Saturday, 29 April 2017

इच्छा, आवश्यकता, सामर्थ्य और उपयोग

इच्छा, आवश्यकता, सामर्थ्य और उपयोग
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प्राणिमात्र के जीवन में मन का रुझान इन चार तत्वों पर निर्भर करता है ।
बच्चा, युवा हो या वृद्ध सभी का जीवन इन चार प्रेरणाओं से संचालित होता है । बुद्धि के विकास के साथ मनुष्य इनमें से प्रत्येक को कम या अधिक महत्व देता है । समय के पैमाने पर भी इन चारों के महत्व में भिन्नता होती है । शरीर की आवश्यकताएँ होती हैं, मन की इच्छाएँ और बुद्धि की शक्ति / सामर्थ्य के अनुसार जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में दिखलाई देनेवाली संभावनाओं का उपयोग किया जाता है । इच्छा और बुद्धि जन्मजात भी होते हैं और समाज तथा परिवेश के साथ भी जन्म लेते हैं, उनके प्रभाव से ’मन’ को किसी विशिष्ट ढाँचे (माइन्ड-सेट) में ढाल देते हैं । समाज का हर मनुष्य एक-दूसरे से से प्रभावित होता है और उसे प्रभावित करता है । क्या इस पूरे चक्र < इच्छा, आवश्यकता, सामर्थ्य और उपयोग > की सीमाओं को मनुष्य स्वयं देख सकता है? या वह केवल इच्छा को सर्वाधिक महत्व देता हुआ, सुखी-दुखी होता रहता है? या किसी आदर्श, मान्यता, विश्वास, सिद्धान्त, या मत-विशेष में सर्वाधिक सुरक्षा या लाभ प्रतीत होने से उसका समर्थक होकर रह जाता है?
’जीवन में आगे बढ़ने’ की शिक्षा और आशीर्वाद भी प्रायः बड़े-बूढ़े देते हैं, उनकी शुभेच्छाओं पर संदेह करने का कोई कारण नहीं हो सकता, किन्तु यह ’आगे बढ़ना’ या विकास की नई ऊँचाइयाँ छूने का क्या अर्थ और प्रयोजन / औचित्य है?
हम नई प्रतिभाओं (बच्चों, युवाओं) से चमत्कृत होकर उन्हें प्रोत्साहित करते हैं उन्हें जो सम्मान, प्रशंसा, पुरस्कार मिलता है उससे एक ओर हमें भी खुशी अवश्य मिलती है किंतु हम इस तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि जीवन में सचमुच आगे बढ़ने में ’स्पर्धा’ या प्रतिद्वन्द्विता हमारी क्षमताओं को कुण्ठित ही करती है । तब हमारे लिए ’जीवन में आगे बढ़ने’ का अर्थ बस सफलता, उपलब्धि, सम्मान, यश और धन-संपत्ति / सत्ता और शक्ति पाना भर रह जाता है ! इस प्रकार जिन्हें हम ’जीवन में आगे बढ़ो’, 'उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ो' का आशीर्वाद देकर प्रोत्साहित करते हैं क्या वे इस अंधी दौड़ में शामिल होकर अंततः जीवन में सफल या असफल हों, केवल निराशा, अवसाद या रिक्तता ही नहीं अनुभव करने लगते हैं जिसे दूर करने के लिए वे ’नए उत्साह’ के साथ और अधिक, -सामर्थ्य से बहुत अधिक परिश्रम करते हुए जीवन के किसी मोड़ पर अचानक विदा हो जाते हैं, इतिहास बन जाते हैं, या बस विस्मृत हो जाते हैं । क्या यह जानना आवश्यक नहीं कि इस सबका क्या प्रयोजन है, और जीवन में रिक्तता क्यों है? -क्यों अनुभव होती है, क्यों आती है?
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Thursday, 27 April 2017

किमाश्चर्यमत्र ! kimāścaryamatra !

