Monday, 10 May 2021

बुद्धि, भय, लोभ, और कर्म

इसे एक शब्द में कहें तो संस्कार, और तीन शब्दों में कहें तो जाति, आयु और भोग कहा जा सकता है। जाति अर्थात् कुल,  वंश और माता-पिता। आयु अर्थात् प्रकृति-प्रदत्त जीवन-काल । और भोग का अर्थ है इस जीवन-काल में प्राप्त होनेवाले सभी सुख-दुःख आदि ।

जाति का दूसरा आधार वर्ण है जो प्रकृति के तीनों गुणों सत्,  रज एवं तम का संमिश्रण होता है। यह प्रकृति से प्राप्त शरीर तथा मन आदि की प्रेरणाओं का समूह है। 

इस प्रकार मनुष्य मात्र में स्वतंत्र इच्छा-शक्ति की अवधारणा की सत्यता पर प्रश्न पैदा होता है। क्योंकि तब यह प्रश्न आता है कि वह कौन है जिसे व्यक्ति की निजता के अर्थ में स्वीकार किया जाए? जो स्वतंत्र है? क्या मनुष्य अपनी इच्छा, भय, संकल्प, मन आदि का स्वामी होता है, या मनुष्य ही उनके वश में होता है? 

स्पष्ट है कि कोई इच्छा, भय, आकर्षण, लोभ ही मनुष्य को अभिभूत (overwhelm) कर लेता है, और फिर इसके बाद ही मनुष्य उनसे प्रभावित होकर अपनी बुद्धि की निर्णय करने की भूल (error of judgement) के कारण कहता है कि वह अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र है! 

क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है?

प्रश्न यह है कि वे कौन से तत्व हैं जो उसकी बुद्धि को इस प्रकार से प्रभावित करते हैं कि उसमें कोई विशेष इच्छाएँ, भय आदि पैदा होते हैं? स्पष्ट है कि प्रत्येक मनुष्य में दूसरे मनुष्यों जैसी, -फिर भी उनसे अत्यन्त भिन्न प्रकार की इच्छाएँ पैदा होती हैं। प्रकृति की दृष्टि से यह उसके शरीर, आयु तथा लिंग आदि पर भी निर्भर होता है और संस्कार के अनुसार कुल, समाज और परिवेश पर भी। संस्कार भी पुनः जन्मजात तो होता ही है, यह बाह्य परिवेश आदि का भी परिणाम होता है। 

परिणाम सदैव अपने मूल कारणों पर पूरी तरह निर्भर होता है, अतः वह कभी 'स्वतंत्र' कैसे हो सकता है? 

फिर भी रोचक तथ्य यह भी है कि मनुष्य-मात्र में उसका यह अंश जिसे चेतन कहा जाता है, इन समस्त बाह्य कारणों से नितान्त अछूता और वास्तविक अर्थों में स्वतन्त्र होता है और चूँकि यही मनुष्य की वास्तविक 'निजता' भी है, जिसे न तो संसार, न शरीर, न मन, न इच्छा, भय, परिवेश, स्थितियाँ आदि कभी छू सकती हैं न परिवर्तित या किसी भी प्रकार से बदल ही सकती हैं। और इससे भी बड़ा आश्चर्य यह भी है कि प्रत्येक ही मनुष्य को अनायास ही अपनी 'निजता' के इस सत्य का भान भी होता ही है, फिर भी बुद्धि से प्रभावित 'निर्णय करने की भूल' (error of judgement) के कारण वह निरन्तर ही अपने आपको सतत परिभाषित करते हुए जीवन भर संशय और भ्रम में पड़ा विषाद और शोकग्रस्त रहता है। 

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