Tuesday, 22 October 2024

Equivalents / समत्व

संस्कृत, गणित, भाषा अध्यात्म और कला / संगीत

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गणित में स्नातकोत्तर कक्षा में अध्ययन करते समय यह कल्पना उठी थी कि कभी गणितीय समत्व-सम्बन्ध की अवधारणा (Mathematical concept of the equivalence relation) पर कुछ शोध करना चाहिए। पिछले एक दो वर्षों में बार बार इस पर ध्यान गया किन्तु आज कुछ लिखने का संयोग बन रहा है।

पहले आधुनिक बीजगणितीय संदर्भ / Abstract or Modern Algebra  में जो पढ़ा था और यद्यपि अब जो पुराना हो चुका है -

उदाहरण के लिए किताब, पुस्तक और बुक। 

ये तीन वस्तुएँ एक ही वस्तु के तीन नाम हैं। इसी प्रकार  अर्थ, मीनिंग और सेन्स।

किताब, पुस्तक और बुक भौतिक वस्तुएँ हैं जबकि अर्थ, मीनिंग और सेन्स मानसिक 

प्रत्यय / संवेदन  (mental perception)  हैं। 

संवेदन भी पुनः दो प्रकार का हो सकता है -

एक तो जैसा बुद्धि या स्थूल ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से होता है जैसे स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, गंध, और श्रवण।

दूसरा चित्त में होनेवाला वृत्तिरूपी संवेदन जो पुनः अहंकार, मन, बुद्धि तथा चित्त इन चार रूपों में होता है। ये चारों भी समत्व-सम्बन्ध की दृष्टि से परस्पर एक ही वस्तु - अंतःकरण के द्योतक हैं।

पुनः किताब, पुस्तक और बुक के उदाहरण के बारे में  -

ये सभी शब्द एक ही वस्तु के द्योतक हैं। इसलिए इन विभिन्न शब्दों के बीच इस दृष्टि से समत्व-सम्बन्ध है।

अब मान लीजिए  a, b और c एक ऐसे समूह  set  के तत्व / elements  हैं जिनके बीच समत्व-सम्बन्ध है जैसे हम पाँच स्वरों / vowels को एक समूह में रखें तो उनमें से प्रत्येक ही एक स्वर है और इसलिए प्रत्येक स्वर स्वयं से ही समत्व-सम्बन्ध में है। चूँकि प्रत्येक ही स्वर भी परिभाषा से ही और यूँ भी अपने आपसे समत्व-सम्बन्ध में है, और इसे सांकेतिक भाषा में 

a~a

से व्यक्त किया जा सकता है।

इसी प्रकार यदि a और b  के बीच यह संबंध है तो कहेंगे :

a~b <=> b~a,

अब यदि  a~b, b~c हो और इससे  c~a भी सत्य हो तो कहा जाएगा कि  a, b और c एक ही समत्व-समूह (equivalence set) बनाते हैं। सांकेतिक रूप में :

 a~b, b~c => c~a.

पुनः श्रीमद्भगवद्गीता के पाँच श्लोकों

2/48, 4/22, 9/28, 12/18 तथा 18/54

में इसे ही इस प्रकार कहा गया है :

अध्याय २

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। 

सिद्ध्यसिद्ध्योः समं भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।४८।।

अध्याय ४

यदृच्छा लाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। 

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबद्ध्यते।।२२।।

अध्याय ९

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। 

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।२९।।

अध्याय १२

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। 

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।१८।।

अध्याय १८

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। 

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।

इसके ही समानान्तर हैं विभिन्न सहस्रनाम स्तोत्र जैसे :

शिवसहस्रनाम, विष्णुसहस्रनाम, देवीसहस्रनाम और  नर्मदासहस्रनाम आदि।

पुनः ईश्वरोगुरु आत्मेति मूर्तिभेदाविभागिने। 

व्योमवद् व्याप्त देहाय दक्षिणामूर्तये नमः।।

में भी इसी सत्य का प्रतिपादन किया गया है।

सगुण साकार ब्रह्म को ही ईश्वर कहा जाता है।  जगत्, जीव और माया ये भी पुनः एक ही वस्तु के पर्याय हैं क्योंकि इनमें से प्रत्येक शेष दोनों पर आश्रित है और उन तीनों में से एक के अभाव में शेष दो भी नहीं पाए जाते। 

किन्तु निर्गुण निराकार ब्रह्म इस दृष्टि से विलक्षण है कि जैसे सगुण साकार ईश्वर को तीनों भेदों के माध्यम से पाया और परिभाषित किया जा सकता है उस प्रकार से निर्गुण निराकार को परिभाषित नहीं किया जा सकता क्योंकि उसमें सजातीय, विजातीय और स्वगत ये तीनों भेद नहीं हो सकते। 

