Tuesday, 28 April 2015

अतिथि

अतिथि

वैसे तो अतिथि का सीधा तात्पर्य होता है जिसके आने / जाने की कोई तय तिथि नहीं होती, अर्थात् जिसका आगमन बिना पूर्वसूचना होता है।
जैसे अभी आए भूकम्प ।  संस्कृत में 'सुप्' और 'तिङ्ग' प्रत्यय होते हैं । जैसे रामः रामौ रामाः में 'सुप्' प्रत्यय है । गच्छति गच्छतः गच्छन्ति में ''तिङ्ग' प्रत्यय है । 'अ' उपसर्ग और 'तिङ्ग' प्रत्यय मिलकर 'अति' बनाता है अर्थात् extreme । 'तिङ्ग' का 'ङ्' इत्संज्ञक है, अर्थात् व्यवहार में उसका लोप हो जाता है। 'ति' को सहारा देने के लिए 'ङ्' जोड़ा जाता है । जब हम 'तिङ्ग' कहते हैं तो मतलब होता है 'ति' जो 'गच्छति' में है । इसी तरह  'सुप्' का अर्थ होता है 'स्' याने 'विसर्ग' जैसा की 'रामः' में है । इस 'स्' को बोलना कठिन है, इसलिए इसे सहारा देने के लिए 'उप्' जोड़ दिया जाता है । 'ति' अर्थात् गति, जो क्रियापद में होती है । इसी 'ति' के साथ 'अ' उपसर्ग होने पर 'अति' हो जाता / जाती है । इसी प्रकार का एक प्रत्यय है 'थ' जो गति का द्योतक है । 'रथ' में 'र' और 'थ' दोनों  गति के द्योतक हैं लेकिन  'र' संचारी भाव की गति है, और 'थ' स्थायी भाव की । इसलिए 'रथ' रुकता या चलता है । 'अथ' में 'अ' उपसर्ग इस 'थ' का मार्ग बदल देता है । 'ठहरो!', वैसे ही 'अत' अर्थात् 'hence' जिसे प्रायः विसर्ग लगाकर प्रयोग किया जाता है।  'व्यथ' में 'वि + अ+थ' को देखा जा सकता है । 'तथ्' से बनता है - आतथ  = तथा जिसका मतलब है 'और' ।  'तथ्' से बनता है  'तथ्य' जैसे 'रम्' से 'रम्य', 'गम्' से 'गम्य' अगम्य, संगम्य अनुगम्य आदि । 'तिथि' 'रथ' जैसा एक पद / शब्द है जो चलता / चलती रुकता / रुकती है।  'तिथि' 'काल' है जो 'आकलन' / 'कलन' है । अमूर्त लेकिन व्यवहार में उपयोगी । विज्ञान भी इसके 'स्वरूप' के बारे में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा । इसके स्वभाव के बारे में तो उसे कल्पना तक नहीं हो सकती । अतिथि' ऐसा ही अप्रत्याशित तथ्य है ।
गीता अध्याय 11  श्लोक 31 
आख्याहि  को…
(साथ दी गयी लिंक में  आख्यहि  है  त्रुटिपूर्ण है । )
गीता अध्याय 11 श्लोक 32

