Path-less Land...
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The Introvert Mind.
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All admit, there is something, such a thing, that is called:
"The Mind"
When-ever this "Mind" is described as some-thing that exists, is it not the mind itself, that describes itself? Is not this really a paradox, a contradiction?
Is the One that is described as "Mind", and the one, that describes this "Mind", one and the same, or mutually exclusive, and truly very different from one-another?
That is the very essential and fundamental question and the conflict from where begins all confusion and differences, opinions and different views.
Again, and as soon as this thing, the "Mind" is designated and categorized further into the terms like "my mind", and "your mind", this conflict becomes manifold, even more complex.
Mind is consciousness and Conversely :
Consciousness is Mind. For they are but two aspects of the same and unique reality. One can't exist in the absence of the other.
As soon as this "Mind" / the "Consciousness" is given the over-tone of "me", gets the color of "me", it loses all its invincibility, becomes a mere person, "consciousness" or a "mind".
Is not "my" a thought only, that corrupts and distorts this very "Mind" / "Consciousness", that is essentially incorruptible, pristine and pure awareness only?
Before the arrival of this thought, the "me", is there any possibility, ground or place for conflict and ignorance?
Thought / "me" itself then leads the "Mind" or the "Consciousness" into believing :
"my" mind is extrovert or introvert.
The ridiculous fact is :
"me" itself is an idea, thought, concept, only.
Is not thought itself in general, and also the thought in the garb of "me", the real hurdle, the only obstacle, the very hindrance in the way of Truth?
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What is Eternal?
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Our honorable Prime Minister of India said : தமிழ் is (an) eternal language.
I trust Him, yet I would like to point out that தமிழ் is not the only eternal language.
Like 'द्रविड', The very word 'தமிழ்' is also a Sanskrit word indeed.
I do agree, தமிழ் / 'द्रविड' is also as much ancient, classic and old as is Sanskrit.
But the other South Indian languages like Malayalam, Telugu and Kannada are not of lesser.
The first two தமிழ் words I came across and learnt were :
அது and இது
These are the two pronouns in தமிழ் that are phonetically as well structurally closely related to their Sanskrit equivalent like :
इदं and अदस्
I don't know what words are there in other South Indian languages that are equivalent to these two words / pronouns.
And I learnt these two and other few தமிழ் words while trying to study the literature of Sri Ramana Maharshi.
Kavyakanta Sri Ganapati Muni, His esteemed disciple, has categorically applied the word 'द्राविड' for தமிழ்.
While Sri Ganapati Muni has extolled தமிழ், He has also put it on the same pedestal with Sanskrit.
सद्दर्शनम् द्राविडवाङ्निबद्धम् महर्षिणा श्री रमणेन शुद्धम् ।।
प्रबन्धमुत्कृष्टममर्त्यवाण्यामनूद्य वासिष्ठमुनिर्व्यतानीत् ।।४१।।
No doubt I felt elated when I knew how our Honorable P. M. Sri Modiji is trying to draw our attention that all our Indian languages are Great and deserve due respect and love from all of us Indians.
The point is :
Collectively, all these South Indian languages together, are known as Dravid, while தமிழ் being only one of them.
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Religion* or Dharma*?
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Faith* - Faith is synonymous with affection, Belief, Trust and the natural feeling of one-ness to one and all, the whole existence, not only of one's own caste, creed, people, tribe, God as well, but Life itself as a whole.
Conscience* - Conscience is synonymous with the due care, sensitivity and attention that comes out from the observation of Life, World and oneself.
In his English-Hindi Dictionary Kamil Bulke has translated this word "conscience" as :
अंतःकरण, सदसद्विवेक (सत्-असत् विवेक)
Though in the vedantika parlance, there is yet another word 'discrimination' also for "विवेक", between the सत् (Real) and the असत् (Un-real).
I can also see that this word could be related, or cognate / सज्ञात / सजात of the Sanskrit root-verb word संश् / शंस् also. (This appeals well to my conscience).
I can therefore unhesitatingly use this word / term as the equivalent of the Sanskrit word : "धर्म".
Religion* - Religion is synonymous with the tradition, rituals, practices and activities that one comes up through while being brought up in a culture, society or even the family.
Now, while I have been given by my friends and well-wishers, -a tremendously difficult task to perform, I have also a chance to start the same from quite a new approach and a new beginning.
In brief, I have been designated the whole and sole 'soul' of this WhatsApp group :
"Truth is Path-less Land."
In a way, -- because of their love and regard, I have myself entered this trouble.
Why?
Because I felt the deep significance of this.
I have the urge, interest and I am also quite enthusiastic about the same.