यह तो हुआ सापेक्ष सत्यता  (Objective Reality) अर्थात् भौतिक वस्तुओं और जगत् के सन्दर्भ में, जिसे वैचारिक कहा जा सकता है। और इसे ही पुनः कुछ वक्तव्यों पर भी प्रयुक्त किया जा सकता है।

एक उदाहरण है -

अहं ब्रह्मास्मि। 

सोऽहम्।

तत्वमसि।

और, 

अयमात्मा ब्रह्म। 

ये चारों भी परस्पर समत्व-सम्बन्ध से बँधे वक्तव्य हैं।

अब हम संस्कृत भाषा की रचना पर ध्यान दें तो स्पष्ट होगा कि सभी संस्कृत गद्य या पद्य रचनाओं में व्याकरण के अनुसार शब्दों के विभिन्न समूह अपना अपना एक स्वतंत्र समत्व-वर्ग (equivalance class) बनाते हैं और ये सभी वर्ग मिलकर गद्य या पद्य के एक सुनिश्चित अर्थ दर्शाते हैं। 

इसके दो उदाहरण देखने पर यह अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं -

रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे 

रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः। 

रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहम्

रामे चित्तलयः भवतु मे भो राम मामुद्धर।।

उपरोक्त श्लोक में "राम" पद के एकवचन रूप की आठों विभक्तियों का प्रयोग दृष्टव्य है।

प्रथम कर्ता nominative case, 

द्वितीया कर्म accusative case, 

तृतीया करण instrumental case, 

चतुर्थी संप्रदान dative case, 

पंचमी अपादान ablative case

षष्ठी सम्बन्ध conjunctive case

सप्तमी अधिकरण locative case 

और, अष्टमी संबोधन Interjection! 

सबसे अधिक रोचक, बड़ी और अद्भुत् बात यह है कि  श्लोक में  प्रयुक्त समस्त पदों के क्रम को बदल देने पर भी श्लोक का अर्थ नहीं परिवर्तित होता है।

तीन पद

"सदा", "नमः" और "भो" अव्यय पद -

Indeclinable हैं,

अर्थात् इनके रूप सदैव अपरिवर्तित रहते हैं!

इसी प्रकार क्रियापदों के रूप में प्रयुक्त शब्दों का भी अपना वर्ग है जिसमें विभिन्न लकारों पर आधारित धातु रूप अपना समत्व बनाए रखते हैं।  

क्या किसी भी दूसरी भाषा में ऐसा पाया जा सकता है? 

दूसरा उदाहरण -

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामका पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।। 

का या किसी भी दूसरे श्लोक का लिया जा सकता है।

यह चमत्कार जैसा लगता है।

मंत्रों की दृष्टि से देखें तो हमारे छक्के छूट जाएँगे। 

चरित रघुनाथस्य शतकोटि प्रविस्तरम्। 

एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्।।

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Saturday, 19 October 2024

Conscience / अन्तर्मन

Sentience and Conscience.

मन और विवेक

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त्र्यम्बिका और त्र्यम्बिकेश्वर / त्र्यम्बकेश्वर 

अस्तित्व जो कि समष्टि प्रकृति और समष्टि पुरुष-युगल है, अम्बु, अम्बर, अवनि, अग्नि और अनिल के रूप में इन पाँच महाभूतों में अभिव्यक्त होते ही क्रमशः प्रकृति (क्रियाशक्ति) और चेतना अर्थात् ज्ञानशक्ति के माध्यम से अम्बिका और अम्बिकेश्वर या जगत् और जीव का रूप ग्रहण करता है। जगत् केवल क्रियाशक्ति है, जीव केवल ज्ञानशक्ति।

