Friday, 9 May 2025

Operation Sindoor!

वन्दे मातरम्!

स जयति सिन्धुर् वदनो देवो यत्पादपंकजस्मरणम्।

वासरमणिरिव तमसां राशीन्नाशयति विघ्नानाम्।।

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पता नहीं किसी का ध्यान इस पर गया भी है या नहीं कि 

सिन्दूर / Vermilion / HgCl 

एक अत्यन्त शक्तिशाली रसायन, द्रव्य है जिसका प्रयोग अनेक तांत्रिक क्रियाओं में, और विशिष्ट दैवी शक्तियों जैसे गणेश, दुर्गा और हनुमान का आवाहन करने और उनकी उपासना करने के लिए और उन्हें प्रसन्न करने के लिए किया जाता है।

यह केवल एक संयोग नहीं है कि भारत और भारत के  प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने,

यह एक शब्द-बाण चलाकर पूरे विश्व के समक्ष भारत की क्षमताओं का प्रदर्शन कर दिया है। 

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Friday, 28 March 2025

This Morning!

विचार और ध्यान

कुछ समय से, दो तीन महीनों से सारा क्रम बदल गया है। रोज ही रात को 08:00 बजे नींद आने लगती है तो सो जाता हूँ रात 01:00 के बाद नींद खुल जाती है, और कभी कभी सुबह तक नहीं आती। सुबह 06:00 बजे के आसपास घूमने निकल जाता हूँ, और 07:15 तक लौट आता हूँ। फिर 09:00 तक सुबह के काम, सफाई और किचन का काम, फिर दोपहर 12:00 तक खाना खाकर विश्राम - 01:00 से 02:00 या 02: 30 तक। लेकिन कुछ तय नहीं। फिर बस छत पर या बाहर जंगल में या रोड पर टहलते रहना। कभी कभी किसी का कॉल आने  पर आधे एक घंटे तक या उससे भी अधिक समय तक बातें करते रहना। हर दो चार दिनों में एक, दो या अधिक बार भी। जब नींद आ रही हो तब सो जाना और नींद पूरी हो जाने पर उठकर बैठ जाना या किसी शारीरिक काम में लग जाना जिसमें "सोचने" की आवश्यकता नहीं होती। वास्तव में "सोचना" वह भाषागत और मानसिक विधा / गतिविधि होती है जो कि शारीरिक कार्य के साथ कभी तो समायोजित हो सकती है और कभी कभी नहीं भी हो पाती है। जैसे कि साइकल चलाना या कि स्विमिंग करना। आप जब साइकल चलाना या तैरना सीख रहे होते हैं, तब आपका ध्यान साइकल चलाने या तैरने की तकनीक पर ऐसा एकाग्र होता है कि आपके लिए विचार कर पाना संभव नहीं हो पाता। और जब आप साइकल चलाने या तैरने की तकनीक अच्छी तरह से सीख लेते हैं तो किसी से बातें करते हुए, मन ही मन कुछ "सोचते" या कुछ गुनगुनाते हुए भी उस कार्य को आसानी से और  अच्छी तरह से करने लगते हैं। कमरे में, बाहर कहीं भी, छत पर या सड़क पर चुपचाप टहलते रहना, क्योंकि तब कुछ "सोचना" आवश्यक नहीं होता। आप यदि थक गए हों तो सोफ़े पर या कुर्सी पर चुपचाप बैठे रह सकते हैं। प्यास लग रही हो तो पानी पी सकते हैं, भूख लग रही हो तो कुछ खा सकते हैं। इन सभी चेष्टाओं में शरीर उसका कार्य - जो केवल तकनीकी होता है, अनायास ही करने लगता है और वहाँ "सोचने" की कोई भूमिका नहीं होती। और यदि शरीर में किसी प्रकार की परेशानी हो तो उस परेशानी को चूँकि शरीर स्वयं ही दूर कर लेता है इसलिए "सोचना" आवश्यक नहीं होता। तब किन्तु "सोचने" का अभ्यस्त "मन" - आदतन कुछ सोच रहा होता है इसलिए "सोचने" से बाहर न आने का कोई बहाना खोज लेता है और यंत्रवत "सोचते हुए" सोचने के कार्य में डूबा रहता है। "मन" तब "सोचने" का ऐसा गुलाम हो जाता है कि उसकी "समझ पाने" की क्षमता खो जाती है। वह "मैं क्या करूँ!" इस सोच से प्रभावित होकर स्वयं से ही यह सवाल कर बैठता है और उसका प्रत्युत्तर भी "सोच" में खोजता है। इस प्रयास में उसका "ध्यान" / attention किसी विषय पर जाता है और उस विषय के प्रिय होने पर उससे संलग्न हो जाता है, या अप्रिय होने पर उससे दूर हट जाता है। इस प्रकार "विचार", "मन" को हमेशा ही अंकुश में रखता है और इस विकट स्थिति पर शायद कभी किसी का ध्यान तब तक नहीं जाता, जब तक कि कोई दूसरा व्यक्ति या दूसरी परिस्थिति इसके लिए उसे बाध्य नहीं कर देती। "ध्यान होने" और "विचार होने" तथा "ध्यान करने" और "विचार करने" के बीच का यह मौलिक भेद समझते ही "मन" आदतन / अभ्यस्त होकर सोचते रहने की इस "बाध्यता" से मुक्त हो जाता है, और सहज ही तय कर सकता है कि चुप कैसे रहा जाता है। कब चुप रहना है और कब भाषागत "विचार" को किसी कार्य को करने की अनुमति देना है।