I never expect that I become kind of a leader of a religious or spiritual movement, - any. Not in the least as a traditional Teacher or Guru.
Simply, just because I do not think that I am suitable or appropriately qualified for this.
For my entire life so far, I've been, and even now, I am a seeker only, and I would like to say so. This, I have already pointed out in my blogspot e-blogger profile :
vinaykvaidya,
I am strictly of the view that one has to find out one's own approach and way to Reality.
In this endeavor, I think, according to one's temperament, Mind-set, mental orientation, one may find a Religion or Tradition quite suitable, helpful for the spiritual growth and though one can attain the Goal, -the Supreme Truth, a sense, meaning, the Ultimate value of Life, one would be so utterly humble that could not impose and or exercise authority, or dictate terms upon the fellow seekers.
I felt like make it clear so that I can perform my job well.
Just for the record.
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'मैं', 'मन' और विचार
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अतीत और स्मृति क्या दो अलग अलग वस्तुएंँ हैं?
अतीत स्मृति है, और स्मृति ही अतीत है।
किन्तु विचार ही वह सूत्र है जिसका एक सिरा अतीत, तो दूसरा सिरा स्मृति है। क्या विचार के सक्रिय होते ही स्मृति का कार्य प्रारंभ नहीं हो जाता? और क्या स्मृति के सक्रिय होते ही विचार का कार्य प्रारंभ नहीं हो जाता? क्या किसी तथाकथित अतीत के अभाव में इनमें से किसी का भी कार्य हो पाना संभव है?
किन्तु अतीत का विचार, 'समय' नामक जिस आभासी सत्यता को अस्तित्व प्रदान करता है, क्या ऐसी किसी वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व होता भी है?
फिर भी यह तो मानना ही होगा और इसमें सन्देह भी नहीं है कि विचार का एक तात्कालिक और शाब्दिक अस्तित्व तो होता ही है। इस प्रकार, विचार के होने में जो समय व्यतीत होता है, उस समय की भौतिक सत्यता से इनकार नहीं किया जा सकता। इस समय को क्षणों, पलों, मिनटों आदि में मापा जा सकता है, और इसलिए कोई विचार अल्पकालिक और कोई अपेक्षतया दीर्घकालिक भी हो सकता है। क्या समय का यह छोटा या बड़ा प्रकार घटना के रूप में ही नहीं होता?
किन्तु अतीत को स्मरण करते समय क्या समय इस प्रकार से छोटा या बड़ा अनुभव होता है?
शायद यह कहा जा सकता है कि समय की यह लंबाई, या यह अंतराल, वस्तुतः काल्पनिक ही होता है।
इसकी तुलना में विचार द्वारा लिया जानेवाला समय काल्पनिक न होकर भौतिक पैमाने पर मापनीय एक अन्तराल होता है।
'मन', 'मैं' और 'विचार'
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'मन', 'मैं' और 'विचार' क्या भिन्न भिन्न और / या एक दूसरे पर निर्भर, और / या एक दूसरे से स्वतंत्र वस्तुएँ हैं? जैसे शरीर को 'मेरा' कहा जाता है, उसी प्रकार जाने-अनजाने ही 'मन' को भी कभी कभी 'मैं' और कभी कभी 'मेरा' नहीं कहा जाता? किन्तु स्मृति या विचार, भावना या बुद्धि के बारे में ऐसी कोई दुविधा नहीं होती। उन्हें हमेशा ही 'मेरा' ही कहा जाता है, 'मैं' नहीं! 'मन' नामक वस्तु क्या स्मृति या विचार, भावना या बुद्धि ही नहीं होती? स्पष्ट है, यद्यपि 'मन' को भी कभी कभी 'मेरा' कहा जाता है, किन्तु कभी कभी 'मैं' को 'मन' या / और 'मन' को 'मैं' भी कह दिया जाता है। जब 'मन' को अतीत या स्मृति से संबंधित कर लिया जाता है, तब कहा जाता है : 'मन' चिन्तित, प्रसन्न, दुःखी या सुखी था। किन्तु जब 'मन' को इस क्षण या वर्तमान से जोड़कर देखा जाता है तो उसे 'मैं' कहा जाता है। 'मन' के साथ यह दोहरा व्यवहार ही 'मैं' नामक वस्तु की पहचान में त्रुटि पैदा होने का कारण होता है।
क्या 'मन', 'मैं' है?
और, क्या 'मैं', 'मन' है?