उपदेश-सारः के अनुसार -

चित्तवायवश्चित्क्रियायुताः। 

शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका।।१२।।

लयविनाशने उभयरोधने।

लयगतं पुनर्भवति नो मृतम्।।

तथा गीता अध्याय २ के अनुसार -

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्तत्वदर्शिभिः।।१६।।

और पराकाष्ठा तक पहुँची हुई विज्ञान की तथाकथित प्रगति हो जाने के बाद भी वैज्ञानिक इसे अस्वीकार नहीं करते, कि अस्तित्व को जिन दो रूपों में नित्य विद्यमान कहा जाता है, उन दोनों ही रूपों अर्थात् पदार्थ (matter) और (energy) को न तो सृजित ही किया जा सकता है और न उनका विनाश किया जा सकता है। इस सरल सी स्वीकारोक्ति के बाद यह भी स्पष्ट ही है कि सृष्टि के प्रारंभ होने और उसके अन्त होने का प्रश्न उठाना ही मूलतः असंगत है। और यह प्रश्न उठाया जाना भी क्या असंगत ही नहीं है कि ब्रह्माण्ड (Universe) की सृष्टि आज (?) से कितने समय पहले हुई? इसी प्रकार यह भी स्पष्ट है कि समय का विचार ही वह मूल त्रुटि है जिसके आधार पर "पहले" और "बाद में" की कल्पना की जाती है। "पहले" अर्थात् "अतीत" (past) और "बाद में",- भविष्य (future), भी वर्तमान (present) में ही कल्पित किए जाते हैं और उन दोनों का वर्तमान से पृथक् और स्वतंत्र अस्तित्व संभव ही नहीं है।

संक्षेप में - 

वर्तमान में उन्हें न तो पाया जा सकता है, न प्रमाणित किया जा सकता है।

श्री रमण महर्षिकृत सद्दर्शनम् का एक श्लोक वैज्ञानिक की इसी विडम्बना को दर्शाता है -

भूतं भविष्यच्च भवत्स्वकाले

तद्वर्तमानस्य विहाय तत्वम्।

हास्या न किं स्याद्गतभाविचर्चा

विनैकसंख्यां गणनेव लोके।। 

यह विडम्बना समय की उस अवधारणा का परिणाम है, जिसे वस्तुतः अवधारणा (premise) की तरह स्थापित तो किया गया किन्तु उसकी सत्यता की परीक्षा नहीं की गई। और ऐसी परीक्षा न करने का मूल कारण वैज्ञानिकों में प्रतिभा या प्रज्ञा का अभाव नहीं, बल्कि इसकी परीक्षा करने के प्रति उनका भय ही है। भय क्या है?

भय यही और चूँकि उन्हें भी भली भाँति पता है कि समय कल्पना है, न कि पदार्थ या ऊर्जा की तरह अस्तित्वमान कोई ऐसी यथार्थ वास्तविकता, वैज्ञानिक जिसकी सत्यता प्रयोग और परिणाम की कसौटी पर प्रमाणित कर सकें।

भारतीय योग-दर्शन के अनुसार समय एक "प्रत्यय" (perception) और "प्रमाण" स्वयं एक प्रकार की वृत्ति मात्र है। वृत्ति मन की गतिविधि है जबकि "प्रमाण" वह प्रत्यय (perception) है जैसा कि बस प्रतीत भर होता है।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

और, 

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

(पातञ्जल योगसूत्र -समाधिपाद)

इसलिए "प्रमाण" वैज्ञानिक और अंतिम निष्कर्ष (evidence) हो यह आवश्यक नहीं है। प्रमाण किसी इंद्रियानुभव के रूप में "प्रत्यक्ष" होने पर भी अकाट्यतः सत्य हो, यह आवश्यक नहीं। उदाहरण के लिए नेत्रों से दिखाई दे रहा कोई पदार्थ नमक जैसा दिखाई देने पर भी चखने पर मीठा प्रतीत हो सकता है तो नेत्रों के द्वारा प्राप्त हुए प्रमाण को अस्वीकार कर दिया जाता है। तब "अनुमान" के रूप में एक पहचान (identification) को "प्रमाण" माना जा सकता है।

"यह नमक है" ऐसा दिखाई देने के बाद उसे चखने पर अनुभव से "यह शक्कर है" ऐसा प्रतीत होता है।

और बाद में, उसका रासायनिक विश्लेषण करने पर यदि यह पता चलता है कि वह मीठा स्वाद देनेवाला

"सैकरीन / saccharine"

नामक पदार्थ है तब यह अंतिम निष्कर्ष प्राप्त होता है कि यह वस्तु न तो नमक है, और न ही शक्कर है। यह हुआ "आगम"।

आगम और निगम का अर्थ है वेद के रूप में प्राप्त होनेवाला यह ज्ञान जो काल तथा स्थान से बाधित न होनेवाला परम सत्य है।

और इसी प्रकार से "पुराण" में वर्णित कोई विवरण, काल और स्थान के सन्दर्भ में प्राप्त होनेवाली कोई घटना, जो संभावना की दृष्टि से वर्तमान में भी हो सकती है। इसलिए वेद नित्य ही, सर्वत्र और सनातन (ज्ञान) है, जबकि पुराण सनातन होते हुए भी नित्य सत्य हों यह आवश्यक नहीं है।

