेश होने जा रहा है, और उसका प्रभाव किस तरह संपूर्ण मनुष्य जगत्, जीव और वनस्पति जगत् पर होने जा रहा है यह जानना और इसका अध्ययन करना अत्यन्त रोचक और ज्ञान प्रदान करनेवाला कार्य हो सकता है।

किसी भी ग्रह की गति को सायन और निरयण इन दोनों आधारों पर देखकर उसके राशि परिवर्तन की तिथियों के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार से ज्योतिषीय आकलन किया जा सकता है।

अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प 20 जनवरी को पद की शपथ ग्रहण करेंगे ऐसा कहा जा सकता है। और 20 या 21 जनवरी के आसपास सूर्य का राशि परिवर्तन धनु राशि से मकर राशि में होगा। निरयण गणित के आधार पर यह होता है। किन्तु सायन गणित के आधार पर सूर्य 13 या 14 जनवरी को ही धनु राशि से निकलकर मकर में प्रवेश कर लेगा। मैं नहीं जानता इस दृष्टि से ज्योतिष शास्त्र के अध्येताओं ने कभी अध्ययन और विवेचना की है? क्योंकि यह संभवतः हमें देखने की एक नई दृष्टि दे सकता है। वैसे तो यह प्रत्येक वर्ष ही होता है, किन्तु इस बार इसका महत्व अधिक प्रतीत हो रहा है। यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि अभी जो भी घटित हो रहा है, उसमें अप्रत्याशित परिवर्तन निकट भविष्य में देखने को मिलेगा। चाहे वह अंतरराष्ट्रीय संबंधों में हो, भौगोलिक, राजनीतिक घटनाक्रमों में हो या व्यक्ति-विशेष के अपने संबंधों में हो। सभी स्थितियाँ और परिस्थितियाँ इतनी तेजी से बदलेंगी और विशेष रूप से हर व्यक्ति का सोचने विचारने का तरीका भी इतना बदलेगा कि वह स्वयं ही इसे महसूस भी करेगा। संसार में अनिश्चितताओं, भय, आशंकाओं और आश्चर्यों का एक नया क्रम शुरू होगा।

यह भविष्यवाणी सभी लोगों, स्थानों और देशों आदि के संबंध में सत्य सिद्ध हो सकती है। 

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Tuesday, 22 October 2024

Equivalents / समत्व

संस्कृत, गणित, भाषा अध्यात्म और कला / संगीत

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गणित में स्नातकोत्तर कक्षा में अध्ययन करते समय यह कल्पना उठी थी कि कभी गणितीय समत्व-सम्बन्ध की अवधारणा (Mathematical concept of the equivalence relation) पर कुछ शोध करना चाहिए। पिछले एक दो वर्षों में बार बार इस पर ध्यान गया किन्तु आज कुछ लिखने का संयोग बन रहा है।

पहले आधुनिक बीजगणितीय संदर्भ / Abstract or Modern Algebra  में जो पढ़ा था और यद्यपि अब जो पुराना हो चुका है -

उदाहरण के लिए किताब, पुस्तक और बुक। 

ये तीन वस्तुएँ एक ही वस्तु के तीन नाम हैं। इसी प्रकार  अर्थ, मीनिंग और सेन्स।

किताब, पुस्तक और बुक भौतिक वस्तुएँ हैं जबकि अर्थ, मीनिंग और सेन्स मानसिक 

प्रत्यय / संवेदन  (mental perception)  हैं। 

संवेदन भी पुनः दो प्रकार का हो सकता है -

एक तो जैसा बुद्धि या स्थूल ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से होता है जैसे स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, गंध, और श्रवण।

दूसरा चित्त में होनेवाला वृत्तिरूपी संवेदन जो पुनः अहंकार, मन, बुद्धि तथा चित्त इन चार रूपों में होता है। ये चारों भी समत्व-सम्बन्ध की दृष्टि से परस्पर एक ही वस्तु - अंतःकरण के द्योतक हैं।