दो महान गणितज्ञों, देकार्त (Descartes) की स्थापनाओं और कुर्ट गॉडेल (Kurt Godel) की विवेचनाओं (deduction) में इसलिए परस्पर विसंगति है। किन्तु दोनों ही वैचारिकता और बौद्धिकता तक सीमित हैं।
देकार्त के अनुसार :
मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ। यह आभासी सत्य है। वास्तव में मैं हूँ, इसलिए मैं सोचता / नहीं सोचता हूँ।
इसमें एक विसंगति यह भी है कि 'मैं' नामक वस्तु का सोचने या विचार से कोई संबंध ही नहीं हो सकता। सोचना अर्थात् विचार करना 'मन' का कार्य है, न कि 'मैं' के द्वारा किया जानेवाला / होनेवाला कोई कार्य ।
कुर्ट गॉडेल के अनुसार :
कोई भी और प्रत्येक ही स्व-सापेक्ष वक्तव्य अधूरा और आंशिक होता है।
वैसे भी 'मन' की योग्यता भी नहीं, और उसे अधिकार भी नहीं कि वह 'मैं' शब्द का प्रयोग करे।
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ज्ञान / ज्ञात की मृत्यु
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कठोपनिषद् को सर्वथा नये सिरे से पढ़ना प्रारंभ किया।
कठोपनिषद् में कथा का नायक वाजश्रवा का पुत्र, आरुणि है। उसका एक नाम उशना है, जिसका उल्लेख गीता अध्याय १० के इस श्लोक में भी है :
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय।।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कवि।।३७।।
वैसे गीता में उक्त श्लोक में वर्णित उशना कवि, दैत्यों के आचार्य शुक्र भी हैं, जिनका नाम भृगु या गौतम है, और जिन्हें परशुराम के रूप में भी जाना जाता है।
छमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का रहीम हरि को घट्यौ, जो भृगु मारी लात।।
किसी पुराकल्प में एक बार इन्द्र और देवताओं से डरकर दैत्यों ने रक्षा के लिए उनके आचार्य शुक्र, भृगु के आश्रम में शरण ली। उस समय भृगु महर्षि अपने किसी कार्य से आश्रम से बाहर गए हुए थे। उनकी पत्नी आश्रम में थी, जिसने दैत्यों को आश्रम में छिपने और सुरक्षित रहने में सहायता की। तब भगवान् विष्णु ने चक्र से उसका सिर काट दिया। इस पर भृगु क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने भगवान् विष्णु की छाती पर लात मारकर उन्हें यह शाप दिया कि त्रेतायुग में उन्हें भी पत्नी से दूर होने का अत्यन्त कष्ट भोगना होगा। त्रेतायुग आने पर भगवान् विष्णु (हरि) का राम के रूप में अवतार हुआ। रावण उनकी पत्नी को हर ले गया।
उपनिषदों और पुराणों में, यहाँ तक कि वेदों में भी ऋषियों और देवताओं को उनके कुल-नाम से जाना जाता है, इसलिए कभी कभी उनकी कथाओं को समझने में भूल हो जाना स्वाभाविक ही है।
ऋषि उशना ने सर्ववेदस् यज्ञ किया, जिसमें सब कुछ त्याग दिया जाता है। सब कुछ का यहाँ अर्थ है स्वामित्व की भावना को ही त्याग दिया जाना। प्रयोजन है अहंकार का निवारण करना, जैसे भी हो सके। स्वाभाविक ही है कि अहंकार स्वयं अपना निवारण / विनाश नहीं कर सकता। वैसे तो वह स्वयंभू है, किन्तु उसे यह नहीं पता, और न वह इसका अनुमान या कल्पना ही कर सकता है, कि जिससे या जहाँ से उसका उद्भव हुआ, उस मूल तत्व का अस्तित्व यद्यपि असंदिग्ध और स्वप्रमाणित है, किन्तु स्वरूप क्या है, इस विषय में भी उसे कुछ नहीं पता। अपने बारे में उसे यह तो पता है कि वह नित्य है, किन्तु उसे इस बारे में कुछ नहीं पता कि मृत्यु क्या होती है। और मृत्यु हो जाने के बाद वह रहेगा या नहीं, पुनः किसी लोक में उसका नये रूप में नया जन्म होगा या क्या वह स्वर्ग या नरक आदि किसी लोक में जा पहुँचेगा, क्या वह मनुष्य, पशु-पक्षी या किसी अन्य लौकिक प्राणी के रूप में रहेगा, या प्रेत-योनि को प्राप्त होगा। मृत्यु में सब कुछ समाप्त हो जाता हो, तो इसका प्रमाण कौन, किसे दे सकता है। और अगर मृत्यु हो जाने पर भी ऐसा कुछ रहता है जिसकी मृत्यु नहीं होती, तो क्या ऐसे परिवर्तन को मृत्यु कहा जा सकता है?
