Thursday, 31 December 2015

शिवपञ्चाक्षरीस्तोत्रम्

शुभ प्रभात !
01-01-2016.
आज की संस्कृत रचना 
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शिवपञ्चाक्षरीस्तोत्रम्
वायुर्वह्निवसुधावियत्
वरुणेति पञ्चायतनम् ।
शिवे प्रतिष्ठितं नित्यं
तस्मै वकाराय नमः शिवाय ॥1॥
मनो-बुद्धिरहंज्ञप्तिः
साक्षी इति पञ्चायतनं ।
शिवे प्रतिष्ठितं नित्यं
तस्मै मकाराय नमः शिवाय ॥2॥
नित्यं सनातनं शाश्वतञ्च
अनित्यं वर्तमानोऽपि
यस्मिन् शिवे प्रतिष्ठितानि
तस्मै नकाराय नमः शिवाय ॥3॥
यस्मात् यस्मिन् यतश्च यः
यस्मै लीलया प्रवर्तते ।
यः अन्तर्बाह्यभूतेषु
तस्मै यकाराय नमः शिवाय ॥4॥
शिखरो शेखरो शिवोशंभू
शङ्करो इति पञ्चाननो ।
प्रच्छन्नोचाप्रच्छन्नो
तस्मै शिकाराय नमः शिवाय ॥5॥
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01-01-2016.
आज की संस्कृत रचना
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śivapañcākṣarīstotram
vāyurvahnivasudhāviyat
varuṇeti pañcāyatanam |
śive pratiṣṭhitaṃ nityaṃ
tasmai vakārāya namaḥ śivāya ||1||
mano-buddhirahaṃjñaptiḥ
sākṣī iti pañcāyatanaṃ |
śive pratiṣṭhitaṃ nityaṃ
tasmai makārāya namaḥ śivāya ||2||
nityaṃ sanātanaṃ śāśvatañca
anityaṃ vartamāno:'pi
yasmin śive pratiṣṭhitāni
tasmai nakārāya namaḥ śivāya ||3||
yasmāt yasmin yataśca yaḥ
yasmai līlayā pravartate |
yaḥ antarbāhyabhūteṣu
tasmai yakārāya namaḥ śivāya ||4||
śikharo śekharo śivośaṃbhū
śaṅkaro iti pañcānano |
pracchannocāpracchanno
tasmai śikārāya namaḥ śivāya ||5||
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Note : Because I composed these 5 stanzas in that order, so kept them as they were revealed to me to-day morning.
॥ ॐ नमः शिवाय ॥
शिवार्पणमस्तु
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Wednesday, 30 December 2015

Awareness / ज्ञप्ति

Awareness / ज्ञप्ति

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केवलं ज्ञप्तिमात्रं स्वरूपमात्मनः यः
भवति स देहे ज्ञप्तिरूपो हि जीवो,
विज्ञप्तिं वा विज्ञानं गृहीत्वा दृढेन,
भुङ्क्ते सुख-दुःखानि क्लेशानि बहूनि ॥
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kevalaṃ jñaptimātraṃ svarūpamātmanaḥ yaḥ
bhavati sa dehe jñaptirūpo hi jīvo,
vijñaptiṃ vā vijñānaṃ gṛhītvā dṛḍhena,
bhuṅkte sukhā-duḥkhāni kleśāni bahūni ||
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अर्थ :
मनुष्य की आत्मा 'मैं'-विचार से रहित विशुद्ध चैतन्य / ज्ञप्तिमात्र है वही 'देह' के विचार से बंधकर 'जीव' हो जाती है।  इस दृढ विपरीत ज्ञान, - विज्ञप्ति अर्थात विज्ञान से ग्रस्त होकर वह जीवन में आने-जानेवाले बहुत से सुखों दुःखों और क्लेशों का भोग करती है।
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Meaning :
ज्ञप्ति > jñapti > अवज्ञप्ति > avajñapti > Egypt, gypsy,
Man's wandering soul (self) is but pure consciousness only. The same puts on the garb of a 'body' and keeps wandering as a 'jIva' / 'Gypsy'. The consciousness thus becomes vijñaptiṃ or vijñānaṃ, that is different from the true inherent wisdom of the 'Self'. And then one appears to experience the many pleasures, sorrows, and pains that one comes across in life.
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Tuesday, 29 December 2015

वैशेषिक vaiśeṣika of कणाद kaṇāda

वैशेषिक vaiśeṣika of कणाद kaṇāda 
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Treats Earth as gravitation, Fire as heat,/ Light, Water as electricity, Air as sound and Ether as Time and Space. Time and Space are totally and mutually dependent forms of the same matter 'Ether', and because one can't exist independently on its own without the other, though we see them as 2 different entities, our this perception of the 2 itself is deceptive.This Time and Space too is 'material aspect' of the same 'consciousness' like the other 4. And the Prime Reality is just indescribable though neither insentient like 'matter' nor sentient like the 'individual' entities. Because Its beyond subject-object relationship.
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Sunday, 20 December 2015