पुनः किताब, पुस्तक और बुक के उदाहरण के बारे में  -

ये सभी शब्द एक ही वस्तु के द्योतक हैं। इसलिए इन विभिन्न शब्दों के बीच इस दृष्टि से समत्व-सम्बन्ध है।

अब मान लीजिए  a, b और c एक ऐसे समूह  set  के तत्व / elements  हैं जिनके बीच समत्व-सम्बन्ध है जैसे हम पाँच स्वरों / vowels को एक समूह में रखें तो उनमें से प्रत्येक ही एक स्वर है और इसलिए प्रत्येक स्वर स्वयं से ही समत्व-सम्बन्ध में है। चूँकि प्रत्येक ही स्वर भी परिभाषा से ही और यूँ भी अपने आपसे समत्व-सम्बन्ध में है, और इसे सांकेतिक भाषा में 

a~a

से व्यक्त किया जा सकता है।

इसी प्रकार यदि a और b  के बीच यह संबंध है तो कहेंगे :

a~b <=> b~a,

अब यदि  a~b, b~c हो और इससे  c~a भी सत्य हो तो कहा जाएगा कि  a, b और c एक ही समत्व-समूह (equivalence set) बनाते हैं। सांकेतिक रूप में :

 a~b, b~c => c~a.

पुनः श्रीमद्भगवद्गीता के पाँच श्लोकों

2/48, 4/22, 9/28, 12/18 तथा 18/54

में इसे ही इस प्रकार कहा गया है :

अध्याय २

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। 

सिद्ध्यसिद्ध्योः समं भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।४८।।

अध्याय ४

यदृच्छा लाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। 

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबद्ध्यते।।२२।।

अध्याय ९

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। 

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।२९।।

अध्याय १२

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। 

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।१८।।

अध्याय १८

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। 

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।

इसके ही समानान्तर हैं विभिन्न सहस्रनाम स्तोत्र जैसे :

शिवसहस्रनाम, विष्णुसहस्रनाम, देवीसहस्रनाम और  नर्मदासहस्रनाम आदि।

पुनः ईश्वरोगुरु आत्मेति मूर्तिभेदाविभागिने। 

व्योमवद् व्याप्त देहाय दक्षिणामूर्तये नमः।।

में भी इसी सत्य का प्रतिपादन किया गया है।

सगुण साकार ब्रह्म को ही ईश्वर कहा जाता है।  जगत्, जीव और माया ये भी पुनः एक ही वस्तु के पर्याय हैं क्योंकि इनमें से प्रत्येक शेष दोनों पर आश्रित है और उन तीनों में से एक के अभाव में शेष दो भी नहीं पाए जाते। 

किन्तु निर्गुण निराकार ब्रह्म इस दृष्टि से विलक्षण है कि जैसे सगुण साकार ईश्वर को तीनों भेदों के माध्यम से पाया और परिभाषित किया जा सकता है उस प्रकार से निर्गुण निराकार को परिभाषित नहीं किया जा सकता क्योंकि उसमें सजातीय, विजातीय और स्वगत ये तीनों भेद नहीं हो सकते। 

यह तो हुआ सापेक्ष सत्यता  (Objective Reality) अर्थात् भौतिक वस्तुओं और जगत् के सन्दर्भ में, जिसे वैचारिक कहा जा सकता है। और इसे ही पुनः कुछ वक्तव्यों पर भी प्रयुक्त किया जा सकता है।

एक उदाहरण है -

अहं ब्रह्मास्मि। 

सोऽहम्।

तत्वमसि।

और, 

अयमात्मा ब्रह्म। 

ये चारों भी परस्पर समत्व-सम्बन्ध से बँधे वक्तव्य हैं।

अब हम संस्कृत भाषा की रचना पर ध्यान दें तो स्पष्ट होगा कि सभी संस्कृत गद्य या पद्य रचनाओं में व्याकरण के अनुसार शब्दों के विभिन्न समूह अपना अपना एक स्वतंत्र समत्व-वर्ग (equivalance class) बनाते हैं और ये सभी वर्ग मिलकर गद्य या पद्य के एक सुनिश्चित अर्थ दर्शाते हैं। 

