Tuesday, 21 April 2015

वृणुते / vṛṇute

वृणुते / vṛṇute

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नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुधा श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-
स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूम् स्वाम् ॥
(मुण्डकोपनिषत् 3/2/3, कठोपनिषत् 1/2/23)
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भावार्थ :
यह आत्म-तत्व न तो तर्क-वितर्क से पाया जाता है, न प्रखर बुद्धि से ही, न ही इसे इसके बारे में बहुत श्रवण करने से ही पाया जाता है । यह (मनुष्य) अपनी आत्मा का वरण जिस आकृति में करता है, उसका वह आत्म-तत्व उसके समक्ष उसी प्रकार से अभिव्यक्त होता है ।
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nāyamātmā pravacanena labhyo
na medhayā na bahudhā śrutena |
yamevaiṣa vṛṇute tena labhya-
stasyaiṣa ātmā vivṛṇute tanūm svām ||
(muṇḍakopaniṣat 3/2/3, kaṭhopaniṣat 1/2/23)
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This 'Self' is not revealed either by means of intellectual discussion, or by having a sharp intelligence,. And similarly not also by hearing a great deal about it. In whatever form and sense one accepts this 'Self', man's That 'Self' reveals before one in that very form and sense.
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