Thursday, 22 December 2022

चेतना के ध्रुव

एक-ध्रुवीय, द्वि-ध्रुवीय और त्रि-ध्रुवीय चेतना

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समस्त सांसारिक अनुभव तथा ज्ञान के अर्थ में चेतना सदैव एक द्वि-ध्रुवीय वास्तविकता है। जहाँ और जब भी चेतना का कार्य या गतिविधि किसी अनुभव, या ज्ञान के रूप में घटित होती है, तब वहाँ अपरिहार्यतः कोई न कोई विषय होता है और विषय तथा विषयी के मध्य का प्रसंग वृत्ति के रूप में पाया और देखा जाता है। विषय स्वयं जड होता है, जिसका स्वतंत्र अस्तित्व है,  यह संदेहास्पद है, जिसे न तो सिद्ध किया जा सकता है और न ही असिद्ध किया जा सकता है,  - शायद यह प्रश्न ही त्रुटिपूर्ण है। इसकी तुलना में जिस विषयी (चेतन) के प्रकाश में विषय (जड) वास्तविकता ग्रहण करता हुआ प्रतीत होता है, उसका अस्तित्व अकाट्यतः और निर्विवादतः स्वतंत्र है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि चेतन (विषयी) और जड (विषय) एक ही चेतना के दो पक्ष हैं, क्योंकि अभी यह कहना जल्दबाजी ही होगा कि क्या किसी विषय के अभाव में चेतन (विषयी) का अस्तित्व संभव है! किन्तु यह तो कहा जा सकता है कि विषय (जड) और विषयी (चेतन) जिस चेतना में अस्त्तित्वमान होते हैं (या होते हुए प्रतीत होते हैं) वह आधारभूत अधिष्ठान / आधार नित्य, और सदैव एकरस विशुद्ध और अखंड वास्तविकता है। यद्यपि इस विवेचना में उसे 'वह' कहना भी त्रुटिपूर्ण है, किन्तु तात्कालिक  और प्रयोजन की दृष्टि से इसका उपयोग है ही।

विषय-विषयी का संबंध ही मन है यही व्यक्तिगत अस्तित्व भी है क्योंकि मन सदैव और आवश्यक रूप से विषयी-केन्द्रित होता है । इस व्यक्तिगत विषयी का उल्लेख प्रत्येक मनुष्य "मैं" शब्द से करता है। इसकी तुलना में विषयमात्र का उल्लेख 'यह', 'वह' आदि शब्दों से किया जाता है। विषयी सदैव चेतन / 'मैं' है, और 'मैं' का उल्लेख 'यह' या 'वह' शब्द से नहीं किया जा सकता। इस प्रकार अपने अस्तित्व को 'मैं' के रूप में जानना अनायास होता है, और यह जानना ही चेतना है। इसलिए जानना चेतना है, जबकि 'मैं' चेतन। जैसे ही 'मैं जानता हूँ' कहा जाता है, तो तुरन्त ही विरोधाभास पैदा होता है। इसलिए एक जानना वह है जिसमें जाननेवाला (ज्ञाता) और जाना हुआ (ज्ञेय) सत्य परस्पर अभिन्न होते हैं, जबकि एक जानना वह है जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय दो भिन्न वस्तुएँ होती हैं। इस दूसरे प्रकार के जानने में ज्ञाता -जाननेवाला ही चेतन है, जबकि पहलेवाले जानने में ज्ञाता शुद्ध चेतना है।

फिर 'विचार' क्या है?  क्या विषय और विषयी किसी एक या दोनों के अभाव में 'विचार' का अस्तित्व संभव है? 'विचार' पुनः शाब्दिक, भावनात्मक, स्मृति या कल्पना के रूप में हो सकता है। किन्तु है तो यह किसी न किसी स्थूल या सूक्ष्म विषय और चेतन के बीच होनेवाली कोई प्रक्रिया ही। इस वैचारिक प्रक्रिया के होते समय विषय और विषयी दूध और पानी की तरह एक दूसरे से मिले हुए से हो जाते हैं, और जैसे ही वैचारिक प्रक्रिया का विषय बदलता है, विषयी तत्क्षण ही किसी दूसरे विषय से एकात्म हो जाता है। फिर भी उसे भूल से भी इस बारे में कभी संशय तक नहीं होता कि उसका अस्तित्व सतत है। विभिन्न और विविध विषयों के विचार स्वरूपतः एक शाब्दिक, भावनात्मक या धारणात्मक अनुभव या स्मृति ही होते हैं, जिनके पुनः होने की कल्पना ही 'भविष्य' है। यही मन, समग्र मन, सामूहिक मन या सामूहिक चेतना है, इसलिए समस्त ज्ञान बीजरूप में सब में और प्रत्येक में ही विद्यमान होता है, और अपने व्यक्तिगत 'मैं' का विचार केवल वैचारिक भ्रम है।

 चेतना इसलिए सार्वत्रिक, सार्वकालिक सत्य है, यद्यपि सर्वत्र (स्थान) काल (समय) भी चेतना की ही अभिव्यक्ति मात्र हैं।

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शब्द-कुँजी (हिन्दी-अंगरेजी) 

चेतना - consciousness

चेतन - sentient / conscious, 

जड - insencient

शुद्ध चेतना - pure consciousness, 

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Tuesday, 20 December 2022

सरलता, विनम्रता और कुटिलता

ज्ञान का दम्भ और दम्भ का ज्ञान!!

