The Spirituality and the Religion.
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When the Spirit has evaporated,
The Spiritual turns into the Ritual.
When the Spirit has left,
The Spiritual becomes the Religious.
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The Spirituality and the Religion.
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When the Spirit has evaporated,
The Spiritual turns into the Ritual.
When the Spirit has left,
The Spiritual becomes the Religious.
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To one, To all!
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Hindu Religion is, fundamentally very different from the 3 Abrahamic Religions in that, there are many a versions of Hindu religion, most of them mingle up easily into one another, and none of them is strictly against the rest. Conspicuously, and in contrast, the 3 Abrahamic Religions differ greatly with one another in their faiths, tenets, philosophies, beliefs, doctrines and traditions at the very core, and in comparison so therefore, Hindu Religion is always very different from them. Again, Hindu Religion is, very accommodating for all those who follow and practice the same. May be, they follow various different lifestyles and have diverse philosophical approach towards the Religion, still any of them could easily merge into another according to the bent and inclination of the mind of the individual.
But the trouble starts, when any of those sects insists that it's the only truth and the only way to God-Realization, liberation, the afterlife, or what one would like to call it.
Sanatana Dharma as such, has always been inclusive (समावेशी) in that, it lets everyone to follow his own स्वधर्म, -way of attainment of the Supreme Truth, God or Reality. And not only to follow, but also to discover in one's own way, what is स्वधर्म, the Ultimate Truth, God or even No God, Reality, whatsoever...
In other words, what we call 'the spiritual'.
This has nothing to do with the concept of monotheism or polytheism .
Sanatana Dharma, Maintains that the God or the Core-Reality of Existence (Divine) could never be classified in terms of One or many.
This is how the concepts of politheism, mono-theism and atheism have come into being.
So a man initiated in (for example : the Arya Samaj, or the ISKCON) is always in trouble and puts others in difficulty as well, when comes across the one who has been initiated into, and follows some another sect.
This is the very cause why the communication becomes just impossible.
There may be big differences in terms of the philosophical interpretations of the scriptures, but that never implies that the Core-Reality as is pointed out in the scriptures differs in any way.
But the various versions of these sects within the framework of Hindu Religion do have clash and conflict of interests, which leads to confrontation between the many such organizations.
So when it comes to dialogue, there is always kind of haughtiness, stubbornness, obstinacy and one, because of his conditioning forces his opinion upon the other.
Though both may adore the scripture (say Gita, -for example) they have their own understanding of the same and their interpretations differ so much that there is no real conversation, let the dialogue aside.
Because I have myself come across such a predicament, I am trying to convey this here.
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Disclaimer :
The post is in no way whatsoever, a comment upon the Abrahamic Religion, Please note.
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अग्नि-दीक्षा
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इस पाञ्चभौतिक देह को ढोता रहा अब तक कोई,
मन बुद्धि चित्त अहं को ढोता रहा अब तक कोई!
अनगिनत जन्मों में कितने ही असंख्य युगों तक,
अपने ही अज्ञान में लिपटा रहा था अब तक कोई!
तब कहीं उसे उठा यह प्रश्न, अज्ञान है किसे?
कौन जानेगा किसे, यह ज्ञान हो फिर किसे?
क्या देह जानता है, या कि उसे ही जाना जाता!
क्या जानती हैं इन्द्रियाँ, या उन्हें ही जाना जाता!
क्या जानता है मन या कि, मन को ही जाना जाता!
जानती है बुद्धि भी क्या, या बुद्धि को ही जाना जाता!
यह जाननेवाला जो हूँ मैं, या नहीं मैं, जो जानता,
यह द्वन्द्व है किसको मगर, कौन इसको जानता?
जगत है, यह देह है, यह ज्ञान, जो है देह-भान,
क्या देह का यह भान, ऐसा ज्ञान, कोई ज्ञान है?
जानता है जो भी, क्या वह इन्द्रियों का ज्ञान है?
क्या नहीं इस ज्ञान का, आधार केवल भान है?
इन्द्रियों का और मन का, भान भी इसी तरह,
निश्चयात्मक संशयात्मक, विकल्पात्मक-ज्ञान है,
बुद्धि की विकल्पात्मकता, इसका भी तो भान है!
यह भान है जिसे, क्या है वह भान से कोई पृथक्?
और यदि है वह पृथक्, तो किसे ऐसा भान है?
क्या भान में है द्वैत होता, जैसा ज्ञेय-ज्ञाता के मध्य,
क्या भान में है भेद होता, जैसा ज्ञात-ज्ञाता के मध्य,
क्या भान में है भेद होता जैसा ज्ञेय ज्ञान के बीच,
क्या भान ही फिर वह नहीं, जो कि केवल भान अद्वैत!
भान ही तो वह अग्नि है, भान ही तो भास्कर वही,
भान ही है वह चिता भी, भान ही चित् चेतना भी!
उस चिता को दी मुखाग्नि, जिसने क्या वह ज्ञान है?