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Monday, 27 April 2015

क्षर - अक्षर

क्षण - निमेष, पलक झपकने में लगनेवाला समय,
क्षणेन, क्षणात् - पल भर में,
क्षणभङ्गुर -क्षण भर में टूटने / मिटनेवाला,
क्षणवाद - संसार के क्षणिक होने का (बौद्ध) सिद्धान्त,
क्षत ( ’क्षण्’ धातु, ’क्त’-प्रत्यय) - घायल, आहत,
अक्षत  - साबुत, पूर्ण, सही-सलामत,
क्षतम् - घाव,
क्षति - हानि,
’क्षत्र (’क्षि’ धातु - क्षि का ’इ’ इत्संज्ञक है, इसलिए ’क्ष’ बचता है, ’क्ष’ ससे ’क्षत्’ फ़िर ’क्षत्र’, जैसे ’मित्’ से ’मित’ फ़िर ’मित्र’, ’चित्’ से चित्’ फ़िर ’चित्र’,)
क्षपण, क्षपणक - बौद्ध या दिगम्बर जैन साधु,
क्षपित - नष्ट हो चुका है जो,
यज्ञक्षपितकल्मषः - गीता अध्याय 4, श्लोक 30,
क्षम् - सहने, क्षमते, क्षाम्यति, क्षान्त,  णिजन्त - क्षमयति -शान्त रहना, सहना,
सक्षम - जो सहन करने में समर्थ हो,
क्षय - (’क्षि’ धातु) निवास, मकान, विनाश,
क्षयावह - नाश की ओर ले जानावाला,
क्षरण - टपकना, खिरना,
क्षर - नाशवान् , नष्ट होनेवाला,
अक्षर - अविनाशी, कभी न नष्ट होनेवाला,
(गीता अध्याय 15, श्लोक 16,)
इस नष्ट होनेवाले (क्षर) के पुनः दो प्रकार हैं -
नित्य और अनित्य,
जो होकर फ़िर नहीं होता उसे अनित्य कहा जाता है,
जो होकर समाप्त हो जाता है उसे अनित्य कहा जाता है,
जो होकर पुनः होता है, या हो सकता है, उसे नित्य कहा जाता है,
जो न कभी हुआ किन्तु हमेशा से है, हमेशा रहेगा, उसे सत्य कहा जाता है.
नित्य-अनित्य सत्य के ही रूप हैं,
यह क्षर दृश्य है, अर्थात् ’जगत्’ ।
अक्षर वह है जो इस क्षर को (अपने-आपसे अन्य की तरह) जानता है,
अर्थात् ’जीव’  / पुरुष,
इस अक्षर पुरुष के भी दो प्रकार हैं :
क्षर अर्थात् जीवात्मा, अक्षर अर्थात् परमात्मा ।
(गीता अध्याय 15, श्लोक 17,) 
(गीता अध्याय 15, श्लोक 18,) 
क्षि (धातु) - क्षीण होना, क्रमशः नष्ट होना,

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥
(मुण्डकोपनिषत् 2-2-8)
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Friday, 24 April 2015

'विश्' - viś

'विश्' - viś
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कोई शब्द कैसे बनता है।  हर शब्द कुछ वर्णों का संयोग होता है ये सभी शब्द मूलतः जिन वर्णों से बने होते हैं उनका समुच्चय (set) वाक् (सरस्वती) का दृश्य-श्रव्य शरीर है।
शब्दों  के लिए वर्ण का ज्ञान होना चाहिए।  फिर एक अकेला वर्ण (स्वर या व्यञ्जन) भी अपने-आप में पूर्ण 'देवता' है।  क्योंकि उसके उच्चार में 'प्राण' और 'चेतना' दोनों संयुक्त होते हैं।  5 x 5 वर्ण जिन्हें उदित कहते हैं > कु चु टु तु पु अर्थात्  क् ख् ग् घ् ङ्  और शेष ऐसे 20 और वर्ण तथा य् र्..  आदि मिलकर सारे व्यञ्जन तथा  स्वर सभी बीजमंत्र के अक्षर हैं।  वे नित्य और अक्षर (किसी काल में न समाप्त होनेवाले) हैं।
'विश्' धातु में व् + इ + श् दृष्टव्य हैं।
व् के जितने अर्थ होते हैं, इ के जितने अर्थ होते हैं, तथा  श्  के जितने अर्थ होते हैं, उन सबको अलग अलग तरीके से जोड़कर जितने अर्थ प्राप्त होते हैं वे सभी  'विश्' के पर्याय हैं.
इसलिए 'विश्' का सरल अर्थ (भावार्थ) है मिलना या प्रवेश करना. व्  याने विस्तार, इ याने प्रवृत्ति, श्  याने शान्ति / शयन, स्थिरता, लोप,
विश्य > वह जिसमें प्रवेश किया जा सकता है, किया जाना चाहिए. इसका दूसरा रूप 'विषय' बनता है।  'इन्द्रियाँ' 'विषयों' में प्रवेश करती हैं और विषय इन्द्रियों में।  जैसे त्वचा किसी वस्तु के संपर्क में होती है तो 'स्पर्श' 'इन्द्रिय' में प्रविष्ट होता है और 'इन्द्रिय' 'स्पर्श' में।  ऐसे ही दृष्टि, घ्राण (सूंघने की शक्ति), रस  अर्थात्  'स्वाद' तथा 'श्रवण' ये पाँच इन्द्रियों के विषय हैं।
'विश्' की व्युत्पत्ति के दूसरे रूप में 'वि' उपसर्ग को 'विः' के रूप में ग्रहण किया जाता है जिसके पुनः दो अर्थ हो सकते हैं - विपरीत या विशेष।
जो वस्तु के लिए विपरीत हो वह 'विष' होता है , यह 'विः' का प्रयोग 'विपरीत' के अर्थ में है.
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'विश्' के अन्य अर्थ समझने के लिए गीता के अध्याय 18 के  श्लोक 55 में 'विशते', अध्याय 8  के श्लोक 11, अध्याय 9 के श्लोक 21, अध्याय 11 के श्लोक 21, अध्याय 11 के श्लोक 27, श्लोक 28 तथा श्लोक  29 में 'विशन्ति' का प्रयोग देखना सहायक होगा ।
अध्याय 12 के श्लोक 8  में 'निवेशय' -'नि' उपसर्ग सहित 'विश्' धातु का ही 'णिच्' / 'णिजन्त' रूप है।
'वेश' भी 'विश्' से ही बनता है।
'विश्' > 'प्रवेश करना' > 'विशन्ति'  के रूप में गीता अध्याय 2 श्लोक 70 में देखें /
विष्णु - जो सर्वत्र सबमें प्रविष्ट (समाया) और जिसमें सब प्रविष्ट (ओतप्रोत) है।
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Thursday, 23 April 2015

