Sunday, 7 August 2022

तत्वविद् और तत्वदर्शी

एकमेव और अद्वितीय सृष्टिकर्त्ता  

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फेसबुक पर एक नये मित्र बने। 

उनके पोस्ट्स देखते-देखते एक वीडियो से सामना हुआ। एक सुप्रसिद्घ अभिनेता ने एक सुप्रसिद्घ आध्यात्मिक मार्गदर्शक से प्रश्न पूछा :

"आपको कभी अकेलापन / loneliness महसूस हुआ है?" 

"हाँ, लेकिन जब ऐसा हुआ तब मैंने सोचा कि संसार की सृष्टि किसने की होगी! आपने तो नहीं की न!"

किसी कारण से उस समय इस वीडियो को और आगे देख पाना मेरे लिए संभव न हुआ। इसके कुछ समय बाद मुझे याद आया, लेकिन फिर सोचा कि बाद में, आराम से देखूँगा।

इस ब्लॉग के इससे पहले के पोस्ट में मैंने ऋषि, कवि, वैज्ञानिक और गणितज्ञ के बारे में लिखा है।

इस वीडियो को देखते हुए मुझे याद आया कि इसे वेदान्त की भाषा में अनवस्था-दोष (absurdity ad-infinitum) कहा जाता है। एक उदाहरण यह है : पहले अंडा हुआ या मुर्ग़ी?

मुझे लगता है, कि उपरोक्त वीडियो में उन मार्गदर्शक ने इसके आगे शायद ऐसा कुछ कहा होगा :

"तब मैंने सोचा कि जिसने संसार को बनाया, मुझे भी उसने ही तो बनाया होगा!

इसलिए वह मेरे और इस संसार के बारे में भी मुझसे तो अधिक और बेहतर ही जानता है! और इसलिए वह हमेशा ही मेरे साथ है, भले ही मुझे यह पता हो या कि न हो, याद रहे या कि न रहे! और इसलिए मुझे कभी अकेलापन महसूस नहीं होता है।"

चूँकि अभी तक मैंने उस वीडियो को आगे नहीं देखा है, इसलिए उन्होंने क्या कहा होगा इस बारे में केवल अनुमान लगा रहा हूँ, कुछ और कहना अभी न्यायसंगत नहीं होगा।

कोई व्यक्ति इतने ही उत्तर से संतुष्ट हो सकता है और उसमें उस सृष्टिकर्ता के बारे में और अधिक जानने की उत्सुकता पैदा नहीं होती होगी। जबकि दूसरा कोई 'बुद्धिवादी' तर्क कर सकता है : "फिर उस सृष्टिकर्त्ता की सृष्टि भी तो किसी ने की होगी!"

दूसरा कोई व्यक्ति ऐसे किसी सृष्टिकर्त्ता के अस्तित्व के विचार से अभिभूत होकर उसे ही ईश्वर या परमेश्वर मान लेता है, और वह भी संतुष्ट हो सकता है।

तीसरा कोई व्यक्ति इस पूरे तर्क-वितर्क को शब्दाडम्बर समझ लेता है, और इस चर्चा से उदासीन हो जाता है।

चौथा ऐसा ही कोई उस ईश्वर के बारे में और भी अधिक जानने, और उसके प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिए उत्कंठित हो सकता है। 

शायद कोई बिरला ही उस सत्य की खोज में संलग्न होकर इस पर ध्यान दे सकता है, कि क्या सृष्टि का विचार ही सृष्टि नहीं है? क्या यह विचार आने के बाद ही यह प्रश्न नहीं उठता है कि सृष्टि कब हुई होगी, किसने इस संसार की सृष्टि की होगी! 