ईश्वर (समष्टि मन) और जीव (व्यष्टि /  व्यष्टिमन / अन्तर्मन) इसलिए पौराणिक सत्य हैं, न कि शाश्वत और सनातन सत्य।  इसी तरह प्रकृति और पुरुष वैदिक सत्य हैं और जिन्हें पौराणिक सत्य के रूप में भी अभिव्यक्त किया जाता है। इसलिए सभी वैदिक देवता नित्य, शाश्वत और सनातन हैं, जबकि पौराणिक देवताओं को समय समय पर भिन्न भिन्न रूपों में महत्व दिया जाता है। त्र्यम्बिका / और त्र्यम्बिकेश्वर / त्र्यम्बकेश्वर इसलिए वैसी ही अवधारणा मात्र हैं जैसा कि काल और स्थान को एक वैज्ञानिक अनुभवगम्य अवधारणा कहा जा सकता है। चूँकि सृष्टि (Creation) ही एक अवधारणा मात्र (premise) है, तो क्या सृष्टिकर्ता Creator) भी वैसा ही और भी एक अवधारणा (premise) ही नहीं है? और जीव अर्थात् individual soul के बारे में क्या कह सकते हैं? शरीर में चेतना (sentience) प्रकट होने और उसका प्रादुर्भाव / उन्मेष हो जाने पर ही व्यक्तिगत "स्व" (individual soul)  की मान्यता उत्पन्न नहीं होती? और सृष्टि और उसका संहार तथा इसी प्रकार किसी सृष्टिकर्ता (ईश्वर) तथा संहारकर्ता (ईश्वर) की कल्पना भी वस्तुतः मानसिक विचार ही नहीं है? पूरे, समूचे पश्चिमी विचार का भय और काल्पनिक संकट यही तो है कि सृष्टि और सृष्टिकर्ता तथा सृष्टि का विनाश करनेवाले किसी कल्पित ईश्वर की मान्यता पर प्रश्न खड़ा करते ही पश्चिमी संस्कृति को टिकने के लिए कोई तर्कसंगत आधार ही नहीं रह जाता है।

और शायद इसीलिए पश्चिमी विचारकों ने "दर्शन" को Philosophy, "धर्म" को  Religion, सृष्टि को  Creation और "ईश्वर" को स्रष्टा अर्थात्  Creator के रूप में God कहकर अनावश्यक विवादों को अनजाने ही जन्म दे दिया होगा। 

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Monday, 12 August 2024

सद्धारा / सातधारा

।।स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।

जब इस ब्लॉग को लिखना प्रारम्भ किया था तो उपरोक्त सूत्र ही इसकी प्रेरणा था।

इस प्रेरणा का आधार वह दृष्टि थी जिसके अनुसार :

दर्शनमपि श्रवणं च चिन्तनं मननंस्तथा।।

निदिध्यासनं स्वाध्यायं पञ्चाङ्गानि।।

उपरोक्त श्लोक के रचना बस अभी ही की है।

कभी कभी कुछ शुभचिन्तक मित्र पूछ बैठते हैं -

"यह कहाँ लिखा है?"

मुझे लगता है कि श्रीमद्भगवद्गीता में निम्नलिखित श्लोकों को ध्यान में रखकर ही इसे लिखने की प्रेरणा हुई :

अध्याय ३

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचार।।९।।

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।१०।।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।११।।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ति यज्ञभाविता।।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।१२।।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।।

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।१३।।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।१४।।

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म  नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।१५।।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।१६।।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।।

आत्मन्येव च सन्तुष्टः तस्य कार्यं न विद्यते।।१७।।

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।१८।।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार।।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।१९।।

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।।

लोकसङ्गग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।२०।।

यद्यदाचरति श्रेष्ठः लोकस्तदनुवर्तते।।

यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।२१।।

माँ नर्मदा के सातधारा / सप्तधारा / सतधारा तट पर इस पोस्ट को लिखने का पुण्य सौभाग्य अनायास ही प्राप्त हुआ। इस पोस्ट को लिखने समय यद्यपि विचार यह था कि स्वाध्याय के जिन पाँच अङ्गों का उल्लेख प्रारम्भ में किया है उनके यहाँ लिखित क्रम के आधार पर :

दर्शन :

-जिसे मंत्रदृष्टा ऋषियों के द्वारा देखे गए मन्त्रों के रूप में वेद और श्रुति कहा जाता है,

श्रवण / श्रुति :

जिसे उनके द्वारा किया गया उन मन्त्रों का श्रवण कहा जाता है,

चिन्तन :

चिनोति / चिनुते / चिन्तयति / चिन्त्यते इति चिन्तनम्,

मनन :

मन् - मनुते, मन्यते, मनाति, आम्नाय, और -

निदिध्यासन :

नित् -सप्तमी एकवचन निति / निदि - ध्यासन 

के रूप में 

"स्वाध्यायकी समीक्षा और विवेचना करना।

किन्तु यहाँ यहीं विराम करना उचित प्रतीत होता है।

नर्मदे हर!! 