आज की संस्कृत रचना
किमाश्चर्यमत्र  !
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न अस्ति न भाति न दृश्यते न वर्तते
न एव करोति कर्म न गृह्णाति न गृह्यते ।
तदपि मोहयति सर्वान्मनो अनिर्वचनीयमहो !
अपि च स्वस्य वृत्तिः स्वेनैव प्रवर्तते यत् ।
प्रक्षिपति जाललूताम् लूतया तथैव जालम् ।
लूता असौ हि जालम् जालमसौ हि लूता ॥
वृत्तयस्त्वहं वृत्तिमाश्रिताः।
वृत्तयो मनः विद्ध्यहं मनः ॥
निगदति यदात्मवेत्ता श्रुत्वापि मूढबुद्धिः ।
न युज्यते विचारं यतो मनोनिरोधः ॥
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अर्थ :
न तो इसका अस्तित्व है न यह दिखलाई देता है
न तो यह कर्म करता है न ग्रहण, - न ग्राह्य होता है  ॥
तथापि सबको मोहित करता है अनिर्वचनीय मन अहो !
आत्मा की ही वृत्ति जिसका उद्गम आत्मा ही है ॥
मकड़ी फैलाती है जाल मकड़ी ही है जाल उसका
मकड़ी ही होती है जाल, जाल ही मकड़ी भी ॥
"समस्त वृत्तियाँ 'अहं'-वृत्ति पर आश्रित हैं ।
वृत्तियाँ ही मन है इस प्रकार जानो मन को  ॥"
कहता है आत्मवेत्ता, सुनकर भी मूढ़बुद्धि
जिससे हो मनोनिरोध, विचार नहीं करता  ॥   

kimāścaryamatra  !
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na asti na bhāti na dṛśyate na vartate |
na eva karoti karma na gṛhṇāti na gṛhyate ||
tadapi mohayati sarvān mano anirvacanīyamaho !
api ca svasya vṛttiḥ svenaiva pravartate yat ||
prakṣipati jālalūtām lūtayā tathaiva jālam |
lūtā asau hi jālam jālamasau hi lūtā ||
vṛttayastvahaṃ vṛttimāśritāḥ|
vṛttayo manaḥ viddhyahaṃ manaḥ ||
nigadati yadātmavettā śrutvāpi mūḍhabuddhiḥ|
na yujyate vicāraṃ yato manonirodhaḥ ||
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Meaning :
(This 'Mind' ...)
Neither exists seen or is found as a thing.
Neither performs action, nor takes nor is grasped.
Even then fascinates all, Oh, Indescribable is the mind!
But the one's own thought that arises from the 'Self' only.
A spider projects a cobweb, which is its own cause.
The spider itself is the cobweb and cobweb itself the spider.
"Thoughts is the ego, for thoughts have ground in ego.
Thoughts is the mind, Know thus the mind!"
Teaches us the sage who knows the Truth,
Though is Listened to by the dull-witted,
Does not follow the enquiry to annihilate the mind.    



