मेेरी प्रथम और अंतिम हाइकू
क्योंकि मैं नहीं जानता कि यह रचना जापानी हाइकू की कसौटी पर कितनी उपयुक्त है!
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अभी सुबह नहीं हुई,
अभी सूरज नहीं ऊगा,
पर अंधेरा मिट गया।
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मेेरी प्रथम और अंतिम हाइकू
क्योंकि मैं नहीं जानता कि यह रचना जापानी हाइकू की कसौटी पर कितनी उपयुक्त है!
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अभी सुबह नहीं हुई,
अभी सूरज नहीं ऊगा,
पर अंधेरा मिट गया।
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Nurseryrhymesforthegrownups.
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(On the lines of :
पुनरपि जननं पुनरपि मरणम्।)
पुनरिव जननं पुनरिव मरणं
पुनरिव जननी-जठरे शयनम्।
स्वप्ने संसारे पारेगमनम्
अवलोकय कृपया वारम्वारम्।
Repeated Erratic chaotic hectic Appearances in The Reality Immutable.
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देवता और ईश्वर
ईश्वर देवता है, किन्तु देवता ईश्वर की सीमित अभिव्यक्ति मात्र है। इसलिए देवता अनेक हो सकते हैं क्योंकि ईश्वर यद्यपि किसी भी नाम रूप और आकृति में अभिव्यक्त हो सकता है किन्तु ऐसे विभिन्न नाम रूप और आकृतियों के शक्ति और सामर्थ्य की मर्यादा होती है और उन विभिन्न नाम रूपों तथा आकृतियों में अभिव्यक्त ईश्वर / दिव्यता उस मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता। सनातन ईश्वर / धर्म की यही वैदिक मर्यादा है। हर और प्रत्येक आकृति उसी ईश्वर की नाम रूप, शक्ति और सामर्थ्य की अभिव्यक्ति है, इसलिए ईश्वर को एकमेव या अनेक कहना भी उसकी महिमा से अनभिज्ञता ही है। इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि एक अथवा अनेक होना भी ईश्वर की अभिव्यक्ति के भिन्न भिन्न प्रकार मात्र हैं न कि ईश्वर का वास्तविक स्वरूप। सामान्यतः मनुष्य की बुद्धि यह नहीं समझ पाती है कि विभिन्न नामों, रूपों और आकृतियों में भिन्न भिन्न की तरह से अभिव्यक्त और प्रतीत होनेवाला अस्तित्व 'एक' अथवा 'अनेक' की तरह से संख्या विशेष का प्रकार और गणना का आधार है जिसकी तात्कालिक उपयोगिता तो है, किन्तु इस प्रकार से जिस आधार को स्वीकार किया जाता है, उस 'एक' या 'अनेक' संख्या की सत्यता वैचारिक मूल्यांकन के अतिरिक्त और किस रूप में हो सकती है। क्या अस्तित्व ही नाम रूप और आकृति से स्वतंत्र वह ईश्वर नहीं है जो नाम रूप और आकृति की तरह से साकार होने पर भी उनसे स्वतंत्र और अभिन्न भी है और इसलिए वह निराकार भी अवश्य है। किन्तु जैसे ही स्वयं को एक चेतन अस्तित्व की तरह किसी नाम रूप और आकृति सहित सीमित शक्ति और सामर्थ्य से युक्त और समष्टि अस्तित्व से पृथक की तरह मान्य कर लिया जाता है तो उस समष्टि अस्तित्व को ईश्वर की संज्ञा प्रदान कर दी जाती है जो यद्यपि साकार तथा निराकार भी है, फिर भी जिसके 'एक' या 'अनेक' के रूप में होने के बारे में भिन्न भिन्न कल्पनाएँ की जाती हैं। और फिर उसे ही भिन्न भिन्न 'देवता' नामक सीमित शक्ति और सामर्थ्य से युक्त भिन्न भिन्न उपाधियों से चिह्नित कर भिन्न भिन्न नाम प्रदान किए जाते हैं। यद्यपि यह केवल औपचारिक रूप से भी सत्य हो सकता