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Sunday, 21 July 2024

Cn T And Cv T.

This Strange World Of Cn T And Cv T.

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I guess some might have felt / observed that when a certain idea comes in your mind, in a few seconds or maybe minutes after, you find something about the same on your computer / mobile screen.

Is this just a sheer coincidence only or there's something else far more deeper behind this happening? 

This is how I'm trying to nickname the two; namely The Cn T and The Cv T.

By Cn T  I mean -

Communication Technology

And by Cv T  I mean -

Communicative Technology

It's yet to be ascertained or found out if the idea in your mind gets transmitted to the www (world-wide-web) or the www induces generates and induces the idea in your mind.

Maybe the Cosmic Mind be behind this whole / this single phenomenon.

This may be thought of similar to such incidences when one and the same idea in Science or Mathematics is supposed / claimed to have been discovered by one or the two, and having simultaneously proposed it.

The examples are like :

Who discovered Radio transmission and Receiver?  Marconi or J. C. Basu (I don't remember the exact name of the Indian Scientist / Physicist) ? 

Who Discovered / Defined Calculus?  Newton Or Leibneitz? 

Is Cn T a one way process only or is a two way process like the Cv T?

If I could further guess, I may see how this might be behind the way, the ancient ऋषि /Rshi / Sages might have formulated this Cosmic Phenomenon as गणेश बृहस्पति

As is described in the ऋग्वेद / Rgveda, मण्डल २ / MaNDala 2 :

ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे...

This बृहस्पति / bRhaspati  Principle, that is equivalent to 

गणपति  /  विनयः भारद्वाजः  in the mantra, referred to here that  just now came to my mind and I think it is quite evident and befitting at the very moment, also with reference to the idea / concept of -  Cn T and Cv T.

Writing down here just for record.

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Monday, 20 May 2024

यम, इन्द्र, वरुण और मरुत्

अदिति, दिति और कश्यप 

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वाल्मीकि रामायण और पुराणों में वर्णित की गई कथा के अनुसार अदिति और दिति दोनों बहनों का विवाह प्रजापति कश्यप ऋषि से हुआ था। अदिति की संतानें अग्नि, इन्द्र, वरुण, सोम आदि सभी देवता Celestial, Cosmic Divine थे, जबकि दिति की संतानें दैत्य (Dutch, Deutsche) थे। दैत्यों के पुरोहित और आचार्य शुक्र अर्थात् भृगु (Brigit / brigade) थे और जिन्हें भार्गव, अरुण, उद्दालक और कौशिक भी कहा जाता है। जिबरील, गेब्रिएल और इंजील, एन्जिल इनके ही अपभ्रंश हैं। ये सभी ऋषि अंगिरा अर्थात् Angel हैं। 

परशुराम इन्ही भार्गव के कुल में उत्पन्न हुए। परशु का ही अपभ्रंश वर्तमान फारस है। और इससे ही व्युत्पन्न है :

इटैलियन "फासीवाद" (Fascism) की मुद्रा / icon  घास या लकड़ी के गट्ठर पर रखा परशु / कुल्हाड़ी है। 

कठोपनिषद् और श्रीमद्भग्वद्गीता में वर्णित "उशना" ही भृगु ऋषि के ही कुल में वाजश्रवा के रूप में उत्पन्न हुए थे नचिकेता उनका ही पुत्र था। 

उशन् ह वाजश्रवसः ...(कठोपनिषद्) और कवीनामुशना कविः (श्रीमद्भगवद्गीता) में इनका ही उल्लेख है।

इन्द्र ने संग्राम में दिति के पत्रों का संहार किया तो दिति ने पुनः इस संकल्प के साथ गर्भ धारण किया कि इससे उत्पन्न पुत्र इन्द्र और दूसरे भी सभी देवताओं को परास्त कर देगा। 

जब दिति गर्भवती हुई तो इन्द्र "मौसी" की सेवा-टहल करने के बहाने हर समय उनके साथ रहने लगा। वह जानता था कि दिति के गर्भ में पल रहा शिशु "इन्द्रशत्रु",  जन्म लेने के बाद उसे और दूसरे भी सभी देवताओं को परास्त कर उनका राज्य छीन लेगा।

