Tuesday, 15 June 2021

कल के क्रम में

(13-06-2021 के बाद)

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कविता  : 16-06-2021

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चेतना करुणामयी!

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भय-भ्रम कितना रूढ है, 

रहस्य कितना व्यूढ है, 

मर्म कितना गूढ है, 

मनुष्य कितना मूढ है!

शुक्ति में है रजत या, 

रजत में भी शुक्ति ही है, 

सीप में मुक्ता है सच पर, 

मुक्ता में क्या भुक्ति है!

भोग में सुख है क्या,

या सुख में है भोग,

भोग में है योग क्या,

या कि भोग में है रोग! 

नित्य में है अनित्य क्या,  

या अनित्य में भी है नित्य, 

नित्य-अनित्य से परे फिर,

क्या है फिर जो है सत्य! 

काल के ही दो मुख दोनों,

जो हैं, नित्य और अनित्य,

काल स्वयं तम-मोह है, 

न नित्य है, न है अनित्य!

मोह जिसको व्यापता है,

क्या वह मन है या शरीर,

मन है जिसको भासता,

वह चित्त है या है बुद्धि!

बुद्धि का भी स्वामी जो,

बुद्धि की भी जो प्रेरणा,

भावना है या भाव कोई,

या वह है निज-चेतना! 

चेतना वह नित अभिन्न,

भान-बोध अविच्छिन्न,

नित्य प्रकट, अप्रच्छन्न,

चित्, सत् से वह अनन्य!

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