और किसी इससे भी अत्यन्त ही बिरले ही मनुष्य का ध्यान इस

पर जा पाता होगा कि 'सृष्टि कब हुई होगी!' यह प्रश्न तो अभी, -इसी क्षण ही तो मन में आया है, और 'कब' के प्रश्न के माध्यम से समय को अनायास, अनवधानता (in-attention) से एक ऐसी वस्तु मान लिया गया है, जो कि कभी था, अभी है, और भविष्य में भी होगा! इस प्रकार की भूल को ही प्रमाद (in-attention) कहा जाता है। इसी प्रकार से इस संसार को भी स्वयं से स्वतंत्र एक ऐसी वस्तु मान लिया जाता है, जिसमें मेरा जन्म हुआ। इसी प्रकार से, शरीर को ही भूल से मैं मान लिया जाता है, जबकि एक बच्चा भी स्वाभाविक रूप से यही जानता है कि शरीर उसका है, न कि शरीर वह स्वयं है!

फिर भी कोई इस बारे में और अधिक ध्यान देकर यह भी कह सकता है कि मैं शरीर नहीं, मन हूँ। किन्तु कोई उससे अधिक विवेकशील व्यक्ति पूछ सकता है, कि मन तो अपना रूप सतत बदलता रहता है, इसलिए मैं, जो हमेशा एक जैसा हूँ, मन नहीं हो सकता। वह इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है, कि यद्यपि मैं शरीर, मन नहीं हूँ, और केवल वह भान या चेतना हूँ, जिसमें कि यह सब, - शरीर, मन तथा संसार पुनः पुनः प्रकट और अप्रकट होते रहते हैं।

इस प्रकार अंततः उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह जो है, उसे  यद्यपि अपने से भिन्न की तरह नहीं जाना जा सकता, क्योंकि तर्क की दृष्टि से भी, जाननेवाला (विषय), जाननेवाले (विषयी) से पृथक् ही होता है; फिर भी उसे इस बारे में कोई संदेह, संशय या अज्ञान भी नहीं होता कि यह "मैं" व्यावहारिक, अनित्य और  उससे परे के नित्य वर्तमान रूप में क्या है। चूँकि वह जड नहीं, चेतन है, इसलिए जो भी वह है, उसे 'क्या' न कहकर 'कौन' ही कहना उपयुक्त होगा। क्योंकि 'क्या' सर्वनाम, निर्जीव और जड वस्तुओं के संबंध में प्रयुक्त किया जाता है, और 'कौन' सर्वनाम किसी जीव के संबंध में।

ऐसे व्यक्ति के लिए 'सृष्टि' शब्द ही किसी अभिप्राय का सूचक  नहीं होता, और सृष्टि किसने की, और कब की होगी जैसे प्रश्नों की तो कल्पना भी वह नहीं कर सकता।

फिर भी वह तत्त्वदर्शी होता है क्योंकि नित्य-अनित्य का भेद उसे नितान्त स्पष्ट होता है। और वह इस दृष्टि से रहस्यदर्शी भी कहा जा सकता है कि यद्यपि वह सत्य और आत्मा, परमात्मा के स्वरूप को भलीभाँति जानता है, किन्तु उसे वाणी से प्रकट करने में असमर्थता अनुभव करता है।

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Wednesday, 3 August 2022

ज्ञानी, कवि, गणितज्ञ और वैज्ञानिक

कर्म, अकर्म और विकर्म 

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किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।। 

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१६।।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।१८।।

(श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय ४)

अथातो कर्मजिज्ञासा :

किं कर्तव्यमकर्तव्यं किं कर्म च कः कर्ता।।

कथमेतद्विजानीयात् तेषामपि किं तत्त्वम्।।

किं प्रत्यक्षं किमानुमानं कः आगमः प्रमाणं किम्।।

कस्मिन्काले च ज्ञातव्यं यस्मिन्मोहं तु निवर्तयेत्।।

कथमेतद्विजानीयात् कालस्य स्वरूपं किम्।

कथमेतद्भवेत्कालं यस्मिन् पूर्वापरं न चेत्।।

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अंतिम तीनों श्लोक स्वरचित हैं।

कथ्यते अतः --

अक्षरात्संजायते कालः कालाद् व्यापकः उच्यते।।

(शिव-अथर्वशीर्ष)

