Wednesday, 27 April 2022

करना, होना, पाना, जानना,

The Four Pillars of Ego.

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अहंकार के चार आधार-स्तम्भ

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जिसे "मैं" अर्थात् "मन" कहा जाता है वह एक ही वास्तविकता "व्यक्तित्व" के दो नाम हैं। फिर यह भी स्पष्ट है कि यह पृथकता जिन चार आधारोंं पर टिकी और खड़ी रहती है, वे हैं : 

कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व। 

वैसे इन चार रूपों में "मैं" या "मन" विद्यमान होता है, इसलिए अहंकार को त्यागना या अहंकार से मुक्त होना मूलतः विसंगति-युक्त है। यह प्रश्न ही विरोधाभासपूर्ण है। क्योंकि तब अहंकार या "मन" को त्यागनेवाले किसी अस्तित्व को मानना होगा। जबकि ऐसा कोई अस्तित्व न तो तर्क, न अनुभव और न सिद्धान्ततः हो सकता है। जिस चेतना में "मैं" या "मन" का आगमन होता है, जिसमें उनकी गतिविधि (activity) होती है, वह एक अथवा अनेक के रूप में नहीं हो सकती। 

समस्त 'भेद' (distinctions) तीन प्रकारों में पाए जा सकते हैं । वे तीनों प्रकार क्रमशः सजातीय, विजातीय तथा स्वगत इन तीन रूपों में हो सकते हैं ।

सजातीय का अर्थ है - एक ही जाति के, जैसे कि चिड़िया और कौआ, 

विजातीय का अर्थ है - भिन्न-भिन्न जाति के, जैसे गाय और वृक्ष,

स्वगत का अर्थ है एक ही वस्तु के भिन्न भिन्न अंग होना - जैसे शरीर में विभिन्न अंग शरीरगत होते हुए भी रचना और कार्य की दृष्टि से उनमें भेद होता है। 

केनोपनिषद् में जिसे ब्रह्म कहा गया वह ब्रह्म नामक वस्तु इस प्रकार के भेदों से रहित है। चूँकि वह सब / सर्व है, और उसमें सब / सर्व है, इसलिए वह सब / सर्व से अभिन्न है। इसी प्रकार चेतना / consciousness सब / सर्व में है और सब / सर्व भी चेतना / consciousness में, चेतना / consciousnes भी उपरोक्त तीनों भेदों से रहित है। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि चेतना अर्थात् consciousness जीव-चेतना (sentience) एक ही वस्तु नहीं  है। यदि इसे स्मरण न रखा जाए तो प्रश्न पैदा होगा कि सब / सर्व तो अवश्य ही किसी या किसी न किसी की चेतना में होता ही है, किन्तु जड वस्तुओं में ऐसी चेतना कहाँ हो सकती है? इसलिए चेतन वस्तु को  sentient तथा जड वस्तु को insentient कहा जाता है। 

किन्तु फिर भी एक भेद और भी हो सकता है जो उपरोक्त तीन भेदों से भिन्न है। वह है जीव और ईश्वर के बीच का उपाधिगत भेद। इस उपाधि / adjunct के भेद को कल्पित माना जाए, तो जीव तथा ईश्वर में चेतना / consciousness उभयनिष्ठ तत्व है, और वही ब्रह्म भी है।

इस प्रकरण में उपदेश-सार के निम्न श्लोक उल्लेखनीय हैं :

ईशजीवयोर्वेष-धीभिदा।।

सत्स्वभावतो वस्तु केवलम्।।२४।।

वेषहानतः स्वात्मदर्शनम्।। 

ईशदर्शनं स्वात्मरूपतः।।२५।।

इस पूरी विवेचना का उद्देश्य यह है कि जिसे उपनिषद् में इंगित से 'प्रतिबोधविदितं' कहा गया है, वह सत्य जीव, ब्रह्म तथा ईश्वर तीनों में समान रूप से विद्यमान वास्तविकता है। 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।

(उपरोक्त पंक्ति उपनिषद् के खण्ड १ के मंत्र क्रमांक ४, ५, ६, ७ एवं ८ की दूसरी पंक्ति है।)  

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यदि कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व को क्रमशः करना, होना, जानना तथा पाना इन चार के पर्याय की तरह जान लिया जाए, तो अहंकार या 'मन' को त्यागना का प्रश्न ही व्यर्थ सिद्ध हो जाता है। 

