Friday, 25 June 2021

श्री जगन्नाथ माहात्म्य

स्कन्द-पुराण से 

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वैष्णवखण्ड-उत्कलखण्ड / पुरुषोत्तमक्षेत्र माहात्म्य

नारायणं नमस्कृत्यं नरं चैव नरोत्तमम्। 

देवीं सरस्वतीं व्यासः ततो जयमुदीरयेत् ।।

'भगवान् नारायण, नरश्रेष्ठ नर, देवी सरस्वती तथा महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके तत्पश्चात् भगवान् की विजय-कथा से परिपूर्ण इतिहास-कथादि का कीर्तन (पठन, वाचन, श्रवण) करे।'

मुनयः ऊचुः 

मुनि बोले -- भगवन्! आप सब शास्त्रों के तत्वज्ञ तथा सब तीर्थों के महत्व को जाननेवाले हैं। 

भगवन्! 

पुरुषोत्तम-क्षेत्र परम पावन है, जहाँ भगवान् लक्ष्मीपति विष्णु मानवलीला के अनुसार काष्ठमय विग्रह धारण करके विराजमान हैं, जो दर्शनमात्र से ही सबको मोक्ष देनेवाले और सब तीर्थों का फल प्रदान करनेवाले हैं, उनकी महिमा का हमसे विस्तारपूर्वक हमसे वर्णन कीजिए। 

जैमिनी ने कहा :

मुनियों!  यह अत्यन्त गूढ रहस्य है,  सुनो।  

यद्यपि ये भगवान् जगन्नाथ सर्वत्र व्यापक और सबको उत्पन्न करनेवाले हैं तथापि यह परम उत्तम पुरुषोत्तम-क्षेत्र इन महात्मा जगदीश्वर का साक्षात् स्वरूप है। वहाँ वे स्वयं ही शरीर धारण करके निवास करते हैं। इसीलिए उस क्षेत्र को भगवान् ने अपने नाम से प्रसिद्ध किया। वह क्षेत्र दस योजन के विस्तार में है। उसका प्रादुर्भाव तीर्थराज समुद्र के जल से हुआ है तथा वह सब ओर बालुका-राशि से व्याप्त है। उसके मध्यभाग में महान् नील-गिरि उस तीर्थ की शोभा बढ़ता है। पूर्वकाल में वराहरूप-धारी भगवान् ने इस पृथ्वी को समुद्र से निकालकर जब सब ओर से बराबर करके स्थापित किया और पर्वतों द्वारा सुस्थिर कर दिया, तब ब्रह्माजी ने पहले की भाँति समस्त चराचर जगत् की सृष्टि करके तीर्थों, सरिताओं, नदियों और क्षेत्रों को यथा-स्थान स्थापित किया। तत्पश्चात् सृष्टि के भार से पीड़ित होकर वे सोचने लगे। आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक -- इन तीन प्रकार के तापों से पीड़ित होनेवाले संसार के जीव इनसे किस प्रकार मुक्त होंगे। इस प्रकार विचार करते हुए ब्रह्माजी के मन में यह भाव आया कि मैं मुक्ति के एकमात्र कारण परमेश्वर श्रीविष्णु का स्तवन करूँ। 

तब ब्रह्माजी बोले --

शंख,  चक्र और गदा धारण करनेवाले जगदाधार! आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करनेवाला मैं ब्रह्मा आपके नाभिकमल से उत्पन्न हुआ हूँ। अतः जगन्मय! अपने यथार्थ स्वरूप को आप ही जानते हैं। जिनकी माया से महत्तत्व आदि सम्पूर्ण जगत् रचा गया है, और जिनके निःश्वास से प्रकट हुआ शब्दब्रह्म (वेद) ऋक्, साम और यजु -- इन तीन भेदों में अभिव्यक्त हुआ है, जिसका सहारा लेकर मैंने सम्पूर्ण भुवनों की सृष्टि की है, उन्हीं आप परमात्मा से भिन्न स्थूल-सूक्ष्म, ह्रस्व-दीर्घ आदि कोई भी वस्तु नहीं है। भगवन्!  तीनों गुणों के विभाग-पूर्वक भिन्न-भिन्न कार्यों के रूप में आप ही यह चराचर जगत् हैं - ठीक उसी तरह जैसे सुवर्ण ही कंकण,  कुण्डल आदि के रूपों में विभासित होता है। प्रभो!  आप ही सृष्टिकर्त्ता और सृज्य पदार्थ हैं तथा आप ही पोषक और पोष्य जगत् हैं। परमेश्वर! आप ही आधार, आधेय और उन दोनों को धारण करनेवाले हैं। मनुष्य आपकी ही प्रेरणा से कर्म करता है, और आप ही के द्वारा की हुई व्यवस्था से वह कर्मानुसार गति प्राप्त करता है। परमेश्वर!  आप ही इस जगत् की गति, भर्ता और साक्षी हैं। आप अखिल जीव-स्वरूप हैं। दयामय जगन्नाथ! मैं सदा आपकी शरण में हूँ,  आप मुझपर प्रसन्न होइये!

