Saturday, 19 October 2024

Conscience / अन्तर्मन

Sentience and Conscience.

मन और विवेक

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त्र्यम्बिका और त्र्यम्बिकेश्वर / त्र्यम्बकेश्वर 

अस्तित्व जो कि समष्टि प्रकृति और समष्टि पुरुष-युगल है, अम्बु, अम्बर, अवनि, अग्नि और अनिल के रूप में इन पाँच महाभूतों में अभिव्यक्त होते ही क्रमशः प्रकृति (क्रियाशक्ति) और चेतना अर्थात् ज्ञानशक्ति के माध्यम से अम्बिका और अम्बिकेश्वर या जगत् और जीव का रूप ग्रहण करता है। जगत् केवल क्रियाशक्ति है, जीव केवल ज्ञानशक्ति।

उपदेश-सारः के अनुसार -

चित्तवायवश्चित्क्रियायुताः। 

शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका।।१२।।

लयविनाशने उभयरोधने।

लयगतं पुनर्भवति नो मृतम्।।

तथा गीता अध्याय २ के अनुसार -

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्तत्वदर्शिभिः।।१६।।

और पराकाष्ठा तक पहुँची हुई विज्ञान की तथाकथित प्रगति हो जाने के बाद भी वैज्ञानिक इसे अस्वीकार नहीं करते, कि अस्तित्व को जिन दो रूपों में नित्य विद्यमान कहा जाता है, उन दोनों ही रूपों अर्थात् पदार्थ (matter) और (energy) को न तो सृजित ही किया जा सकता है और न उनका विनाश किया जा सकता है। इस सरल सी स्वीकारोक्ति के बाद यह भी स्पष्ट ही है कि सृष्टि के प्रारंभ होने और उसके अन्त होने का प्रश्न उठाना ही मूलतः असंगत है। और यह प्रश्न उठाया जाना भी क्या असंगत ही नहीं है कि ब्रह्माण्ड (Universe) की सृष्टि आज (?) से कितने समय पहले हुई? इसी प्रकार यह भी स्पष्ट है कि समय का विचार ही वह मूल त्रुटि है जिसके आधार पर "पहले" और "बाद में" की कल्पना की जाती है। "पहले" अर्थात् "अतीत" (past) और "बाद में",- भविष्य (future), भी वर्तमान (present) में ही कल्पित किए जाते हैं और उन दोनों का वर्तमान से पृथक् और स्वतंत्र अस्तित्व संभव ही नहीं है।

संक्षेप में - 

वर्तमान में उन्हें न तो पाया जा सकता है, न प्रमाणित किया जा सकता है।

श्री रमण महर्षिकृत सद्दर्शनम् का एक श्लोक वैज्ञानिक की इसी विडम्बना को दर्शाता है -

भूतं भविष्यच्च भवत्स्वकाले

तद्वर्तमानस्य विहाय तत्वम्।

हास्या न किं स्याद्गतभाविचर्चा

विनैकसंख्यां गणनेव लोके।। 

यह विडम्बना समय की उस अवधारणा का परिणाम है, जिसे वस्तुतः अवधारणा (premise) की तरह स्थापित तो किया गया किन्तु उसकी सत्यता की परीक्षा नहीं की गई। और ऐसी परीक्षा न करने का मूल कारण वैज्ञानिकों में प्रतिभा या प्रज्ञा का अभाव नहीं, बल्कि इसकी परीक्षा करने के प्रति उनका भय ही है। भय क्या है?

भय यही और चूँकि उन्हें भी भली भाँति पता है कि समय कल्पना है, न कि पदार्थ या ऊर्जा की तरह अस्तित्वमान कोई ऐसी यथार्थ वास्तविकता, वैज्ञानिक जिसकी सत्यता प्रयोग और परिणाम की कसौटी पर प्रमाणित कर सकें।

भारतीय योग-दर्शन के अनुसार समय एक "प्रत्यय" (perception) और "प्रमाण" स्वयं एक प्रकार की वृत्ति मात्र है। वृत्ति मन की गतिविधि है जबकि "प्रमाण" वह प्रत्यय (perception) है जैसा कि बस प्रतीत भर होता है।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

और, 

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

(पातञ्जल योगसूत्र -समाधिपाद)

