अतिथि
वैसे तो अतिथि का सीधा तात्पर्य होता है जिसके आने / जाने की कोई तय तिथि नहीं होती, अर्थात् जिसका आगमन बिना पूर्वसूचना होता है।
जैसे अभी आए भूकम्प । संस्कृत में 'सुप्' और 'तिङ्ग' प्रत्यय होते हैं । जैसे रामः रामौ रामाः में 'सुप्' प्रत्यय है । गच्छति गच्छतः गच्छन्ति में ''तिङ्ग' प्रत्यय है । 'अ' उपसर्ग और 'तिङ्ग' प्रत्यय मिलकर 'अति' बनाता है अर्थात् extreme । 'तिङ्ग' का 'ङ्' इत्संज्ञक है, अर्थात् व्यवहार में उसका लोप हो जाता है। 'ति' को सहारा देने के लिए 'ङ्' जोड़ा जाता है । जब हम 'तिङ्ग' कहते हैं तो मतलब होता है 'ति' जो 'गच्छति' में है । इसी तरह 'सुप्' का अर्थ होता है 'स्' याने 'विसर्ग' जैसा की 'रामः' में है । इस 'स्' को बोलना कठिन है, इसलिए इसे सहारा देने के लिए 'उप्' जोड़ दिया जाता है । 'ति' अर्थात् गति, जो क्रियापद में होती है । इसी 'ति' के साथ 'अ' उपसर्ग होने पर 'अति' हो जाता / जाती है । इसी प्रकार का एक प्रत्यय है 'थ' जो गति का द्योतक है । 'रथ' में 'र' और 'थ' दोनों गति के द्योतक हैं लेकिन 'र' संचारी भाव की गति है, और 'थ' स्थायी भाव की । इसलिए 'रथ' रुकता या चलता है । 'अथ' में 'अ' उपसर्ग इस 'थ' का मार्ग बदल देता है । 'ठहरो!', वैसे ही 'अत' अर्थात् 'hence' जिसे प्रायः विसर्ग लगाकर प्रयोग किया जाता है। 'व्यथ' में 'वि + अ+थ' को देखा जा सकता है । 'तथ्' से बनता है - आतथ = तथा जिसका मतलब है 'और' । 'तथ्' से बनता है 'तथ्य' जैसे 'रम्' से 'रम्य', 'गम्' से 'गम्य' अगम्य, संगम्य अनुगम्य आदि । 'तिथि' 'रथ' जैसा एक पद / शब्द है जो चलता / चलती रुकता / रुकती है। 'तिथि' 'काल' है जो 'आकलन' / 'कलन' है । अमूर्त लेकिन व्यवहार में उपयोगी । विज्ञान भी इसके 'स्वरूप' के बारे में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा । इसके स्वभाव के बारे में तो उसे कल्पना तक नहीं हो सकती । अतिथि' ऐसा ही अप्रत्याशित तथ्य है ।
गीता अध्याय 11 श्लोक 31
आख्याहि को…
(साथ दी गयी लिंक में आख्यहि है त्रुटिपूर्ण है । )
गीता अध्याय 11 श्लोक 32
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वैसे तो अतिथि का सीधा तात्पर्य होता है जिसके आने / जाने की कोई तय तिथि नहीं होती, अर्थात् जिसका आगमन बिना पूर्वसूचना होता है।
जैसे अभी आए भूकम्प । संस्कृत में 'सुप्' और 'तिङ्ग' प्रत्यय होते हैं । जैसे रामः रामौ रामाः में 'सुप्' प्रत्यय है । गच्छति गच्छतः गच्छन्ति में ''तिङ्ग' प्रत्यय है । 'अ' उपसर्ग और 'तिङ्ग' प्रत्यय मिलकर 'अति' बनाता है अर्थात् extreme । 'तिङ्ग' का 'ङ्' इत्संज्ञक है, अर्थात् व्यवहार में उसका लोप हो जाता है। 'ति' को सहारा देने के लिए 'ङ्' जोड़ा जाता है । जब हम 'तिङ्ग' कहते हैं तो मतलब होता है 'ति' जो 'गच्छति' में है । इसी तरह 'सुप्' का अर्थ होता है 'स्' याने 'विसर्ग' जैसा की 'रामः' में है । इस 'स्' को बोलना कठिन है, इसलिए इसे सहारा देने के लिए 'उप्' जोड़ दिया जाता है । 'ति' अर्थात् गति, जो क्रियापद में होती है । इसी 'ति' के साथ 'अ' उपसर्ग होने पर 'अति' हो जाता / जाती है । इसी प्रकार का एक प्रत्यय है 'थ' जो गति का द्योतक है । 'रथ' में 'र' और 'थ' दोनों गति के द्योतक हैं लेकिन 'र' संचारी भाव की गति है, और 'थ' स्थायी भाव की । इसलिए 'रथ' रुकता या चलता है । 'अथ' में 'अ' उपसर्ग इस 'थ' का मार्ग बदल देता है । 'ठहरो!', वैसे ही 'अत' अर्थात् 'hence' जिसे प्रायः विसर्ग लगाकर प्रयोग किया जाता है। 'व्यथ' में 'वि + अ+थ' को देखा जा सकता है । 'तथ्' से बनता है - आतथ = तथा जिसका मतलब है 'और' । 'तथ्' से बनता है 'तथ्य' जैसे 'रम्' से 'रम्य', 'गम्' से 'गम्य' अगम्य, संगम्य अनुगम्य आदि । 'तिथि' 'रथ' जैसा एक पद / शब्द है जो चलता / चलती रुकता / रुकती है। 'तिथि' 'काल' है जो 'आकलन' / 'कलन' है । अमूर्त लेकिन व्यवहार में उपयोगी । विज्ञान भी इसके 'स्वरूप' के बारे में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा । इसके स्वभाव के बारे में तो उसे कल्पना तक नहीं हो सकती । अतिथि' ऐसा ही अप्रत्याशित तथ्य है ।
गीता अध्याय 11 श्लोक 31
आख्याहि को…
(साथ दी गयी लिंक में आख्यहि है त्रुटिपूर्ण है । )
गीता अध्याय 11 श्लोक 32
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