सनातन धर्म और राज्य

सनातन धर्म और राज्य
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धर्म एक स्वतंत्र तत्व है, व्यक्त और अव्यक्त, ब्रह्म और परब्रह्म भी।
परब्रह्म अर्थात् यह संसाररूपी विस्तार जिस ब्रह्म का है उसके आधारभूत सर्वस्व का क्रिया कलाप ।
राज्य व्यावहारिक संसार का एक आयाम मात्र है -एक भौतिक सत्ता, जो औपचारिक और व्यावहारिक महत्व तो रखती है किन्तु उसी धर्म नामक शक्ति से संचालित होता है और उस पर ही आश्रित होने से संवर्धित, समृद्ध होता है । धर्म की वे जड़ें यद्यपि दिखलाई नहीं देतीं, किन्तु यदि राज्य उन जड़ों से विच्छिन्न हो जाता है तो विनाश की ओर अग्रसर होने लगता है ।
जब तक राज्य धर्म पर बाह्य रूप से भी आश्रित होता है और उसके मार्गदर्शन से अपना कार्य-व्यापार करता है, अर्थात् शासक यदि यथार्थ धर्म, अधर्म तथा विधर्म भी क्या है इसे अपने विवेक से, अथवा धर्म को जाननेवाले उन महापुरुषों, ऋषियों मुनियों और तपस्वियों से जिज्ञासा कर जानकर समझ लेता है, जो स्वयं विवेकशील और संसार की अनित्यता और तुच्छता को समझकर वैराग्य-बुद्धि से संपन्न हो जाने से नित्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं, तब तक राज्य और शासक को धर्म के रूप में ऐसा दृढ नैतिक आधार उपलब्ध होता है जिस पर वह एक सुव्यवस्थित राज्य स्थापित कर प्रजा का पालन और सुरक्षा कर सके, उन्हें समृद्ध कर सके । किन्तु यह समृद्धि केवल भौतिक सुख-सुविधाओं और भोग-विलास का विकास नहीं हो सकती । धर्म किसी सरिता के प्रवाह की तरह अपनी गतिविधि स्वयं ही है । अपने से इतर न तो उसका कोई लक्ष्य है, न गंतव्य और जब उसके रास्ते में अवरोध आते हैं तो वह उन अवरोधों का सामना अपने तरीके से करता है । उसे हमारी या मनुष्य की भौतिक समृद्धि या विकास से कोई लेना-देना नहीं हो सकता ।  सुख-भोग की बुद्धि उसके रास्ते में ऐसी ही एक बाधा है और जो मनुष्य यह समझ पाता है कि सरलता से प्रकृति से सामञ्जस्य रखते हुए जीना ही जीवन के सर्वोत्तम को पाने का एकमात्र श्रेयस्कर संभव तरीका है, वह तकनीक का उपयोग भी उसी सीमा के भीतर करता है । तकनीक जीवन को गुणात्मक स्तर पर समृद्ध नहीं कर सकती । मनुष्य तब यह समझता है कि एक मनुष्य के नाते पृथ्वी पर रहते हुए जीवन पर उसका उतना ही अधिकार है जितना किसी भी दूसरे छोटे से छोटे या बड़े से बड़े दूसरे प्राणी का । किन्तु भौतिक विकास ने हमें इतना मुग्ध और विभ्रमित कर दिया है कि हम मनुष्य जाति की अपनी स्वाभाविक प्रकृति-प्रदत्त संख्या से बहुत अधिक संख्या में पैदा हो गए हैं और इसलिए प्रकृति का दोहन अनधिकृत रूप से केवल मनुष्य को सर्वोपरि स्थान देकर कर रहे हैं । किन्तु प्रकृति इसका प्रत्युत्तर देती है और देती रही है । युद्ध, दुर्घटनाओं  और मनुष्य द्वारा प्रायोजित व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर किए जानेवाले अपराधों  में लाखों मनुष्य प्रतिदिन मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं । स्वाभाविक रूप से, रोग या वृद्धावस्था में होनेवाली मौतें भी हैं, जो हमारा प्रतिदिन का अनुभव है ।
यह धर्म का स्वाभाविक स्वरूप हुआ, जिससे मार्गदर्शन प्राप्त कर राज्य अपना और प्रजा का कल्याण कर सकता है ।
 दूसरी ओर इसी धर्म का विकार भी लोक में प्रायः धर्म समझ लिया जाता है । ऐसा कुछ लोगों की अपनी धर्मेतर वासनाओं को प्रमाद-वश या लोभ, मद आदि से मोहित बुद्धि द्वारा वास्तविक धर्म को धर्म के आवरण में छिपाकर या जानते-समझते हुए भी आलस्यवश समझने के श्रम से बचने और आलस्य आदि के कारण होता है । यह विकार-धर्म मिश्रित और अशुद्ध बुद्धि से युक्त मनुष्यों के लिए कभी-कभी सांसारिक यश, धन और संपत्ति, भूमि आदि पर प्रभुत्व का एक सशक्त साधन बनकर उनके पतित होने का ही कारण होता है ।
वेदविहित धर्म को ग्रहण करने के लिए मनुष्य की पात्रता है कुल से ब्राह्मण होना, द्विजत्व होना, और ब्राह्मणोचित कर्मों द्वारा विवेक वैराग्य आदि षट्-संपत्ति अर्जित करना । ऐसे ब्राह्मण को यदि प्रारब्धवश गृहस्थ-आश्रम भी प्राप्त होता है तो उसे वेदविहित कर्मों का अनुष्ठान यथासंभव विधिपूर्वक करना चाहिए । यदि उसे गृहस्थ आश्रम नहीं अपनाना, तो उसे तप करना चाहिए, भिक्षा के अन्न से निर्वाह करना चाहिए और अधिकारी व्यक्तियों को धर्म की शिक्षा देना चाहिए । यदि वह गृहस्थ है तो आजीविका के लिए कर्म भी करे, न कि यश, धन, या संपत्ति के संग्रह के लिए ।
कुल के विस्तार के लिए संतान की उत्पत्ति करे और संतान तथा स्त्री का पालन-पोषण करे । किन्तु उसे ऐसे कर्मों से दूर रहना होगा जो ब्राह्मणोचित नहीं हैं या ब्राह्मणों के लिए निषिद्ध हैं ।