इसके दो उदाहरण देखने पर यह अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं -

रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे 

रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः। 

रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहम्

रामे चित्तलयः भवतु मे भो राम मामुद्धर।।

उपरोक्त श्लोक में "राम" पद के एकवचन रूप की आठों विभक्तियों का प्रयोग दृष्टव्य है।

प्रथम कर्ता nominative case, 

द्वितीया कर्म accusative case, 

तृतीया करण instrumental case, 

चतुर्थी संप्रदान dative case, 

पंचमी अपादान ablative case

षष्ठी सम्बन्ध conjunctive case

सप्तमी अधिकरण locative case 

और, अष्टमी संबोधन Interjection! 

सबसे अधिक रोचक, बड़ी और अद्भुत् बात यह है कि  श्लोक में  प्रयुक्त समस्त पदों के क्रम को बदल देने पर भी श्लोक का अर्थ नहीं परिवर्तित होता है।

तीन पद

"सदा", "नमः" और "भो" अव्यय पद -

Indeclinable हैं,

अर्थात् इनके रूप सदैव अपरिवर्तित रहते हैं!

इसी प्रकार क्रियापदों के रूप में प्रयुक्त शब्दों का भी अपना वर्ग है जिसमें विभिन्न लकारों पर आधारित धातु रूप अपना समत्व बनाए रखते हैं।  

क्या किसी भी दूसरी भाषा में ऐसा पाया जा सकता है? 

दूसरा उदाहरण -

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामका पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।। 

का या किसी भी दूसरे श्लोक का लिया जा सकता है।

यह चमत्कार जैसा लगता है।

मंत्रों की दृष्टि से देखें तो हमारे छक्के छूट जाएँगे। 

चरित रघुनाथस्य शतकोटि प्रविस्तरम्। 

एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्।।

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Saturday, 19 October 2024

Conscience / अन्तर्मन

Sentience and Conscience.

मन और विवेक

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त्र्यम्बिका और त्र्यम्बिकेश्वर / त्र्यम्बकेश्वर 

अस्तित्व जो कि समष्टि प्रकृति और समष्टि पुरुष-युगल है, अम्बु, अम्बर, अवनि, अग्नि और अनिल के रूप में इन पाँच महाभूतों में अभिव्यक्त होते ही क्रमशः प्रकृति (क्रियाशक्ति) और चेतना अर्थात् ज्ञानशक्ति के माध्यम से अम्बिका और अम्बिकेश्वर या जगत् और जीव का रूप ग्रहण करता है। जगत् केवल क्रियाशक्ति है, जीव केवल ज्ञानशक्ति।

उपदेश-सारः के अनुसार -

चित्तवायवश्चित्क्रियायुताः। 

शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका।।१२।।

लयविनाशने उभयरोधने।

लयगतं पुनर्भवति नो मृतम्।।

तथा गीता अध्याय २ के अनुसार -

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्तत्वदर्शिभिः।।१६।।

और पराकाष्ठा तक पहुँची हुई विज्ञान की तथाकथित प्रगति हो जाने के बाद भी वैज्ञानिक इसे अस्वीकार नहीं करते, कि अस्तित्व को जिन दो रूपों में नित्य विद्यमान कहा जाता है, उन दोनों ही रूपों अर्थात् पदार्थ (matter) और (energy) को न तो सृजित ही किया जा सकता है और न उनका विनाश किया जा सकता है। इस सरल सी स्वीकारोक्ति के बाद यह भी स्पष्ट ही है कि सृष्टि के प्रारंभ होने और उसके अन्त होने का प्रश्न उठाना ही मूलतः असंगत है। और यह प्रश्न उठाया जाना भी क्या असंगत ही नहीं है कि ब्रह्माण्ड (Universe) की सृष्टि आज (?) से कितने समय पहले हुई? इसी प्रकार यह भी स्पष्ट है कि समय का विचार ही वह मूल त्रुटि है जिसके आधार पर "पहले" और "बाद में" की कल्पना की जाती है। "पहले" अर्थात् "अतीत" (past) और "बाद में",- भविष्य (future), भी वर्तमान (present) में ही कल्पित किए जाते हैं और उन दोनों का वर्तमान से पृथक् और स्वतंत्र अस्तित्व संभव ही नहीं है।