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Thursday, 21 April 2022

यद्भूतम् यच्च भव्यम्।

भावयिता यश्च भाव्यम्।। 

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ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति । नारायणो एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम्। ...।।२।।

भावयिता यश्च भाव्यम्।।

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यह सब जो हुआ, होता है, होनेवाला है, होने जा रहा है, होगा या होता हुआ प्रतीत होता है, वह सब नारायण है। जो प्रतीत होता है, और जैसा प्रतीत होता है वह सब नारायण है।

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अहं सुवे पितरमस्यमूर्धन्मम योनिरप्सवन्तः समुद्रे।

य एवं वेद। स दैवीं सम्पदमाप्नोति।।७।।

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एषो ह देवः प्रदिशो नु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः। स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः। 

सृष्टि-संहार-सृष्टि

(The Creation/ Manifestation, Annihilation or Dissolution, and The Creation - Cycle) 

मूर्धानमस्य संसेव्याप्यथर्वा हृदयं च यत्। 

मस्तिष्कादूर्ध्वं प्रेरयत्यवमानोऽधिशीर्षतः तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुज्झितः। 

तत् प्राणोऽभिरक्षति शिरोऽन्तमथो मनः। 

न च दिवो देवजनेन गुप्ता न चान्तरिक्षाणि न च भूम इमाः। यस्मिन्निदं सर्वमोतप्रोतं तस्मादन्यन्न परं किञ्चनास्ति। 

न तस्त्मापूर्वं न परं तदस्ति न भूतं नोत भव्यं यदासीत्।

सहस्रपादेकमूर्ध्ना व्याप्तं स एवेदमावरीवर्ति भूतम्।

अक्षरात्संजायते कालः* कालाद् व्यापक उच्यते। 

व्यापको हि भगवान्-रुद्रो भोगायमानो, - यदा शेते रुद्रो संहार्यते प्रजाः।।

सृष्टि-क्रम / Creation :

उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपोप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका* भवन्ति। 

अर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति यद्ध्रुवम्। एतद्धि परमं तपः आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों नम इति।।६।।

(लोकाः - 7 Spaces / 7 Spheres, as well as the 7 states of matter, कालः - Time -- the 11 strings, synonymous with the दिशःप्रतिदिशश्च - the 11 Directions / Dimensions),

All that has  happened, appears to happen,  seems to be happening, may or might, will happen is verily Narayana.

तत् त्वं -- तत् त्वं प्रत्यक्ष तत्त्वमसि ।

त्वमेव केवलं कर्त्तासि ।

त्वमेव केवलं धर्तासि।

त्वमेव केवलं हर्तासि।

त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।

त्वं साक्षादात्मासि नित्यम्।

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अथ सूर्य अथर्वशीर्षम्  :

हरि ॐ ।

अथ सूर्याथर्वाङ्गिरसं व्याख्यास्यामः।

ब्रह्मा ऋषिः। 

गायत्री छन्दः।

आदित्यो देवता। 

हंसः सोऽहमग्निनारायणयुक्तं बीजम्।

हृल्लेखा शक्तिः।

वियदादिसर्गसंयुक्तं कीलकम्। 

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सूर्य आत्मा जगस्तस्थुषश्च ।

सूर्याद्वै खल्विमानि भूतानि जायन्ते। 

सूर्याद्यज्ञः पर्जन्योऽन्नमात्मा।

नमस्त आदित्य त्वमेव केवलं कर्मकर्तासि।

त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।

त्वमेव प्रत्यक्षं विष्णुरसि। 

त्वमेव प्रत्यक्षं रुद्रोऽसि।

त्वमेव प्रत्यक्षमृगसि।

त्वमेव प्रत्यक्षं यजुरसि। 

त्वमेव प्रत्यक्षं सामासि। 

त्वमेव प्रत्यक्षमथर्वासि।

त्वमेव सर्वं छन्दोऽसि।

आदित्याद्वायुर्जायते।

आदित्यात्भूमिर्जायते।

आदित्यादापो जायन्ते। 

आदित्याज्ज्योतिर्जायते।

आदित्याद्व्योम दिशो जायन्ते।

आदित्याद्देवा जायन्ते। 

आदित्याद्वेदा जायन्ते।

आदित्यो वा एष एतन्मण्डलं तपति।

असावादित्यो ब्रह्म। 

आदित्योऽन्तःकरणमनोबुद्धिचित्ताहंकाराः।

आदित्यो वै व्यासः समानोदानोपानः प्राणः। 

...

