आज की संस्कृत रचना
किमाश्चर्यमत्र !
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न अस्ति न भाति न दृश्यते न वर्तते
न एव करोति कर्म न गृह्णाति न गृह्यते ।
तदपि मोहयति सर्वान्मनो अनिर्वचनीयमहो !
अपि च स्वस्य वृत्तिः स्वेनैव प्रवर्तते यत् ।
प्रक्षिपति जाललूताम् लूतया तथैव जालम् ।
लूता असौ हि जालम् जालमसौ हि लूता ॥
निगदति यदात्मवेत्ता श्रुत्वापि मूढबुद्धिः ।
न युज्यते विचारं यतो मनोनिरोधः ॥
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अर्थ :
न तो इसका अस्तित्व है न यह दिखलाई देता है
न तो यह कर्म करता है न ग्रहण, - न ग्राह्य होता है ॥
तथापि सबको मोहित करता है अनिर्वचनीय मन अहो !
आत्मा की ही वृत्ति जिसका उद्गम आत्मा ही है ॥
मकड़ी फैलाती है जाल मकड़ी ही है जाल उसका
मकड़ी ही होती है जाल, जाल ही मकड़ी भी ॥
"समस्त वृत्तियाँ 'अहं'-वृत्ति पर आश्रित हैं ।
वृत्तियाँ ही मन है इस प्रकार जानो मन को ॥"
कहता है आत्मवेत्ता, सुनकर भी मूढ़बुद्धि
जिससे हो मनोनिरोध, विचार नहीं करता ॥
kimāścaryamatra !
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na asti na bhāti na dṛśyate na vartate |
na eva karoti karma na gṛhṇāti na gṛhyate ||
tadapi mohayati sarvān mano anirvacanīyamaho !
api ca svasya vṛttiḥ svenaiva pravartate yat ||
prakṣipati jālalūtām lūtayā tathaiva jālam |
lūtā asau hi jālam jālamasau hi lūtā ||
vṛttayastvahaṃ vṛttimāśritāḥ|
vṛttayo manaḥ viddhyahaṃ manaḥ ||
nigadati yadātmavettā śrutvāpi mūḍhabuddhiḥ|
na yujyate vicāraṃ yato manonirodhaḥ ||
--
Meaning :
(This 'Mind' ...)
Neither exists seen or is found as a thing.
Neither performs action, nor takes nor is grasped.
Even then fascinates all, Oh, Indescribable is the mind!
But the one's own thought that arises from the 'Self' only.
A spider projects a cobweb, which is its own cause.
The spider itself is the cobweb and cobweb itself the spider.
"Thoughts is the ego, for thoughts have ground in ego.
Thoughts is the mind, Know thus the mind!"
Teaches us the sage who knows the Truth,
Though is Listened to by the dull-witted,
Does not follow the enquiry to annihilate the mind.
किमाश्चर्यमत्र !
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न अस्ति न भाति न दृश्यते न वर्तते
न एव करोति कर्म न गृह्णाति न गृह्यते ।
तदपि मोहयति सर्वान्मनो अनिर्वचनीयमहो !
अपि च स्वस्य वृत्तिः स्वेनैव प्रवर्तते यत् ।
प्रक्षिपति जाललूताम् लूतया तथैव जालम् ।
लूता असौ हि जालम् जालमसौ हि लूता ॥
वृत्तयस्त्वहं वृत्तिमाश्रिताः।
वृत्तयो मनः विद्ध्यहं मनः ॥निगदति यदात्मवेत्ता श्रुत्वापि मूढबुद्धिः ।
न युज्यते विचारं यतो मनोनिरोधः ॥
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अर्थ :
न तो इसका अस्तित्व है न यह दिखलाई देता है
न तो यह कर्म करता है न ग्रहण, - न ग्राह्य होता है ॥
तथापि सबको मोहित करता है अनिर्वचनीय मन अहो !
आत्मा की ही वृत्ति जिसका उद्गम आत्मा ही है ॥
मकड़ी फैलाती है जाल मकड़ी ही है जाल उसका
मकड़ी ही होती है जाल, जाल ही मकड़ी भी ॥
"समस्त वृत्तियाँ 'अहं'-वृत्ति पर आश्रित हैं ।
वृत्तियाँ ही मन है इस प्रकार जानो मन को ॥"
कहता है आत्मवेत्ता, सुनकर भी मूढ़बुद्धि
जिससे हो मनोनिरोध, विचार नहीं करता ॥
kimāścaryamatra !
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na asti na bhāti na dṛśyate na vartate |
na eva karoti karma na gṛhṇāti na gṛhyate ||
tadapi mohayati sarvān mano anirvacanīyamaho !
api ca svasya vṛttiḥ svenaiva pravartate yat ||
prakṣipati jālalūtām lūtayā tathaiva jālam |
lūtā asau hi jālam jālamasau hi lūtā ||
vṛttayastvahaṃ vṛttimāśritāḥ|
vṛttayo manaḥ viddhyahaṃ manaḥ ||
nigadati yadātmavettā śrutvāpi mūḍhabuddhiḥ|
na yujyate vicāraṃ yato manonirodhaḥ ||
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Meaning :
(This 'Mind' ...)
Neither exists seen or is found as a thing.
Neither performs action, nor takes nor is grasped.
Even then fascinates all, Oh, Indescribable is the mind!
But the one's own thought that arises from the 'Self' only.
A spider projects a cobweb, which is its own cause.
The spider itself is the cobweb and cobweb itself the spider.
"Thoughts is the ego, for thoughts have ground in ego.
Thoughts is the mind, Know thus the mind!"
Teaches us the sage who knows the Truth,
Though is Listened to by the dull-witted,
Does not follow the enquiry to annihilate the mind.
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