है और काल्पनिक मान्यता भर भी हो सकता है, किन्तु जब व्यावहारिक दृष्टि से उसी तरह से तात्कालिक रूप से उपयोगी भी पाया जाता है जैसा कि 'एक' और 'अनेक' की मान्यता के आधार पर किया जानेवाला वैचारिक मूल्यांकन, तो 'देवता' के रूप में उस वह स्वरूप अस्तित्व ग्रहण करता है, जिसकी उपासना से लौकिक प्रयोजन सिद्ध किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए पञ्च महाभूत - भूमि / पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश। किसी भी तरह के स्वयं के अपने आपके पृथक सीमित साकार शक्ति और सामर्थ्य से युक्त स्वतंत्र प्रतीत होनेवाले व्यक्ति-विशेष का अस्तित्व क्या इन्हीं पञ्च महाभूतों पर आश्रित और अवलंबित नहीं है? और क्या इन पञ्च महाभूतों के अस्तित्व पर संदेह तक किया जा सकता है? प्रश्न केवल उनसे संवाद की संभावना का है। इन पञ्च महाभूतों के प्रति कृतज्ञता की भावना होने पर उन्हें ही साकार / निराकार ईश्वर या देवता की तरह से भी मान्य किया जा सकता है। यद्यपि उनकी सहायता से अनेक कार्य संपन्न और सिद्ध होते हैं और फिर भी उनके प्रति अनुग्रह और कृतज्ञता की भावना मन में नहीं हो तो क्या इसे कृतघ्नता ही नहीं कहा जाना चाहिए?
जिसे 'एक' या 'अनेक', साकार या निराकार 'ईश्वर' की तरह मान्य किया जाता है, क्या वह 'ईश्वर' ही इन पाँचों के रूप में संपूर्ण और समस्त, समष्टि जीवन का आधार और आश्रय भी नहीं है? यदि उसे इन पाँच प्रकारों में इन विभिन्न और विशिष्ट प्रकारों में स्वीकार कर उनसे संपर्क करने का प्रयास किया जाता है तो क्या यह अवैज्ञानिक होगा? क्योंकि विज्ञान प्रयोग और अन्वेषण के माध्यम से अनुभव और ज्ञान प्राप्त करने और उसका उपयोग करने का ही तरीका है। ईश्वर या प्रकृति के रूप में अभिव्यक्त अस्तित्व के मूल तत्वों को विज्ञान के माध्यम से जानने पर ही जब जीवन इतना अधिक सुखपूर्ण हो सकता है, तो क्या उनसे चेतना के आयाम में संपर्क करने पर और भी अधिक और श्रेयस्कर लाभ न होगा? वैदिक ऋषि ऐसे ही आध्यात्मिक वैज्ञानिक हैं जो वैदिक सिद्धान्तों का अन्वेषण, आविष्कार और ज्ञान प्राप्त करते हैं और उसी ज्ञान को मनुष्यमात्र के लिए उपलब्ध करने के प्रयास में संलग्न रहते हैं।
यंत्र, मंत्र, तंत्र, यज्ञ आदि की विभिन्न प्रणालियाँ, सांख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त आदि दर्शन इसी वैज्ञानिक परंपरा और ज्ञान का समृद्ध आधार और अक्षुण्ण भंडार हैं।
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Consciousness, Sensibility, Perception, Conscious, Intellect and Intelligence.
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोः तत्वदर्शिभिः।।१६।।
(गीता अध्याय २)
This Divine Presence in the Vedika वैदिक parlance is called DevatA.
This manifest and evolved Reality as is in the form of व्यक्त and अव्यक्त continues to appear and disappear for the individual, whether either in a Conscious Being or in a manifest tangible Thing.
The most prominent DevatA / देवता is the one named as गायत्री.
Each and every such a देवता the Divine Entity exists and could be accessed in the available in the four forms -
बीज, नाम, मन्त्र and आकृति.