Tuesday, 25 April 2017

धर्म और अध्यात्म

धर्म और अध्यात्म
प्रश्न : समाज, राष्ट्र और विश्व के सन्दर्भ में :
धर्म और अध्यात्म में क्या अंतर है? क्या अध्यात्म धर्म का एक महत्वपूर्ण पक्ष है? या क्या, धर्म अध्यात्म का एक महत्वपूर्ण पक्ष है? या,क्या इन दोनों का परस्पर कोई संबंध ही नहीं है? क्या धर्म पूरी तरह से अध्यात्मरहित हो, यह संभव है? क्या अध्यात्म पूरी तरह से धर्मरहित हो यह संभव है?
उत्तर (१) अति संक्षिप्त में : अपने कर्तव्यों का निर्वहण करना धर्म है और परमचेतन को अनुभव करने की ललक आध्यात्मिकता है । जो आध्यात्मिक होता है वो धार्मिक भी होता है और जो धार्मिक होता है वह धीरे-धीरे आध्यात्मिक बन जाता है ।
प्रश्न : आप तो धर्म को परिभाषित करने लगे ! क्या भिन्न-भिन्न धर्मों के अनुयायी भी ऐसा ही सोचते हैं ?
उत्तर (१) : भिन्न-भिन्न धर्मों से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर (२) : वह, जिसका रुझान अध्यात्म की ओर होता है, ज़रूरी नहीं कि धार्मिक हो ही, ... यहाँ धर्म से मेरा मतलब है कर्म-काण्ड और रीति-रिवाज । धीरे-धीरे कैसे कोई आध्यात्मिक बन सकता है ... यह तो अपने भीतर से ही आता है । (अध्यात्म और धर्म) दोनों यद्यपि परस्पर सामञ्जस्य में कार्य करते हैं किंतु आवश्यक नहीं कि वे परस्पर निर्भर भी हों ही, इसे ’वेन-डायाग्राम’ की सहायता से समझा जा सकता है ।
उत्तर : वेन डायाग्राम - (इमेज संलग्न है ।)
उत्तर (१) : धर्म के अनुवाद के लिए ’रिलिजन’ शब्द का प्रयोग करने से असहमत हूँ । इसके लिए ’राइटियसनेस’ या ऐसा ही कोई दूसरा शब्द अधिक उपयुक्त होगा । और उसके लिए मेरा उत्तर यही होगा कि यदि आपके प्रश्न में ’धर्म’ का तात्पर्य उपासना-पद्धति  और अध्यात्मिकता का तात्पर्य स्पिरिच्युअलिटी है, तो मैं कहना चाहूँगा कि आध्यात्मिक रुचि रखनेवाला कोई किसी उपासना-पद्धति का आग्रह नहीं करेगा, जबकि किसी विशिष्ट उपासना-पद्धति का पालन / आग्रह करनेवाला व्यक्ति आध्यात्मिक हो ही, यह आवश्यक नहीं ।
रिलीजियस होने का मतलब है किसी विशिष्ट ’विश्वास’ / मान्यता का पालन / आग्रह, जबकि आध्यात्मिक होने का मतलब है सत्य क्या है इसकी खोज में रुचि और प्रयास । ... और धार्मिक होने का मतलब है कर्तव्यपरायण होना । (आंग्लभाषा के प्रयोग में अगर मेरी त्रुटि हो तो क्षमा करें )
उत्तर : आपकी आंग्लभाषा में कोई त्रुटि नहीं है, मेरी आंग्लभाषा भी ऐसी ही है । आपने जो कहा :
"आध्यात्मिक रुचि रखनेवाला कोई किसी उपासना-पद्धति का आग्रह नहीं करेगा, जबकि किसी विशिष्ट उपासना-पद्धति का पालन / आग्रह करनेवाला व्यक्ति आध्यात्मिक हो ही, यह आवश्यक नहीं ।"
पूर्णतः सत्य है । और इससे ’रिलीजन’ के अर्थ में ’धर्म’ और अध्यात्म (स्पिरिच्युअलिटी) का भेद पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है । साधुवाद !
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Monday, 24 April 2017