इस सब पर पिछले दो तीन महीनों में ध्यान जा पाया। उससे पहले ऐसा नहीं था। तब एक दिन एकाएक समझ में आया कि "सोचना" असावधानी / प्रमाद / लापरवाही से पैदा हो जानेवाली एक ऐसी आदत है जिस पर ध्यान दिए जाते ही "सोचना" अनैच्छिक बाध्यता से ऐच्छिक मानसिक कार्य में रूपान्तरित हो सकता है। जैसे किसी को असावधानी से सिगरेट पीने की आदत हो जाती है, सोचना भी उसी तरह लापरवाही से पैदा हुई अभ्यस्तता और बाध्यता हो सकता है। और जैसे सिगरेट पीने की आदत जिसे होती है उसके लिए इस आदत को छोड़ पाना आसान नहीं होता ठीक उसी तरह, असावधानी से "सोचने" का अभ्यस्त व्यक्ति ऊलजलूल, व्यर्थ की चीजें सोचने के लिए बाध्य होता है और उसका "सोचते रहने" का यह रोग निरन्तर बढ़ता ही चला जाता है।

अपना बचपन याद आता है तो स्मरण आता है कि बच्चा बिना प्रयास ही भाषा से अनभिज्ञ होने से केवल अनुभव में जीता है और किसी भी अनुभव को शब्द नहीं देता है। फिर वह दूसरों के शब्दों को सुनते हुए कुछ ऐसे शब्दों को दोहराना सीख लेता है जिनका अर्थ उसे कभी कभी तो स्पष्ट होता है किन्तु कभी कभी उसके लिए यह संभव नहीं होता क्योंकि कुछ शब्द किसी वस्तु, व्यक्ति, समूह, स्थान, घटना या अनुभव विशेष के द्योतक होते हैं, और कुछ शब्द केवल किसी भाव विशेष के द्योतक होते हैं। इसलिए अपनी स्मृति में वस्तु, व्यक्ति, समूह या स्थान के लिए प्रयुक्त किसी शब्द विशेष को तो उस वस्तु, व्यक्ति, समूह या स्थान आदि से संबद्ध कर लिया जाता है, और उस तरीके से भाषा को स्मृति में स्थान दे दिया जाता है। भाष पर आश्रित केवल शाब्दिक ज्ञान अर्थात् "सूचना" / स्मृति information ही तो कृत्रिम ज्ञान Artificial intelligence का जनक है।

ध्यान सहज, स्वाभाविक, अनायास, स्वतंत्र और निरपेक्ष अकृत्रिम नित्य भान है,

जबकि विचार -

जानकारी, सूचना पर आश्रित कृत्रिम ज्ञान मात्र होता है। 

.... क्रमशः ... 