ठीक इसी प्रकार से क्षत्रिय वैश्य और शूद्र वर्ण के मनुष्यों को भी अपने स्वभाव के अनुकूल धर्म का आचरण करना चाहिए । यह बिलकुल संभव है कि परिस्थितिवश इस प्रकार से अपने धर्म का पालन करने में कठिनाइयाँ आएँ किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि जानबूझकर धर्म से विपरीत आचरण किया जाए । यहाँ संक्षेप में इतना ही कहना उचित होगा कि वर्ण का यह विभाजन मनुष्यों के गुण-कर्म (की उनकी जन्मजात प्रवृत्ति) के आधार पर हर मनुष्य स्वयं ही अपने लिए सुनिश्चित कर सकता है, न कि दूसरे लोग या समाज । यदि इसे और अच्छी तरह समझा जाए तो अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म का आचरण करते हुए प्रत्येक मनुष्य श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
जहाँ तक आश्रम का प्रश्न है, मोटे तौर पर हर मनुष्य के जीवन में उसकी शारीरिक अवस्था के अनुसार चार ऐसे अंतराल क्रमशः आते हैं, जिन्हें संक्षेप में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास कहा जाता है । और इसके लिए कोई निश्चित आयु नहीं तय की जा सकती क्योंकि मृत्यु कब होना है इस बारे में कोई नहीं जानता । इसलिए पात्र मनुष्य सीधे ब्रह्मचर्य से संन्यास में भी जा सकता है । किन्तु फिर भी स्वाभाविक प्राप्त हुए आश्रम में रहते हुए मनुष्य के लिए उस धर्म का आचरण करना अपेक्षाकृत कम क्लेश और अधिक सुख और संतोष का कारण होता है ।
चूँकि वर्तमान काल में अवर्णों / अनधिकारियों द्वारा भी वेदाध्ययन किया जाने लगा है, और वे अपनी बुद्धि द्वारा जाने-अनजाने वेद का तात्पर्य त्रुटिपूर्ण ग्रहण करते हैं, इसलिए हमें स्पष्ट नहीं हो पाता कि वेद और पुराण आदि कितने विश्वसनीय, सत्य और ग्राह्य हैं । और वेद चूँकि सामान्य मनुष्य के लिए हैं भी नहीं, केवल अधिकारी आचार्य और शिष्य ही उनके अध्ययन के लिए पात्र हैं, वेद से ही स्मृतियों और पुराणों का उद्गम हुआ है, वेद और पुराण की शैली इसलिए मूलतः बहुत भिन्न-भिन्न है । जहाँ वेद समष्टि मनुष्य के संबंध में धर्म क्या है यह स्पष्ट करते हैं, वहीं पुराण कथा और आख्यान द्वारा उसी धर्म की शिक्षा व्यक्ति को देते हैं । किन्तु अस्तित्व के जिन विविध आयामों और दैवी औपाधिक सत्ताओं (देवताओं) के बारे में वेद स्वरूपतः बतलाते हैं वहीं पुराण उनके औपाधिक स्वरूप को अधिक महत्व देते हुए उनके साकार स्वरूप को स्पष्ट करते हैं । ये सभी सत्ताएँ सार्वकालिक सत्य हैं । चाहे शिक्षित हो या अनपढ़,  सामान्य मनुष्य के लिए यह संभव नहीं कि स्वयं वेद का अध्ययन करे, या किसी आचार्य को खोजे और उससे सीखे । किन्तु पुराण कोई भी सुन-समझ सकता है और श्रद्धा होने और समय के साथ बुद्धि के परिपक्व और शुद्ध होने पर पुराण के माध्यम से क्रमशः वेदनिहित सत्य तक भी जा सकता है । श्रद्धा होने से यहाँ तात्पर्य है ठीक से समझे बिना पुराण की सत्यता पर शंका न उठाना । और यदि शंका उठती है, तो स्वयं ही या किसी की सहायता से उस शंका का निवारण करना । और यदि वह संतुष्ट नहीं है तो ऐसे मनुष्य को चाहिए कि वह पुराण से कोई आशा न रखे ।
ऐसे भी कुछ महापुरुष हो गए हैं जो समाज-सुधार और धर्म के अपने द्वारा मान्य प्रारूप को समाज पर आरोपित करते हुए पुराणों और स्मृतियों की निन्दा में भी प्रवृत्त हो गए । एक नाम याद आता है स्वामी दयानन्द सरस्वती । स्पष्ट है कि केवल हठवश ही वे पुराणविरोधी हो गए थे । जैसे वे इस्लाम क्रिश्चियनिटी और उनके काल में समाज में प्रचलित अन्य अनेकों पंथों / संप्रदायों / मतों के विरोधी थे, वैसे ही वे पुराणों के भी विरोधी हो गए । यदि आदि शङ्कराचार्य जैसे महापुरुषों ने न केवल शिव या विष्णु, स्कन्द या गणेश, देवी या श्रीराम और श्रीकृष्ण, बल्कि गंगा, यमुना, नर्मदा आदि नदियों की स्तुति में स्तवन लिखे हैं, तो हम समझ सकते हैं कि पुराण और उनकी सामग्री केवल वाग्विलास और कपोल-कल्पना नहीं हो सकती ।                    
इस प्रकार ब्राह्मण-धर्म की दो प्रधान शाखाएँ हो जाती हैं जो एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होती हैं और होती भी हैं क्योंकि उनका आगमन और निगमन दो प्रकार से होता है । वेद का आगमन ईश्वर की सत्ता को अपरिभाषित और अपरिभाषेय की तरह ग्रहण करने से होता है, जबकि पुराण का उस सत्ता को सीमित-भाव से एकमात्र कर्ता और अधिष्ठान के रूप में ग्रहण करने से होता है । जैसे लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई तीनों दीर्घता के मान होते हैं किंतु भौतिक आकाश में तीन आयामों की तरह पृथक्-पृथक् ग्रहण किये जाते हैं । यह औपाधिक औपचारिक और व्यवहार्य सत्य हुआ । यह इन्द्रियग्राह्य है अनुभवगम्य और बुद्धिगम्य है किंतु अनित्यता के दोष से युक्त है । जबकि जो नित्य है वह इन्द्रिय-मन-बुद्धि से अग्राह्य है क्योंकि इन्द्रिय-मन-बुद्धि उस नित्य की ही अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं ।
