संस्कृत, गणित, भाषा अध्यात्म और कला / संगीत
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गणित में स्नातकोत्तर कक्षा में अध्ययन करते समय यह कल्पना उठी थी कि कभी गणितीय समत्व-सम्बन्ध की अवधारणा (Mathematical concept of the equivalence relation) पर कुछ शोध करना चाहिए। पिछले एक दो वर्षों में बार बार इस पर ध्यान गया किन्तु आज कुछ लिखने का संयोग बन रहा है।
पहले आधुनिक बीजगणितीय संदर्भ / Abstract or Modern Algebra में जो पढ़ा था और यद्यपि अब जो पुराना हो चुका है -
उदाहरण के लिए किताब, पुस्तक और बुक।
ये तीन वस्तुएँ एक ही वस्तु के तीन नाम हैं। इसी प्रकार अर्थ, मीनिंग और सेन्स।
किताब, पुस्तक और बुक भौतिक वस्तुएँ हैं जबकि अर्थ, मीनिंग और सेन्स मानसिक
प्रत्यय / संवेदन (mental perception) हैं।
संवेदन भी पुनः दो प्रकार का हो सकता है -
एक तो जैसा बुद्धि या स्थूल ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से होता है जैसे स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, गंध, और श्रवण।
दूसरा चित्त में होनेवाला वृत्तिरूपी संवेदन जो पुनः अहंकार, मन, बुद्धि तथा चित्त इन चार रूपों में होता है। ये चारों भी समत्व-सम्बन्ध की दृष्टि से परस्पर एक ही वस्तु - अंतःकरण के द्योतक हैं।
पुनः किताब, पुस्तक और बुक के उदाहरण के बारे में -
ये सभी शब्द एक ही वस्तु के द्योतक हैं। इसलिए इन विभिन्न शब्दों के बीच इस दृष्टि से समत्व-सम्बन्ध है।
अब मान लीजिए a, b और c एक ऐसे समूह set के तत्व / elements हैं जिनके बीच समत्व-सम्बन्ध है जैसे हम पाँच स्वरों / vowels को एक समूह में रखें तो उनमें से प्रत्येक ही एक स्वर है और इसलिए प्रत्येक स्वर स्वयं से ही समत्व-सम्बन्ध में है। चूँकि प्रत्येक ही स्वर भी परिभाषा से ही और यूँ भी अपने आपसे समत्व-सम्बन्ध में है, और इसे सांकेतिक भाषा में
a~a
से व्यक्त किया जा सकता है।
इसी प्रकार यदि a और b के बीच यह संबंध है तो कहेंगे :
a~b <=> b~a,
अब यदि a~b, b~c हो और इससे c~a भी सत्य हो तो कहा जाएगा कि a, b और c एक ही समत्व-समूह (equivalence set) बनाते हैं। सांकेतिक रूप में :
a~b, b~c => c~a.
पुनः श्रीमद्भगवद्गीता के पाँच श्लोकों
2/48, 4/22, 9/28, 12/18 तथा 18/54
में इसे ही इस प्रकार कहा गया है :
अध्याय २
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समं भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।४८।।
अध्याय ४
यदृच्छा लाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबद्ध्यते।।२२।।
अध्याय ९
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।२९।।
अध्याय १२
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।१८।।
अध्याय १८
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।
इसके ही समानान्तर हैं विभिन्न सहस्रनाम स्तोत्र जैसे :
शिवसहस्रनाम, विष्णुसहस्रनाम, देवीसहस्रनाम और नर्मदासहस्रनाम आदि।
पुनः ईश्वरोगुरु आत्मेति मूर्तिभेदाविभागिने।
व्योमवद् व्याप्त देहाय दक्षिणामूर्तये नमः।।
में भी इसी सत्य का प्रतिपादन किया गया है।
सगुण साकार ब्रह्म को ही ईश्वर कहा जाता है। जगत्, जीव और माया ये भी पुनः एक ही वस्तु के पर्याय हैं क्योंकि इनमें से प्रत्येक शेष दोनों पर आश्रित है और उन तीनों में से एक के अभाव में शेष दो भी नहीं पाए जाते।
किन्तु निर्गुण निराकार ब्रह्म इस दृष्टि से विलक्षण है कि जैसे सगुण साकार ईश्वर को तीनों भेदों के माध्यम से पाया और परिभाषित किया जा सकता है उस प्रकार से निर्गुण निराकार को परिभाषित नहीं किया जा सकता क्योंकि उसमें सजातीय, विजातीय और स्वगत ये तीनों भेद नहीं हो सकते।
यह तो हुआ सापेक्ष सत्यता (Objective Reality) अर्थात् भौतिक वस्तुओं और जगत् के सन्दर्भ में, जिसे वैचारिक कहा जा सकता है। और इसे ही पुनः कुछ वक्तव्यों पर भी प्रयुक्त किया जा सकता है।
एक उदाहरण है -
अहं ब्रह्मास्मि।
सोऽहम्।
तत्वमसि।
और,
अयमात्मा ब्रह्म।
ये चारों भी परस्पर समत्व-सम्बन्ध से बँधे वक्तव्य हैं।
अब हम संस्कृत भाषा की रचना पर ध्यान दें तो स्पष्ट होगा कि सभी संस्कृत गद्य या पद्य रचनाओं में व्याकरण के अनुसार शब्दों के विभिन्न समूह अपना अपना एक स्वतंत्र समत्व-वर्ग (equivalance class) बनाते हैं और ये सभी वर्ग मिलकर गद्य या पद्य के एक सुनिश्चित अर्थ दर्शाते हैं।
इसके दो उदाहरण देखने पर यह अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं -
रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहम्
रामे चित्तलयः भवतु मे भो राम मामुद्धर।।
उपरोक्त श्लोक में "राम" पद के एकवचन रूप की आठों विभक्तियों का प्रयोग दृष्टव्य है।
प्रथम कर्ता nominative case,
द्वितीया कर्म accusative case,
तृतीया करण instrumental case,
चतुर्थी संप्रदान dative case,
पंचमी अपादान ablative case
षष्ठी सम्बन्ध conjunctive case
सप्तमी अधिकरण locative case
और, अष्टमी संबोधन Interjection!
सबसे अधिक रोचक, बड़ी और अद्भुत् बात यह है कि श्लोक में प्रयुक्त समस्त पदों के क्रम को बदल देने पर भी श्लोक का अर्थ नहीं परिवर्तित होता है।
तीन पद
"सदा", "नमः" और "भो" अव्यय पद -
Indeclinable हैं,
अर्थात् इनके रूप सदैव अपरिवर्तित रहते हैं!
इसी प्रकार क्रियापदों के रूप में प्रयुक्त शब्दों का भी अपना वर्ग है जिसमें विभिन्न लकारों पर आधारित धातु रूप अपना समत्व बनाए रखते हैं।
क्या किसी भी दूसरी भाषा में ऐसा पाया जा सकता है?
दूसरा उदाहरण -
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामका पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।
का या किसी भी दूसरे श्लोक का लिया जा सकता है।
यह चमत्कार जैसा लगता है।
मंत्रों की दृष्टि से देखें तो हमारे छक्के छूट जाएँगे।
चरित रघुनाथस्य शतकोटि प्रविस्तरम्।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्।।
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