...

देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।। 

सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सूष्टुतैतुः।। १०।।

...

...

अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।। 

तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः।।१३।।

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It would be highly rewarding if one goes through these 5 Atharva SheerSha texts, that are closely inter-related and point out to the same subtle truth which removes and clears away all doubts and ignorance that usually emerge out from our mind.

Presently, we think (believe) that we think.

This very belief covers up our ignorance of the Reality. That is the very first ignorance of the Reality. 

Then we wander into the intellectual search, we try to find out the Reality, Self, Truth, or  even peace of mind on the intellectual level, in terms of knowledge, which keeps us away from the Real Intelligence. 

But once we see and appreciate what is our Real Being and Know the same, we also see that Knowing and Being are but two aspects of the same Truth. This is then experienced as Bliss also.

This is the only Intelligence worth the name.

The three synonyms if the Intelligence are again termed as :

सत् चित् and आनन्द, -respectively.

From this Reality emerges all the manifest existence.

Which is termed as Narayana.

Thought is Narayana.

Idea is Narayana.

Thought / Idea is but Hypothesis.

Hypothesis is Narayana.

This is the very origin of all existence.

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Tuesday, 12 April 2022

सुरक्षा-असुरक्षा और निश्चिन्तता

सनातन-सत्य

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ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्याम् जगत् ।।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ।।१।।

(ईशावास्योपनिषद्)

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।१७।।

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २)

उपरोक्त दोनों उद्धरणों से इस तथ्य पर हमारा ध्यान जा सकता है कि इन्हें केवल शाब्दिक विचार की तरह ग्रहण किया जाता है, या ये दोनों वक्तव्य जिस सत्य को इंगित करते हैं, उस सत्य को ग्रहण किया जाता है।

क्या सत्य एक है? या सत्य अनेक हैं? या, क्या सत्य को 'एक' अथवा 'अनेक' की कोटि में रखा भी जा सकता है? 

'विचार', बुद्धि को इसी प्रकार मोहित करता है।

'विचार' के द्वारा जिस तथ्य को कहा जाता है, एवं बाद में पुनः सुना और शब्दार्थ तथा भावार्थ के रूप में ग्रहण किया जाता है, बुद्धि उस तात्पर्य की व्याख्या पुनः किसी 'विचार' के रूप में कर सकती है, और इस प्रकार उस तत्व सत्य पर ध्यान ही नहीं जा पाता, जिसे 'विचार' के माध्यम से प्रकट किया गया था। 

सत्य या ईश्वर, आत्मा, मन, स्थान और समय आदि ऐसे ही शब्द हैं, जिन्हें सुनकर यह भ्रम पैदा हो जाता है कि ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व है, और तब उस वस्तु पर 'एक' अथवा 'अनेक' का विशेषण आरोपित कर लिया जाता है।

किसी भौतिक और इन्द्रियग्राह्य वस्तु को शायद 'एक', 'अनेक' आदि कहा जा सकता है, किन्तु हवा, पानी, वायु, गरमी, शीत, भूख या प्यास, प्रेम, आदि वस्तुओं को 'एक' या 'अनेक' कहना क्या संभव, या उचित भी है?

क्या सत्य या ईश्वर, आत्मा, मन, स्थान और समय ऐसे ही शब्द नहीं हैं, जिनकी वास्तविकता से अनभिज्ञ होते हुए भी, हम उन पर 'एक' या 'अनेक' का विशेषण आरोपित कर देते हैं? 

क्या 'हम', 'व्यवस्था', परिस्थिति, ऐसे ही और शब्द नहीं हैं? 

अतः इस प्रकार से कहा और सुना गया कोई भी वक्तव्य, शब्द या तो शब्दों का समूह मात्र हो सकता है, या किसी इन्द्रियग्राह्य तथ्य का द्योतक भी हो सकता है।

किन्तु जब ऐसा कोई तथ्य केवल कोई कल्पना, भावनात्मक या केवल मानसिक अनुभूति हो, तो ऐसा आवश्यक तो नहीं है कि वह इन्द्रियग्राह्य भी हो ही! 