बीज is the seed,
नाम is the name of the entity as is in the pronunciation,
मन्त्र is the verbal description, and
आकृति is the audible and the visible form that connects the aspirant with DevatA.
Gayatri is thus the whole framework.
As is described and is spoken is -
ॐ भूर्भुवः स्वःतत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
ॐ is the indeclinable अव्यय / अव्यय पद
भूः is the "BE"
भुवः is the "BEING"
स्वः is the "self" either as the Ultimate Brahman as ॐ or as in the sense of the self in the individual Conscious Being associated with the
अन्तःकरणम् / the mind,
With the four essential constituents :
मन, बुद्धि, चित्त अहं / अहम्
तत् - That Brahman तत् ब्रह्म
सवितुः - of savitA / सविता - यः सूयते वा वेत्ति इति सः = सवितृ / सविता = consciousness
वरेण्यं - Auspicious
भर्गो देवस्य -
The Divinity that Reigns over
धीमहि We contemplate
धी - thing; theme -thought as the mind / thinking as well as the object of thinking
धियः- of this thought = thing
Just as भूः is being, धीः is thinking - in the spoken language.
This is how the Greek word "Theo" originated that means God and the Spirit as well.
यः= सः - as told above
प्रचोदयात्।।
- May He / Tat inspire and illuminate in us the Wisdom in our Consciousness.
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चन्द्रमा मनसो जातः
प्रायः वेद और सनातन धर्म के विरोधी प्रश्न उठाते हैं कि क्या वेद विज्ञान-सम्मत है?
पूर्वाग्रह से पूर्ण इस प्रश्न में पहले से ही यह मान लिया जाता है कि अंतिम और पूर्ण सत्य विज्ञान-सम्मत होना चाहिए। जबकि यू-ट्यूब के इस वीडियो से स्पष्ट है कि इसकी कसौटी तो यह होना चाहिए कि इसके विपरीत क्या विज्ञान वेद सम्मत है? वेद किसी प्रकार का आग्रह नहीं करता इसलिए उसके विज्ञान-सम्मत होने या न होने का प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु वेद के वचनों के परीक्षा करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वेद विज्ञान-विरोधी भी नहीं है।
पुरुष-सूक्तम् में कहा गया है :
चन्द्रमा मनसो जातः।।
अर्थात् चन्द्रमा की उत्पत्ति मन से होती है और मन का अर्थ है मनुष्य का मन न कि मनुष्येतर किसी भी दूसरे प्राणी का मन या बुद्धि। क्योंकि तारतम्य युक्त बुद्धि मनुष्य के ही मन का पर्याय है।
चन्द्रमा संभवतः पृथ्वी पर रहनेवाले किसी मनुष्य के द्वारा निर्मित और पृथ्वी के कृत्रिम उपग्रह के रूप में प्रक्षेपित किया गया ऐसा उपग्रह हो सकता है।
प्रथमतः तो यही पुरुष-सूक्तम् से प्राप्त निष्कर्ष और विज्ञान-सम्मत सत्य जान पड़ता है।
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Doubts and Uncertainties .
The Fragile Dreams
P O E T R Y.
A moment in life,
When a mission has been accomplished,
And you're sitting silently,
In your armchair,
Or on a sofa,
Placed before a T V,
Enjoying a favorite Channel,
And The very next moment,
Brings the news about something,
All your peace of mind,
Is shattered like glass,
You may switch off the T V,
May try to get up,
To Leave the place,
Still the pieces of the shattered glass,
Obstruct your steps.
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वन्दे मातरम्!