संक्षेप में - 

वर्तमान में उन्हें न तो पाया जा सकता है, न प्रमाणित किया जा सकता है।

श्री रमण महर्षिकृत सद्दर्शनम् का एक श्लोक वैज्ञानिक की इसी विडम्बना को दर्शाता है -

भूतं भविष्यच्च भवत्स्वकाले

तद्वर्तमानस्य विहाय तत्वम्।

हास्या न किं स्याद्गतभाविचर्चा

विनैकसंख्यां गणनेव लोके।। 

यह विडम्बना समय की उस अवधारणा का परिणाम है, जिसे वस्तुतः अवधारणा (premise) की तरह स्थापित तो किया गया किन्तु उसकी सत्यता की परीक्षा नहीं की गई। और ऐसी परीक्षा न करने का मूल कारण वैज्ञानिकों में प्रतिभा या प्रज्ञा का अभाव नहीं, बल्कि इसकी परीक्षा करने के प्रति उनका भय ही है। भय क्या है?

भय यही और चूँकि उन्हें भी भली भाँति पता है कि समय कल्पना है, न कि पदार्थ या ऊर्जा की तरह अस्तित्वमान कोई ऐसी यथार्थ वास्तविकता, वैज्ञानिक जिसकी सत्यता प्रयोग और परिणाम की कसौटी पर प्रमाणित कर सकें।

भारतीय योग-दर्शन के अनुसार समय एक "प्रत्यय" (perception) और "प्रमाण" स्वयं एक प्रकार की वृत्ति मात्र है। वृत्ति मन की गतिविधि है जबकि "प्रमाण" वह प्रत्यय (perception) है जैसा कि बस प्रतीत भर होता है।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

और, 

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

(पातञ्जल योगसूत्र -समाधिपाद)

इसलिए "प्रमाण" वैज्ञानिक और अंतिम निष्कर्ष (evidence) हो यह आवश्यक नहीं है। प्रमाण किसी इंद्रियानुभव के रूप में "प्रत्यक्ष" होने पर भी अकाट्यतः सत्य हो, यह आवश्यक नहीं। उदाहरण के लिए नेत्रों से दिखाई दे रहा कोई पदार्थ नमक जैसा दिखाई देने पर भी चखने पर मीठा प्रतीत हो सकता है तो नेत्रों के द्वारा प्राप्त हुए प्रमाण को अस्वीकार कर दिया जाता है। तब "अनुमान" के रूप में एक पहचान (identification) को "प्रमाण" माना जा सकता है।

"यह नमक है" ऐसा दिखाई देने के बाद उसे चखने पर अनुभव से "यह शक्कर है" ऐसा प्रतीत होता है।

और बाद में, उसका रासायनिक विश्लेषण करने पर यदि यह पता चलता है कि वह मीठा स्वाद देनेवाला

"सैकरीन / saccharine"

नामक पदार्थ है तब यह अंतिम निष्कर्ष प्राप्त होता है कि यह वस्तु न तो नमक है, और न ही शक्कर है। यह हुआ "आगम"।

आगम और निगम का अर्थ है वेद के रूप में प्राप्त होनेवाला यह ज्ञान जो काल तथा स्थान से बाधित न होनेवाला परम सत्य है।

और इसी प्रकार से "पुराण" में वर्णित कोई विवरण, काल और स्थान के सन्दर्भ में प्राप्त होनेवाली कोई घटना, जो संभावना की दृष्टि से वर्तमान में भी हो सकती है। इसलिए वेद नित्य ही, सर्वत्र और सनातन (ज्ञान) है, जबकि पुराण सनातन होते हुए भी नित्य सत्य हों यह आवश्यक नहीं है।