ऐसे ही एक दिन दिति अपनी शैया पर बैठी हुई विश्राम कर रही थी और उसे झपकी लग गई। इन्द्र इसी अवसर की ताक में था। जब दिति सो रही थी और उसके केश शैया से बाहर झूल रहे थे। जैसे ही केश धरती को छूने लगे, इन्द्र उन केशों के माध्यम से दिति के भीतर प्रविष्ट हो गया और दिति के गर्भ में पहुँच गया वहाँ जाकर गर्भ के सात टुकड़े कर दिये। जब गर्भ रोने लगा तो दिति की निद्रा भंग हुई। तब इन्द्र पुनः दिति के केशों के मार्ग से बाहर निकल आया। दिति ने समझ लिया कि प्रमादवश उसकी भूल से ही इन्द्र को यह अवसर मिला था। तब वह इन्द्र के छल पर हँसने लगी। गर्भस्थ शिशु के सात टुकड़े है जाने पर और उसके रुदन को सुनने पर इन्द्र ने हँसते हुए उससे कहा - 

मा रुद् 

रोओ मत। 

इस प्रकार मरुत् का जन्म हुआ।  

गर्भ से बाहर आकर उन सात के समूह में से प्रत्येक की सात विशेषताओं के कारण उन्हें कुल ४९ मरुद्गणों का रूप प्राप्त हुआ -

पवन चले उनचास।

उनचास कोटि प्राण।। 

इसलिए पवनपुत्र जो अञ्जनिपुत्र और केसरीपुत्र भी हैं, रुद्र के भी अंश हैं।

सप्तर्षि आकाश में स्थित ऋषिगण हैं, सप्त स्वर ऋषि नारद के द्वारा उद्घाटित किए गए।

सप्त द्वीपों का निर्माण ब्रह्मा के पुत्र विश्वकर्मा ने किया।

और तीन ग्राम ही तीन गुण हैं। 

सप्त सुरन तीन ग्राम उनचास कोटि प्रान।

मुनिजन सब करत गान, नादब्रह्म जागे।।

सुर अलौकिक अलंकार, मूर्च्छना विविध प्रकार।। 

तन मन सब वार वार अर्पन प्रभु आगे।।

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Sunday, 28 April 2024

The Impossible Question.

May I possibly die? 

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We all have an inherent Unexamined belief that one day I will have to die.

Everyone, without exception.

This belief is so firm that no one ever can imagine that it is really and basically an unfounded idea only.

This question is not only unfounded, it's as well irrational too. 

Still hardly anyone would doubt if it may be basically an invalid and wrong too! 

Even questioning so and asking this looks ridiculous to us. 

We are so dead certain that whosoever is born is going to die some day, in the near or perhaps a distant future.

Here is the catch. 

What looks like almost inevitable truth may prove really absolutely irrational, unexamined and therefore a blind belief only. Even more true is the fact that no one who-so-ever can examine or verify it's truth. Neither in experience, nor through debate or by example.

The Whenever there is "Death", there's it's never that "You"  die!  It's invariably and inevitably always really someone other, and never "You", who appears and is said to have "died".

So how one can infer and conclude that one is going to die someday at some time in the near or a distant future?

It's quite and perfectly evident plain and simple a fact, a truth that really no one can ever examine, even experimentally verify it's truth.

By contradiction too, if "You" really "die" how "You" could "know" you're  "dead"? The very "knowing" implies that there is "someone" who knew that  "I'm dead" ! That "someone" can neither die nor could be said to have "died".

Isn't the "living" and the life of "myself" is such an undeniable fact for everyone that it could never be denied. What we refer to and declare "death" always  of someone else only. How one would possibly apply this word with reference to oneself? Isn't that ridiculous only?

But because of the ignorance and never questioning that if there is, and such a possibility could ever exist, without even thinking a little about, we tend to believe this as an inevitable truth and at once cling to this idea, which is fundamentally a false one. Even in a dream we wouldn't believe that this is just impossible!

Again by the same logic; if I really die, how would and could I know, see or tell to someone : I've died, I'm dead?

And how someone else could tell me :

"You are no more!"

The same is true about the concept or the idea of so-called a "God". The existence of any such a "God" could not, by no means what-so-ever be experienced, proved or known directly in the same way as you see, or know someone - any sentient life-form or some object, an insentient one which is supposed to be not alive.

There are believers and there are also the sceptics who have an "idea", a "thought" of such a " God", either in the form of a "belief" or in the form of a "doubt" but nevertheless an idea or a thought about the "God" - never either direct perception of such a "God" nor practical experience or encounter any. Therefore the belief and the doubt about the existence of "God" is repeatedly vehemently adamantly forced by those who "believe" and also by those who "doubt" or "deny" the existence of a "God" or "Gods".

Thinking or talking about the element of truth of "Death" or about the existence of "God" isn't it rather far more important and urgent a need to try and finding out exactly "Who" or "What" dies?

The matter and the material objects are neither alive nor could be said to die. The "consciousness" of those material objects is the only criteria and a basis which too could never be said to die.

Both of these Realities in a way, are ever so "Immortal".

