Monday, 27 December 2021

संस्कृत नूतनरचना

सद्योमुक्तिः 27-12-2021

----------------©---------------

सङ्कल्पो अयं हि कर्ता अहंबुद्धिः अहंमतिः ।

मनो एव अयं भोक्ता स्मृतिरेव विस्मृतिः ।।

मोहः एव अयं स्वामी ज्ञातृत्वमेव हि ज्ञाता ।

बोधोऽयं हि आत्मनो विवेको सद्योमुक्तिः ।।

--

अर्थ :

सङ्कल्प यही वस्तुतः कर्ता है, 

अहंबुद्धि ही यह अहंकार है,

मन यही वस्तुतः भोक्ता है, 

स्मृति ही (आत्म-)विस्मृति है ।

मोह यही स्वामी (स्वामित्व-भावना) है,

ज्ञातृत्व (अभिमान) यही ज्ञाता है,

यह (इस प्रकार का) बोध ही आत्म-(अनात्म) का विवेक है,

यही विवेक और सद्योमुक्ति है ।

***





Thursday, 23 December 2021

तन्मात्रम् / The Quantum.

सन्मात्रः (चित्सत्)

----------©---------

राहुग्रस्त दिवाकरेन्दुसदृशो माया समाच्छादनात्

सन्मात्रः करणोपसंहरतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान् ।

प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते 

तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।

(श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम्)

--

चेतना का प्रवेश-द्वार 

(The Threshold of the Consciousness.)

--

जिस प्रकार सूर्य तथा चन्द्रमा राहु से ग्रस्त होने पर यद्यपि अपने स्वरूप से भिन्न प्रतीत होते हैं, किन्तु स्वरूपतः वे विकार से युक्त नहीं होते, उसी प्रकार से वह-यह, सन्मात्र पुरुष श्रीदक्षिणामूर्ति भी सुषुप्ति से आवरित होने पर, माया के प्रभाव से आच्छादित हुआ प्रतीत होते हुए भी, अपने चैतन्य-रूप का उपसंहार करने से सुषुप्त सा प्रतीत होता है । 

और जागृत होने पर, 

'मैं सुषुप्त था' 

-- यह कहने से पहले ही, उसे 'मैं जागृत होनेवाला हूँ,' इसका भान होता है, उस श्रीदक्षिणामूर्ति (गुरु-तत्त्व) को नमस्कार!

***

रस (आप, - जल-तत्त्व)

रूप (अग्नि तत्त्व),

स्पर्श (वायु तत्त्व),

श्रवण (आकाश तत्त्व),

और गन्ध (पृथ्वी तत्त्व),

इन पाँच तत्त्वों को ही तन्मात्र (quantesimal) कहा जाता है।  क्योंकि यही पाँचों, ज्ञानेन्द्रियों के इन्द्रिय-संवेदन, और पाँच सूक्ष्म महाभूतों के मध्य सम्पर्क का साधन होते हैं । इसी प्रकार सूक्ष्म चिदंश (चित्-अंश) को ही सन्मात्र (पुरुष) कहा जाता है, जो इस प्रकार से संसार में जागृत, स्वप्न तथा सुषुप्ति आदि दशाओं का उपभोग करता है ।

जब यह इन तीनों दशाओं में एक से मुक्त होकर किसी अन्य में प्रवेश करता है, और उस समय यदि उसे अपने श्री दक्षिणामूर्ति स्वरूप का भान रहता है तो जागृत होने से पूर्व ही उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जागृत, स्वप्न तथा सुषुप्ति इन तीनों ही दशाओं से आवरित होने पर भी वह स्वरूपतः अविकारी चैतन्य-मात्र है ।

--

तुलना करें :

जागृतादि त्रयोन्मुक्तं जागृतादिमयंस्तथा ।

ॐकारैकसुसंवेद्यं यत्पदं तन्नमाम्यहम् ।।

(माण्डूक्य उपनिषद् -- शाङ्करभाष्य भूमिका) 

***



Wednesday, 22 December 2021

Attention / Consciousness

Mind and the self.

--------------©---------------

This is based upon, and is inspired from a post written by me on Dec. 19th 2021, in my blog हिन्दी-का-ब्लॉग.

This is about Mind and the (individual) self, how and if they are related in any way to one-another.

The point under consideration is :

Mind is sensitivity / attention /consciousness.

The self is / about :

All that is experienced. 

Mind and the self are thus related through experience only, how-so-ever gross or subtle.

"Do I think?"

Alternatively, the question may be put also as :

Does "I" think?"

When one says : 

I walk, I eat, I come or go it is obvious / trivial that one that performs these actions is no doubt the body only.

But when it is said :

"I think",

Is that an easy problem like saying :

I walk, I eat, I come or I go ?

The body sure performs the actions like walking, eating, coming or going, but does the body do these actions voluntarily or on its own, without being prompted by the consciousness about them? Isn't there also the consciousness of these actions, associated with the body? There is this consciousness / awareness of all these activities that are done by, or by means of the body, and  associated with the same. And, in the absence of the same, one can't know or say if anything is being done by Who-so-ever.

The above actions, like walking, eating, coming or going could be said to have been done either  voluntarily or involuntarily in a habitual way.

But what about "thinking"?

