Friday, 27 July 2018

द्वौ इमौ / द्वे इमे ...

द्वौ इमौ / द्वे इमे ...
---
ज्या / ज्यां > ज़मीन,
ज्या धनुष / वृत्त का चाप (टुकड़ा) होता है,
ज्यामिति > ज्यां इति वा ज्या-मिति...
मृति > स्मृति, पृश > स्पृश,
मृत / मृति > स्मृति...
मृत , मृदा, मर्त्य, मर्द,..
आत्म > आदम / पुरुष,
 ह उ आ > हौवा (प्रकृति),
उ आ > अव > ईव > ऎवा > हौवा...
गीता 
पुरुष :
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षरोच्यते ॥
(गीता अध्याय १५, श्लोक १६)
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥
(गीता अध्याय १५, श्लोक १७)
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितो पुरुषोत्तमः ॥
--
भूमिरापोऽनिलोवायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कारैतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
(गीता अध्याय ७, श्लोक ४)
अपरेमयस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे परां ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
(गीता अध्याय ७, श्लोक ५)
--
इस प्रकार पुरुष नामक सत्ता दो रूपों में जीव तथा ईश्वर के रूप में है,
तथा प्रकृति भी व्यक्त (अपरा) तथा परा (अव्यक्त) इन दो रूपों में है ।
--


Thursday, 26 July 2018

Art, attention and Meditation

Art, attention and Meditation
--
कला और ध्यान 
--
मेरी मूल हिंदी कविता (जो नीचे दी है) का अंग्रेज़ी अनुवाद :
--
When Art is Meditation,
When Meditation is Art,
When Attention is withdrawn from the world,
And comes upon the self,
The Action becomes Meditation.
And the Attention, -the Action.
The Action becomes the Talent,
And the Talent, -the Yoga.
"Yoga is the perfection in Action"
(-Says Gita.)
Then the extrovert mind,
Turns inwards,
Merges deep into the sub-conscious.
And the Action happens on its own,
Effortlessly.
And at the same time,
Art attains perfection.
When this happens,
The sub-consciousness enters and,
Merges into its source,
-The Consciousness / Awareness pure, pristine, timeless.
The consciousness (the mind) - seed,
Becomes the manifest.
The Expression.
The Artist, the Yogi, the Actor, the devotee,
Becomes One with the Creator,
And One with the Creation as well.
-Limitless, Unbound, Infinite ....
--








Monday, 23 July 2018

आत्म-स्मृति और आत्म-बोध

सुप्रभात
गंध पृथिवी तत्त्व है,
स्मृति / ’याद’ चंद्र है,
चन्द्र पृथिवीपुत्र है,
गंध पृथ्वी और पवन का पुत्र है,
गंध स्मृति का वाहन / वाहक है,
गंध स्मृति जगाता है,
स्मृति गंध को,
यदि स्मृति गंध को जगा सके तो तत्क्षण ही स्वप्न-सृष्टि हो जाती है,
इसलिए किसी गंध से कोई स्मृति जाग जाती है,
किंतु मूल-स्मृति तो आत्म-स्मृति है, जो स्मृति भी नहीं साक्षात आत्म-बोध है,
गंध, स्मृति सा साकार निराकार, उनका अधिष्ठान, उनसे परे ....
--
बेला महका रे महका आधी रात को !