ब्रह्माजी के इस प्रकार स्तुति करने पर मेघ के समान श्याम,  शंख,  चक्र आदि चिह्नों से उपलक्षित भगवान् विष्णु गरुड़ पर आरुढ़ हो वहाँ प्रकट हुए। उनका मुखकमल पूर्णतः प्रकाशमान था। उन्होंने ब्रह्माजी से कहा :

"ब्रह्मन्!  तुम जिस कार्य के लिए मेरी स्तुति करते हो, वह सम्भव नहीं जान पड़ता। तथापि यदि इसके लिए तुम्हारा उद्योग है, तो जिस क्रम से यह सिद्ध होता है, वह तुम्हें बतला रहा हूँ। ब्रह्मन!  मैं तुम हो, और तुम मैं हूँ। सम्पूर्ण जगत् मुझसे व्याप्त (विष्णु-मय) है। जहाँ तुम्हारी रुचि है, वहाँ मेरी है । अतः तुम्हारी मनो-वांछा की सिद्धि का उपाय बतलाता हूँ -- समुद्र के उत्तर तट पर महानदी के दक्षिण भाग में जो प्रदेश है,  वह इस भूतल पर सब तीर्थों का फल देनेवाला है। वहाँ जो उत्तम बुद्धिवाले मनुष्य निवास करते हैं, वे अन्य जन्मों में किए हुए पुण्य का फल भोगते हैं। ब्रह्मन्!  समुद्र के किनारे जो नीलपर्वत सुशोभित हो रहा है,  वह पग-पग पर अत्यन्त श्रेष्ठ और परम पावन है। वह स्थान इस पृथ्वी पर गुप्त है। वहाँ से प्रकार के संगों से दूर रहनेवाला मैं देह धारण करके निवास करता हूँ और क्षर तथा अक्षर दोनों से ऊपर उठकर पुरुषोत्तम-स्वरूप में विद्यमान हूँ। मेरा वह पुरुषोत्तम-क्षेत्र सृष्टि और प्रलय से आक्रान्त नहीं होता । 

ब्रह्मन्!  चक्र आदि चिह्नों से युक्त मेरा जैसा स्वरूप यहाँ देखते हो, वैसा ही वहाँ जाकर भी देखोगे । नीलाचल के भीतर की भूमि में कल्पों तक रहनेवाले अक्षयवट की जड़ के समीप, पश्चिम दिशा में जो रौहिण नाम से विख्यात कुण्ड है, उसके किनारे निवास करते हुए मुझ पुरुषोत्तम को जो चर्म-चक्षुओं से देखते हैं, वे उसके जल से क्षीणपाप होकर मेरे सायुज्य को प्राप्त कर लेते हैं। 

महाभाग! 

वहाँ जाओ। उस तीर्थ में मेरा दर्शन करते समय तुम्हारे समक्ष पुरुषोत्तम-क्षेत्र की श्रेष्ठ महिमा स्वतः प्रकाश में आ जायगी। वह क्षेत्र श्रुतियों,  स्मृतियों, इतिहासों  और पुराणों में गुप्त है। 

मेरी माया से वह किसी को ज्ञात नहीं होता। मेरी ही कृपा से अब वह प्रकाश में आयगा और सबको प्रत्यक्ष उपलब्ध होगा। व्रत,  तीर्थ, यज्ञ और दान का जो पुण्य बताया गया है, वह सब यहाँ एक दिन के निवास से ही प्राप्त हो जाता है और एक निःश्वास भर निवास करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।"

ब्राह्मणों! इस प्रकार ब्रह्माजी को आदेश देकर भगवान् पुरुषोत्तम सबके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गए। 

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