इसीलिए भावग्राह्य, मनोगम्य, कल्पनाजनित, या भावनात्मक अनुभूति के तथ्यों को जिस प्रकार शब्दों के माध्यम से वक्तव्य का रूप दिया जाता है वैसा करना तथ्य को न केवल विरूपित कर सकता है, बल्कि उन्हें एक बिल्कुल भिन्न आवरण के भीतर छिपा भी सकता है।

किन्तु अगर भाषा के माध्यम का प्रयोग न किया जाए, तब भी क्या भावनात्मक वस्तुओं के बारे में, उन मानसिक अनुभूतियों का संप्रेषण किया जाना संभव है? जैसे सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, चिन्ता-निश्चिन्तता, सुरक्षा-असुरक्षा, भय-लोभ, मोह-द्वन्द्व, राग-विराग, आसक्ति-अनासक्ति, वैराग्य इस प्रकार की भावनात्मक स्थितियों को व्यक्त करने के लिए क्या कोई और साधन हमारे पास है? भाषा से 'विचार' का जन्म होता है और संप्रेषण के लिए विचार अवश्य ही एकमात्र उपलब्ध साधन भी है। यद्यपि विचार की अपनी सीमितता / सीमा होती है, और विचार प्रायः अनेक अर्थों का सूचक भी हो सकता है । पुनः ये विभिन्न अर्थ भी परस्पर विसंगतिपूर्ण हो सकते हैं। यही है विचार की सीमा। 

किन्तु विचार की इस सारी गतिविधि में वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य ही, आँखों से ओझल और दृष्टि से परे हो जाता है जिसे कि विचार आवरित कर लेता है। वह तथ्य है विचार की वह पृष्ठभूमि जो प्रकाश / चेतना की तरह से विचार और उसके तात्पर्य को आलोकित करते हुए भी स्वयं विचार और उसके शाब्दिक अर्थ से परे होती है।

चिन्ता, वैचारिक चिन्तन, तथा चिन्ता का दूर हो जाना, यह सभी यद्यपि विचार की ही गतिविधि है, किन्तु विचार की पृष्ठभूमि इस सब से सर्वथा अछूती, वह निर्विचार ज्योति है जिसे विचार के झोंके स्पर्श तक नहीं कर पाते।

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Saturday, 2 April 2022

त्रुटि कहाँ हुई?

What Might Have Gone Wrong?

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क्या हिन्दू / हिन्दुत्व कोई राजनीतिक सिद्धान्तवाद / Political Ideology है?

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दुर्भाग्य और प्रमाद से हिन्दू / हिन्दुत्व के पक्षधरों ने असावधानी से हिन्दू / हिन्दुत्व को रिलीजन कहकर, अन्य सभी रिलीजन्स के धरातल पर, उनकी तुलना में एक और मतवाद / राजनीतिक सिद्धान्तवाद (Political Ideology / Philosophy) की तरह से स्थापित कर दिया, जिससे न केवल पूरे सनातन धर्म की अपूरणीय क्षति ही हुई, बल्कि सनातन-धर्म के दूसरे रूपों - जैन, बौद्ध, सिख आदि समुदायों के भी हिन्दू रिलीजन / हिन्दुत्व से भिन्न प्रकार के होने का भ्रम पैदा किया, और फैलाया गया।

इस प्रकार से जो विवाद पैदा किया गया, उससे जो लाभ 'हिन्दू' से इतर समुदायों को अनायास प्राप्त हुआ, वह तो अपने स्थान पर है ही, किन्तु समाज, संस्कृति आदि की दृष्टि से हिन्दुत्व के अपने सनातन-स्वरूप में जिनकी आस्था है, उनके बीच भी वह विवाद, एक दूसरे के प्रति वैमनस्य का कारक बना।

शायद यही वह एकमात्र और अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण भूल थी, जिस पर शायद ही किसी का ध्यान गया हो। 

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धर्मनिरपेक्ष हिन्दू

The Secular Hindu

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1976 के बाद किसी समय जब भारत के संविधान में संशोधन कर भारत को "समाजवादी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र" घोषित किया गया तब इस पर शायद ही किसी का ध्यान गया होगा कि "रिलीजन" के अर्थ में "हिन्दू" भारतीयों का धर्म नहीं है। 'हिन्दू' / 'हिन्दुत्व' यह शब्द भारतीय समाज के इतिहास, अतीत और, सांस्कृतिक विरासत का वर्तमान सामाजिक यथार्थ तो अवश्य ही  है, किन्तु यह शब्द सनातन-धर्म के किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिलता।