'Hieroglyphs'

'Hieroglyphs'
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क्या 'खोज' अपने में ही तो ग़लत शुरुआत नहीं है ? जो है, सामने दिखाई देता है, चारों ओर से घेरे है, जन्म की पहली विस्मयकारी नज़र से लेकर मृत्यु की अंतिम बुझती लौ तक, भला उसकी खोज कैसी ? वही तो सारी कहानी है...सारी पर क्या असली भी ?
असली क्या है, यह भी तो एक खोज हो सकती है, जो है, उसके भीतर से 'जो नहीं है', ( पर जो हर बन्द खिड़की से बाहर झाँकता है ) उसकी खोज ? कथ्य के कितने आवरण हैं, कितने परदे, कितनी खिड़कियाँ. लिखते हुए हम एक-एक के पास से गुजरते हुए छिपे को थोड़ा उघाड़ पाते हैं...पढ़ते हैं तो हँसी सुनाई देती है ; कहाँ, किस जगह, किसके साथ पहली बार सुनी थी ?
वह बार-बार समुद्र की लहरों की तरह हमसे टकराती है, मुड़ जाती है, फिर आती है, खाली, तट पर अपनी फेनिल झाग छोड़ जाती है, कुछ अपने साथ बहा ले जाती है, कुछ छोड़ पाती है.
बचे हुए अवशेष, जो हैं, उस पर जो बीत गया, उसके खुदे हुए 'हियरोक्लिफ'.. क्या हम उन्हें पढ़ सकते हैं ? कथ्य अनुवाद है, जो अबूझा है, उसे बूझे हुए में अनूदित करता हुआ. वह लिखे हुए को पढ़कर पढ़े हुए को लिखने का खेल है.
- निर्मल वर्मा
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Is not the 'search' itself misleading beginning in the first place? 'What is' that is seen in front of us, that surrounds us on all sides, from the first amazing look at the birth, to the dying down flame of the death, is it ever possible to 'search' this? That is truly the whole story... 'whole', but also the 'real'?
'What is real?' this too could be a search. The Search for 'What is not' (though steals a glimpse from every shut window) from within 'What is'? The narration has many veils over it, many cloaks, many windows. While writing, passing by each one, we get the hidden a bit disclosed... While reading, we hear the laugh; where, at what place, who was the one we had shared this for the first time?
Like the sea-waves that hit us repeatedly, turn around, come back, empty, leaving on the shore the bubbly-froth, taking a part away with its own flow, could leave there any?
The residual remnants, what are, what went upon it, the carved out 'hieroglyphs'... could we read them? Narration is translation, rendering into the deciphered what is coded. That is a game of writing the read, after reading the written.
-Nirmal Varma.
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This text written by The Hindi Writer / Author is my favorite one. I could see here a J.Krishnamurti of a different genre. And so translated this from the original Hindi writings of Nirmal Varma.
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Wednesday, 22 April 2015