सामान्य मनुष्य की बुद्धि न तो ईश्वर की सत्ता को परिभाषित कर सकती है न इन्द्रिय-मन-बुद्धि में ग्रहण कर सकती है । इस प्रकार पुनः उस नित्य सत्य के  जो निरुपाधिक, अनौपचारिक और अव्यवहार्य भी है के भी दो प्रकार हो जाते हैं । प्रथम हुआ अज्ञेयवाद जिसका विकास साँख्य और वेदान्त के रूप में हुआ द्वितीय हुआ ’ईश्वरवाद’, अर्थात् उसी नित्य सत्य को जो निरुपाधिक, अनौपचारिक और अव्यवहार्य भी है की जगत् और जीव के रूपों में अभिव्यक्ति । एक बार उस सत्य को जगत् तथा जीव की सत्ता के अधिष्ठाता के रूप में स्वीकार कर लिये जाने के बाद उसका नामकरण किया जाना जरूरी हो जाता है । बृहदारण्यक् उपनिषद् के अनुसार : ’अहम्’ तस्य नामाभवत् । उस अधिष्ठाता तत्व का नाम ’अहम्’ हुआ जिसका अर्थ पुनः व्युत्पत्ति के अनुसार ’अ’ व्यञ्जन से ’ह’ व्यञ्जन तक के संपूर्ण वर्णों का विस्तार है । वही व्यवहार और प्रयोग के अर्थ में ’मैं’ होता है । वही भाषा में व्याकरण के अनुसार उत्तम पुरुष होता है जो कि मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष से पूर्व विद्यमान होता है । यद्यपि इन्द्रिय-मन-बुद्धि के अस्तित्व को उससे ही सत्यता प्राप्त होती है किन्तु वह उनसे भी पूर्व है और उनके लिए दुर्बोध, दुरूह, अगम्य भी । रुचि और शुद्ध सरल तथा प्रखर बुद्धि के मनुष्य को यह सब समझना आसान है किन्तु प्रायः मनुष्य इस प्रकार की बुद्धि से युक्त नहीं होते ।
इसलिए जो लोग उस ईश्वर को स्वीकार तो करते हैं किंतु उसके यथार्थ तत्व के बारे में समझने में कठिनाई अनुभव करते हैं, या रुचि ही नहीं रखते उनके लिए ईश्वर की एक कार्योपयोगी, कामचलाऊ व्यवहार्य अवधारणा प्रस्तुत की जाती है जो असत्य तो नहीं है किन्तु नित्य भी नहीं है । ईश्वर की उस धारणा और जीव तथा जगत् से उसके संबंध का विस्तार से वर्णन पुराण में पाया जाता है । इसलिए वेद तथा पुराण तर्क का विषय नहीं है बल्कि मनुष्य की पात्रता और ग्रहण-क्षमता के अनुसार हर किसी के लिए भिन्न-भिन्न रूप से ग्राह्य हैं ।
पुनः वेद और पुराण काल और स्थान का वर्गीकरण भी इसीलिए कुछ भिन्न रीति से करते हैं । वेद देवताओं और अन्य औपाधिक सत्ताओं तथा उनके विशिष्ट स्थानों अर्थात् लोकों का ग्रहण प्रत्यक्षतः करते हैं  - जैसे अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र, सूर्य, यम, शिव, विष्णु, आदि को तथा उनके विशिष्ट स्थानों को अपरोक्षतःग्रहण किया जाता है, जबकि पुराण में इन्हीं को परोक्षतः, सन्दर्भ रूप में घटनात्मक या वर्णनात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है । वेद और पुराण इस बारे में शंका नहीं करते कि वे विभिन्न देवता और लोक परस्पर सहवर्ती हैं या नहीं । इसलिए मृत्युलोक में रहनेवाले मनुष्यों को यह समझ पाने में कठिनाई होती है कि वे विभिन्न देवता और लोक वास्तव में होते हैं या कल्पना मात्र हैं । जिस प्रकार हमारे चित्त की जागृत, स्वप्न, मूर्च्छा, और निद्रा नामक चार स्थितियाँ अपने अतिरिक्त शेष तीन स्थितियों के विकल्प से ही होती हैं, उसी प्रकार ये सारे देवता और उनके लोक भी हमारे जगत् में दिन-प्रतिदिन अनुभव किए जानेवाले जीवन से विकल्पात्मक होने से ही होते हैं। अतः हमारे मन में यह संशय पैदा होता है कि उनकी यथार्थता कितनी सत्य है ।
ऋषि, मुनि, तपस्वी तत्त्व-जिज्ञासु जो पहले ही से संसार के विषयों और उनसे आभासी रूप से प्राप्त होनेवाले और उनमें प्रतीत होनेवाले सुखों  की नित्यता समझ लेने के कारण उन्हें दुःख ही जान लेने के बाद  देह तक से उदासीन होकर इस प्रपंच के मूल किसी नित्य तत्त्व की प्राप्ति के लिए यत्न करते हैं वे इस प्रकार वर्ण से ब्राह्मण ही होते हैं, भले ही अवस्था के अनुसार ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यासी क्यों न हों।   
संक्षेप में यदि किसी में सतोगुणी प्रवृत्तियाँ अधिक प्रबल हैं तो ब्राह्मण के लिए निर्दिष्ट धर्म पर चलना उसके लिए सरल और स्वाभाविक होगा । इसी प्रकार किसी में रजोगुण की प्रवृत्ति प्रबल है तो उसके लिए क्षत्रिय धर्म का आचरण करना सरल और स्वाभाविक होगा । इसी प्रकार किसी में रजोगुण  तथा तमोगुण प्रबल हैं तो उसके लिए वैश्य धर्म अधिक सरल होगा । वैसे ही यदि किसी में तमोगुण सर्वाधिक प्रबल है तो उसके लिए शूद्र के लिए निर्दिष्ट धर्म सर्वाधिक हितकारी होगा ।
गीता के अनुसार यह एक सांकेतिक लक्षण है, किन्तु प्रत्येक मनुष्य में तीनों गुण समय समय पर शेष दो गुणों से अधिक शक्तिशाली होते हैं, जब सतोगुण / सत्वगुण रजोगुण तथा तमोगुण को दबा कर चित्त में व्याप्त होता है तो मनुष्य का मन शान्त, सावधान, और शुभ प्रवृत्तियों से युक्त होता है । रजोगुण का वर्चस्व होने पर संशय, अनिश्चय, राग-द्वेष युक्त, कर्म तथा भोग की प्रवृत्तिवाला, और ऐसे ही दूसरे गुणों से युक्त होता है । तथा तमोगुण का वर्चस्व होने पर चित्त आलस्य, निद्रा, मूढता, भय, दुस्साहस आदि से प्रभावित रहता है ।
(अध्याय 14, श्लोक 10,