वह भस्माङ्गरागशिव तेजस्वी, वह तेज ही तो भान है!
उसकी महिमा कौन जाने, ऐसा उससे कौन अन्य?
जिसने ऐसी पाई दीक्षा, अन्ततः कृतकृत्य धन्य!!
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इसे एक शब्द में कहें तो संस्कार, और तीन शब्दों में कहें तो जाति, आयु और भोग कहा जा सकता है। जाति अर्थात् कुल, वंश और माता-पिता। आयु अर्थात् प्रकृति-प्रदत्त जीवन-काल । और भोग का अर्थ है इस जीवन-काल में प्राप्त होनेवाले सभी सुख-दुःख आदि ।
जाति का दूसरा आधार वर्ण है जो प्रकृति के तीनों गुणों सत्, रज एवं तम का संमिश्रण होता है। यह प्रकृति से प्राप्त शरीर तथा मन आदि की प्रेरणाओं का समूह है।
इस प्रकार मनुष्य मात्र में स्वतंत्र इच्छा-शक्ति की अवधारणा की सत्यता पर प्रश्न पैदा होता है। क्योंकि तब यह प्रश्न आता है कि वह कौन है जिसे व्यक्ति की निजता के अर्थ में स्वीकार किया जाए? जो स्वतंत्र है? क्या मनुष्य अपनी इच्छा, भय, संकल्प, मन आदि का स्वामी होता है, या मनुष्य ही उनके वश में होता है?
स्पष्ट है कि कोई इच्छा, भय, आकर्षण, लोभ ही मनुष्य को अभिभूत (overwhelm) कर लेता है, और फिर इसके बाद ही मनुष्य उनसे प्रभावित होकर अपनी बुद्धि की निर्णय करने की भूल (error of judgement) के कारण कहता है कि वह अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र है!
क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है?
प्रश्न यह है कि वे कौन से तत्व हैं जो उसकी बुद्धि को इस प्रकार से प्रभावित करते हैं कि उसमें कोई विशेष इच्छाएँ, भय आदि पैदा होते हैं? स्पष्ट है कि प्रत्येक मनुष्य में दूसरे मनुष्यों जैसी, -फिर भी उनसे अत्यन्त भिन्न प्रकार की इच्छाएँ पैदा होती हैं। प्रकृति की दृष्टि से यह उसके शरीर, आयु तथा लिंग आदि पर भी निर्भर होता है और संस्कार के अनुसार कुल, समाज और परिवेश पर भी। संस्कार भी पुनः जन्मजात तो होता ही है, यह बाह्य परिवेश आदि का भी परिणाम होता है।
परिणाम सदैव अपने मूल कारणों पर पूरी तरह निर्भर होता है, अतः वह कभी 'स्वतंत्र' कैसे हो सकता है?
फिर भी रोचक तथ्य यह भी है कि मनुष्य-मात्र में उसका यह अंश जिसे चेतन कहा जाता है, इन समस्त बाह्य कारणों से नितान्त अछूता और वास्तविक अर्थों में स्वतन्त्र होता है और चूँकि यही मनुष्य की वास्तविक 'निजता' भी है, जिसे न तो संसार, न शरीर, न मन, न इच्छा, भय, परिवेश, स्थितियाँ आदि कभी छू सकती हैं न परिवर्तित या किसी भी प्रकार से बदल ही सकती हैं। और इससे भी बड़ा आश्चर्य यह भी है कि प्रत्येक ही मनुष्य को अनायास ही अपनी 'निजता' के इस सत्य का भान भी होता ही है, फिर भी बुद्धि से प्रभावित 'निर्णय करने की भूल' (error of judgement) के कारण वह निरन्तर ही अपने आपको सतत परिभाषित करते हुए जीवन भर संशय और भ्रम में पड़ा विषाद और शोकग्रस्त रहता है।
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न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
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नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।।
(मुण्डकोपनिषद् ३/२/३, कठोपनिषद् १/२/२३)
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उसकी अपनी दृष्टि में वह व्यक्ति संसार में संतुष्ट है।
वह कह रहा था कि उसमें बहुत महत्वाकांक्षाएँ हैं।
ऐसा कहते हुए उसे गौरव भी अनुभव हो रहा था।
वह मुझसे कह रहा था :
"मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं अपने मिशन में सफल हो जाऊँ!"