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Thursday, 27 March 2025

The Sun and The Moon

Gita 10/6 and 10/21

धर्म-क्षेत्र, कार्य-क्षेत्र और अधिकार-क्षेत्र

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संपूर्ण अस्तित्व धर्मक्षेत्र है जिसमें समस्त चर-अचर भूत-मात्र का अपना अपना अलग अलग विशिष्ट कार्य-क्षेत्र और अधिकार-क्षेत्र है।

जब तक समस्त चर और अचर भूतमात्र अपनी मर्यादा में रहते हुए इस अपने अपने विशिष्ट कार्य-क्षेत्र में धर्म का आचरण करते हैं तब तक सर्वत्र सामञ्जस्य सुख शान्ति होती है। इनमें से कोई भी जब इस मर्यादा का उल्लंघन करते हैं यह सुख शान्ति, सामञ्जस्य, व्यवस्था भंग हो जाती है और संसार में असन्तुलन, अशान्ति, असन्तोष, अराजकता और उपद्रव होने लगते हैं। जब तक ऐसा रहता है, तब तक संसार का कार्य सुचारु, सुव्यवस्थित रूप से नहीं चल सकता। किन्तु कालक्रम से नियन्ता के द्वारा स्थापित धर्म से ही यह क्रम भी अंततः समाप्त हो जाता है। आकाशीय और अन्तरिक्ष में स्थित समस्त पिंड इस कालक्रम के द्योतक लक्षण होते हैं। 

इसका प्रारंभ के सूचक आकाश में स्थित स्वस्तिक मंडल में स्थित सात नक्षत्र अर्थात् सप्तर्षि हैं -

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारः मनवस्तथा। 

मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमा प्रजाः।।६।।

श्रीभगवानुवाच 

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।

प्रधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।१९।।

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।

अहमादिश्च मध्यश्च भूतानामन्तमेव च।।२०।।

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।

मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं अहं शशी।।२१।।

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।२२।।

रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।

वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।२३।।

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।।

सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।२४।।

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।२५।।

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।२६।।

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि मामृतोद्भवम्।

ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।।२७।।

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।

प्रजनश्चास्मि कन्दर्पो सर्पाणामस्मि वासुकिः।।२८।।

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।

पित्-रृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतातमहम्।।२९।।

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।

मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।।३०।।

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।३१।।

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।

अध्यात्मविद्याविद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।३२।।

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।

अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।३३।।

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।३४।।

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।

मासानां मार्गशीर्षोऽहं ऋतूनां कुसुमाकरः।।३५।।

द्यूतं छलयितामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्। 

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।३६।।

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।३७।।

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषिताम्।

मौनं चास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।३८।।

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

(*तस्याहमर्जुन?)

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।३९।।

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतिनां परन्तप।

एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।४०।।

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव च।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।४१।।

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।

विष्टभ्यामहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।४२।।

इस पूरे प्रसंग में सप्तर्षियों से लेकर समस्त ग्रहों और नक्षत्रों, राशियों और काल-स्थान के द्योतक अदृश्य ग्रहों  राहु एवं केतु सहित स्थूल जगत् की समस्त स्थूल, सूक्ष्म  वस्तुओं और भूतमात्रों के -

आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक

कार्य-क्षेत्रों और अधिकार-क्षेत्रों का वर्णन किया गया।

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महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारः मनवस्तथा।



Tuesday, 11 March 2025

Rg / Ego, Yajurveda, sAma, atharva.

ऋग्, यजु, साम, अथर्व 

Rg, Yaju, SAma, Atharva. 

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The auto-editor --

मैने लिखना चाहा था -

ऋग्, यजु, साम, अथर्व,

लेकिन  'Rg'  टाइप करते ही आटो एडिटर से यह 'Ego' हो गया! इससे अनुमान कर सकते हैं कि ऋग् अर्थात् ऋ 

"तस्य इतो  / इतः लोपो"