ईश्वर (समष्टि मन) और जीव (व्यष्टि /  व्यष्टिमन / अन्तर्मन) इसलिए पौराणिक सत्य हैं, न कि शाश्वत और सनातन सत्य।  इसी तरह प्रकृति और पुरुष वैदिक सत्य हैं और जिन्हें पौराणिक सत्य के रूप में भी अभिव्यक्त किया जाता है। इसलिए सभी वैदिक देवता नित्य, शाश्वत और सनातन हैं, जबकि पौराणिक देवताओं को समय समय पर भिन्न भिन्न रूपों में महत्व दिया जाता है। त्र्यम्बिका / और त्र्यम्बिकेश्वर / त्र्यम्बकेश्वर इसलिए वैसी ही अवधारणा मात्र हैं जैसा कि काल और स्थान को एक वैज्ञानिक अनुभवगम्य अवधारणा कहा जा सकता है। चूँकि सृष्टि (Creation) ही एक अवधारणा मात्र (premise) है, तो क्या सृष्टिकर्ता Creator) भी वैसा ही और भी एक अवधारणा (premise) ही नहीं है? और जीव अर्थात् individual soul के बारे में क्या कह सकते हैं? शरीर में चेतना (sentience) प्रकट होने और उसका प्रादुर्भाव / उन्मेष हो जाने पर ही व्यक्तिगत "स्व" (individual soul)  की मान्यता उत्पन्न नहीं होती? और सृष्टि और उसका संहार तथा इसी प्रकार किसी सृष्टिकर्ता (ईश्वर) तथा संहारकर्ता (ईश्वर) की कल्पना भी वस्तुतः मानसिक विचार ही नहीं है? पूरे, समूचे पश्चिमी विचार का भय और काल्पनिक संकट यही तो है कि सृष्टि और सृष्टिकर्ता तथा सृष्टि का विनाश करनेवाले किसी कल्पित ईश्वर की मान्यता पर प्रश्न खड़ा करते ही पश्चिमी संस्कृति को टिकने के लिए कोई तर्कसंगत आधार ही नहीं रह जाता है।

और शायद इसीलिए पश्चिमी विचारकों ने "दर्शन" को Philosophy, "धर्म" को  Religion, सृष्टि को  Creation और "ईश्वर" को स्रष्टा अर्थात्  Creator के रूप में God कहकर अनावश्यक विवादों को अनजाने ही जन्म दे दिया होगा। 

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Monday, 12 August 2024

सद्धारा / सातधारा

।।स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।

जब इस ब्लॉग को लिखना प्रारम्भ किया था तो उपरोक्त सूत्र ही इसकी प्रेरणा था।

इस प्रेरणा का आधार वह दृष्टि थी जिसके अनुसार :

दर्शनमपि श्रवणं च चिन्तनं मननंस्तथा।।

निदिध्यासनं स्वाध्यायं पञ्चाङ्गानि।।

उपरोक्त श्लोक के रचना बस अभी ही की है।

कभी कभी कुछ शुभचिन्तक मित्र पूछ बैठते हैं -

"यह कहाँ लिखा है?"

मुझे लगता है कि श्रीमद्भगवद्गीता में निम्नलिखित श्लोकों को ध्यान में रखकर ही इसे लिखने की प्रेरणा हुई :

अध्याय ३

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचार।।९।।

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।१०।।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।११।।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ति यज्ञभाविता।।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।१२।।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।।

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।१३।।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।१४।।

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म  नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।१५।।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।१६।।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।।

आत्मन्येव च सन्तुष्टः तस्य कार्यं न विद्यते।।१७।।

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।१८।।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार।।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।१९।।

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।।

लोकसङ्गग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।२०।।

यद्यदाचरति श्रेष्ठः लोकस्तदनुवर्तते।।

यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।२१।।

माँ नर्मदा के सातधारा / सप्तधारा / सतधारा तट पर इस पोस्ट को लिखने का पुण्य सौभाग्य अनायास ही प्राप्त हुआ। इस पोस्ट को लिखने समय यद्यपि विचार यह था कि स्वाध्याय के जिन पाँच अङ्गों का उल्लेख प्रारम्भ में किया है उनके यहाँ लिखित क्रम के आधार पर :

दर्शन :

