ईशावास्योपनिषद् मंत्र २
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीवषेच्छत्ँसमाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।
अर्थ :
मनुष्य को चाहिए कि (विवेकपूर्वक धर्मविहित) कर्म करते हुए अपनी पूरी आयु व्यतीत करते हुए जीने की इच्छा करे।
जीवन जीने का इससे अन्य और कोई श्रेयस्कर मार्ग नहीं है।
ईशावास्योपनिषद् मंत्र ३
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।
तान्स्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।
अर्थ :
वे लोग जो इस प्रकार से (कर्म न करते हुए भोगों और संशय में डूबे हुए) जीवन जीते हैं वे अपनी आत्मा का हनन करते हैं अर्थात् प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आत्महत्या करते हैं और मृत्यु के पश्चात् उन लोकों को प्राप्त होते हैं जो अंधकार और तमोगुण से पूर्ण है। अर्थात् या तो पुनः किसी पशु जैसा जन्म लेते हैं या पशुतुल्य मनुष्यों के बीच पैदा होते हैं।
--
No comments:
Post a Comment