सूत्र के अनुसार ग् का लोप होने से ऐसा हो जाता है।

इसी प्रकार ऋक् तथा ऋज् ऋष् में भी ऋ अक्षुण्ण रहता है।

ऋ अर्थात् अद्वैत से ऋग् अर्थात् Ego  का जन्म / उत्पत्ति होने के बाद -

युज् / यज् / यजु / युग् / युगल / द्वैत की अभिव्यक्ति / उत्पत्ति होती है।

ऋष् से ही ऋषि -

ऋषयः मन्त्रदृष्टारः। 

क्योंकि ऋष् अर्थात् चलने या गति होने से ऋषित्व अभिव्यक्त होता है।  ऋग् से ऋग्वेद और यज् से यजुर्वेद का उद्भव होने पर उनके पारस्परिक व्यवहार से अराजकता / युज् का उद्भव होता है,  और उनके सम्यक् संतुलन से साम का उद्भव। थृ / थर् धातु से थर्व् अर्थात् कम्प् , इस धातु से थरथराना, काँपना और थर्वा पद का उद्भव होता है और थर्व् से ही अथर्व और अथर्वा वेद / ऋषि का । अथर्व का अर्थ हुआ - अकम्प, अविचल, स्थिर। 

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Sunday, 19 January 2025

The Omen.

Referring to Indirectly,

For He shouldn't be named. 

He is so strong and Powerful.

Like the Virtual BrahmarAkShasa.

For He is The Lord of these Times!

These are the crucial Times, 

When no-one can Fight Him,

But for sure, one can Elude and Evade Him. 

Remember this mantra, That is to be chanted with pure mind,

In the Spirit of a devotional hymn.

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कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च।

ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम्।।

It is enough to remember and chant this everyday at a certain time in the morning / evening. Please don't share this post or the mantra with anyone. 

Caution :

As, Sharing this with anyone may attract His attention and wrath too, so just be careful!

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Saturday, 11 January 2025

The Solar Transit

सायन और निरयण 

बहुत समय से इस ब्लॉग में कुछ लिखने के लिए उपयुक्त विषय नहीं दिखाई दे रहा था। किन्तु पिछले कुछ दिनों से जो ज्योतिषीय घटनाक्रम आकाश में और धरती पर भी उससे जुड़ा भौगोलिक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, घटनाक्रम दिखाई दे रहा है उससे आज शाम अभी आधे घन्टे पहले मन में यह कौंध की किस प्रकार सूर्य का धनु राशि से निकलकर मगर राशि में प्रवेश होने जा रहा है, और उसका प्रभाव किस तरह संपूर्ण मनुष्य जगत्, जीव और वनस्पति जगत् पर होने जा रहा है यह जानना और इसका अध्ययन करना अत्यन्त रोचक और ज्ञान प्रदान करनेवाला कार्य हो सकता है।

किसी भी ग्रह की गति को सायन और निरयण इन दोनों आधारों पर देखकर उसके राशि परिवर्तन की तिथियों के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार से ज्योतिषीय आकलन किया जा सकता है।

अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प 20 जनवरी को पद की शपथ ग्रहण करेंगे ऐसा कहा जा सकता है। और 20 या 21 जनवरी के आसपास सूर्य का राशि परिवर्तन धनु राशि से मकर राशि में होगा। निरयण गणित के आधार पर यह होता है। किन्तु सायन गणित के आधार पर सूर्य 13 या 14 जनवरी को ही धनु राशि से निकलकर मकर में प्रवेश कर लेगा। मैं नहीं जानता इस दृष्टि से ज्योतिष शास्त्र के अध्येताओं ने कभी अध्ययन और विवेचना की है? क्योंकि यह संभवतः हमें देखने की एक नई दृष्टि दे सकता है। वैसे तो यह प्रत्येक वर्ष ही होता है, किन्तु इस बार इसका महत्व अधिक प्रतीत हो रहा है। यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि अभी जो भी घटित हो रहा है, उसमें अप्रत्याशित परिवर्तन निकट भविष्य में देखने को मिलेगा। चाहे वह अंतरराष्ट्रीय संबंधों में हो, भौगोलिक, राजनीतिक घटनाक्रमों में हो या व्यक्ति-विशेष के अपने संबंधों में हो। सभी स्थितियाँ और परिस्थितियाँ इतनी तेजी से बदलेंगी और विशेष रूप से हर व्यक्ति का सोचने विचारने का तरीका भी इतना बदलेगा कि वह स्वयं ही इसे महसूस भी करेगा। संसार में अनिश्चितताओं, भय, आशंकाओं और आश्चर्यों का एक नया क्रम शुरू होगा।

यह भविष्यवाणी सभी लोगों, स्थानों और देशों आदि के संबंध में सत्य सिद्ध हो सकती है। 

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