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विप्रतिषेधे परं कार्यं... 




कुछ और नये संकेत

विप्रतिषेधे परं कार्यम्।।

(अष्टाध्यायी १/४/२)

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तुल्यबलविरोधे(*१) परं कार्यं स्यात। इति लोपे प्राप्ते पूर्वत्रासिद्धमिति।

रोरीत्यस्यासिद्धत्वादुत्वमेव(*२)। मनोरथः।।

(ढ्रलोपेपूर्वस्य दीर्घोऽणः ६/३/१११)

*१ अत्रपूर्वग्रहणमुत्तरपदाधिकारनिवृत्त्यर्थमत एव व्यस्तप्रयोगं उदाहरति -- 'पुना रमते' इत्यादि 

*२ प्रकृते 'पुना रमते' इत्यत्र 'रो रि' ८/३/१४, इत्यस्य 'शिवो वन्द्यः' इत्यत्र 'हशि च' ६/१/११४ इत्यस्य लब्धावकाशतया 'मनोरथः' इत्येकस्मिँलक्ष्ये द्वयोः प्राप्तिरतो विप्रतिषेधः।। इस प्रकार इस सूत्र में कहीं कोई विसंगति या विरोधाभास तक नहीं है। ऋषि राजपोपट ने 'गुरुणा' (*३) पद की सिद्धि के लिए इस सूत्र को मनमाने तरीके से तोड़मरोड़कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि उसने 2500 वर्ष पुरानी समस्या का हल खोज लिया है! और स्पष्ट है कि यह सब इसलिए किया गया है कि पाणिनी, कात्यायन और पतञ्जलि के द्वारा की गई विवेचना त्रुटिपूर्ण है यह प्रतीत हो।

*३ इसी प्रकार से 'गुरुणा' पद की सिद्धि के लिए :

"स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम् भिस् ङे ..." ४/१/२ का प्रयोग पूरी तरह से अनावश्यक है। इस प्रकार से अनावश्यक विवाद पैदा करना इनके उद्देश्य को दर्शाता है। और इस पद 'गुरुणा' की सिद्धि में "विप्रतिषेधे परं कार्यं" लागू ही नहीं होता। 

यह सिद्ध करने के लिए बहुत सी बातें लिखी जा सकती हैं, कि किस प्रकार से यह सब एक षड्यन्त्र के तहत किया जा रहा है। 

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Thursday, 15 December 2022

पूर्वत्रासिद्धम्

मुनित्रय-प्रामाण्यम् 

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ऋषिराज पोपट नामक पी. एच. डी. संस्कृत के रिसर्च स्कॉलर हैं, जिन्होंने पाणिनी के अष्टाध्यायी के सूत्र :

८/२/१ -- पूर्वत्रासिद्धम् 

का नया तात्पर्य खोजा है। 

अभी तक यह माना जाता था कि इस सूत्र के अनुसार मुनित्रय अर्थात् पाणिनी, कात्यायन और पतञ्जलि के द्वारा प्रतिपादित नियमों में से किसके नियम को ग्रहण किया जाना उचित होगा, यह संदेह उठने पर बाद में हुए मुनि के द्वारा प्रतिपादित नियम को ही ग्रहण किया जाए, अर्थात् पहले हुए मुनि के नियम को बाद में हुए मुनि के संबंध में असिद्ध मानना चाहिए। 

किन्तु ऋषिराज पोपट की खोज के अनुसार इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि जब किसी समास शब्द की व्युत्पत्ति करते समय दो भिन्न नियमों में से किसी एक को चुनने का प्रश्न हो, तो पाणिनी के द्वारा रचित अष्टाध्यायी के उपरोक्त सूत्र ८/२/१ का अर्थ यह ग्रहण करना उचित होगा कि पूर्वत्र -- पहले के शब्द से संबंधित नियम को, बाद के शब्द से संबंधित नियम के प्रति असिद्ध माना जाए।

[अस्वीकृति / Disclaimer :

पता नहीं यह कहाँ तक ठीक है!

केवल अपने रेकॉर्ड के लिए यहाँ नोट और पोस्ट कर रहा हूँ!]

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