पऴम् பழம் -- plum, फलम्,

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पऴम्
பழம்
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plum,
Philistine,
palm,
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पीलु,
फलम्,
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palm,
पंजा,
पील > फील, ऊँट, हाथी,
हाथी > हस्ति, हस्त, हाथ,
पीलु, हाथी, ऊँट,
पीलुवान् > फीलवान > ऊँटसवार,
क्षरः क्षुरः > खर्जूरः > खजूर,
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मुझे तो यह शब्द अत्यन्त प्रिय है, एक भाषा-विज्ञानी के लिए बहुत प्रेरक है !
यहाँ सिर्फ़  संकेत दिए हैं ।
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Tuesday, 21 April 2015

वृणुते / vṛṇute

वृणुते / vṛṇute

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नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुधा श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-
स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूम् स्वाम् ॥
(मुण्डकोपनिषत् 3/2/3, कठोपनिषत् 1/2/23)
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भावार्थ :
यह आत्म-तत्व न तो तर्क-वितर्क से पाया जाता है, न प्रखर बुद्धि से ही, न ही इसे इसके बारे में बहुत श्रवण करने से ही पाया जाता है । यह (मनुष्य) अपनी आत्मा का वरण जिस आकृति में करता है, उसका वह आत्म-तत्व उसके समक्ष उसी प्रकार से अभिव्यक्त होता है ।
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nāyamātmā pravacanena labhyo
na medhayā na bahudhā śrutena |
yamevaiṣa vṛṇute tena labhya-
stasyaiṣa ātmā vivṛṇute tanūm svām ||
(muṇḍakopaniṣat 3/2/3, kaṭhopaniṣat 1/2/23)
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This 'Self' is not revealed either by means of intellectual discussion, or by having a sharp intelligence,. And similarly not also by hearing a great deal about it. In whatever form and sense one accepts this 'Self', man's That 'Self' reveals before one in that very form and sense.
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Monday, 20 April 2015

दम्पति / दम्पती

दम्पति / दम्पती
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'पा' / > रक्षा करना, सा माम् पातु सरस्वती
वह सरस्वती  मेरी रक्षा करे,
'पाल्' > पालयति > पालन करता / करती है,
'पति' > पाति यो स 'पतिः ,
पतिः पती पतयः >  'पती' 'पति' का द्विवचन रूप है,
दम्पति (COUPLE)  एकवचन है,
दम्पती द्विवचन है ,
पति का या पती का अर्थ हुआ (क्रमशः) एक या दो स्वामी
अर्थात दोनों परस्पर 'स्वामी' होते हैं।
'रक्षा' करना सिर्फ पति का ही नहीं, पत्नी का भी दायित्व होता है।
'दम्' > शासन करना > 'दाम्यति' > शासन करता है, अर्थात् नियंत्रण करता है,
> दाम्पत्य >  दम्पति  दम्पती ,
पत्नी > पालयति / पाति / नीयते > जो रक्षा करती है, आगे ले जाती है, वह पत्नी ।
'राज्' > 'राजा' > राज्नी > राज्ञी
'पा' > 'पाता' > रक्षा करनेवाला,
'पत्नी' > रक्षा करनेवाली,
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Sunday, 19 April 2015

'Secular' and 'Sexual'