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥
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(रजः तमः च अभिभूय सत्त्वम् भवति भारत ।
रजः सत्त्वम् तमः च एव तमः सत्त्वम् रजः तथा ॥)
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भावार्थ :
रजोगुण एवं तमोगुण को दबाकर सतोगुण प्रबल हो उठता है, और रजोगुण भी सतोगुण एवं तमोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । इसी तरह से तमोगुण भी सतोगुण एवं रजोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । संक्षेप में एक समय में इनमें से कोई एक सर्वाधिक प्रबल, शेष दो पर हावी हो जाता है ।)
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इसी प्रकार संसार में ऐसा कोई नहीं जो इन तीन गुणों से मुक्त हो ।
(अध्याय 18, श्लोक 40,

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥
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(न तत्-अस्ति पृथिव्याम् वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वम् प्रकृतिजैः मुक्तम् यत् एभिः स्यात् त्रिभिः गुणैः ॥)
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भावार्थ :
पृथ्वी पर, आकाश में अथवा देवताओं में भी ऐसा कोई कहीं भी नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले इन तीन गुणों (के प्रभाव) से मुक्त हो ।)


हम कह सकते हैं कि वर्ण आश्रम का उपरोक्त विभाजन वर्तमान युग में लगभग अव्यावहारिक और अप्रासंगिक सा हो गया है । किन्तु जब हमारे सामने धर्म की प्रवृत्ति का प्रश्न आता है तो हमें किसी ऐसे आधार की आवश्यकता अनुभव होती है जो हमें अपना कर्तव्य-निर्वाह सम्यक् रूप से करने के लिए मार्गदर्शन दे सके ।
इतिहास ने और इतिहासकारों ने धर्म के रूप में हमारे सामने कुछ विकल्प रखे हैं । दूसरी ओर जिस समाज में हमने जन्म लिया है, अर्थात् परिवार की सामाजिक पृष्ठभूमि भी हमें अपने किसी विशिष्ट पारंपरिक धर्म पर चलने का सुझाव देती है । यह धर्म हमें इस प्रकार परंपरा से प्राप्त होता है न कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है, इस प्रकार से धर्म की विवेचना के द्वारा जानकर । स्पष्ट है कि परंपराएँ दुराग्रहपूर्ण और त्रुटिपूर्ण हो सकती हैं और यदि वे विश्वास पर आधारित हैं तब तो इसकी संभावना अत्यन्त बढ़ जाती है । भिन्न-भिन्न प्रकार के और विविध विश्वास वैचारिक मान्यताएँ ही होती हैं और यद्यपि मनुष्य को ऐसी मान्यताएँ रखने से कोई न तो रोक सकता है न रोकना उचित है । किन्तु जब ऐसे विश्वास इतने दुराग्रहपूर्ण हो जाते हैं कि अपनी मान्यताओं को ही एकमात्र यथार्थ धर्म कहने लगें और उन मान्यताओं से भिन्न प्रकार की मान्यताओं को अधर्म कहने लगें और बलपूर्वक तथा छल-कपट से या बहला फ़ुसलाकर, भय, प्रलोभन या राजनीतिक चालाकियों से अन्य मतावलंबियों को अपने मत में दीक्षित करने लगें तो ऐसे विश्वास, मत स्पष्टतः धर्म के वेष में अधर्म ही होते हैं ।
सनातन धर्म के अनुसार धर्म वस्तु का स्वभाव है जिसका त्याग करना वस्तु के लिए संभव नहीं । इसलिए सनातन धर्म की समझ के अनुसार धर्म के प्रति लोगों को जागरूक तो किया जा सकता है, किन्तु धर्म को आरोपित नहीं किया जा सकता । मनुष्यमात्र को अपना धर्म स्वयं ही खोजना होगा और यदि वह किसी मत या विश्वास में अपने धर्म को देखता भी है तो उसे इसी प्रकार दूसरों के भी अपने मत या विश्वास को उनका अपना धर्म कहने के अधिकार का सम्मान करना होगा । किन्तु इतिहास में, जैसा कि इस लेख के प्रारंभ में ही संकेत किया गया है,  राज्य व्यावहारिक संसार का एक आयाम मात्र है -एक भौतिक सत्ता, जो औपचारिक और व्यावहारिक महत्व तो रखती है किन्तु उसी धर्म नामक शक्ति से संचालित होता है और उस पर ही आश्रित होने से संवर्धित, समृद्ध होता है । धर्म की वे जड़ें यद्यपि दिखलाई नहीं देतीं, किन्तु यदि राज्य उन जड़ों से विच्छिन्न हो जाता है तो विनाश की ओर अग्रसर होने लगता है ।
जब तक राज्य धर्म पर बाह्य रूप से भी आश्रित होता है और उसके मार्गदर्शन से अपना कार्य-व्यापार करता है, अर्थात् शासक यदि यथार्थ धर्म, अधर्म तथा विधर्म भी क्या है इसे अपने विवेक से, अथवा धर्म को जाननेवाले उन महापुरुषों, ऋषियों मुनियों और तपस्वियों से जिज्ञासा कर जानकर समझ लेता है, जो स्वयं विवेकशील और संसार की अनित्यता और तुच्छता को समझकर वैराग्य-बुद्धि से संपन्न हो जाने से नित्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं, तब तक राज्य और शासक को धर्म के रूप में ऐसा ठोस नैतिक आधार उपलब्ध होता है जिस पर वह एक सुव्यवस्थित राज्य स्थापित कर प्रजा का पालन और सुरक्षा कर सके, उन्हें समृद्ध कर सके । किन्तु यह समृद्धि केवल भौतिक सुख-सुविधाओं और भोग-विलास का विकास नहीं हो सकती ।
भारत में बुद्ध और बौद्ध धर्म के उदय के साथ एक गलत परम्परा यह आरंभ हुई कि ’धर्म’ को राज्य का आश्रय प्राप्त हुआ । पहले धर्म की गतिविधि स्वतन्त्र रूप से उसके अपने नियमों से होती थी और शासक मार्गदर्शन के लिए धर्माचार्यों के पास जाया करते थे । धर्माचार्य विवेक-वैराग्यपूर्ण जीवन जीते थे और राज्य तथा संपत्ति, भोगों और यश की कामना को तुच्छ समझते थे । किन्तु बुद्ध के काल में राज्याश्रय प्राप्त होने पर (बौद्ध) धर्म ’प्रचार’ की वस्तु बन गया । एक दृष्टि से इसमें भी कोई दोष नहीं था क्योंकि बौद्ध धर्म में भी उन्हें ही दीक्षित किया जाता था जो इसकी ओर आकर्षित थे, जो इस धर्म के मूल सिद्धान्तों में धर्म की झलक देखते थे, जो इससे मार्गदर्शन पाते थे । इस तरह से इसमें किसी को बलपूर्वक अपने मत में दीक्षित करने का विचार कदापि नहीं था । दूसरे अर्थ में यह वस्तुतः ब्राह्मणोचित धर्म ही था और साँख्य-दर्शन के अधिक निकट था । किन्तु जो लोग किन्हीं भी कारणों से वेद के धर्म को ग्रहण नहीं कर सकते थे, और ’पौराणिक धर्म’ जिनके लिए बिल्कुल नया था, उनमें से अनेक ऐसे थे जिन्हें बौद्ध धर्म में सम्यक् और श्रेयस्कर जीवन जीने की ध्येय-सिद्धि के लिए अनेक मार्गदर्शक शिक्षाएँ दिखलाई देती थीं ।
और आज भी धर्म को वैज्ञानिक आधार पर समझने के लिए उत्सुक अनेक वैज्ञानिक और दार्शनिक, विचारक बौद्ध धर्म में मनुष्य के भविष्य की आशा देखते हैं ।
किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है, बौद्ध धर्म उन आततायियों और आक्रमणकारियों से अपनी या अपने मतानुयायियों की रक्षा करने में असमर्थ है, जो अपने ही विश्वास / मत को एकमात्र वास्तविक धर्म कहते हैं और तलवार के द्वारा अपना मत सारी दुनिया पर लादना चाहते हैं । सनातन धर्म न तो दूसरे पर अपना मत बलपूर्वक आरोपित करने को उचित मानता है, न किसी के द्वारा बलपूर्वक अपना मत आरोपित किए जाने पर उसका प्रतिकार न करने को । यहाँ क्षात्र धर्म का महत्व समझा जा सकता है । यदि प्रजा में दुर्जन और अपराधी न भी हों तो भी जंगली एवं हिंस्र पशुओं तथा अपराध से आजीविका चलानेवाले दस्युओं आदि का दमन किया जाना एक अपरिहार्य आवश्यकता है । और यह शासक का कर्तव्य है कि वह इसके लिए शक्ति का प्रयोग करे । बौद्ध धर्म के पास इस समस्या का कोई समाधान नहीं है । यदि सभी बौद्ध भिक्षु बन जाएँ तो कृषि और पशुपालन कौन करेगा? और क्या वह व्यावहारिक रूप से कभी संभव है?
इसलिए राज्य को सम्यक् धर्म का आश्रय लेना होगा, न कि धर्म को अपने ’प्रचार’ और प्रसार के लिए राज्य की शक्ति का ।
और जो ’धर्म’ राज्य की शक्ति का आश्रय लेता है वह राज्य का, तथा अंततः पूरे संसार का विनाश कर देता है ।
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Thursday, 17 December 2015