भारतीय और धर्म को सनातन-सत्य के अर्थ में ग्रहण करने वाले सभी लोग इस बारे में पूर्णतया सहमत हैं कि वेद, उपनिषद् तथा पुराणों के ही साथ, या शायद उनसे भी बढ़कर, श्रीमद्भगवद्गीता ही एकमात्र ग्रन्थ है जिसे कि सबके लिए प्रामाणिक मार्गदर्शक धर्मग्रन्थ कहा जा सकता है। 

इस ग्रन्थ का प्रारंभ ही :

"धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः"

(गीता - श्लोक 1,अध्याय 1)

से होता है। 

यहाँ धर्म का अर्थ है पारंपरिक-लौकिक (secular) सामाजिक अनुष्ठान - इसे नैतिकता (ethics) और सामाजिक सदाचरण (morality) भी कहा जा सकता है।

पुनः अध्याय 4 में संसार के ईश्वर, या ईश्वर का अवतार स्वीकार किए जानेवाले भगवान् श्रीकृष्ण के वचन के अनुसार :

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ...

(श्लोक 7)

जब जब यह सनातन धर्म अर्थात् मनुष्य का आचार-विचार और व्यवहार अपने सनातन सत्य के मूल स्वरूप से हटकर विरूपित और दूषित हो जाता है, तब तब इस सनातन सत्य के स्वरूप से सुसंगत धर्म की स्थापना के प्रयोजन से "मैं" अवतरित होता हूँ।

इस ग्रन्थ के निष्कर्ष के रूप में भी अन्ततः भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा हमें सचेत करते हुए हमसे कहा जाता है :

"सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज"

(अध्याय 18,श्लोक 66)

जो अवश्य ही इसी तात्पर्य की पुष्टि करता है कि सभी मतवादों को छोड़कर एकमात्र अपनी / ईश्वर की शरण में आ जाओ। 

इसका यह तात्पर्य भी ग्रहण किया जा सकता है कि अपने ही उस विवेक की शरण लो जिसकी शिक्षा विस्तार से इस ग्रन्थ में दी गई है।

किन्तु, क्या सभी धर्मों का परित्याग करने का सरल और सीधा सा अर्थ, धर्म-निरपेक्ष होना ही नहीं हुआ? यहाँ यह भी समझा जा सकता है, कि इस प्रकार इसका अर्थ यह भी हुआ कि राष्ट्र और समाज के सन्दर्भ में किसी भी धर्म / रिलीजन को उसे न माननेवाले अन्य लोगों पर थोपा न जाए!

सनातन-धर्म का मूल सिद्धान्त यही तो है। 

सनातन-धर्म के रूप में अपने मत को स्वीकार करनेवाले सभी मनुष्य निर्विवाद रूप से "अहिंसा" को ही धर्म, तथा हिंसा को, (प्राणि-मात्र से वैर) को ही अधर्म की तरह परिभाषित करते हैं। इस दृष्टि से भी समाज या राष्ट्र किसी भी नागरिक को किसी विशेष धर्म / रिलीजन का पालन करने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। समस्या यह है कि कुछ रिलीजन / कल्चर्स ऐसे भी हैं जो केवल अपने ही रिलीजन / कल्चर / मत को ही सभी के लिए आचरण करने के लिए अपरिहार्यतः एकमात्र आवश्यक और सर्वोच्च ईश्वरीय आदेश की तरह मानने के लिए बाध्य करते हैं। इस प्रकार के भिन्न भिन्न राजनीति-परक लक्ष्यों (political ideologies) से प्रेरित भिन्न भिन्न  कल्चर्स / रिलीजन्स का परस्पर शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व संभव है?

हिन्दू संस्कृति, समाज या हिन्दुत्व इस अर्थ में अवश्य ही वस्तुतः धर्मनिरपेक्ष है कि वह किसी विशेष मत / सिद्धान्त को किसी भी मनुष्य पर बलपूर्वक आरोपित करने के विरुद्ध है।

(यह केवल एक दृष्टिकोण और सोचने का एक और तरीका भी हो सकता है, न कि कोई अंतिम निष्कर्ष)

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