'सेकुलर’ और ’सेक्सुअल’
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© vinayvaidya111@gmail.com
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 फ़ेसबुक पर एक मित्र हैं, हर दूसरे तीसरे दिन मुझसे एक शब्द की व्याख्या करने का अनुरोध करते हैं । हिन्दी में टाइप करना शायद उनके लिए संभव नहीं होगा इसलिए वे अंग्रेज़ी में ही मेल करते हैं । सचमुच ’मेल’ कितनी तीव्र गति से मिलन करा देता है !
बहरहाल आज के उनके ’मेल’ से यह निवेदन प्राप्त हुआ :
Today's word :
'secular',
'sexual'
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मैं नहीं कह सकता कि इस शब्द को लेकर उनकी जिज्ञासा कितनी गंभीर या सतही थी, बहरहाल अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए मैंने इन दोनों शब्दों के बारे में अपनी व्याख्या प्रस्तुत की ।
संस्कृत में ’छिद्’ > ’छेदने’ > काटने या तोड़ने, भेद उत्पन्न करने के अर्थ में इस धातु का प्रयोग होता है ।
रुधादिगण की यह धातु ’उभयपदी’रूपों में चलती है ।
इसके परस्मैपदी ’लट्’ लकार रूप :
’छिनत्ति छिन्तः छिन्दन्ति / छिनत्सि छिन्त्थः छिन्त्थ / छिनद्मि छिन्द्वः छिन्द्मः’
होते हैं,
गीता अध्याय 2, श्लोक 23 में ’छिन्दन्ति’ इसी अर्थ में है ।
 Latin भाषा में, जैसे ’स्व’ 'sui' का रूप लेता है वैसे ही ’छिद्’,  'cid' शब्द का रूप ले लेता है,
'suicide', 'homicide', 'fratricide' इसके उदाहरण हैं ।
’छिद्’ के साथ ’शतृ’ प्रत्यय लगने पर ’छिन्दन्’ प्राप्त होता है, जिसका अर्थ होता है ’काटता हुआ’।
’छिन्दन्’ प्रथमा एकवचन है, इसका प्रथमा बहुवचन रूप होता है ’छिन्दन्तः’।
’छिन्दतः’ Latin में 'secant' का रूप ले लेता है, अर्थ वही ’काटता हुआ’,
'sect' 'section' 'dissection', इसी प्रकार अर्थानुगामी रूप बनते हैं ।
Trigonometry में आपने 'secant' पढा होगा |
'section' decline होकर sexion बनता है, जैसे direction, reflection, connection decline होकर direxion, reflexion, connexion बनता है ।
इसलिए 'secant' का एक मूल-रूप, Latin-root, 'sec' बनता है, अर्थ हुआ बाँटनेवाला, विभाजन करनेवाला,
 'section' > sexion वैसे ही  ’sex’ का रूप ले लेता है जैसे 'secant' 'sec' का ।
हम देख सकते हैं कि मूलतः ’sex’ और  'sec' Latin धातुएँ हैं, जिनसे क्रमशः 'sexual' और 'secular' ये दोनों शब्द प्राप्त होते हैं ।
इसलिए मूलतः 'sexual' और 'secular' इन दोनों शब्दों का अर्थ है, जो भिन्नता पैदा करता है ।
बाद में लक्षण-पर्याय और अर्थ-पर्याय का परस्पर विनिमय होने से   'sex' का अर्थ ’लिंग’ और 'sexual' का अर्थ ’लैंगिक’ किया जाने लगा ।
Language शब्द की व्युत्पत्ति ’लिंग-वच्’ में सहज ही दृष्टव्य है, और अर्थ-साम्य से व्युत्पत्ति की सत्यता भी प्रमाणित हो जाती है ।
इति ॥
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Tuesday, 14 April 2015

गीता-ध्यानम्

गीता-ध्यानम्
भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला गान्धारनीलोत्पला,
शल्यग्राहवती कृपेण वहती कर्णेन वेलाकुला ।
अश्वत्थामाविकर्णघोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी
सोत्तीर्णा खलु पाण्डवैः रणनदी कैवर्तकः केशवः ॥6॥
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With BhiShma and Drona as its banks,
Jayadratha as its waters,
Gandhara (shakuni) as the blue lilies in it,
Shalya as the crocodile,
Kripa as the mighty flow,
Karna as the turbulant waves,
AshvatthAma and Vikarna as sharks,
And Duryodhana as the whirlpool in it,
the river of the Mahabharat war,
Was crossed by the Pandavas,
Indeed due to the able boatman,
Lord Srikrishna.
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