यह तो स्पष्ट है कि अहंकार की ही तरह अस्तित्व भी स्वयंभू है क्योंकि उसका उद्भव किससे और कहाँ से हुआ, इसे कोई नहीं जानता। पुनः, अस्तित्व के भी दो पक्ष - अहंकार और संसार हैं, संसार का प्रमाण तो अहंकार है, किन्तु अहंकार का प्रमाण वह स्वयं है, न कि संसार या कोई और। इस प्रकार अहंकार चेतन है जबकि संसार या कोई भी अन्य वस्तु जड है। अहंकार दृष्टा है, जबकि अन्य सब दृष्ट या दृश्य है।
इस अहंकार में दृष्ट या दृश्य ही ज्ञात है, और जिस मूल तत्त्व से अहंकार की उत्पत्ति होती है वह अज्ञात है। किन्तु अहंकार यह भी जानता है कि ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व अकाट्य और असंदिग्ध सत्य है। अहंकार, इस सत्य को भी समझ सकता है कि उसका उद्भव उसी 'अज्ञात' से ही हुआ है। तब वह या तो अपने आपको उसके प्रति समर्पित कर दे, जिसके बारे में उसे बस यही पता है कि उसका अस्तित्व है, किन्तु जिसके स्वरूप के बारे में वह कुछ नहीं जानता, या उसे जानने का यत्न करे।
उसे जानने के यत्न का अर्थ हुआ 'आत्मानुसन्धान' करना। इस प्रकार के आत्मानुसन्धान के यत्न में अहंकार को समस्त 'ज्ञात' को त्याग देना होगा। उशना के द्वारा जिस विश्वजित् नामक यज्ञ का अनुष्ठान किया जा रहा था, उसके माध्यम से उसने अपने स्वामित्व की सभी वस्तुओं को अर्थात् सर्ववेदस् को त्याग दिया।
उसका नचिकेता नामक एक पुत्र था, पुत्र और आत्मज का अर्थ समान है। आत्मज अर्थात् जिसकी उत्पत्ति स्वयं से होती है। इस का दूसरा अर्थ 'मन' हुआ । मन की उत्पत्ति भी अपने आप से ही से होती है। इसलिए 'मन' भी आत्मज है ।
अब हम महर्षि श्री रमण विरचित 'सद्दर्शनम्' ग्रन्थ के प्रारंभिक दोनों पदों का तात्पर्य समझ सकते हैं :
सत्प्रत्ययाः किं नु विहाय सन्तं
हृद्येष चिन्तारहितो हृदाख्यः।।
कथं स्मरामस्तममेयमेकम्
तस्य स्मृतिस्तत्र दृढैव निष्ठा।।१।।
मृत्युञ्जयं मृत्युभियाश्रिताना
महंमतिर्मृत्युमुपैति पूर्वम्।।
अथ स्वभावादमृतेषु तेषु
कथं पुनर्मृत्युधियोऽवकाशः।।२।।
उशना ने सर्वस्व दान कर दिया किन्तु दान करनेवाले अहंकार अर्थात् मन रूपी आत्मज का दान वह न कर सका। तब उसके मन ही ने उससे प्रश्न किया :
"पिताजी, यदि आप अपना सब कुछ ही दान कर रहे हैं तो आप मुझे भी तो किसी न किसी के लिए दान में देंगे ही! वह कौन है जिसके लिए आप मेरा दान कर देंगे?"
दो तीन बार ऐसा पूछे जाने पर उशना ने कहा :
"मैं मृत्यु के लिए तुम्हारा दान करता हूँ!"
तात्पर्य यही कि मन को मृत्यु प्राप्त हो जाए।
उपरोक्त श्लोक २ में इसे ही अक्षरशः
"अहंमतिर्मृत्युमुपैति"
के द्वारा व्यक्त किया गया है।
आत्मा / परमात्मा की प्राप्ति / खोज के दो ही उपायों (निष्ठाओं) का वर्णन गीता में प्राप्त होता है :
लोकेऽस्मिन्द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।
(अध्याय ३)
तथा,
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।
(अध्याय ५)
इन्हीं दो निष्ठाओं का उल्लेख गीता के द्वितीय अध्याय में तथा बाद के अन्य सभी अध्यायों में क्रमशः किया गया है।
'सद्दर्शनम्' से उद्धृत उपरोक्त दोनों श्लोक भी क्रमशः इन्हीं दोनों उपायों / निष्ठाओं के द्योतक हैं।
अहंकार (ego) का निवारण (elimination) ही समस्त ज्ञान / ज्ञात से मुक्ति का द्योतक है।
यही मृत्यु का ज्ञान और ज्ञान / ज्ञात की मृत्यु भी है।
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