Monday, 12 August 2024

सद्धारा / सातधारा

।।स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।

जब इस ब्लॉग को लिखना प्रारम्भ किया था तो उपरोक्त सूत्र ही इसकी प्रेरणा था।

इस प्रेरणा का आधार वह दृष्टि थी जिसके अनुसार :

दर्शनमपि श्रवणं च चिन्तनं मननंस्तथा।।

निदिध्यासनं स्वाध्यायं पञ्चाङ्गानि।।

उपरोक्त श्लोक के रचना बस अभी ही की है।

कभी कभी कुछ शुभचिन्तक मित्र पूछ बैठते हैं -

"यह कहाँ लिखा है?"

मुझे लगता है कि श्रीमद्भगवद्गीता में निम्नलिखित श्लोकों को ध्यान में रखकर ही इसे लिखने की प्रेरणा हुई :

अध्याय ३

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचार।।९।।

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।१०।।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।११।।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ति यज्ञभाविता।।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।१२।।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।।

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।१३।।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।१४।।

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म  नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।१५।।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।१६।।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।।

आत्मन्येव च सन्तुष्टः तस्य कार्यं न विद्यते।।१७।।

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।१८।।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार।।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।१९।।

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।।

लोकसङ्गग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।२०।।

यद्यदाचरति श्रेष्ठः लोकस्तदनुवर्तते।।

यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।२१।।

माँ नर्मदा के सातधारा / सप्तधारा / सतधारा तट पर इस पोस्ट को लिखने का पुण्य सौभाग्य अनायास ही प्राप्त हुआ। इस पोस्ट को लिखने समय यद्यपि विचार यह था कि स्वाध्याय के जिन पाँच अङ्गों का उल्लेख प्रारम्भ में किया है उनके यहाँ लिखित क्रम के आधार पर :

दर्शन :

-जिसे मंत्रदृष्टा ऋषियों के द्वारा देखे गए मन्त्रों के रूप में वेद और श्रुति कहा जाता है,

श्रवण / श्रुति :

जिसे उनके द्वारा किया गया उन मन्त्रों का श्रवण कहा जाता है,

चिन्तन :

चिनोति / चिनुते / चिन्तयति / चिन्त्यते इति चिन्तनम्,

मनन :

मन् - मनुते, मन्यते, मनाति, आम्नाय, और -

निदिध्यासन :

नित् -सप्तमी एकवचन निति / निदि - ध्यासन 

के रूप में 

"स्वाध्यायकी समीक्षा और विवेचना करना।

किन्तु यहाँ यहीं विराम करना उचित प्रतीत होता है।

नर्मदे हर!! 

***







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