Consciousness of being however is a fact, that is though imperceptible, it's the only ground and support of all "knowing". The "knowing" through the sense-organs and  the information in terms of knowledge is again never the "Consciousness". There is this object-oriented consciousness where the focus of attention is about the known, while there is also the another, where the focus of attention is about the 'self', and where this 'self' is "known", though never like the objects - never like the knowledge or the information.

This "knowing" of the 'self' is always in the form of  "Awareness", and though the 'self' is known through and in Awareness only, this Awareness could neither be an object nor a 'self'.

Awareness too is beyond Life and Death.

It's never born nor could ever die, for it is Deathless Reality. The 'self' is associated with consciousness of the body to which 'self' claims itself it's own and moreover, "I'm" the self, this idea itself is identified as being oneself the body. And therefrom arises the thought or the conflict "I'm the body" and "I'm the self" 

The consciousness of the sentient body thus assumes the sense : I'm this body, which is basically a wrong assumption, because I know I've this body  

The Sense "I'm this body" persists only in the waking state of consciousness, while the sense of "I'm" prevails even when one is asleep or going through a dream.

Does this sense die?

Is not the idea / thought of committing suicide a contradiction in itself? 

Still many people get overwhelmed by this absurd thought in an untoward situation and so try to kill themselves / oneself. 

Sheer stupidity!!

Only if they could know the importance of Awareness of the self / I'm, and give their  attention to this truth, they would never.

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Saturday, 30 March 2024

Prayer / प्रार्थना

 

रोगं शोकं तापं पापं हर हर मे

हर मे भगवति कुमतिकलापम्।।

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सरल अर्थ :

हर हर महादेव! हे परमेश्वर शिव!

अर्थात् - हे परमेश्वरी महादेवि!!

मेरे समस्त रोग, शोक, ताप और पाप, कुमति (दुर्भाग्य) और कुमति से उत्पन्न होनेवाले मेरे सारे क्रियाकलापों,  और उनके अशुभ तथा अनिष्ट प्रभावों को हर लो और स्थायी शान्ति, अपने पावन चरणों की परम और नित्य भक्ति प्रदान करो।।

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English Translation is left for those who might make out far better and a simple translation of this Sanskrit prayer.

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Thursday, 15 February 2024

SatyakAma JAbAla

सत्यकाम जाबाल

The Two Streams :

The Upanishads in the यजुर्वेद are of the two kinds :

The शुक्ल यजुर्वेद and the कृष्ण यजुर्वेद.

This is what I think as a student of the Upanishads. No claim is made that my knowledge is correct and perfect. Please check yourself if you don't agree.

The story of Satyakama JAbAla is about a disciple of JAbAla Rishi who was sent by his mother to the Gurukul of JAbAla Rishi for learning the VedaVidyA from the Rishi.

Rishi JAbAla asked him, - who was his father? Satyakama, a mere boy of 6 or 7 years of age didn't know the answer. So the Rishi told him to ask about this to his mother. Satyakama went to his mother. His mother told him that she had been a housemaid in many a houses and didn't know who might have fathered him.

SatyakAma returned to the Sage / Rishi JAbAla and told Him what was told to him by his mother.

Hearing this JAbAla thought a little and said to Satyakama : You speak whatever your mother told to you without fear. I  take it that your Father was therefore of the Brahmin class (ब्राह्मण वर्ण). However I give you my JAbAla Gotra / जाबाल गोत्र.

Hence now onwards you will have this name : Satyakama JAbAla - The one in my Gotra (the Traditional branch of a Vedika Rishi / Sage).

Because Who-so-ever aspires for Truth is verily a Brahmin indeed and should be treated like one born as a Brahmin.

There are two major Upanishads in the name of JabAla / JAbAli Rishi. One of the two is JAbAlopanishad a short one, and another is somewhat detailed and is so named bRhajjAbAlopanishad.

We know KaThopanishad. This is about the story of Nachiketa and Yama. The father of Nachiketa was one वाजश्रवा / vAjashravA. Yama in this text addressed NachiketA variously also as Gautama, Kaushika, Bhargava, AruNi Ouddalaki as well. 

They all belong to Rishi bhRgu / ऋषि भृगु, विश्वामित्र, भार्गव . 

Rishi bhRgu is one amongst the 7 famous Sages together described as "Saptarshi". Gita tells

"ऋषीणामहं भृगुः" and "कवीनामुशना कविः।।"

Evidently, since times immemorial, the Sanatana Dharma prevailed all over the globe. We can connote "अङ्गिरा", "AngirA" to "Angel", and JAbAla-Rishi to Gabriel.