इतिहास का एक विलुप्तप्राय पृष्ठ -1

इतिहास का एक विलुप्तप्राय पृष्ठ
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क्या प्रगतिशील होने का अर्थ अशालीन, फ़ूहड़ हो जाना है? क्या यह केवल पूरे समाज के लिए और अन्ततः अपने लिए भी घातक सिद्ध नहीं होता? हिंदी और उर्दू के भी उन तमाम साहित्यकारों ने जिन्होंने क्रान्तिकारी होने के नाम पर सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए साहित्य की इस भंगिमा को अपनाया है, वास्तव में पूरे समाज का बहुत अहित किया है । आज हम ’अमेरिकन-इंग्लिश’ को फ़र्राटे से बोलने और लिखने में सफलता में अपनी  शान समझते हैं । अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के आवरण में इस प्रकार के लेखन पर आप क्या कहना चाहेंगे?
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समाज के एक ही नहीं पूरे भारतीय और विश्व के हर तबक़े पर, क्या सभी पर नहीं पड़ रहा भारी?
चुप रहना भी एक अभिव्यक्ति है, शालीन, सभ्य... लेकिन पीड़ादायी... दूसरों के लिए भी!
वैसे मेरा इंगित पिछले 50 वर्षों से चले आ रहे सभी लेखन की ओर है । ब्लिट्ज़, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, तथा नवनीत, कहानी, सारिका आदि के जमाने से चला आ रहा है अब तो फ़ेसबुक और दूसरी साइट्स को देखना तक असह्य होने लगा है । यह कहने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है ।
पूरा बॉलीवुड मुग़ले-आज़म के जमाने से आज तक... नकली आदर्श, भावनात्मक ब्लैक-मेल नेहरू-गाँधीवाद का महिमामंडन, ...सहिष्णुता के नाम पर तुष्टिकरण, ...
राहुल सांकृत्यायन से लेकर भारत एक खोज तक, सत्य के प्रयोग से 'सर्व-धर्मसमभाव' को औज़ार बनाने तक, गीतांजलि से लेकर राग दरबारी तक, कमलेश्वर और बाबा नागार्जुन, शिवमंगलसिंह सुमन और भी ढेरों नाम हैं... और यही नहीं ओशो जैसे फ़ूहड़ रुझान के छद्म बुद्धिजीवी लोग भी इसका सक्रिय हिस्सा रहे हैं,
इस सबकी शुरुआत तो भारत पर विदेशी आक्रमणों के समय से ही हो गई थी, मोहम्मद गज़नी से इसकाप्रारंभ हुआ ऐसा प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में यह एक व्यक्ति की महत्वाकाँक्षा ही जब कलिंग पर सम्राट अशोक ने आक्रमण किया । स्कन्द-पुराण  पढ़ने पर पता चलता है कि कलिंग कितना समृद्ध था और अशोक ने इसीलिए उस पर आक्रमण किया था । यह कहना अनुचित न होगा कि अशोक ने कलिंग पर इसीलिए आक्रमण किया ताकि वह वहाँ के समृद्ध मन्दिरों और लोगों की संपत्ति लूट सके । और इसलिए उसने सनातन आर्य-धर्म कान केवल त्याग किया बल्कि अपनी महत्वाकाँक्षा की धार पैनी करने के लिए बौद्ध धर्म का आश्रय भी ग्रहण किया । ’विजयी’ होने के बाद उसे अपने कृत्य पर दिखावटी पश्चात्ताप हुआ होगा और उसके ’पश्चात्ताप’ को चाटुकारों ने महिमामंडित किया होगा । यहाँ भगवान् बुद्ध की आध्यात्मिक उपलब्धि या उनके अवतार होने के विषय में मेरा कोई मत नहीं है क्योंकि इसे वैज्ञानिक आधार पर सिद्ध / असिद्ध नहीं किया जा सकता इसलिए इस बारे में मेरे द्वारा कुछ कहा जाना वैसे भी  अनधिकृत और अनावश्यक अवांछित होगा । किन्तु सार यह कि अशोक ने बुद्ध को अपनी धन, राज्य, अधिकार और यश-लिप्सा के लिए एक बहुत सक्षम यन्त्र की भाँति इस्तेमाल किया । और ’अशोक महान’ की ख्याति अर्जित की । इस अशोक को ’सम्राट अशोक’ से ’अशोक महान’ बनाया अंग्रेज़ इतिहासकारों ने ताकि भारतभूमि में सनातन-धर्म और बौद्ध-धर्म के बीच मतभेदों का राजनीतिकरण किया जा सके ।
भारत के साँस्कृतिक विखण्डन का प्रारंभ यहीं से हुआ । जहाँ बुद्ध की शिक्षाओं का प्रसार-प्रचार भारत के पूर्व में जापान, थाईलैंड, बर्मा, इन्डोनेशिया और मलयेशिया तक, और दक्षिण में श्रीलंका तक हुआ वहाँ पहले से ही प्रचलित वैदिक धर्म को इससे वैसी क्षति नहीं हुई जैसी कि बौद्ध-धर्म की जन्मस्थली भारत में । किन्तु भारत में इस क्षति का एक प्रमुख कारण अंग्रेज़ इतिहासकारों के द्वारा बुद्ध और अशोक के अनावश्यक महिमामंडन में भी है । जहाँ इस प्रकार भारत में बौद्ध धर्म और वैदिक धर्म बीच विरोधाभास को हवा दी गयी वहीं इतिहासकारों ने शैव और वैष्णवों के बीच भी ऐसे ही विवादों को प्रक्षेपित किया । संभव है किन्हीं अन्य कारणों से शैव और वैष्णवों के बीच मतभेद रहे हों, किन्तु जिस सशक्त आग्रह से वेद तथा पुराण शिव और विष्णु के एकमेव होने का उल्लेख करते हैं, उससे यही सिद्ध होता है कि यह विवाद इतिहासकारों की सुनियोजित साज़िश के अंतर्गत प्रायोजित एक विचार से अधिक कुछ नहीं था ।