Is thinking a voluntary or an involuntary activity?

Does thought / thinking takes place because of some unknown reasons or because one allows it done deliberately?

Isn't there the consciousness / attention / mind / awareness behind such an activity like thought / thinking?

In addition sometimes, there could be, what we call the absent-mindedness, the distraction, or the abstraction of the kind.

Is there really something / that, or someone / who, thinks?

How then one can say :

"I think"?

Is this statement logically, rationally correct or valid? Isn't this paradoxical contradictory or even absurd? 

Yesterday, while reading this half-written post to a friend, (our!) attention was drawn to the point :

What about the 'thinker'? 

Is 'I' as the 'thinker', not again a 'thought' only?

Could thought possibly work upon itself?

Could a thought think independently? 

There is this stream of 'thoughts', that is like a river and just as every part of the river is water only, the stream of thoughts and every smaller or a bigger part of this stream is but a thought only.

What about the 'thinker', that crops up while this stream flows?

Is this 'thinker' also a mere thought only when one is engrossed in thinking?

Or, later on, the idea that there is a 'thinker' other than the thinking, emerges out, and is at once takes control over the attention?

In this way, the fact that there is absolutely no independent existence of such a 'thinker', who is distinct and other than 'thinking' is lost sight of, and, the consciousness / attention / mind is the only underlying Reality where-in thought and the 'thinker' emerge in the same moment. The awareness is left out in abeyance.

Therefore the essential nature of this very idea :

'I think',

needs to be enquired into, and examined.

'I think' is the composit of two different things : one of them is - the object of thinking / thought, and another is -the consciousness / attention / mind, which is the underlying impersonal, and the time-less support and principle, where-from and where-in emerges out thought / thinking repeatedly.

Awareness / Mind / consciousness / attention is therefore the only ground, where the assumed 'thinker' comes into play, in its own apparent and independent existence, and then thought is split into 'I' / 'the thinker' and 'my' / 'my thought'.

Such distinction is the only cause how one is caught into the conflict between the 'thinker' and the 'thought'.

***








Sunday, 19 December 2021

ईशपुत्रशके बाण

गन्धवती और शिप्रा

----------©-----------

भूमिका :

इस पोस्ट का शीर्षक यद्यपि श्रीरमणगीता के द्वितीय अध्याय के प्रथम श्लोक से प्रेरित होकर लिया गया है, क्योंकि वहाँ 'बाण' का अभिप्राय है अंक ५, और गन्धवती और शिप्रा की इस कथा का मूल भगवान् शिव (महेश्वर)  तथा भगवान् श्रीकृष्ण के बीच हुए युद्ध से संबंधित है।

इस कथा को स्कन्द-पुराण के, 

आवन्त्यखण्ड-अवन्तीक्षेत्र-माहात्म्य 

में पढ़ा जा सकता है। 

इस कथा का संबंध बाणासुर से भी है और इसलिए इस पोस्ट के शीर्षक में बाण शब्द की प्रासंगिकता है। 

वर्ष 2019 में विधाता के अदृश्य विधान से प्रेरित होकर इन्दौर रोड पर स्थित होटल रुद्राक्ष के समीप इस स्थान पर रहने लगा था। ग्राम डेंढिया की सीमा में, किन्तु बालाजी-एवेन्यू नामक इस बसाहट में रहते हुए दो-तीन या अधिक बार गन्धवती के तट तक जाना हुआ था। इसे ही आजकल खान या गण्डकी के नाम से भी जाना जाता है। रुद्राक्ष होटल के समीप बने पुल के नीचे से जाने पर आगे शिप्रा है। गण्डकी और शिप्रा का संगम बिलकुल वैसा ही है, जैसा वाराणसी (काशी) में राजघाट के समीप वरुणा नदी का और (असी)गंगा का है ।

आज पुनः माता शिप्रा का स्मरण हुआ तो बहुत दिनों से मन में दबी यह उत्कंठा और उत्सुकता फूट पड़ी कि शिप्रा के माहात्म्य के बारे में स्कन्द-पुराण में प्राप्त वर्णन का पठन करूँ।

यह कथा उतनी ही पावन है जितनी कि स्वयं यह नदी अर्थात् माता शिप्रा!

***

 

Wednesday, 1 December 2021

सैरन्ध्री


समुद्रवसने देवि!

----------©---------

थोड़ी देर पहले अपने vinaysv ब्लॉग में उपरोक्त 'सैरन्ध्री' शीर्षक से एक पोस्ट लिखा। 

द्रौपदी के बारे में सोचते हुए ध्यान आया कि अधर्म के छल से जुए में दुर्योधन से हारने पर महाराज धर्मराज युधिष्ठिर ने इसे अधर्म को दे दिया अर्थात् बेच ही तो दिया था। जिसके मूल्य के रूप में उन्हें 'सत्यवादी' की उपाधि प्राप्त हुई थी।

इससे बहुत पहले भी, भगवान् श्रीराम ने लोकापवाद के भय से इसे अयोध्या से निर्वासित कर दिया था।

क्या मैं इसे किसी स्मारक को समर्पित कर सकता हूँ?

क्योंकि यह कलाकृति अब मेरे लिए पृथ्वी-माता की प्रतिमा की तरह पूज्य हो गई है।

***