We know Gabriel was the Arch-Angel - आर्ष अङ्गिरा Who gave instructions to the three most Prominent Prophets of the three Abrahmic Religions.

The relevant point is : If many of those belonging to these religions aspire for getting connected to सनातन वैदिक धर्म /  Sanatana Vaidika Dharma, what might be their Gotra / (Gott in German, God in English)?

Shouldn't they give a thought to this?

Maybe they would wish to get connected to the JAbAla Gotra.

Again, to what Social Class / वर्ण they may select for them?

This depends purely, entirely upon their own understandaming, determination and inclinations. Everyone is always free in Sanatana Dharma to think for oneself  accordingly and no any one other could enforce upon him except the stream they want to join to.

The "Birth" in a race is the  जाति / "Caste" while the वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य  and शूद्र are a social class and depends upon the quality of actions and tendencies as is described in the Gita - Chapter 4, stanza 13 :

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

तयोस्तु कर्तारं मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

(अध्याय ४)

Therefore it is implied that all humans are equal in their rights and are free to decide for themselves what Gotra /  गोत्र  and class वर्ण they might belong to, and no one else can impose upon him what  Class / Gotra according to and in what race one is born into.

The last but not the least important is the gender. Of course the gender has its own Dharma / nature and accordingly as no one can go against one's natural and Dharma / spontaneous tendencies, and the two genders have some different and basic characters of their own, this too is according to what one thinks fits for oneself and there is no conflict any in the Sanatana Vedika Dharma.

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Wednesday, 14 February 2024

Thought, Effort and Will.

Automatic Divine Action

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All sentient beings find themselves in a world where though they have a certain freedom of action, they are always in doubt if they have a future of their own choice. Every moment in their life a new perception of the world and of oneself arises and accordingly they begin to think what they want, what they hope and  what they fear, desire, what will make them happy. All the time all their priorities keep on changing constantly. It's only humans who can think of something as a God, Someone who controls the individual and the collective life and also the world around them. We don't know if the animals and all other living beings except the humans might have such a notion of God.

Only because of  the fear and desire, hope or despair, and because of the imagination of an assumed and unknown "future", one begins believeing in such a God in the imagination. There are others who too suggest, even force one to believe such a God of the imagination of their own. During long time, this becomes a tradition, and also part of the sub-conscious mind of all those who belong to that society. The sub-conscious however is the store-house where all information of the verbal kind and of the kind in the experience is maintained in the memory. There is also a strange pattern and all that which has been experienced so far is known as if is inter-related. So the memory causes the thought and conversely thought also stirs the memory and every moment an altogether new perception takes place. When the abstract notion of "I" / "Me" takes place, soon its counter-part "a World" also assumes Reality and though both the two thoughts are intertwined and interdependent Realities, the "I" / "Me" refers to the assumed "self", while the "World" is believed to exist independent, apart and "other" than the "self".

Memory strengthens the apparent duality of "oneself" and the "world" in memory, but one is always rather oblivious of the fact that the two are inherently one and the same aspects of a single phenomenon and perception.

The "Me" / "I" tries to attain certain objectives in a projected "future" in imagined, assumed "world".

The "I" / "Me" are thus but two branches of the one and the same thought and perception and none of them exists independently and apart from the other.

This is the root-cause of Conflict. There are certain physical needs and one can achieve many objectives at the physical level, but the "idea" "I shall try and achieve a certain goal" is basically a contradiction in itself. For the simple reason that the thought that says "I" / "Me" in the present moment is not the same as the thought that arises in the next moment as "I" / "Me". The two are two structures, entirely and altogether different configurations of the two different states of mind. The illusion that the two are one and the same is because of  In-attention only. When there is attention, mind becomes silent, fully aware of the situation or the phenomenon.

In this awarenes, "I" / "Me" is known and understood well in its entirety.

Though there is "no-one" who can claim to have known or understood.

Still, if given a thought to, everything appears as if repeatedly happening and unhappening. Whatever appears to have happened is no more in the next moment. That is what could be said "unhappening".

"Worry","Fear","doubt","conflict","suspicion" "apprehension","agony", anxiety", excitement, "depression, all arise and soon dissolve too. But whatever could be said to "happen" and "unhappen" remains as the underlying Fact, The Automatic Divine Action, if you would like to give it a name.

He was asking -

"Why do people commit suicide?"

The evening was approaching at the door. The delicate sun-rays were illuminating the sky. 

Giving continuity to thought is tremendously grievous a happening.

Unfortunately and sadly, though one may or may not escape from the thought. Attention and awareness is the only way to freedom from the thought. Attention and awareness is not an action to be performed or to be done deliberately through effort or will.

Attention and Awareness is therefore :

The Automatic Divine Action.,

Worth the name.

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