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Wednesday, 16 December 2015

सप्त सुरन तीन ग्राम

गंधर्व > गांधार > गांधारी  
* * * * * * सा रे ग म प ध नि सा
* * * * * सा रे ग म प ध नि सा
* * * * सा रे ग म प ध नि सा
* * * सा रे ग म प ध नि सा
* * सा रे ग म प ध नि सा
* सा रे ग म प ध नि सा
सा रे ग म प ध नि सा रे ग म प ध नि सा सा रे ग म प ध नि सा
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सप्त सुरन तीन ग्राम उनचास कोटि प्राण,
गुनिजन सब करत ध्यान नादब्रह्म जागे ॥
सुर अलाप अलंकार मूर्च्छना विविध प्रकार
कल-कल ज्यों जल की धार ठुमक चलत आगे ॥
जीवन को गीत जान साँस साँस जैसे तान,
हर धड़कन लय समान, हर पल प्रभु आगे ॥
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सात सुर (देवता), तीन ग्राम > औडव, षाडव और संपूर्ण,
7 x 7 = 49 कोटि (श्रेणी) के प्राण (कंपन)
मूर्च्छना :
चेतना के सप्त तलों पर / में क्रमशः आरोहण / अवरोहण,
इस प्रकार एक जीव के लिए जो ’सा’ है, वही किसी दूसरे के लिए ’रे’ या अन्य कोई सुर हो सकता है ।
अलाप (आलाप) > स्वर-क्रम विशेष, अलंकार > आभूषण / शैली,
तीन सप्तकों में 7 x 3= 21 प्रकार की मूर्च्छनाएँ होती हैं,
ये सात अधो-लोक, पृथ्वीलोक, और ऊर्ध्वलोक हैं ।
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Monday, 14 December 2015

कुपुत्रो जायेत कश्चित्...

एक प्रश्न 
कुपुत्रो जायेत कश्चित् न क्वचित् कुमाता भवति ...
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जो नारी संतति तो नहीं चाहती किन्तु कामोपभोग का सुख चाहती है और इसलिए उस सुख के फलस्वरूप होनेवाली संभावित संतान को जन्म लेने तक से रोक देती है, क्या वह कुमाता नहीं है? जो मनुष्य प्रकृतिप्रदत्त किसी भी तरह का सुख तो उठाना चाहता है किंतु उसका मूल्य नहीं चुकाना चाहता, वह यह आशा कैसे कर सकता है कि उसका मन चैन और शांति से रह सकता है?  जो उस सुख से जुड़े कष्टों से भागना चाहता है, वह स्वयं से धोखा कर रहा होता है । इसलिए गर्भपात या गर्भनिरोध के कृत्रिम साधनों का प्रयोग अवश्य ही प्रवंचना मात्र है । दूसरी ओर माता और उसकी संतान के प्रेम को प्रेम के सबसे श्रेष्ठ रूप में गौरवान्वित भी किया जाता है । क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि स्त्री और पुरुष संतान चाहने पर ही या संतान को पालने-पोसने में दोनों का समान और संयुक्त उत्तरदायित्व समझने पर ही कामोपभोग करें ? मुझे लगता है कि यह तर्क बहुत कम लोग स्वीकार कर पाएँगे । सवाल पाप या पुण्य, अपराध या निरपराधिता का नहीं बल्कि मानवोचित नैतिकता का और सामाजिक नैतिकता से उसका सामंजस्य कैसे किया जाना चाहिए, अर्थात् मानवोचित नैतिकता / अनैतिकता से अधिक संबंध रखता है ।  "गर्भ में ’प्राण’ / ’जीवन’ तीन माह या कुछ सप्ताहों बाद आता है", यह कहकर हम इस प्रश्न से भाग नहीं सकते क्योंकि हमें इस बारे में अभी तक वैज्ञानिक रूप से भी असंदिग्ध रूप से कुछ भी स्पष्ट नहीं है ।  
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Saturday, 12 December 2015

Afghanistan / Indus River.

Afghanistan and Indus River.
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वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड शततमः सर्गः :
vālmīki rāmāyaṇa uttarakāṇḍa śatatamaḥ sargaḥ
: गंधर्व प्रदेश (लोक) : gaṃdharva pradeśa (loka)
: सिन्धु नदी >Indus River.
लाहौर : लाहौर सिन्धु-कुश > sindhu-kuśa > Hindu-kush
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गण >गंधर्व > gāṃdhāra
> गंधर्व > gāṃdhāra
> अव-गण > ava-gaṇa
>  >  अवगणियस्थान > avagaṇīyasthāna
>> Afghanistan
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Friday, 4 December 2015

Dear Readers!

Your attention please !
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Face-book tells me this blog has been blocked on their site, because according to their 'security system', this Blog has objectionable content.
I shall be grateful, if you can please go through this blog, and let me know if there is anything objectionable in your view, in my Blog.

