सद्दर्शनम् का एक श्लोक इस प्रकार से है :
"अज्ञस्य विज्ञस्य च विश्वमस्ति
एकस्य देहे हृदि दीप्त आत्मा।
आक्रम्य देहं च परं च पूर्णं
परस्य मेयं तनुमात्र आत्मा।।"
07-12-2020 के दिन 11:24 पर एक कविता किसी को mail की थी, जिसे यहाँ शेयर कर रहा हूँ।
ज्ञान गले की हड्डी तो अज्ञान गले की फाँस,
ज्ञान-अज्ञान से उठ जाओ, जब तक तन में साँस।
अपने को लो जान, न लो तुम जान अपनी,
कर लो अपना कल्याण, न तुम हत्या अपनी।
लो विवेक की शरण, शरण लो आत्मा की,
करो आत्म-संधान, शरण लो अपनी ही।
कोई गुरु या ग्रन्थ, तुम्हें भटका सकता है,
कोई रोड़ा विघ्न, तुम्हें अटका सकता है!
राह बुद्धि की कठिन, कँटीली, नहीं सुगम,
राह जगत की अति कठिन, उससे भी दुर्गम!
संतों की, गुरु की, शिक्षक की संगति खोजो,
किन्तु परीक्षा-परिपृच्छा से, उनको भी जाँचो!
प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, कसौटी है प्रामाणिक,
आगम वह, जो स्वयंस्फूर्त हो उठे आन्तरिक!
प्रत्यक्ष प्रतीति तो जगत्, ईश्वर तो अनुमान-मात्र,
शिक्षक उतना ही कुशल, कि जितना हो छात्र।
अहंकार भी उठता-गिरता है, है बनता-मिटता,
चित्त, बुद्धि, मन, स्मृति में ही तो हरदम रमता।
चित्त, बुद्धि, मन, अहंकार हैं अन्योन्याश्रित,
साक्षी उनका भान, चेतना, नित्य-निजाश्रित!
जीव, जगत्, ईश्वर का आश्रय वही परम है,
उसे न जाने जीव, जगत्, जो मानव-मन है!
सारे धर्मों को छोड़, गहो शरण साक्षी की,
साक्षी में घुल मिल जाओ, शरण लो अविनाशी की!
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