चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये।।
वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किञ्चित्कर्मकोटिभिः।।११।।
(विवेकचूडामणि)
श्री रमण महर्षि कृत उपदेश-सार नामक ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही कर्म-योग के साधन के महत्व का उल्लेख किया गया है, क्योंकि कर्म यद्यपि जड है, और कर्ता चेतन, किन्तु कर्म के महत्व के बारे में जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३ में कहा गया है :
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।५।।
और पुनः अध्याय ४ में :
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।
इसलिए कर्म, विकर्म और अकर्म स्वरूपतः क्या हैं, इसका बोध होने पर कर्म का अनुष्ठान भी इस प्रकार से किया जा सकता है, कि उससे पूर्व की कर्मश्रँखला का अन्त हो और कर्म नए बन्धन का कारण भी न बन सके।
इसी दृष्टि से और चूँकि सामान्य मनुष्य कर्म की ही भाषा मानता और जानता है, इसलिए भी श्री रमण महर्षि ने इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है ताकि योग से संबंधित अधिक कठिन तत्वों को क्रमशः समझा जा सके।
यहाँ कुछ श्लोक हैं, अधिक और विस्तृत जानकारी के लिए मेरे श्री रमण वाणी ब्लॉग का अवलोकन कर सकते हैं।
उपदेश-सारः
कर्तुराज्ञया प्राप्यते फलम्।।
कर्म किं परं कर्म तज्जडम्।।१।।
कृति महोदधौ पतनकारणम्।।
फलमशाश्वतं गतिनिरोधकम्।।२।।
ईश्वरार्पितं नेच्छया कृतम्।।
चित्तशोधकं मुक्तिसाधकम्।।३।।
कायवाङ्मनः कार्यमुत्तमम्।।
पूजनं जपश्चिन्तनं क्रमात्।।४।।
जगत ईशधीयुक्तसेवनम्।।
अष्टमूर्तिभृद्देवपूजनम्।।५।।
उत्तमस्तवादुच्चमन्दतः।।
चित्तजं जपध्यानमुत्तमम्।।६।।
आज्यधारया स्रोतसा समम्।।
सरलचिन्तनं विरलतः परम्।।७।।
भेदभावनात्सोऽमित्यसौ।।
भावनाऽभिदा पावनी मता।।८।।
भावशून्य सद्भावसुस्थितिः।।
भावनाबलाद् भक्तिरुत्तमा।।९।।
हृत्स्थले मनःस्वस्थता क्रिया।।
भक्तियोगबोधाश्च निश्चितम्।।१०।।
इसे हम पातञ्जल योग के साधनपाद के प्रथम सूत्र के सन्दर्भ में भी देख सकते हैं :
तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।१।।
किन्तु भक्ति भी मूलतः चूँकि तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान पर ही आश्रित है, इसलिए यह भक्ति और भक्तियोग तथा बोध अर्थात् ज्ञानयोग भी है।
मन का हृदय में सुस्थिर होना ही लक्ष्य है । इसे ही श्री रमणगीता अध्याय २ में इस प्रकार से व्यक्त किया गया है :
हृदयकुहरमध्ये केवलं ब्रह्ममात्रम्
ह्यहमहमिति साक्षादात्मरूपेण भाति।।
हृदि विश मनसा स्वं चिन्वता मज्जता वा।।
पवनचलनरोधादात्मनिष्ठो भव त्वम्।।२।।
दूसरी ओर श्रीमद्भगवदगीता अध्याय २ में भी स्पष्टतः कहा गया है कि कर्म ज्ञान से कम महत्वपूर्ण है :
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।
जिसका तात्पर्य यही कि जब फल की कामना रखते हुए कोई कर्म किया जाता है, तो ऐसे कर्म की बुद्धियोग से तुलना नहीं की जा सकती।
और कर्म का इतना महत्व तो है ही, कि वह हमें आध्यात्मिक मार्ग पर चलने में बाधक न होकर अनुकूल हो।
बुद्धियोग को जानने से पहले "वृत्ति" का क्या है, इसे समझना आवश्यक है। अगले पोस्ट में इसी पर विवेचना की जाएगी ।।
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