उपरोक्त श्लोकों में कर्म के स्वरूप की विवेचना की गई है। 

यह विवेचना ज्ञानी, कवि, वैज्ञानिक और गणितज्ञ की दृष्टि से भी की जा सकती है। ज्ञानी अर्थात् तत्त्वविद् को इस विषय में संशय नहीं होता कि किसी भी प्रकार का कर्म सदैव काल-स्थान के सन्दर्भ में ही हो सकता है। कवि की बुद्धि इस विषय में मोह से युक्त भी हो सकती है, और यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक ही कवि मोहित-बुद्धि होता हो, क्योंकि कवियों में से भी कोई, ज्ञानी तत्त्वदर्शी ऋषि हो सकता है, जबकि कुछ दूसरों को सत्य का आभास किसी कौंध जैसा होकर पुनः विलीन हो सकता है।

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तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।१७।।

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवनुत्तमां गतिम्।।१८।।

(अध्याय ७)

पुरातन / पुराने का विचार, नवीन / नये के आभास से, और उस आभास की सत्यता के विचार से ही उत्पन्न होता है, इसलिए इस प्रकार से जिस काल का अनुमान किया जाता है, वह अतीत की स्मृति या भविष्य की कल्पना का कारण होता है, जबकि न तो ऐसा काल, अतीत या भविष्य कोई वास्तविकता है। इसी अतीत को अनादि समझा जाता है और फिर किसी आरंभरहित समय का अनुमान किया जाता है, जबकि अनादि का एक आशय यह भी है जिसका आरंभ है ही नहीं। इसी प्रकार भविष्य को अनन्त कहे जाने का एक आशय यह है कि यह सतत और अन्तरहित है, तो अन्य आशय यह भी हो सकता है कि अभी भी विद्यमान  न होने से भविष्य में इसका अन्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता।

चूँकि काल इस प्रकार से, पञ्च महाभूतों में से कोई तत्त्व नहीं है, यह तो स्पष्ट ही है, फिर काल को क्या गुण कहा जा सकता है? यह जानना रोचक हो सकता है कि काल को न तो उत्पन्न किया जा सकता है, और न उसे नष्ट किया जा सकता है, फिर भी गुण के रूप में काल का संचय अवश्य किया जा सकता है। जैसे किसी औषधि / रसायन आदि को कुछ समय तक संचित कर रखने पर उसका प्रभाव भिन्न होता है, और उस समय का किसी स्वीकृत  पैमाने / प्रमाण से मापन भी किया जा सकता है, उसी आधार पर काल का इस रूप में भौतिक सत्यापन भी किया ही जाता है।

यह हुआ काल के स्वरूप का वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन।

किन्तु इस सतत चलनशील काल की पृष्ठभूमि में काल-निरपेक्ष जो अविकारी अपरिवर्तनशील वर्तमान है, क्या गणना या गणित के माध्यम से उसका आकलन किया जा सकना संभव है? 

यद्यपि यह वर्तमान ही चलनशील काल की धुरी है, किन्तु इसके स्वरूप को जान सकना असंभव है क्योंकि हम स्वयं ही वह हैं।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।१२।।

(अध्याय २)

स्पष्ट है कि स्वरूपतः तो आत्मा ही वह अविकारी अविनाशी अक्षर तत्त्व है जो स्वरूपतः हम हैं। जबकि यह आभासी काल जिसका आकलन और कलन कवि, वैज्ञानिक और गणितज्ञों के द्वारा किया जाता है, उसका सतत चलनशील बाह्य प्रकार है।

काल का यह बाह्य प्रकार ही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण है, जो पुनः प्रकाश, क्रिया और स्थिति के रूप में नित्य वर्तमान वास्तविकता (ever present, ever-abiding Reality)  है, जिसका अध्ययन भौतिकशास्त्र के विज्ञान का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक (Physicists) भी काल को :

light, momentum, और inertia

की तरह से परिभाषित कर किया करते हैं।

और इसी काल की उपासना पुनः दशमहाविद्याओं में से ही एक  रूप महाकाली के रूप में भी की जाती है।

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