'विश्' - viś
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कोई शब्द कैसे बनता है। हर शब्द कुछ वर्णों का संयोग होता है ये सभी शब्द मूलतः जिन वर्णों से बने होते हैं उनका समुच्चय (set) वाक् (सरस्वती) का दृश्य-श्रव्य शरीर है।
शब्दों के लिए वर्ण का ज्ञान होना चाहिए। फिर एक अकेला वर्ण (स्वर या व्यञ्जन) भी अपने-आप में पूर्ण 'देवता' है। क्योंकि उसके उच्चार में 'प्राण' और 'चेतना' दोनों संयुक्त होते हैं। 5 x 5 वर्ण जिन्हें उदित कहते हैं > कु चु टु तु पु अर्थात् क् ख् ग् घ् ङ् और शेष ऐसे 20 और वर्ण तथा य् र्.. आदि मिलकर सारे व्यञ्जन तथा स्वर सभी बीजमंत्र के अक्षर हैं। वे नित्य और अक्षर (किसी काल में न समाप्त होनेवाले) हैं।
'विश्' धातु में व् + इ + श् दृष्टव्य हैं।
व् के जितने अर्थ होते हैं, इ के जितने अर्थ होते हैं, तथा श् के जितने अर्थ होते हैं, उन सबको अलग अलग तरीके से जोड़कर जितने अर्थ प्राप्त होते हैं वे सभी 'विश्' के पर्याय हैं.
इसलिए 'विश्' का सरल अर्थ (भावार्थ) है मिलना या प्रवेश करना. व् याने विस्तार, इ याने प्रवृत्ति, श् याने शान्ति / शयन, स्थिरता, लोप,
विश्य > वह जिसमें प्रवेश किया जा सकता है, किया जाना चाहिए. इसका दूसरा रूप 'विषय' बनता है। 'इन्द्रियाँ' 'विषयों' में प्रवेश करती हैं और विषय इन्द्रियों में। जैसे त्वचा किसी वस्तु के संपर्क में होती है तो 'स्पर्श' 'इन्द्रिय' में प्रविष्ट होता है और 'इन्द्रिय' 'स्पर्श' में। ऐसे ही दृष्टि, घ्राण (सूंघने की शक्ति), रस अर्थात् 'स्वाद' तथा 'श्रवण' ये पाँच इन्द्रियों के विषय हैं।
'विश्' की व्युत्पत्ति के दूसरे रूप में 'वि' उपसर्ग को 'विः' के रूप में ग्रहण किया जाता है जिसके पुनः दो अर्थ हो सकते हैं - विपरीत या विशेष।
जो वस्तु के लिए विपरीत हो वह 'विष' होता है , यह 'विः' का प्रयोग 'विपरीत' के अर्थ में है.
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'विश्' के अन्य अर्थ समझने के लिए गीता के अध्याय 18 के श्लोक 55 में 'विशते', अध्याय 8 के श्लोक 11, अध्याय 9 के श्लोक 21, अध्याय 11 के श्लोक 21, अध्याय 11 के श्लोक 27, श्लोक 28 तथा श्लोक 29 में 'विशन्ति' का प्रयोग देखना सहायक होगा ।
अध्याय 12 के श्लोक 8 में 'निवेशय' -'नि' उपसर्ग सहित 'विश्' धातु का ही 'णिच्' / 'णिजन्त' रूप है।
'वेश' भी 'विश्' से ही बनता है।
'विश्' > 'प्रवेश करना' > 'विशन्ति' के रूप में गीता अध्याय 2 श्लोक 70 में देखें /
विष्णु - जो सर्वत्र सबमें प्रविष्ट (समाया) और जिसमें सब प्रविष्ट (ओतप्रोत) है।
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कोई शब्द कैसे बनता है। हर शब्द कुछ वर्णों का संयोग होता है ये सभी शब्द मूलतः जिन वर्णों से बने होते हैं उनका समुच्चय (set) वाक् (सरस्वती) का दृश्य-श्रव्य शरीर है।
शब्दों के लिए वर्ण का ज्ञान होना चाहिए। फिर एक अकेला वर्ण (स्वर या व्यञ्जन) भी अपने-आप में पूर्ण 'देवता' है। क्योंकि उसके उच्चार में 'प्राण' और 'चेतना' दोनों संयुक्त होते हैं। 5 x 5 वर्ण जिन्हें उदित कहते हैं > कु चु टु तु पु अर्थात् क् ख् ग् घ् ङ् और शेष ऐसे 20 और वर्ण तथा य् र्.. आदि मिलकर सारे व्यञ्जन तथा स्वर सभी बीजमंत्र के अक्षर हैं। वे नित्य और अक्षर (किसी काल में न समाप्त होनेवाले) हैं।
'विश्' धातु में व् + इ + श् दृष्टव्य हैं।
व् के जितने अर्थ होते हैं, इ के जितने अर्थ होते हैं, तथा श् के जितने अर्थ होते हैं, उन सबको अलग अलग तरीके से जोड़कर जितने अर्थ प्राप्त होते हैं वे सभी 'विश्' के पर्याय हैं.
इसलिए 'विश्' का सरल अर्थ (भावार्थ) है मिलना या प्रवेश करना. व् याने विस्तार, इ याने प्रवृत्ति, श् याने शान्ति / शयन, स्थिरता, लोप,
विश्य > वह जिसमें प्रवेश किया जा सकता है, किया जाना चाहिए. इसका दूसरा रूप 'विषय' बनता है। 'इन्द्रियाँ' 'विषयों' में प्रवेश करती हैं और विषय इन्द्रियों में। जैसे त्वचा किसी वस्तु के संपर्क में होती है तो 'स्पर्श' 'इन्द्रिय' में प्रविष्ट होता है और 'इन्द्रिय' 'स्पर्श' में। ऐसे ही दृष्टि, घ्राण (सूंघने की शक्ति), रस अर्थात् 'स्वाद' तथा 'श्रवण' ये पाँच इन्द्रियों के विषय हैं।
'विश्' की व्युत्पत्ति के दूसरे रूप में 'वि' उपसर्ग को 'विः' के रूप में ग्रहण किया जाता है जिसके पुनः दो अर्थ हो सकते हैं - विपरीत या विशेष।
जो वस्तु के लिए विपरीत हो वह 'विष' होता है , यह 'विः' का प्रयोग 'विपरीत' के अर्थ में है.
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'विश्' के अन्य अर्थ समझने के लिए गीता के अध्याय 18 के श्लोक 55 में 'विशते', अध्याय 8 के श्लोक 11, अध्याय 9 के श्लोक 21, अध्याय 11 के श्लोक 21, अध्याय 11 के श्लोक 27, श्लोक 28 तथा श्लोक 29 में 'विशन्ति' का प्रयोग देखना सहायक होगा ।
अध्याय 12 के श्लोक 8 में 'निवेशय' -'नि' उपसर्ग सहित 'विश्' धातु का ही 'णिच्' / 'णिजन्त' रूप है।
'वेश' भी 'विश्' से ही बनता है।
'विश्' > 'प्रवेश करना' > 'विशन्ति' के रूप में गीता अध्याय 2 श्लोक 70 में देखें /
विष्णु - जो सर्वत्र सबमें प्रविष्ट (समाया) और जिसमें सब प्रविष्ट (ओतप्रोत) है।
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