स जयति सिन्धुर् वदनो देवो यत्पादपंकजस्मरणम्।
वासरमणिरिव तमसां राशीन्नाशयति विघ्नानाम्।।
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पता नहीं किसी का ध्यान इस पर गया भी है या नहीं कि
सिन्दूर / Vermilion / HgCl
एक अत्यन्त शक्तिशाली रसायन, द्रव्य है जिसका प्रयोग अनेक तांत्रिक क्रियाओं में, और विशिष्ट दैवी शक्तियों जैसे गणेश, दुर्गा और हनुमान का आवाहन करने और उनकी उपासना करने के लिए और उन्हें प्रसन्न करने के लिए किया जाता है।
यह केवल एक संयोग नहीं है कि भारत और भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने,
यह एक शब्द-बाण चलाकर पूरे विश्व के समक्ष भारत की क्षमताओं का प्रदर्शन कर दिया है।
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विचार और ध्यान
कुछ समय से, दो तीन महीनों से सारा क्रम बदल गया है। रोज ही रात को 08:00 बजे नींद आने लगती है तो सो जाता हूँ रात 01:00 के बाद नींद खुल जाती है, और कभी कभी सुबह तक नहीं आती। सुबह 06:00 बजे के आसपास घूमने निकल जाता हूँ, और 07:15 तक लौट आता हूँ। फिर 09:00 तक सुबह के काम, सफाई और किचन का काम, फिर दोपहर 12:00 तक खाना खाकर विश्राम - 01:00 से 02:00 या 02: 30 तक। लेकिन कुछ तय नहीं। फिर बस छत पर या बाहर जंगल में या रोड पर टहलते रहना। कभी कभी किसी का कॉल आने पर आधे एक घंटे तक या उससे भी अधिक समय तक बातें करते रहना। हर दो चार दिनों में एक, दो या अधिक बार भी। जब नींद आ रही हो तब सो जाना और नींद पूरी हो जाने पर उठकर बैठ जाना या किसी शारीरिक काम में लग जाना जिसमें "सोचने" की आवश्यकता नहीं होती। वास्तव में "सोचना" वह भाषागत और मानसिक विधा / गतिविधि होती है जो कि शारीरिक कार्य के साथ कभी तो समायोजित हो सकती है और कभी कभी नहीं भी हो पाती है। जैसे कि साइकल चलाना या कि स्विमिंग करना। आप जब साइकल चलाना या तैरना सीख रहे होते हैं, तब आपका ध्यान साइकल चलाने या तैरने की तकनीक पर ऐसा एकाग्र होता है कि आपके लिए विचार कर पाना संभव नहीं हो पाता। और जब आप साइकल चलाने या तैरने की तकनीक अच्छी तरह से सीख लेते हैं तो किसी से बातें करते हुए, मन ही मन कुछ "सोचते" या कुछ गुनगुनाते हुए भी उस कार्य को आसानी से और अच्छी तरह से करने लगते हैं। कमरे में, बाहर कहीं भी, छत पर या सड़क पर चुपचाप टहलते रहना, क्योंकि तब कुछ "सोचना" आवश्यक नहीं होता। आप यदि थक गए हों तो सोफ़े पर या कुर्सी पर चुपचाप बैठे रह सकते हैं। प्यास लग रही हो तो पानी पी सकते हैं, भूख लग रही हो तो कुछ खा सकते हैं। इन सभी चेष्टाओं में शरीर उसका कार्य - जो केवल तकनीकी होता है, अनायास ही करने लगता है और वहाँ "सोचने" की कोई भूमिका नहीं होती। और यदि शरीर में किसी प्रकार की परेशानी हो तो उस परेशानी को चूँकि शरीर स्वयं ही दूर कर लेता है इसलिए "सोचना" आवश्यक नहीं होता। तब किन्तु "सोचने" का अभ्यस्त "मन" - आदतन कुछ सोच रहा होता है इसलिए "सोचने" से बाहर न आने का कोई बहाना