ऋग्, यजु, साम, अथर्व
Rg, Yaju, SAma, Atharva.
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The auto-editor --
मैने लिखना चाहा था -
ऋग्, यजु, साम, अथर्व,
लेकिन 'Rg' टाइप करते ही आटो एडिटर से यह 'Ego' हो गया! इससे अनुमान कर सकते हैं कि ऋग् अर्थात् ऋ
"तस्य इतो / इतः लोपो"
सूत्र के अनुसार ग् का लोप होने से ऐसा हो जाता है।
इसी प्रकार ऋक् तथा ऋज् ऋष् में भी ऋ अक्षुण्ण रहता है।
ऋ अर्थात् अद्वैत से ऋग् अर्थात् Ego का जन्म / उत्पत्ति होने के बाद -
युज् / यज् / यजु / युग् / युगल / द्वैत की अभिव्यक्ति / उत्पत्ति होती है।
ऋष् से ही ऋषि -
ऋषयः मन्त्रदृष्टारः।
क्योंकि ऋष् अर्थात् चलने या गति होने से ऋषित्व अभिव्यक्त होता है। ऋग् से ऋग्वेद और यज् से यजुर्वेद का उद्भव होने पर उनके पारस्परिक व्यवहार से अराजकता / युज् का उद्भव होता है, और उनके सम्यक् संतुलन से साम का उद्भव। थृ / थर् धातु से थर्व् अर्थात् कम्प् , इस धातु से थरथराना, काँपना और थर्वा पद का उद्भव होता है और थर्व् से ही अथर्व और अथर्वा वेद / ऋषि का । अथर्व का अर्थ हुआ - अकम्प, अविचल, स्थिर।
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