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महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्वं गुरोः परम् ॥
(शिवमहिम्नस्तोत्रं 35 )
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महेश (परमेश्वर शिव, महादेव) से बढ़कर कोई अन्य देवता नहीं, महिम्न (नामक स्तुति, या महेश की स्तुति) से बढ़कर कोई स्तुति नहीं, अघोर से बढ़कर कोई मंत्र नहीं और गुरु (शिव का दक्षिणामूर्ति स्वरूप) से बढ़कर कोई तत्व नहीं ।
अघोर का अर्थ है जो घोर नहीं है, सरल, और स्वाभाविक है । अपने स्वरूप में होना सबसे सरल और स्वाभाविक है । संसार में कुछ पाना हो तो घोर तप, श्रम करना पड़ता है किंतु स्वयं को पाना तो ’जिज्ञासा’ और खोज का विषय है । ऐसा कोई नहीं जो स्वयं से अनभिज्ञ हो । किंतु स्वयं के इस सरल-स्वाभाविक ज्ञान पर बुद्धि का आवरण चढ़ जाने पर इस स्वयं से अपरिचय प्रतीत होने लगता है । बुद्धि से प्रेरित मन तब अध्यात्म में रुचि लेकर भी बहिर्मुख होकर संसार और संसार के सन्दर्भ में ही स्वयं का आकलन करता है । किंतु जीवन या गुरु से उसे पता चलता है कि जिस बुद्धि से संसार और संसार के संदर्भ में अपना आकलन किया जाता है वह स्वयं भी संसार के अनगिनत विषयों की तरह एक अनित्य ’माध्यम’ है जिससे वस्तुतः कुछ भी ग्रहण नहीं किया जा सकता । किंतु जिस चेतना में बुद्धि का आगमन और प्रस्थान चलता रहता है उसकी नित्यता पर संशय तक नहीं किया जा सकता । इसी चेतना में एक पृथक् ’मैं’ की बुद्धि शेष बुद्धियों का मूल आधार और आश्रय होती है । सभी का अनुभव है कि गहरी सुषुप्ति में भी इसका अभाव नहीं होता क्योंकि मनुष्य नींद से जागने पर भी नींद के सुख को जानता है । इस प्रकार नींद के उपभोग करनेवाले के रूप में उसकी चेतना तब भी अखंडित और अबाध थी । इस चेतना का परोक्ष बोध और स्वीकृति हो जाने पर ही इसमें अपनी ऐसी ही अखंडित और अबाध अवस्थिति को अपरोक्षतः जान लेना अपने ’अघोर’ तत्व को जान लेना है ।
साधारण भाषा में इसे आत्म-ज्ञान कह सकते हैं ।
प्रश्न यह है कि यह ’अघोर’ मंत्र क्या है?
जहाँ से अन्य सभी मंत्रों (ध्वनियों) की उत्पत्ति होती है वह है ’अघोर’ मंत्र । इसे आप प्रणव भी कह सकते हैं किंतु प्रणव के जिस स्वरूप को हम जानते हैं, ’अघोर’ मंत्र उससे बहुत भिन्न है । क्योंकि प्रणव वाणी का विषय है, जबकि प्रणव स्वयं इस मंत्र का विषय है ।
कल ही मैंने एक कविता लिखी थी :
आज की कविता
आत्म-ज्ञान : तब और अब
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तब
वो अजनबी जो हूँ मैं खुद अपने लिए,
उम्मीद है पहचान लूँगा एक दिन उसको !
अब
वो अजनबी जो था कभी, मैं खुद अपने लिए ,
आख़िर को एक दिन उसे पहचान ही लिया!
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महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्वं गुरोः परम् ॥
(शिवमहिम्नस्तोत्रं 35 )
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महेश (परमेश्वर शिव, महादेव) से बढ़कर कोई अन्य देवता नहीं, महिम्न (नामक स्तुति, या महेश की स्तुति) से बढ़कर कोई स्तुति नहीं, अघोर से बढ़कर कोई मंत्र नहीं और गुरु (शिव का दक्षिणामूर्ति स्वरूप) से बढ़कर कोई तत्व नहीं ।
अघोर का अर्थ है जो घोर नहीं है, सरल, और स्वाभाविक है । अपने स्वरूप में होना सबसे सरल और स्वाभाविक है । संसार में कुछ पाना हो तो घोर तप, श्रम करना पड़ता है किंतु स्वयं को पाना तो ’जिज्ञासा’ और खोज का विषय है । ऐसा कोई नहीं जो स्वयं से अनभिज्ञ हो । किंतु स्वयं के इस सरल-स्वाभाविक ज्ञान पर बुद्धि का आवरण चढ़ जाने पर इस स्वयं से अपरिचय प्रतीत होने लगता है । बुद्धि से प्रेरित मन तब अध्यात्म में रुचि लेकर भी बहिर्मुख होकर संसार और संसार के सन्दर्भ में ही स्वयं का आकलन करता है । किंतु जीवन या गुरु से उसे पता चलता है कि जिस बुद्धि से संसार और संसार के संदर्भ में अपना आकलन किया जाता है वह स्वयं भी संसार के अनगिनत विषयों की तरह एक अनित्य ’माध्यम’ है जिससे वस्तुतः कुछ भी ग्रहण नहीं किया जा सकता । किंतु जिस चेतना में बुद्धि का आगमन और प्रस्थान चलता रहता है उसकी नित्यता पर संशय तक नहीं किया जा सकता । इसी चेतना में एक पृथक् ’मैं’ की बुद्धि शेष बुद्धियों का मूल आधार और आश्रय होती है । सभी का अनुभव है कि गहरी सुषुप्ति में भी इसका अभाव नहीं होता क्योंकि मनुष्य नींद से जागने पर भी नींद के सुख को जानता है । इस प्रकार नींद के उपभोग करनेवाले के रूप में उसकी चेतना तब भी अखंडित और अबाध थी । इस चेतना का परोक्ष बोध और स्वीकृति हो जाने पर ही इसमें अपनी ऐसी ही अखंडित और अबाध अवस्थिति को अपरोक्षतः जान लेना अपने ’अघोर’ तत्व को जान लेना है ।
साधारण भाषा में इसे आत्म-ज्ञान कह सकते हैं ।
प्रश्न यह है कि यह ’अघोर’ मंत्र क्या है?
जहाँ से अन्य सभी मंत्रों (ध्वनियों) की उत्पत्ति होती है वह है ’अघोर’ मंत्र । इसे आप प्रणव भी कह सकते हैं किंतु प्रणव के जिस स्वरूप को हम जानते हैं, ’अघोर’ मंत्र उससे बहुत भिन्न है । क्योंकि प्रणव वाणी का विषय है, जबकि प्रणव स्वयं इस मंत्र का विषय है ।
कल ही मैंने एक कविता लिखी थी :
आज की कविता
आत्म-ज्ञान : तब और अब
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तब
वो अजनबी जो हूँ मैं खुद अपने लिए,
उम्मीद है पहचान लूँगा एक दिन उसको !
अब
वो अजनबी जो था कभी, मैं खुद अपने लिए ,
आख़िर को एक दिन उसे पहचान ही लिया!
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