-जिसे मंत्रदृष्टा ऋषियों के द्वारा देखे गए मन्त्रों के रूप में वेद और श्रुति कहा जाता है,

श्रवण / श्रुति :

जिसे उनके द्वारा किया गया उन मन्त्रों का श्रवण कहा जाता है,

चिन्तन :

चिनोति / चिनुते / चिन्तयति / चिन्त्यते इति चिन्तनम्,

मनन :

मन् - मनुते, मन्यते, मनाति, आम्नाय, और -

निदिध्यासन :

नित् -सप्तमी एकवचन निति / निदि - ध्यासन 

के रूप में 

"स्वाध्यायकी समीक्षा और विवेचना करना।

किन्तु यहाँ यहीं विराम करना उचित प्रतीत होता है।

नर्मदे हर!! 

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Sunday, 21 July 2024

Cn T And Cv T.

This Strange World Of Cn T And Cv T.

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I guess some might have felt / observed that when a certain idea comes in your mind, in a few seconds or maybe minutes after, you find something about the same on your computer / mobile screen.

Is this just a sheer coincidence only or there's something else far more deeper behind this happening? 

This is how I'm trying to nickname the two; namely The Cn T and The Cv T.

By Cn T  I mean -

Communication Technology

And by Cv T  I mean -

Communicative Technology

It's yet to be ascertained or found out if the idea in your mind gets transmitted to the www (world-wide-web) or the www induces generates and induces the idea in your mind.

Maybe the Cosmic Mind be behind this whole / this single phenomenon.

This may be thought of similar to such incidences when one and the same idea in Science or Mathematics is supposed / claimed to have been discovered by one or the two, and having simultaneously proposed it.

The examples are like :

Who discovered Radio transmission and Receiver?  Marconi or J. C. Basu (I don't remember the exact name of the Indian Scientist / Physicist) ? 

Who Discovered / Defined Calculus?  Newton Or Leibneitz? 

Is Cn T a one way process only or is a two way process like the Cv T?

If I could further guess, I may see how this might be behind the way, the ancient ऋषि /Rshi / Sages might have formulated this Cosmic Phenomenon as गणेश बृहस्पति

As is described in the ऋग्वेद / Rgveda, मण्डल २ / MaNDala 2 :

ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे...

This बृहस्पति / bRhaspati  Principle, that is equivalent to 

गणपति  /  विनयः भारद्वाजः  in the mantra, referred to here that  just now came to my mind and I think it is quite evident and befitting at the very moment, also with reference to the idea / concept of -  Cn T and Cv T.

Writing down here just for record.

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Monday, 20 May 2024

यम, इन्द्र, वरुण और मरुत्

अदिति, दिति और कश्यप 

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वाल्मीकि रामायण और पुराणों में वर्णित की गई कथा के अनुसार अदिति और दिति दोनों बहनों का विवाह प्रजापति कश्यप ऋषि से हुआ था। अदिति की संतानें अग्नि, इन्द्र, वरुण, सोम आदि सभी देवता Celestial, Cosmic Divine थे, जबकि दिति की संतानें दैत्य (Dutch, Deutsche) थे। दैत्यों के पुरोहित और आचार्य शुक्र अर्थात् भृगु (Brigit / brigade) थे और जिन्हें भार्गव, अरुण, उद्दालक और कौशिक भी कहा जाता है। जिबरील, गेब्रिएल और इंजील, एन्जिल इनके ही अपभ्रंश हैं। ये सभी ऋषि अंगिरा अर्थात् Angel हैं। 

परशुराम इन्ही भार्गव के कुल में उत्पन्न हुए। परशु का ही अपभ्रंश वर्तमान फारस है। और इससे ही व्युत्पन्न है :

इटैलियन "फासीवाद" (Fascism) की मुद्रा / icon  घास या लकड़ी के गट्ठर पर रखा परशु / कुल्हाड़ी है। 

कठोपनिषद् और श्रीमद्भग्वद्गीता में वर्णित "उशना" ही भृगु ऋषि के ही कुल में वाजश्रवा के रूप में उत्पन्न हुए थे नचिकेता उनका ही पुत्र था। 

