The Four Pillars of Ego.
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अहंकार के चार आधार-स्तम्भ
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जिसे "मैं" अर्थात् "मन" कहा जाता है वह एक ही वास्तविकता "व्यक्तित्व" के दो नाम हैं। फिर यह भी स्पष्ट है कि यह पृथकता जिन चार आधारोंं पर टिकी और खड़ी रहती है, वे हैं :
कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व।
वैसे इन चार रूपों में "मैं" या "मन" विद्यमान होता है, इसलिए अहंकार को त्यागना या अहंकार से मुक्त होना मूलतः विसंगति-युक्त है। यह प्रश्न ही विरोधाभासपूर्ण है। क्योंकि तब अहंकार या "मन" को त्यागनेवाले किसी अस्तित्व को मानना होगा। जबकि ऐसा कोई अस्तित्व न तो तर्क, न अनुभव और न सिद्धान्ततः हो सकता है। जिस चेतना में "मैं" या "मन" का आगमन होता है, जिसमें उनकी गतिविधि (activity) होती है, वह एक अथवा अनेक के रूप में नहीं हो सकती।
समस्त 'भेद' (distinctions) तीन प्रकारों में पाए जा सकते हैं । वे तीनों प्रकार क्रमशः सजातीय, विजातीय तथा स्वगत इन तीन रूपों में हो सकते हैं ।
सजातीय का अर्थ है - एक ही जाति के, जैसे कि चिड़िया और कौआ,
विजातीय का अर्थ है - भिन्न-भिन्न जाति के, जैसे गाय और वृक्ष,
स्वगत का अर्थ है एक ही वस्तु के भिन्न भिन्न अंग होना - जैसे शरीर में विभिन्न अंग शरीरगत होते हुए भी रचना और कार्य की दृष्टि से उनमें भेद होता है।
केनोपनिषद् में जिसे ब्रह्म कहा गया वह ब्रह्म नामक वस्तु इस प्रकार के भेदों से रहित है। चूँकि वह सब / सर्व है, और उसमें सब / सर्व है, इसलिए वह सब / सर्व से अभिन्न है। इसी प्रकार चेतना / consciousness सब / सर्व में है और सब / सर्व भी चेतना / consciousness में, चेतना / consciousnes भी उपरोक्त तीनों भेदों से रहित है। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि चेतना अर्थात् consciousness जीव-चेतना (sentience) एक ही वस्तु नहीं है। यदि इसे स्मरण न रखा जाए तो प्रश्न पैदा होगा कि सब / सर्व तो अवश्य ही किसी या किसी न किसी की चेतना में होता ही है, किन्तु जड वस्तुओं में ऐसी चेतना कहाँ हो सकती है? इसलिए चेतन वस्तु को sentient तथा जड वस्तु को insentient कहा जाता है।
किन्तु फिर भी एक भेद और भी हो सकता है जो उपरोक्त तीन भेदों से भिन्न है। वह है जीव और ईश्वर के बीच का उपाधिगत भेद। इस उपाधि / adjunct के भेद को कल्पित माना जाए, तो जीव तथा ईश्वर में चेतना / consciousness उभयनिष्ठ तत्व है, और वही ब्रह्म भी है।
इस प्रकरण में उपदेश-सार के निम्न श्लोक उल्लेखनीय हैं :
ईशजीवयोर्वेष-धीभिदा।।
सत्स्वभावतो वस्तु केवलम्।।२४।।
वेषहानतः स्वात्मदर्शनम्।।
ईशदर्शनं स्वात्मरूपतः।।२५।।
इस पूरी विवेचना का उद्देश्य यह है कि जिसे उपनिषद् में इंगित से 'प्रतिबोधविदितं' कहा गया है, वह सत्य जीव, ब्रह्म तथा ईश्वर तीनों में समान रूप से विद्यमान वास्तविकता है।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
(उपरोक्त पंक्ति उपनिषद् के खण्ड १ के मंत्र क्रमांक ४, ५, ६, ७ एवं ८ की दूसरी पंक्ति है।)
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यदि कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व को क्रमशः करना, होना, जानना तथा पाना इन चार के पर्याय की तरह जान लिया जाए, तो अहंकार या 'मन' को त्यागना का प्रश्न ही व्यर्थ सिद्ध हो जाता है।
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