इसलिए "प्रमाण" वैज्ञानिक और अंतिम निष्कर्ष (evidence) हो यह आवश्यक नहीं है। प्रमाण किसी इंद्रियानुभव के रूप में "प्रत्यक्ष" होने पर भी अकाट्यतः सत्य हो, यह आवश्यक नहीं। उदाहरण के लिए नेत्रों से दिखाई दे रहा कोई पदार्थ नमक जैसा दिखाई देने पर भी चखने पर मीठा प्रतीत हो सकता है तो नेत्रों के द्वारा प्राप्त हुए प्रमाण को अस्वीकार कर दिया जाता है। तब "अनुमान" के रूप में एक पहचान (identification) को "प्रमाण" माना जा सकता है।

"यह नमक है" ऐसा दिखाई देने के बाद उसे चखने पर अनुभव से "यह शक्कर है" ऐसा प्रतीत होता है।

और बाद में, उसका रासायनिक विश्लेषण करने पर यदि यह पता चलता है कि वह मीठा स्वाद देनेवाला

"सैकरीन / saccharine"

नामक पदार्थ है तब यह अंतिम निष्कर्ष प्राप्त होता है कि यह वस्तु न तो नमक है, और न ही शक्कर है। यह हुआ "आगम"।

आगम और निगम का अर्थ है वेद के रूप में प्राप्त होनेवाला यह ज्ञान जो काल तथा स्थान से बाधित न होनेवाला परम सत्य है।

और इसी प्रकार से "पुराण" में वर्णित कोई विवरण, काल और स्थान के सन्दर्भ में प्राप्त होनेवाली कोई घटना, जो संभावना की दृष्टि से वर्तमान में भी हो सकती है। इसलिए वेद नित्य ही, सर्वत्र और सनातन (ज्ञान) है, जबकि पुराण सनातन होते हुए भी नित्य सत्य हों यह आवश्यक नहीं है।

ईश्वर (समष्टि मन) और जीव (व्यष्टि /  व्यष्टिमन / अन्तर्मन) इसलिए पौराणिक सत्य हैं, न कि शाश्वत और सनातन सत्य।  इसी तरह प्रकृति और पुरुष वैदिक सत्य हैं और जिन्हें पौराणिक सत्य के रूप में भी अभिव्यक्त किया जाता है। इसलिए सभी वैदिक देवता नित्य, शाश्वत और सनातन हैं, जबकि पौराणिक देवताओं को समय समय पर भिन्न भिन्न रूपों में महत्व दिया जाता है। त्र्यम्बिका / और त्र्यम्बिकेश्वर / त्र्यम्बकेश्वर इसलिए वैसी ही अवधारणा मात्र हैं जैसा कि काल और स्थान को एक वैज्ञानिक अनुभवगम्य अवधारणा कहा जा सकता है। चूँकि सृष्टि (Creation) ही एक अवधारणा मात्र (premise) है, तो क्या सृष्टिकर्ता Creator) भी वैसा ही और भी एक अवधारणा (premise) ही नहीं है? और जीव अर्थात् individual soul के बारे में क्या कह सकते हैं? शरीर में चेतना (sentience) प्रकट होने और उसका प्रादुर्भाव / उन्मेष हो जाने पर ही व्यक्तिगत "स्व" (individual soul)  की मान्यता उत्पन्न नहीं होती? और सृष्टि और उसका संहार तथा इसी प्रकार किसी सृष्टिकर्ता (ईश्वर) तथा संहारकर्ता (ईश्वर) की कल्पना भी वस्तुतः मानसिक विचार ही नहीं है? पूरे, समूचे पश्चिमी विचार का भय और काल्पनिक संकट यही तो है कि सृष्टि और सृष्टिकर्ता तथा सृष्टि का विनाश करनेवाले किसी कल्पित ईश्वर की मान्यता पर प्रश्न खड़ा करते ही पश्चिमी संस्कृति को टिकने के लिए कोई तर्कसंगत आधार ही नहीं रह जाता है।

और शायद इसीलिए पश्चिमी विचारकों ने "दर्शन" को Philosophy, "धर्म" को  Religion, सृष्टि को  Creation और "ईश्वर" को स्रष्टा अर्थात्  Creator के रूप में God कहकर अनावश्यक विवादों को अनजाने ही जन्म दे दिया होगा। 

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