उशन् ह वाजश्रवसः ...(कठोपनिषद्) और कवीनामुशना कविः (श्रीमद्भगवद्गीता) में इनका ही उल्लेख है।

इन्द्र ने संग्राम में दिति के पत्रों का संहार किया तो दिति ने पुनः इस संकल्प के साथ गर्भ धारण किया कि इससे उत्पन्न पुत्र इन्द्र और दूसरे भी सभी देवताओं को परास्त कर देगा। 

जब दिति गर्भवती हुई तो इन्द्र "मौसी" की सेवा-टहल करने के बहाने हर समय उनके साथ रहने लगा। वह जानता था कि दिति के गर्भ में पल रहा शिशु "इन्द्रशत्रु",  जन्म लेने के बाद उसे और दूसरे भी सभी देवताओं को परास्त कर उनका राज्य छीन लेगा।

ऐसे ही एक दिन दिति अपनी शैया पर बैठी हुई विश्राम कर रही थी और उसे झपकी लग गई। इन्द्र इसी अवसर की ताक में था। जब दिति सो रही थी और उसके केश शैया से बाहर झूल रहे थे। जैसे ही केश धरती को छूने लगे, इन्द्र उन केशों के माध्यम से दिति के भीतर प्रविष्ट हो गया और दिति के गर्भ में पहुँच गया वहाँ जाकर गर्भ के सात टुकड़े कर दिये। जब गर्भ रोने लगा तो दिति की निद्रा भंग हुई। तब इन्द्र पुनः दिति के केशों के मार्ग से बाहर निकल आया। दिति ने समझ लिया कि प्रमादवश उसकी भूल से ही इन्द्र को यह अवसर मिला था। तब वह इन्द्र के छल पर हँसने लगी। गर्भस्थ शिशु के सात टुकड़े है जाने पर और उसके रुदन को सुनने पर इन्द्र ने हँसते हुए उससे कहा - 

मा रुद् 

रोओ मत। 

इस प्रकार मरुत् का जन्म हुआ।  

गर्भ से बाहर आकर उन सात के समूह में से प्रत्येक की सात विशेषताओं के कारण उन्हें कुल ४९ मरुद्गणों का रूप प्राप्त हुआ -

पवन चले उनचास।

उनचास कोटि प्राण।। 

इसलिए पवनपुत्र जो अञ्जनिपुत्र और केसरीपुत्र भी हैं, रुद्र के भी अंश हैं।

सप्तर्षि आकाश में स्थित ऋषिगण हैं, सप्त स्वर ऋषि नारद के द्वारा उद्घाटित किए गए।

सप्त द्वीपों का निर्माण ब्रह्मा के पुत्र विश्वकर्मा ने किया।

और तीन ग्राम ही तीन गुण हैं। 

सप्त सुरन तीन ग्राम उनचास कोटि प्रान।

मुनिजन सब करत गान, नादब्रह्म जागे।।

सुर अलौकिक अलंकार, मूर्च्छना विविध प्रकार।। 

तन मन सब वार वार अर्पन प्रभु आगे।।

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Sunday, 28 April 2024

The Impossible Question.

May I possibly die? 

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We all have an inherent Unexamined belief that one day I will have to die.

Everyone, without exception.

This belief is so firm that no one ever can imagine that it is really and basically an unfounded idea only.

This question is not only unfounded, it's as well irrational too. 

Still hardly anyone would doubt if it may be basically an invalid and wrong too! 

Even questioning so and asking this looks ridiculous to us. 

We are so dead certain that whosoever is born is going to die some day, in the near or perhaps a distant future.

Here is the catch. 

What looks like almost inevitable truth may prove really absolutely irrational, unexamined and therefore a blind belief only. Even more true is the fact that no one who-so-ever can examine or verify it's truth. Neither in experience, nor through debate or by example.

The Whenever there is "Death", there's it's never that "You"  die!  It's invariably and inevitably always really someone other, and never "You", who appears and is said to have "died".

So how one can infer and conclude that one is going to die someday at some time in the near or a distant future?

It's quite and perfectly evident plain and simple a fact, a truth that really no one can ever examine, even experimentally verify it's truth.