कर्म और प्रयास

कर्म और प्रयास
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कर्म स्वभाव है, - मनुष्यमात्र क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह पाता । शरीर से न भी करे तो भी शरीर (साँस / प्राण) तो सतत कर्म में संलग्न है, जब तक मनुष्य जीवित है । या कहें कि तब तक । और ऊपरी तौर पर शरीर कर्म में संलग्न न भी हो तो या तो मनुष्य निद्रित या मूर्च्छित होता है, या किन्हीं विचारों के माध्यम से उसका मन कर्म में संलग्न होता ही है । यही मन जब कर्म को किसी ध्येय की प्राप्ति के साधन की तरह प्रयुक्त करता है तो इसे प्रयास कहते हैं । ध्येय सदा किसी काल्पनिक भविष्य में होता है और पूर्ण होने पर उसे ’वर्तमान’ में पाया जाता है । अतीत से भविष्य के लिए प्रेरणा मिलती है । कर्म और प्रयास दोनों का परिणाम / फल शुभ या अशुभ हो सकता है । संक्षेप में शुभ का परिणाम / फल शुभ और अशुभ का अशुभ तथा मिश्रित का मिश्रित होता है । शुभ से शान्ति, सुख और सन्तुष्टि मिलती है, अशुभ से अशान्ति, दुःख और असन्तुष्टि । मिश्रित से दुविधा, संशय, आशंकाएँ, विषाद, भय और व्याकुलता पैदा होते हैं । वे क्षणिक उत्तेजना से बुद्धि को मोहित कर ’सुख’ का आभास भी पैदा कर सकते हैं और प्रायः मनुष्य दुर्भाग्यवश इसे ’ध्येय’ की तरह ग्रहण कर लेता है । तब प्रयास किया जाता है । मनुष्य का इतिहास, वर्तमान और भविष्य शेष कथा है ।
(अंग्रेज़ी रूपांतरण नीचे देखें)
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Activity and Effort 
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(See below the English Translation of the above Hindi text )
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Activity is the nature of life and living beings - No one can live without activity of one or the other kind. Though externally one may look not engaged in any activity and just sitting still or idle, the mind incessantly keeps working internally as long one is alive. The breath continues working without effort on the part of the individual . No deliberate effort could stop breath from its natural flow, nor force upon it to take place. When one is not asleep or in a swoon, even then the thoughts keep the mind busy all the time though one may like or not. When the same mind that is caught in thought involuntarily without desire or aversion, without like or dislike, uses the thought as a means to achieve some goal, this is called effort. The goal happens to be in some imaginary future and always fulfilled in 'present' which is not imaginary. The Past prompts the future. The results of activity or effort could be auspicious or inauspicious, good or bad, pleasant or unpleasant, sweet or sour. It depends. In summary, The good results in good, while the bad in the bad, the evil in the evil. and likewise the mixed in the mixed. The good results in peace, happiness, joy and satisfaction. The bad results in misery, sorrow, unhappiness, and dissatisfaction, frustration. The mixed result in doubt, agony, anxiety, fear, depression, despair. Though often they seem to give a thrill also sometimes, that is mistaken for pleasure. Such a momentary thrill, excitement may look like hope and progress, development etc. and unfortunately one accepts this as a challenge, as a goal for which one makes more and more efforts of which some succeed while others fail. The past, future and the present are the rest of the history.
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Sunday, 16 April 2017

Easter, Estrogen, Androgen

ऋग्वेद > ṛgveda 
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> स्तृभिः > stṛbhiḥ > by / by means of, stars (plural) > Cosmic Female Principle
 > तारकाः > tārakāḥ > stars (feminine, plural)
 > स्त्रीभिः > strībhiḥ > by / by means of, women (plural) > Cosmic Female Principle
 > अव स्तृ जन् > ava stṛ jan > Estrogen (hormone)
>  इन्द्रो जन् > indro jan > Androgen (hormone)
Indra has been the देवता > devatā - principle पुरुष > puruṣa (male) aspect,  
तारकाः > tārakāḥ / स्तृ > stṛ is the प्रकृति > prakṛti > female aspect of Cosmic Creation / Manifestation.
For ऋग्वेद > ṛgveda and all other वेद  > veda maintain that Creation~Manifestation~Dissolution of  Existence is a Cosmic Rhythm (ऋतं).  
जन् > जनयति > causes > gives birth . 
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Saturday, 15 April 2017

The Sun rises in the East....

The Sun rises in the East.
The very name of awakening is rising up of the Sun.
Ishtar (The Egyptian Goddess) was the इष्टा / iṣṭā
- ईष्टा / īṣṭā the Vedik देवी / devī .
इश् > iś , > ईश् > īś , > ईशिता > īśitā
are synonymous of the Governing Principle the governs / rules over the Existence.
इष्ट / iṣṭa , इष्टा / iṣṭā , ईष्टा / īṣṭā , all come from the stem :
इश् > iś ,
that is again synonymous with उष् > uṣ , which is the stem of another Egyptian Goddess उषा / uṣā , ऊषा / ūṣā > also written as Uzza (another Egyptian Goddess)
Al Uzza, Al-Manat and Al-lat
or,
अल् / al , अल्का  alkā  / अलका  alakā that becomes 'all' is a prefix-stem (उपसर्ग)
and could be obviously declined as il / ul which are the Arabic / Persian prefixes.
 अल् / al is though another प्रत्याहार of  पाणिनी / pāṇinī , The distinguished grammarian of Sanskrit, and is like an acronym the short form that indicates the letters वर्ण / varṇa :
अ to ह of  His अक्षरसमाम्नाय .
उ / 'u' on the other hand is the middle of ॐ / om̐ (aum) and is the expression of all manifestation.
 Uzza  उष् > uṣ , उषा / uṣā , ऊषा / ūṣā, Manat >  म्ना / mnā > manifestation, and
and Lat  > लस् / लस्  (लास्ये) > las / las (lāsye) , to play / dance,
are the three forms of  देवी / devī , ईशिता > īśitā who is a इष्टा / iṣṭā , ईष्टा / īṣṭā.
म्ना / mnā, मा / मीयते, mā / mīyate , मन् > मनाति, man > manāti give us the word 'minute' and measurements of time and space.
Playful nature of देवी / devī , ईशिता > īśitā  इष्टा / iṣṭā , ईष्टा / īṣṭā .
Easter is the Divine aspect  ललिता / lalitā
Again इश् / iś (stem) , इष्टारः / iṣṭāraḥ (those who worship / desire, plural) indicate worship and desire was synonymous in Vedika parlance. And One who grants our wishes is worshiped.
To me Easter means all this.

