Monday, 27 April 2015

क्षर - अक्षर

क्षण - निमेष, पलक झपकने में लगनेवाला समय,
क्षणेन, क्षणात् - पल भर में,
क्षणभङ्गुर -क्षण भर में टूटने / मिटनेवाला,
क्षणवाद - संसार के क्षणिक होने का (बौद्ध) सिद्धान्त,
क्षत ( ’क्षण्’ धातु, ’क्त’-प्रत्यय) - घायल, आहत,
अक्षत  - साबुत, पूर्ण, सही-सलामत,
क्षतम् - घाव,
क्षति - हानि,
’क्षत्र (’क्षि’ धातु - क्षि का ’इ’ इत्संज्ञक है, इसलिए ’क्ष’ बचता है, ’क्ष’ ससे ’क्षत्’ फ़िर ’क्षत्र’, जैसे ’मित्’ से ’मित’ फ़िर ’मित्र’, ’चित्’ से चित्’ फ़िर ’चित्र’,)
क्षपण, क्षपणक - बौद्ध या दिगम्बर जैन साधु,
क्षपित - नष्ट हो चुका है जो,
यज्ञक्षपितकल्मषः - गीता अध्याय 4, श्लोक 30,
क्षम् - सहने, क्षमते, क्षाम्यति, क्षान्त,  णिजन्त - क्षमयति -शान्त रहना, सहना,
सक्षम - जो सहन करने में समर्थ हो,
क्षय - (’क्षि’ धातु) निवास, मकान, विनाश,
क्षयावह - नाश की ओर ले जानावाला,
क्षरण - टपकना, खिरना,
क्षर - नाशवान् , नष्ट होनेवाला,
अक्षर - अविनाशी, कभी न नष्ट होनेवाला,
(गीता अध्याय 15, श्लोक 16,)
इस नष्ट होनेवाले (क्षर) के पुनः दो प्रकार हैं -
नित्य और अनित्य,
जो होकर फ़िर नहीं होता उसे अनित्य कहा जाता है,
जो होकर समाप्त हो जाता है उसे अनित्य कहा जाता है,
जो होकर पुनः होता है, या हो सकता है, उसे नित्य कहा जाता है,
जो न कभी हुआ किन्तु हमेशा से है, हमेशा रहेगा, उसे सत्य कहा जाता है.
नित्य-अनित्य सत्य के ही रूप हैं,
यह क्षर दृश्य है, अर्थात् ’जगत्’ ।
अक्षर वह है जो इस क्षर को (अपने-आपसे अन्य की तरह) जानता है,
अर्थात् ’जीव’  / पुरुष,
इस अक्षर पुरुष के भी दो प्रकार हैं :
क्षर अर्थात् जीवात्मा, अक्षर अर्थात् परमात्मा ।
(गीता अध्याय 15, श्लोक 17,) 
(गीता अध्याय 15, श्लोक 18,) 
क्षि (धातु) - क्षीण होना, क्रमशः नष्ट होना,

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥
(मुण्डकोपनिषत् 2-2-8)
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