Regards and Thanks.
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Vinay Kumar Vaidya
vinayvaidya111@gmail.com  
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प्रिया मित्रों !
Face-book मुझे इस ब्लॉग को Face-book के मेरे पृष्ठ पर प्रकाशित करने से रोकता है, क्योंकि उनके 'security system' के अनुसार इसमें 'आपत्तिजनक सामग्री' है।
मेरे इस ब्लॉग का अवलोकन कर यदि इस बारे में मुझे अवगत कराएँगे कि इसमें आपकी दृष्टि में क्या आपत्तिजनक है, तो आभारी रहूँगा।
सादर,
विनय कुमार वैद्य,      
(Vinay Kumar Vaidya)
vinayvaidya111@gmail.com   

Thursday, 3 December 2015

What is 'hindutva' to me.


What is 'hindutva' to me.
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Just as we don't have a common dream, we also don't have a common world that we seem to share with one-another in the waking state of our perception through senses. Every individual has one's own world. And though we tend to think we share a common world, this thought disappears as soon as we enter the state of perception through senses, that we call 'dream'. Like-wise this perception of the world while in our waking-state of the mind or dreams-tate of the mind too ceases as soon as we enter deep dreamless sleep. And even though we perhaps experience nothing in that state, we all alike love that deep sleep state so much that if we are denied the same we become anxious, disturbed greatly and we would pay whatever price to enjoy that state if we are deprived of for a longer time.
We could perhaps accept how important is the role of this deep-sleep state for the 'life' which we live while awake or in dreams also.
In comparison, when we die, we are supposed to enter another state of mind where neither this 'world' is perceived by us nor the world perceives us in any form or pattern where we could communicate one-another.
We simply don't know what really happens after death, to 'us' or to the 'world' we perceive now.
Some say this world will go on for others like before after I die. This seems a stronger logic then the one when one says : this will just vanish along-with me.
पुराण / purāṇa. emphasizes like in your dream just as you forget all about your 'common world', you experience during your waking-state, and still after waking up you find it existing and at once accept the idea, it must sure have existed while you were dreaming, - after your presumed 'death', you enter another 'world' of your 'perceptions' which existed all along while you were 'alive' and living your life, waking, dreaming or asleep. This was there even before your 'birth'. And after one dies, one is helplessly and forcibly thrown into this 'world' which पुराण / purāṇa. name 'yama-loka'.’यत्र यान्ति प्रेत्य जीवाः’ ’yatra yānti pretya jīvāḥ’ The place / world where one goes to after death. Just as one is forcibly and helplessly thrown into waking, dream and dreamless states of 'consciousness', exactly in the same way one awakens to a 'newer' good / bad level / plane of mind / existence where the sense of identity is not lost, though the memory may leave one for a while. This is not the 'unconscious'-state that which come across in shock / trauma / swoon, or like 'hypnotic-suggestion'.
And पुराण / purāṇa. explains in great detail about those myriad planes / worlds where one goes to when one is dead in this world of 'mortals'. There is no dispute that this world where we live is a temporary stay for all living beings. But there are myriad such planes where the individual 'soul' proceeds to after its virtual-death in the 'world' that it 'experenced' during this stay here.
पुराण / purāṇa. again tell us, however strong one's acquired 'beliefs' and thoughts about the 'life after death' be, all those beliefs and 'faith' are shattered as soon as one breaths his last. One simply enters a new world of his choice earned by one's actions and motives while one lived before his death.
’यम’ / 'Yama', in संस्कृत / saṃskṛta literally means 'Law' Cosmic / Universal. That governs the whole existence.            
पुराण / purāṇa. play the same role as वेद / veda. And are meant to help those who are not mature in mind and pure in heart. पुराण / purāṇa. tell us there are many such 'worlds' one can go to after death and though all are temporary, they are situated at a comparatively lower or higher or rung on the ladder of spiritual evolution of man. And they are according to individuals temperament and make-up, orientation of mind. And those who fell unable to attain the Supreme, can sure try these lesser Gods for their own ultimate benefit.
This requires no presumption, but only listening to पुराण / purāṇa. If one doubts one is free to do so and like वेद / veda,  पुराण / purāṇa. also leaves you discover the truth in your way.
There is this सनातन - धर्म / sanātana-dharma,  सत् / sat वैदिक-धर्म / vaidika-dharma, पौराणिक-धर्म / paurāṇika-dharma, There is सांख्य-दर्शन / sāṃkhya-darśana, sāṃkhya-doctrine, which makes no attempt in defining or explaining or interpreting 'God', because (as Kurt Gordel proved) this will be of no use, is just impossible to do successfully. But  वेद / veda and  पुराण / purāṇa. at the same time do deal with 33 cardinal principles that govern the 'manifestation' at various levels. And the only condition is one has attained the 'qualification' in this or the next life.
To me, 'hindutva' comprises of this whole culture.
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'I AM'.


Do we need 'God'? 

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Question :
The problem with religion and cults of all kinds is that people claim to know too much, they are not willing to live in the light of ignorance and in the absence of closure to reach the edges of reality and reveal one's own insight'...
My Answer :
There is no problem with religion or cults, because they all are collective efforts to achieve some imagined 'ideal', and they do harm every individual who is earnestly seeking light, trying to understand meaning of existence. He is not trying to gain 'knowledge', but the meaning only. While a religion is ridden with beliefs, concepts, and 'faith' mostly 'irrational'. And a common logic helps us to understand this trick religion plays with the human-lot. So applying this logic at once lets us free from those irrational religions which exploit human beings either through sentiments, authority, fear, or dogma.
Most religions are based on the 'thought' of God. One or many. And no one tells us why we need this 'God', which is so alien a concept to us. And why we can't live happily without knowing this 'God' - 'in the light of ignorance'? There are seekers of happiness only everywhere One tries to do what one feels makes him happy. Or, removes the sorrow, pain, misery, disease. 'Death' too, because though no one could ever 'experience' death in an ontological way,one sees others 'die', and imagines one's own death like-wise. Though one never knows what this means. And then religions and cult instill all rubbish about heaven and hell and that man-made 'God' sitting there above 7 clouds and makes us dance upon his whimsical tunes, which all 'religions' and 'cults' claim to know and so force upon other less intelligent men. But if we find out in our 'light of ignorance', which tells us 'I don't know' , and which also tells us 'I am' we can carefully proceed towards understanding what exactly 'I am' means. And NO, don't seek help from those religions which claim to interpret or explain this to you through scriptures. For that would be a diversion from the direct instruction you got from your own being, where 'I am' stands eternally.
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