Saturday, 12 June 2021

So What?

कविता : 13-06-2021

--

कर्म कितना कठिन है, 

धर्म कितना जटिल है,

संसार कितना कुटिल है, 

मन कितना चंचल है !

ज्ञान कितना सुलभ है, 

विवेक कितना दुर्लभ है, 

मोह कितना प्रबल है,

राग कितना विकल है !

चित्त कितना अस्थिर है,

संबंध कितना क्षणिक है,

द्वेष कितना कठोर है,

काम कितना मोहक है !

अर्थ कितना व्यर्थ है,

अज्ञान कितना क्रूर है !

वैराग्य कितना दुर्बल है,

सत्य कितना दूर है !

शास्त्र कितना निष्फल है,

गुरु कितना असहाय है,

और शिष्य के लिए, 

पंथ कितना दुर्गम है!

और कोई दूसरा क्या,  

तुमको तार सकता है, 

कोई दूसरा और क्या, 

तुमको उबार सकता है !

पहले तो तुम यही जानो,

संबंध ही तो है बंधन, 

और जो है बँधा हुआ, 

वह भी है कल्पित स्वयं !

यह स्वयं कैसे मिटेगा,

मिटा सकेगा क्या स्वयं को,

यह स्वयं की स्वयं प्रतीति,

नित्य प्रकट-अप्रकट स्मृति ! 

स्मृति ही तो है इसका परिचय,

परिचय ही तो है इसकी स्मृति !

यह चक्र ही तो है बंधन,

यह चक्र ही है माया भी, 

जैसे प्रकाश के साथ साथ, 

हुआ करती है छाया भी !

आकाश जो है अछूता,

प्रकाश छाया से अस्पर्शित,

न साक्षी है, न है तटस्थ,

किन्तु फिर भी अन्तःस्थ ! 

साक्षित्व में भी द्वैत है, 

तटस्थता में भी संबंध, 

बोध जो कि है अद्वैत,

नित्य चित् सत् अनिर्बन्ध !

***








No comments:

Post a Comment