खोज लेता है और यंत्रवत "सोचते हुए" सोचने के कार्य में डूबा रहता है। "मन" तब "सोचने" का ऐसा गुलाम हो जाता है कि उसकी "समझ पाने" की क्षमता खो जाती है। वह "मैं क्या करूँ!" इस सोच से प्रभावित होकर स्वयं से ही यह सवाल कर बैठता है और उसका प्रत्युत्तर भी "सोच" में खोजता है। इस प्रयास में उसका "ध्यान" / attention किसी विषय पर जाता है और उस विषय के प्रिय होने पर उससे संलग्न हो जाता है, या अप्रिय होने पर उससे दूर हट जाता है। इस प्रकार "विचार", "मन" को हमेशा ही अंकुश में रखता है और इस विकट स्थिति पर शायद कभी किसी का ध्यान तब तक नहीं जाता, जब तक कि कोई दूसरा व्यक्ति या दूसरी परिस्थिति इसके लिए उसे बाध्य नहीं कर देती। "ध्यान होने" और "विचार होने" तथा "ध्यान करने" और "विचार करने" के बीच का यह मौलिक भेद समझते ही "मन" आदतन / अभ्यस्त होकर सोचते रहने की इस "बाध्यता" से मुक्त हो जाता है, और सहज ही तय कर सकता है कि चुप कैसे रहा जाता है। कब चुप रहना है और कब भाषागत "विचार" को किसी कार्य को करने की अनुमति देना है।
इस सब पर पिछले दो तीन महीनों में ध्यान जा पाया। उससे पहले ऐसा नहीं था। तब एक दिन एकाएक समझ में आया कि "सोचना" असावधानी / प्रमाद / लापरवाही से पैदा हो जानेवाली एक ऐसी आदत है जिस पर ध्यान दिए जाते ही "सोचना" अनैच्छिक बाध्यता से ऐच्छिक मानसिक कार्य में रूपान्तरित हो सकता है। जैसे किसी को असावधानी से सिगरेट पीने की आदत हो जाती है, सोचना भी उसी तरह लापरवाही से पैदा हुई अभ्यस्तता और बाध्यता हो सकता है। और जैसे सिगरेट पीने की आदत जिसे होती है उसके लिए इस आदत को छोड़ पाना आसान नहीं होता ठीक उसी तरह, असावधानी से "सोचने" का अभ्यस्त व्यक्ति ऊलजलूल, व्यर्थ की चीजें सोचने के लिए बाध्य होता है और उसका "सोचते रहने" का यह रोग निरन्तर बढ़ता ही चला जाता है।
अपना बचपन याद आता है तो स्मरण आता है कि बच्चा बिना प्रयास ही भाषा से अनभिज्ञ होने से केवल अनुभव में जीता है और किसी भी अनुभव को शब्द नहीं देता है। फिर वह दूसरों के शब्दों को सुनते हुए कुछ ऐसे शब्दों को दोहराना सीख लेता है जिनका अर्थ उसे कभी कभी तो स्पष्ट होता है किन्तु कभी कभी उसके लिए यह संभव नहीं होता क्योंकि कुछ शब्द किसी वस्तु, व्यक्ति, समूह, स्थान, घटना या अनुभव विशेष के द्योतक होते हैं, और कुछ शब्द केवल किसी भाव विशेष के द्योतक होते हैं। इसलिए अपनी स्मृति में वस्तु, व्यक्ति, समूह या स्थान के लिए प्रयुक्त किसी शब्द विशेष को तो उस वस्तु, व्यक्ति, समूह या स्थान आदि से संबद्ध कर लिया जाता है, और उस तरीके से भाषा को स्मृति में स्थान दे दिया जाता है। भाष पर आश्रित केवल शाब्दिक ज्ञान अर्थात् "सूचना" / स्मृति information ही तो कृत्रिम ज्ञान Artificial intelligence का जनक है।
ध्यान सहज, स्वाभाविक, अनायास, स्वतंत्र और निरपेक्ष अकृत्रिम नित्य भान है,
जबकि विचार -
जानकारी, सूचना पर आश्रित कृत्रिम ज्ञान मात्र होता है।
.... क्रमशः ...