By contradiction too, if "You" really "die" how "You" could "know" you're  "dead"? The very "knowing" implies that there is "someone" who knew that  "I'm dead" ! That "someone" can neither die nor could be said to have "died".

Isn't the "living" and the life of "myself" is such an undeniable fact for everyone that it could never be denied. What we refer to and declare "death" always  of someone else only. How one would possibly apply this word with reference to oneself? Isn't that ridiculous only?

But because of the ignorance and never questioning that if there is, and such a possibility could ever exist, without even thinking a little about, we tend to believe this as an inevitable truth and at once cling to this idea, which is fundamentally a false one. Even in a dream we wouldn't believe that this is just impossible!

Again by the same logic; if I really die, how would and could I know, see or tell to someone : I've died, I'm dead?

And how someone else could tell me :

"You are no more!"

The same is true about the concept or the idea of so-called a "God". The existence of any such a "God" could not, by no means what-so-ever be experienced, proved or known directly in the same way as you see, or know someone - any sentient life-form or some object, an insentient one which is supposed to be not alive.

There are believers and there are also the sceptics who have an "idea", a "thought" of such a " God", either in the form of a "belief" or in the form of a "doubt" but nevertheless an idea or a thought about the "God" - never either direct perception of such a "God" nor practical experience or encounter any. Therefore the belief and the doubt about the existence of "God" is repeatedly vehemently adamantly forced by those who "believe" and also by those who "doubt" or "deny" the existence of a "God" or "Gods".

Thinking or talking about the element of truth of "Death" or about the existence of "God" isn't it rather far more important and urgent a need to try and finding out exactly "Who" or "What" dies?

The matter and the material objects are neither alive nor could be said to die. The "consciousness" of those material objects is the only criteria and a basis which too could never be said to die.

Both of these Realities in a way, are ever so "Immortal".

Consciousness of being however is a fact, that is though imperceptible, it's the only ground and support of all "knowing". The "knowing" through the sense-organs and  the information in terms of knowledge is again never the "Consciousness". There is this object-oriented consciousness where the focus of attention is about the known, while there is also the another, where the focus of attention is about the 'self', and where this 'self' is "known", though never like the objects - never like the knowledge or the information.

This "knowing" of the 'self' is always in the form of  "Awareness", and though the 'self' is known through and in Awareness only, this Awareness could neither be an object nor a 'self'.

Awareness too is beyond Life and Death.

It's never born nor could ever die, for it is Deathless Reality. The 'self' is associated with consciousness of the body to which 'self' claims itself it's own and moreover, "I'm" the self, this idea itself is identified as being oneself the body. And therefrom arises the thought or the conflict "I'm the body" and "I'm the self" 

The consciousness of the sentient body thus assumes the sense : I'm this body, which is basically a wrong assumption, because I know I've this body  

The Sense "I'm this body" persists only in the waking state of consciousness, while the sense of "I'm" prevails even when one is asleep or going through a dream.

Does this sense die?

Is not the idea / thought of committing suicide a contradiction in itself? 

Still many people get overwhelmed by this absurd thought in an untoward situation and so try to kill themselves / oneself. 

Sheer stupidity!!

Only if they could know the importance of Awareness of the self / I'm, and give their  attention to this truth, they would never.

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Saturday, 30 March 2024

Prayer / प्रार्थना

 

रोगं शोकं तापं पापं हर हर मे

हर मे भगवति कुमतिकलापम्।।

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सरल अर्थ :

हर हर महादेव! हे परमेश्वर शिव!

अर्थात् - हे परमेश्वरी महादेवि!!

मेरे समस्त रोग, शोक, ताप और पाप, कुमति (दुर्भाग्य) और कुमति से उत्पन्न होनेवाले मेरे सारे क्रियाकलापों,  और उनके अशुभ तथा अनिष्ट प्रभावों को हर लो और स्थायी शान्ति, अपने पावन चरणों की परम और नित्य भक्ति प्रदान करो।।

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English Translation is left for those who might make out far better and a simple translation of this Sanskrit prayer.

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