इच्छा, आवश्यकता, सामर्थ्य और उपयोग
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प्राणिमात्र के जीवन में मन का रुझान इन चार तत्वों पर निर्भर करता है ।
बच्चा, युवा हो या वृद्ध सभी का जीवन इन चार प्रेरणाओं से संचालित होता है । बुद्धि के विकास के साथ मनुष्य इनमें से प्रत्येक को कम या अधिक महत्व देता है । समय के पैमाने पर भी इन चारों के महत्व में भिन्नता होती है । शरीर की आवश्यकताएँ होती हैं, मन की इच्छाएँ और बुद्धि की शक्ति / सामर्थ्य के अनुसार जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में दिखलाई देनेवाली संभावनाओं का उपयोग किया जाता है । इच्छा और बुद्धि जन्मजात भी होते हैं और समाज तथा परिवेश के साथ भी जन्म लेते हैं, उनके प्रभाव से ’मन’ को किसी विशिष्ट ढाँचे (माइन्ड-सेट) में ढाल देते हैं । समाज का हर मनुष्य एक-दूसरे से से प्रभावित होता है और उसे प्रभावित करता है । क्या इस पूरे चक्र < इच्छा, आवश्यकता, सामर्थ्य और उपयोग > की सीमाओं को मनुष्य स्वयं देख सकता है? या वह केवल इच्छा को सर्वाधिक महत्व देता हुआ, सुखी-दुखी होता रहता है? या किसी आदर्श, मान्यता, विश्वास, सिद्धान्त, या मत-विशेष में सर्वाधिक सुरक्षा या लाभ प्रतीत होने से उसका समर्थक होकर रह जाता है?
’जीवन में आगे बढ़ने’ की शिक्षा और आशीर्वाद भी प्रायः बड़े-बूढ़े देते हैं, उनकी शुभेच्छाओं पर संदेह करने का कोई कारण नहीं हो सकता, किन्तु यह ’आगे बढ़ना’ या विकास की नई ऊँचाइयाँ छूने का क्या अर्थ और प्रयोजन / औचित्य है?
हम नई प्रतिभाओं (बच्चों, युवाओं) से चमत्कृत होकर उन्हें प्रोत्साहित करते हैं उन्हें जो सम्मान, प्रशंसा, पुरस्कार मिलता है उससे एक ओर हमें भी खुशी अवश्य मिलती है किंतु हम इस तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि जीवन में सचमुच आगे बढ़ने में ’स्पर्धा’ या प्रतिद्वन्द्विता हमारी क्षमताओं को कुण्ठित ही करती है । तब हमारे लिए ’जीवन में आगे बढ़ने’ का अर्थ बस सफलता, उपलब्धि, सम्मान, यश और धन-संपत्ति / सत्ता और शक्ति पाना भर रह जाता है ! इस प्रकार जिन्हें हम ’जीवन में आगे बढ़ो’, 'उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ो' का आशीर्वाद देकर प्रोत्साहित करते हैं क्या वे इस अंधी दौड़ में शामिल होकर अंततः जीवन में सफल या असफल हों, केवल निराशा, अवसाद या रिक्तता ही नहीं अनुभव करने लगते हैं जिसे दूर करने के लिए वे ’नए उत्साह’ के साथ और अधिक, -सामर्थ्य से बहुत अधिक परिश्रम करते हुए जीवन के किसी मोड़ पर अचानक विदा हो जाते हैं, इतिहास बन जाते हैं, या बस विस्मृत हो जाते हैं । क्या यह जानना आवश्यक नहीं कि इस सबका क्या प्रयोजन है, और जीवन में रिक्तता क्यों है? -क्यों अनुभव होती है, क्यों आती है?
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प्राणिमात्र के जीवन में मन का रुझान इन चार तत्वों पर निर्भर करता है ।
बच्चा, युवा हो या वृद्ध सभी का जीवन इन चार प्रेरणाओं से संचालित होता है । बुद्धि के विकास के साथ मनुष्य इनमें से प्रत्येक को कम या अधिक महत्व देता है । समय के पैमाने पर भी इन चारों के महत्व में भिन्नता होती है । शरीर की आवश्यकताएँ होती हैं, मन की इच्छाएँ और बुद्धि की शक्ति / सामर्थ्य के अनुसार जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में दिखलाई देनेवाली संभावनाओं का उपयोग किया जाता है । इच्छा और बुद्धि जन्मजात भी होते हैं और समाज तथा परिवेश के साथ भी जन्म लेते हैं, उनके प्रभाव से ’मन’ को किसी विशिष्ट ढाँचे (माइन्ड-सेट) में ढाल देते हैं । समाज का हर मनुष्य एक-दूसरे से से प्रभावित होता है और उसे प्रभावित करता है । क्या इस पूरे चक्र < इच्छा, आवश्यकता, सामर्थ्य और उपयोग > की सीमाओं को मनुष्य स्वयं देख सकता है? या वह केवल इच्छा को सर्वाधिक महत्व देता हुआ, सुखी-दुखी होता रहता है? या किसी आदर्श, मान्यता, विश्वास, सिद्धान्त, या मत-विशेष में सर्वाधिक सुरक्षा या लाभ प्रतीत होने से उसका समर्थक होकर रह जाता है?
’जीवन में आगे बढ़ने’ की शिक्षा और आशीर्वाद भी प्रायः बड़े-बूढ़े देते हैं, उनकी शुभेच्छाओं पर संदेह करने का कोई कारण नहीं हो सकता, किन्तु यह ’आगे बढ़ना’ या विकास की नई ऊँचाइयाँ छूने का क्या अर्थ और प्रयोजन / औचित्य है?
हम नई प्रतिभाओं (बच्चों, युवाओं) से चमत्कृत होकर उन्हें प्रोत्साहित करते हैं उन्हें जो सम्मान, प्रशंसा, पुरस्कार मिलता है उससे एक ओर हमें भी खुशी अवश्य मिलती है किंतु हम इस तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि जीवन में सचमुच आगे बढ़ने में ’स्पर्धा’ या प्रतिद्वन्द्विता हमारी क्षमताओं को कुण्ठित ही करती है । तब हमारे लिए ’जीवन में आगे बढ़ने’ का अर्थ बस सफलता, उपलब्धि, सम्मान, यश और धन-संपत्ति / सत्ता और शक्ति पाना भर रह जाता है ! इस प्रकार जिन्हें हम ’जीवन में आगे बढ़ो’, 'उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ो' का आशीर्वाद देकर प्रोत्साहित करते हैं क्या वे इस अंधी दौड़ में शामिल होकर अंततः जीवन में सफल या असफल हों, केवल निराशा, अवसाद या रिक्तता ही नहीं अनुभव करने लगते हैं जिसे दूर करने के लिए वे ’नए उत्साह’ के साथ और अधिक, -सामर्थ्य से बहुत अधिक परिश्रम करते हुए जीवन के किसी मोड़ पर अचानक विदा हो जाते हैं, इतिहास बन जाते हैं, या बस विस्मृत हो जाते हैं । क्या यह जानना आवश्यक नहीं कि इस सबका क्या प्रयोजन है, और जीवन में रिक्तता क्यों है? -क्यों अनुभव होती है, क्यों आती है?
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