Saturday, 21 July 2018

इच्छा , कर्म , संकल्प, और निश्चय

इच्छा , कर्म , संकल्प, और निश्चय
--
इच्छा से कौन अनभिज्ञ है?
इच्छा वह मूल प्रवृत्ति है जो प्राणिमात्र को करने के लिए प्रेरित करती है ।
इच्छा ज़रूरत हो सकती है किन्तु उसे पूर्ण करने की चेष्टा, और पूर्ण हो जाने की स्थिति में भी नई ज़रूरत पैदा नहीं होगी ऐसा नहीं कहा जा सकता।
इस प्रकार अनेक ज़रूरतें समय समय पर पैदा होती हैं और उनमें से कुछ ज़रूरतें दूसरों की अपेक्षा अधिक अपरिहार्य महसूस होती हैं।
इस प्रकार किन्हीं ज़रूरतों को वरीयता दी जाती है और अन्य को टाल दिया जाता है।
वरीयता के क्रम में जो सर्वाधिक ऊपर होती है उसके लिए प्रबल आग्रह  मन में पैदा होता है।  इसे ही संकल्प कहा जाता है। 
भिन्न-भिन्न तथा परस्पर विरोधी और विपरीत भी, ऐसे अनेक संकल्पों से मन में दुविधा और अंतर्द्वंद्व पैदा होता है। इसके फलस्वरूप किसी एक संकल्प को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है और बाकी को उसकी तुलना में उसके अनुकूल महत्त्व दिया जाता है।
इस प्रकार कर्म के लिए मनुष्य अपना एक सामान्य आधार तय कर लेता है और यह उसकी परिस्थितियों को तथा उसकी परिस्थितियां उसके संकल्प को भी प्रभावित करती हैं।
दुनिया में जीवन जीते हुए यह बिलकुल स्वाभाविक है, लेकिन जब मनुष्य इच्छाओं और संकल्पों, कर्म (अर्थात् सभी प्रकार के कर्म या कर्म-समष्टि ) की जटिलता में फँस कर रह जाता है तो उसके मन में इस सबके तात्पर्य और आवश्यकता के औचित्य पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।  किन्तु सामान्यतः दुनिया के आकर्षण, आवश्यकताएं, लोभ और भय उसे इस प्रश्न पर ध्यान नहीं देने देते। और जब तक तीव्र उत्कंठा न हो तब तक तथाकथित 'धर्म' भी उसे इस प्रश्न की दिशा में आगे नहीं बढ़ने देता। यहाँ तक कि धर्म का उपयोग भी वह केवल एक तात्कालिक आवश्यकता, सामाजिक मान्यता और दबाव, डर, लालच, प्रतिष्ठा, नैतिकता आदि की उसकी धारणाओं के अनुसार करता है।  'मृत्यु' नामक वस्तु  जिसकी वह केवल कल्पना ही कर सकता है, उसे मरणोत्तर जीवन की चिंता और विचार करने के लिए प्रेरित करती  है लेकिन यह भी सहज-स्वीकार्य तथ्य है कि वह इसे सीधे प्रत्यक्षतः, अपरोक्षतः कभी  नहीं जान सकता।  स्पष्ट है कि 'मृत्यु' के बारे में उसका समस्त ज्ञान कल्पना का ही विस्तार होता है।
इसलिए मृत्यु के संबंध में वह कुछ कर सके यह संभव नहीं।
इसलिए उसके मन में संसार और जीवन के औचित्य का प्रश्न उठने के बाद भी वह 'विचार' अर्थात् संकल्प से मुक्त नहीं हो पाता  और या तो अँधेरे में जीता हुआ अंततः दुनिया से विदा हो जाता है, या  'विचार' अर्थात् संकल्प, और निश्चय में क्या भेद है इस ओर उसका ध्यान आकृष्ट किये जाने पर, इस भेद को ठीक से समझकर संकल्पशून्य और कृतनिश्चय होकर संसार और जीवन के औचित्य / अनौचित्य के प्रश्न का उत्तर पा लेता है।
संकल्प हमेशा किसी दिशा की ओर प्रेरित करता है, जबकि निश्चय यह बोध पैदा करता है कि किसी भी दिशा में जाने से अंततः कुछ नित्य तत्व प्राप्त नहीं हो सकता।
जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में :
"Truth is a pathless land"
"सत्य एक पथविहीन भूमि है "
यह हुआ "निश्चय", जो संकल्प से नितांत भिन्न प्रक्रिया (process) है ; - न कि संकल्प।
गीता में इस बारे में क्या कहा गया है, प्रसंगवश उसका उल्लेख रोचक हो सकता है, क्योंकि तब हम गीता का प्रयोग अनुसरण या विरोध की दृष्टि से नहीं देखने के लिए नहीं, बल्कि बस संकल्प और निश्चय के भेद को अच्छी तरह समझने के लिए कर रहे होते हैं।
गीता अध्याय 2 श्लोक 37 में 'निश्चय' क्या है इसे स्पष्ट किया गया है।
अध्याय 2, श्लोक 37,

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय  कृतनिश्चय ॥
--
(हतः वा प्राप्स्यसि स्वर्गम् जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय ॥)
--
भावार्थ :
मार डाले जाने पर तू स्वर्ग प्राप्त करेगा, और यदि विजयी हुआ तो राज्य-सुख का उपभोग करेगा । इसलिए हे कौन्तेय (अर्जुन)! युद्ध के लिए कृतनिश्चय होकर उठ खड़े होओ ।
'निश्चय' की व्युत्पत्ति ''चि" > चिनोति / चिनुते अर्थात् 'चयन' / choice से होती है।
'निश्चय' है choice-less awareness ,
'निर्णय' की व्युत्पत्ति 'नय' > 'नयति' अर्थात्  'ले जाना' / दिशा के अर्थ में होती है।  निर्णय का अर्थ हुआ तथ्य से सीधे जुड़ना।
गीता अध्याय 6 श्लोक 24 मेँ संकल्प के बारे में कहा गया है।     
अध्याय 6, श्लोक 24,

सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥
--
(सङ्कल्पप्रभवान् कामान् त्यक्त्वा सर्वान् अशेषतः ।
मनसा-एव-इन्द्रियग्रामम् विनियम्य समन्ततः ॥)
--
भावार्थ :
संकल्प से उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर, मन के द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी विषयों की ओर जाने से भलीभाँति रोककर,  ...
--
इस तरह संकल्प जो कामनाओं का मूल है, उससे रहित होने पर निश्चय का आगमन अनायास होता है।
--