Gita 10/6 and 10/21
धर्म-क्षेत्र, कार्य-क्षेत्र और अधिकार-क्षेत्र
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संपूर्ण अस्तित्व धर्मक्षेत्र है जिसमें समस्त चर-अचर भूत-मात्र का अपना अपना अलग अलग विशिष्ट कार्य-क्षेत्र और अधिकार-क्षेत्र है।
जब तक समस्त चर और अचर भूतमात्र अपनी मर्यादा में रहते हुए इस अपने अपने विशिष्ट कार्य-क्षेत्र में धर्म का आचरण करते हैं तब तक सर्वत्र सामञ्जस्य सुख शान्ति होती है। इनमें से कोई भी जब इस मर्यादा का उल्लंघन करते हैं यह सुख शान्ति, सामञ्जस्य, व्यवस्था भंग हो जाती है और संसार में असन्तुलन, अशान्ति, असन्तोष, अराजकता और उपद्रव होने लगते हैं। जब तक ऐसा रहता है, तब तक संसार का कार्य सुचारु, सुव्यवस्थित रूप से नहीं चल सकता। किन्तु कालक्रम से नियन्ता के द्वारा स्थापित धर्म से ही यह क्रम भी अंततः समाप्त हो जाता है। आकाशीय और अन्तरिक्ष में स्थित समस्त पिंड इस कालक्रम के द्योतक लक्षण होते हैं।
इसका प्रारंभ के सूचक आकाश में स्थित स्वस्तिक मंडल में स्थित सात नक्षत्र अर्थात् सप्तर्षि हैं -
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारः मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमा प्रजाः।।६।।
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्रधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।१९।।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यश्च भूतानामन्तमेव च।।२०।।
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं अहं शशी।।२१।।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।२२।।
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।२३।।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।२४।।
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।२५।।
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।२६।।
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि मामृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।।२७।।
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पो सर्पाणामस्मि वासुकिः।।२८।।
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पित्-रृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतातमहम्।।२९।।
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।।३०।।
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।३१।।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्याविद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।३२।।
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।३३।।
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।३४।।
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहं ऋतूनां कुसुमाकरः।।३५।।
द्यूतं छलयितामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।३६।।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।३७।।
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषिताम्।
मौनं चास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।३८।।
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
(*तस्याहमर्जुन?)
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।३९।।
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतिनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।४०।।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव च।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।४१।।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्यामहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।४२।।
इस पूरे प्रसंग में सप्तर्षियों से लेकर समस्त ग्रहों और नक्षत्रों, राशियों और काल-स्थान के द्योतक अदृश्य ग्रहों राहु एवं केतु सहित स्थूल जगत् की समस्त स्थूल, सूक्ष्म वस्तुओं और भूतमात्रों के -
आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक
कार्य-क्षेत्रों और अधिकार-क्षेत्रों का वर्णन किया गया।
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महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारः मनवस्तथा।
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