प्रायः हर व्यक्ति धर्म और अध्यात्म का क्या पारस्परिक संबंध है, इस बारे में अनिश्चित होता है। और शायद ही कोई भी इस बारे में किसी सुनिश्चित निष्कर्ष को प्राप्त करने के बारे में सोचता है। प्रायः मनुष्य अपने सामाजिक संस्कार, रीति-रिवाज और ज्ञान तथा परंपरा आदि को ही 'धर्म' या 'धर्म' शब्द के समानार्थी की तरह ग्रहण करते हैं।
इसलिए सभी 'धर्मों' का प्रारंभ और फल वहीं तक सीमित होता है। यदि कोई 'अध्यात्म' के प्रति आकर्षित और उत्सुक होता है, तो भी वह अपने उस 'अध्यात्म' को भी अपने 'धर्म' की चौखट में ही अकसर परिभाषित करता है । यद्यपि समय के साथ उसकी परिपक्वता में वृद्धि भी हो सकती है, और वह उस 'अध्यात्म' को भी जानने लगता है, जो किसी भी 'धर्म' के आचरण / अनुष्ठान (practice) से नितान्त स्वतंत्र एक वास्तविकता है।
इसलिए सैद्धान्तिक दृष्टि से सभी धर्म उस अध्यात्म तक जाने के लिए माध्यम हो सकते हैं, और मनुष्य विभिन्न धर्मों में विद्यमान उस वास्तविकता को जानकर वास्तविक अर्थ में आध्यात्मिक और कट्टरता तथा दुराग्रह से मुक्त हो सकता है।
उसका आग्रह था कि उसका कोई मिशन है जिसके लिए वह मुझसे आशीर्वाद माँग रहा था। यह तो वह बता ही चुका था कि वह बहुत महत्वाकांक्षी है, और उसे शायद ही यह भान (भनक) हो, कि किसी भी प्रकार की महत्वाकांक्षा अहंकार का ही ऐसा प्रयत्न होता है जिसके द्वारा अहंकार अपने आपको पुष्ट करने और सतत बनाए रखने का प्रयत्न होता है।
यह एक दुष्चक्र है।
अपने आपके कुछ न होने की प्रतीति से ही कोई महत्वाकांक्षा पैदा होती है जो अपनी रिक्तता के ऐसे बोध का ही परिणाम होता है। यह रिक्तता और रिक्तता-बोध ही मनुष्य में कोई ऐसी कामना, इच्छा पैदा कर देता है जिसके पूर्ण होने से इस रिक्तता को मिटाया जा सके, ऐसी आशा भी उसमें पैदा हो जाती है । मजेदार बात यह है कि रिक्तता स्वयं ही शून्यता है, वह तो पैदा ही नहीं हो सकती।
इस प्रकार किसी 'ईश्वर', ब्रह्म, इष्ट, भगवान आदि की प्राप्ति के लिए एक अंतहीन प्रयास प्रारंभ होता है। जिसके लिए हमें मार्ग दिखलाने के लिए अनेक किताबें, गुरु, संप्रदाय, आश्रम, मठ, मत आदि भी हमें सहायक प्रतीत होते हैं।
उन किताबों, गुरुओं, मतों, संप्रदायों, आश्रमों, मठों, की अपनी अपनी महत्वाकांक्षाएँ होती हैं और वे स्वयं भी इस दुष्चक्र को जारी रखते हैं।
क्या अपने-आपके निपट, निष्कपट, नितान्त प्रत्यक्ष सत्य को, अर्थात् आत्मा को जानने की त्वरा को महत्वाकांक्षा कहना उचित होगा?
उस व्यक्ति की बात (उसके शब्दों में उसकी एकमात्र समस्या) सुनकर अनायास उपरोक्त श्लोक याद आया।
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तत्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि ।
अयमात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म।।
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स्मृति के अंश हैं,
चलना और मुड़ना,
रास्ते के संग हैं,
मिलना-बिछुड़ना,
जीवन के रंग हैं,
स्मृतियाँ-विस्मृतियाँ,
नित्य और अनित्य,
अतीत के दंश हैं!
किसका अतीत या भविष्य!
किसका यह वर्तमान है?
इसे खोज लेना,
अज्ञान का अंत है,
अज्ञान वह अनादि,
जिसका प्रारंभ नहीं है,
प्रारंभ ही है अंत,
यह सातत्य नहीं है।
सातत्य है कल्पना,
यह सत्य नहीं है,
फिर भी अस्तित्व यह,
पर यह असत्य नहीं है!
जो सत्य है, वह सत्,
जो सत् है, वही चित्,
जो चित् है, वही प्रेम,
जो प्रेम है, चित्त नहीं है!
जो चित्त है, वह चित्र है,
जो चित्र है, वह दृश्य,
जो दृश्य है, वह दृष्टि,
जो दृष्टि है, वही दर्शन!
जो दर्शन है, वह द्वैत नहीं,
जो द्वैत है, विभाजन है,
जो विभाजन है, भक्ति नहीं,
जो भक्ति है, वह भजन है,
जो भजन है, भोजन है,
जो भोजन है, वह अन्न है,
जो अन्न है, परब्रह्म है!
जो परब्रह्म है, वही तुम हो,
वही मैं, वही सर्व है!
जो सर्व है, सर्वस्व है ।
जो सर्वस्व है, वह प्रभु है,
जो प्रभु है, वह विभु है,
जो विभु है, स्वयंभू है,
भूर्भुवःस्वरोम् नमः!!
तत्सवितुर्, वरेण्यम्,
भर्गो देवस्य धीमहि,
धियो यो नः प्रचोदयात्।।
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ॐ