***
Gita 10/6 and 10/21
धर्म-क्षेत्र, कार्य-क्षेत्र और अधिकार-क्षेत्र
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संपूर्ण अस्तित्व धर्मक्षेत्र है जिसमें समस्त चर-अचर भूत-मात्र का अपना अपना अलग अलग विशिष्ट कार्य-क्षेत्र और अधिकार-क्षेत्र है।
जब तक समस्त चर और अचर भूतमात्र अपनी मर्यादा में रहते हुए इस अपने अपने विशिष्ट कार्य-क्षेत्र में धर्म का आचरण करते हैं तब तक सर्वत्र सामञ्जस्य सुख शान्ति होती है। इनमें से कोई भी जब इस मर्यादा का उल्लंघन करते हैं यह सुख शान्ति, सामञ्जस्य, व्यवस्था भंग हो जाती है और संसार में असन्तुलन, अशान्ति, असन्तोष, अराजकता और उपद्रव होने लगते हैं। जब तक ऐसा रहता है, तब तक संसार का कार्य सुचारु, सुव्यवस्थित रूप से नहीं चल सकता। किन्तु कालक्रम से नियन्ता के द्वारा स्थापित धर्म से ही यह क्रम भी अंततः समाप्त हो जाता है। आकाशीय और अन्तरिक्ष में स्थित समस्त पिंड इस कालक्रम के द्योतक लक्षण होते हैं।
इसका प्रारंभ के सूचक आकाश में स्थित स्वस्तिक मंडल में स्थित सात नक्षत्र अर्थात् सप्तर्षि हैं -
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारः मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमा प्रजाः।।६।।
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्रधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।१९।।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यश्च भूतानामन्तमेव च।।२०।।
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं अहं शशी।।२१।।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।२२।।
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।२३।।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।२४।।
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।२५।।
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।२६।।
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि मामृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।।२७।।
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पो सर्पाणामस्मि वासुकिः।।२८।।
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पित्-रृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतातमहम्।।२९।।
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।।३०।।
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।३१।।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्याविद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।३२।।
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।३३।।
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।३४।।
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहं ऋतूनां कुसुमाकरः।।३५।।
द्यूतं छलयितामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।३६।।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।३७।।
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषिताम्।
मौनं चास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।३८।।
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
(*तस्याहमर्जुन?)
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।३९।।
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतिनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।४०।।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव च।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।४१।।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्यामहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।४२।।
इस पूरे प्रसंग में सप्तर्षियों से लेकर समस्त ग्रहों और नक्षत्रों, राशियों और काल-स्थान के द्योतक अदृश्य ग्रहों राहु एवं केतु सहित स्थूल जगत् की समस्त स्थूल, सूक्ष्म वस्तुओं और भूतमात्रों के -
आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक
कार्य-क्षेत्रों और अधिकार-क्षेत्रों का वर्णन किया गया।
***
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारः मनवस्तथा।
ऋग्, यजु, साम, अथर्व
Rg, Yaju, SAma, Atharva.
--
The auto-editor --
मैने लिखना चाहा था -
ऋग्, यजु, साम, अथर्व,
लेकिन 'Rg' टाइप करते ही आटो एडिटर से यह 'Ego' हो गया! इससे अनुमान कर सकते हैं कि ऋग् अर्थात् ऋ
"तस्य इतो / इतः लोपो"
सूत्र के अनुसार ग् का लोप होने से ऐसा हो जाता है।
इसी प्रकार ऋक् तथा ऋज् ऋष् में भी ऋ अक्षुण्ण रहता है।
ऋ अर्थात् अद्वैत से ऋग् अर्थात् Ego का जन्म / उत्पत्ति होने के बाद -
युज् / यज् / यजु / युग् / युगल / द्वैत की अभिव्यक्ति / उत्पत्ति होती है।
ऋष् से ही ऋषि -
ऋषयः मन्त्रदृष्टारः।
क्योंकि ऋष् अर्थात् चलने या गति होने से ऋषित्व अभिव्यक्त होता है। ऋग् से ऋग्वेद और यज् से यजुर्वेद का उद्भव होने पर उनके पारस्परिक व्यवहार से अराजकता / युज् का उद्भव होता है, और उनके सम्यक् संतुलन से साम का उद्भव। थृ / थर् धातु से थर्व् अर्थात् कम्प् , इस धातु से थरथराना, काँपना और थर्वा पद का उद्भव होता है और थर्व् से ही अथर्व और अथर्वा वेद / ऋषि का । अथर्व का अर्थ हुआ - अकम्प, अविचल, स्थिर।
***
Referring to Indirectly,
For He shouldn't be named.
