अग्नि-दीक्षा
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इस पाञ्चभौतिक देह को ढोता रहा अब तक कोई,
मन बुद्धि चित्त अहं को ढोता रहा अब तक कोई!
अनगिनत जन्मों में कितने ही असंख्य युगों तक,
अपने ही अज्ञान में लिपटा रहा था अब तक कोई!
तब कहीं उसे उठा यह प्रश्न, अज्ञान है किसे?
कौन जानेगा किसे, यह ज्ञान हो फिर किसे?
क्या देह जानता है, या कि उसे ही जाना जाता!
क्या जानती हैं इन्द्रियाँ, या उन्हें ही जाना जाता!
क्या जानता है मन या कि, मन को ही जाना जाता!
जानती है बुद्धि भी क्या, या बुद्धि को ही जाना जाता!
यह जाननेवाला जो हूँ मैं, या नहीं मैं, जो जानता,
यह द्वन्द्व है किसको मगर, कौन इसको जानता?
जगत है, यह देह है, यह ज्ञान, जो है देह-भान,
क्या देह का यह भान, ऐसा ज्ञान, कोई ज्ञान है?
जानता है जो भी, क्या वह इन्द्रियों का ज्ञान है?
क्या नहीं इस ज्ञान का, आधार केवल भान है?
इन्द्रियों का और मन का, भान भी इसी तरह,
निश्चयात्मक संशयात्मक, विकल्पात्मक-ज्ञान है,
बुद्धि की विकल्पात्मकता, इसका भी तो भान है!
यह भान है जिसे, क्या है वह भान से कोई पृथक्?
और यदि है वह पृथक्, तो किसे ऐसा भान है?
क्या भान में है द्वैत होता, जैसा ज्ञेय-ज्ञाता के मध्य,
क्या भान में है भेद होता, जैसा ज्ञात-ज्ञाता के मध्य,
क्या भान में है भेद होता जैसा ज्ञेय ज्ञान के बीच,
क्या भान ही फिर वह नहीं, जो कि केवल भान अद्वैत!
भान ही तो वह अग्नि है, भान ही तो भास्कर वही,
भान ही है वह चिता भी, भान ही चित् चेतना भी!
उस चिता को दी मुखाग्नि, जिसने क्या वह ज्ञान है?
वह भस्माङ्गरागशिव तेजस्वी, वह तेज ही तो भान है!
उसकी महिमा कौन जाने, ऐसा उससे कौन अन्य?
जिसने ऐसी पाई दीक्षा, अन्ततः कृतकृत्य धन्य!!
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