न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
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नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।।
(मुण्डकोपनिषद् ३/२/३, कठोपनिषद् १/२/२३)
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उसकी अपनी दृष्टि में वह व्यक्ति संसार में संतुष्ट है।
वह कह रहा था कि उसमें बहुत महत्वाकांक्षाएँ हैं।
ऐसा कहते हुए उसे गौरव भी अनुभव हो रहा था।
वह मुझसे कह रहा था :
"मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं अपने मिशन में सफल हो जाऊँ!"
प्रायः हर व्यक्ति धर्म और अध्यात्म का क्या पारस्परिक संबंध है, इस बारे में अनिश्चित होता है। और शायद ही कोई भी इस बारे में किसी सुनिश्चित निष्कर्ष को प्राप्त करने के बारे में सोचता है। प्रायः मनुष्य अपने सामाजिक संस्कार, रीति-रिवाज और ज्ञान तथा परंपरा आदि को ही 'धर्म' या 'धर्म' शब्द के समानार्थी की तरह ग्रहण करते हैं।
इसलिए सभी 'धर्मों' का प्रारंभ और फल वहीं तक सीमित होता है। यदि कोई 'अध्यात्म' के प्रति आकर्षित और उत्सुक होता है, तो भी वह अपने उस 'अध्यात्म' को भी अपने 'धर्म' की चौखट में ही अकसर परिभाषित करता है । यद्यपि समय के साथ उसकी परिपक्वता में वृद्धि भी हो सकती है, और वह उस 'अध्यात्म' को भी जानने लगता है, जो किसी भी 'धर्म' के आचरण / अनुष्ठान (practice) से नितान्त स्वतंत्र एक वास्तविकता है।
इसलिए सैद्धान्तिक दृष्टि से सभी धर्म उस अध्यात्म तक जाने के लिए माध्यम हो सकते हैं, और मनुष्य विभिन्न धर्मों में विद्यमान उस वास्तविकता को जानकर वास्तविक अर्थ में आध्यात्मिक और कट्टरता तथा दुराग्रह से मुक्त हो सकता है।
उसका आग्रह था कि उसका कोई मिशन है जिसके लिए वह मुझसे आशीर्वाद माँग रहा था। यह तो वह बता ही चुका था कि वह बहुत महत्वाकांक्षी है, और उसे शायद ही यह भान (भनक) हो, कि किसी भी प्रकार की महत्वाकांक्षा अहंकार का ही ऐसा प्रयत्न होता है जिसके द्वारा अहंकार अपने आपको पुष्ट करने और सतत बनाए रखने का प्रयत्न होता है।
यह एक दुष्चक्र है।
अपने आपके कुछ न होने की प्रतीति से ही कोई महत्वाकांक्षा पैदा होती है जो अपनी रिक्तता के ऐसे बोध का ही परिणाम होता है। यह रिक्तता और रिक्तता-बोध ही मनुष्य में कोई ऐसी कामना, इच्छा पैदा कर देता है जिसके पूर्ण होने से इस रिक्तता को मिटाया जा सके, ऐसी आशा भी उसमें पैदा हो जाती है । मजेदार बात यह है कि रिक्तता स्वयं ही शून्यता है, वह तो पैदा ही नहीं हो सकती।
इस प्रकार किसी 'ईश्वर', ब्रह्म, इष्ट, भगवान आदि की प्राप्ति के लिए एक अंतहीन प्रयास प्रारंभ होता है। जिसके लिए हमें मार्ग दिखलाने के लिए अनेक किताबें, गुरु, संप्रदाय, आश्रम, मठ, मत आदि भी हमें सहायक प्रतीत होते हैं।
उन किताबों, गुरुओं, मतों, संप्रदायों, आश्रमों, मठों, की अपनी अपनी महत्वाकांक्षाएँ होती हैं और वे स्वयं भी इस दुष्चक्र को जारी रखते हैं।
क्या अपने-आपके निपट, निष्कपट, नितान्त प्रत्यक्ष सत्य को, अर्थात् आत्मा को जानने की त्वरा को महत्वाकांक्षा कहना उचित होगा?
उस व्यक्ति की बात (उसके शब्दों में उसकी एकमात्र समस्या) सुनकर अनायास उपरोक्त श्लोक याद आया।
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