He is so strong and Powerful.
Like the Virtual BrahmarAkShasa.
For He is The Lord of these Times!
These are the crucial Times,
When no-one can Fight Him,
But for sure, one can Elude and Evade Him.
Remember this mantra, That is to be chanted with pure mind,
In the Spirit of a devotional hymn.
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कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च।
ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम्।।
It is enough to remember and chant this everyday at a certain time in the morning / evening. Please don't share this post or the mantra with anyone.
Caution :
As, Sharing this with anyone may attract His attention and wrath too, so just be careful!
***
सायन और निरयण
बहुत समय से इस ब्लॉग में कुछ लिखने के लिए उपयुक्त विषय नहीं दिखाई दे रहा था। किन्तु पिछले कुछ दिनों से जो ज्योतिषीय घटनाक्रम आकाश में और धरती पर भी उससे जुड़ा भौगोलिक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, घटनाक्रम दिखाई दे रहा है उससे आज शाम अभी आधे घन्टे पहले मन में यह कौंध की किस प्रकार सूर्य का धनु राशि से निकलकर मगर राशि में प्रवेश होने जा रहा है, और उसका प्रभाव किस तरह संपूर्ण मनुष्य जगत्, जीव और वनस्पति जगत् पर होने जा रहा है यह जानना और इसका अध्ययन करना अत्यन्त रोचक और ज्ञान प्रदान करनेवाला कार्य हो सकता है।
किसी भी ग्रह की गति को सायन और निरयण इन दोनों आधारों पर देखकर उसके राशि परिवर्तन की तिथियों के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार से ज्योतिषीय आकलन किया जा सकता है।
अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प 20 जनवरी को पद की शपथ ग्रहण करेंगे ऐसा कहा जा सकता है। और 20 या 21 जनवरी के आसपास सूर्य का राशि परिवर्तन धनु राशि से मकर राशि में होगा। निरयण गणित के आधार पर यह होता है। किन्तु सायन गणित के आधार पर सूर्य 13 या 14 जनवरी को ही धनु राशि से निकलकर मकर में प्रवेश कर लेगा। मैं नहीं जानता इस दृष्टि से ज्योतिष शास्त्र के अध्येताओं ने कभी अध्ययन और विवेचना की है? क्योंकि यह संभवतः हमें देखने की एक नई दृष्टि दे सकता है। वैसे तो यह प्रत्येक वर्ष ही होता है, किन्तु इस बार इसका महत्व अधिक प्रतीत हो रहा है। यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि अभी जो भी घटित हो रहा है, उसमें अप्रत्याशित परिवर्तन निकट भविष्य में देखने को मिलेगा। चाहे वह अंतरराष्ट्रीय संबंधों में हो, भौगोलिक, राजनीतिक घटनाक्रमों में हो या व्यक्ति-विशेष के अपने संबंधों में हो। सभी स्थितियाँ और परिस्थितियाँ इतनी तेजी से बदलेंगी और विशेष रूप से हर व्यक्ति का सोचने विचारने का तरीका भी इतना बदलेगा कि वह स्वयं ही इसे महसूस भी करेगा। संसार में अनिश्चितताओं, भय, आशंकाओं और आश्चर्यों का एक नया क्रम शुरू होगा।
यह भविष्यवाणी सभी लोगों, स्थानों और देशों आदि के संबंध में सत्य सिद्ध हो सकती है।
***