Happy Easter!
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Wednesday, 12 April 2017

अहम् शून्यं न वा एकम्

अहम् शून्यं न वा एकम्
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A Sanskrit composition freshly done today :
अहम् शून्यं न वा एकम्
यदा यदा हि परं अहम्  |
यदा एकं अद्वितीयं
तदा परं-अपरं  अहम् ||
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अर्थ :
'मैं' न तो शून्य अथवा एक हूँ जब जब मैं सत्मात्र (परब्रह्म) होता हूँ |
(किन्तु) जब एक की तरह समझा जाता हूँ तब अद्वितीय होता हूँ |
तब मैं परं तथा अपरं दोनों ही होता हूँ |
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English version: 
ahaM shUnyaM na wA ekaM, yadA yadA hi paraM ahaM |
yadA ekaM advitIyaM, tadA paraM-aparaM ahaM ||
Meaning : I am not zero ('nothing' of bauddha) or 'one' (of VedAntins, or of those who proclaim 'He is one'), whenever I am Supreme.
Still when I am 'one', I am unique without the other. Yet I am the 'other' as well > para-ahaM is akin to para-brahma / para-Atman, while apara-ahaM is to multitude of many 'selves'.
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Aperahama is Abraham in Maori (?)
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Is He 'He'?
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Come Feb. 1945, when I paid my first visit to the Holy Hill (Lord Arunacheshwara).
Though I was already somewhat aware about the Spiritual elder brother of Bhagavan Sri Ramana Maharshi, who had, referring to Sri Bhagavan as his elder brother had remarked while addressing a visitor devotee in these words :
"I earn 1000/- Rupees per month, my elder brother earns 10,000/- Rupees per month, why don't you earn at least 100/- Rupees per month?"
He was hinting at the spiritual prosperity.
His name was 'Sheshadri Swami', And one can sure visit the Ashram that came around in His name, adjacent to Sri Ramana Ashram in Tiruvannamalai.
I got a small book in Sri Ramanashramam bearing the title :
"Is He He?"
At once it struck me what might be asked / hinted at in that short book but full of deepest core-truth about the Supreme Reality.
I don't remember well what has been enunciated or said in that book, but the question that arose in my mind was :
Is The Supreme Reality / Ishvara could be called 'He'?
These deep and core ontological questions that are not superficial philosophical intellectual jugglery but of tremendous importance for any sincere serious seeker have always been discussed and raised in the teachings of Great Scholars like Shankaracharya and other great luminaries / Rishis of the yore.
Modern philosophy looks just a pale imitation of that.
In the same vein 'devI-atharvasheershaM' begins with :
DevI said : "....brahmAbrahmaNI, shUnyaM chAshUnyaM cha..."
Devi asserted that the Supreme being is 'shUnya' as well as 'ashUnya', thus eliminating the contradiction that is caused by these words.
DevI again asserted :
"I am Brahman as well a-brahman."
The Rishi were aware that 'Brahman' and 'a-brahman are 'concepts' only in the same way, as are 'zero' and 'one', So The Supreme Being could not be properly described as 'One' either.
And the categorization like brahma- parabrahma- aparabrahma is as much fictitious as is saying : He is 'He' or 'She', 'This' or 'That', 'Zero', 'One' or a multitude of names and forms.
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