Tuesday, 22 October 2024

Equivalents / समत्व

संस्कृत, गणित, भाषा अध्यात्म और कला / संगीत

--

गणित में स्नातकोत्तर कक्षा में अध्ययन करते समय यह कल्पना उठी थी कि कभी गणितीय समत्व-सम्बन्ध की अवधारणा (Mathematical concept of the equivalence relation) पर कुछ शोध करना चाहिए। पिछले एक दो वर्षों में बार बार इस पर ध्यान गया किन्तु आज कुछ लिखने का संयोग बन रहा है।

पहले आधुनिक बीजगणितीय संदर्भ / Abstract or Modern Algebra  में जो पढ़ा था और यद्यपि अब जो पुराना हो चुका है -

उदाहरण के लिए किताब, पुस्तक और बुक। 

ये तीन वस्तुएँ एक ही वस्तु के तीन नाम हैं। इसी प्रकार  अर्थ, मीनिंग और सेन्स।

किताब, पुस्तक और बुक भौतिक वस्तुएँ हैं जबकि अर्थ, मीनिंग और सेन्स मानसिक 

प्रत्यय / संवेदन  (mental perception)  हैं। 

संवेदन भी पुनः दो प्रकार का हो सकता है -

एक तो जैसा बुद्धि या स्थूल ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से होता है जैसे स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, गंध, और श्रवण।

दूसरा चित्त में होनेवाला वृत्तिरूपी संवेदन जो पुनः अहंकार, मन, बुद्धि तथा चित्त इन चार रूपों में होता है। ये चारों भी समत्व-सम्बन्ध की दृष्टि से परस्पर एक ही वस्तु - अंतःकरण के द्योतक हैं।

पुनः किताब, पुस्तक और बुक के उदाहरण के बारे में  -

ये सभी शब्द एक ही वस्तु के द्योतक हैं। इसलिए इन विभिन्न शब्दों के बीच इस दृष्टि से समत्व-सम्बन्ध है।

अब मान लीजिए  a, b और c एक ऐसे समूह  set  के तत्व / elements  हैं जिनके बीच समत्व-सम्बन्ध है जैसे हम पाँच स्वरों / vowels को एक समूह में रखें तो उनमें से प्रत्येक ही एक स्वर है और इसलिए प्रत्येक स्वर स्वयं से ही समत्व-सम्बन्ध में है। चूँकि प्रत्येक ही स्वर भी परिभाषा से ही और यूँ भी अपने आपसे समत्व-सम्बन्ध में है, और इसे सांकेतिक भाषा में 

a~a

से व्यक्त किया जा सकता है।

इसी प्रकार यदि a और b  के बीच यह संबंध है तो कहेंगे :

a~b <=> b~a,

अब यदि  a~b, b~c हो और इससे  c~a भी सत्य हो तो कहा जाएगा कि  a, b और c एक ही समत्व-समूह (equivalence set) बनाते हैं। सांकेतिक रूप में :

 a~b, b~c => c~a.

पुनः श्रीमद्भगवद्गीता के पाँच श्लोकों

2/48, 4/22, 9/28, 12/18 तथा 18/54

में इसे ही इस प्रकार कहा गया है :

अध्याय २

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। 

सिद्ध्यसिद्ध्योः समं भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।४८।।

अध्याय ४

यदृच्छा लाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। 

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबद्ध्यते।।२२।।

अध्याय ९

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। 

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।२९।।

अध्याय १२

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। 

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।१८।।

अध्याय १८

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। 

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।

इसके ही समानान्तर हैं विभिन्न सहस्रनाम स्तोत्र जैसे :

शिवसहस्रनाम, विष्णुसहस्रनाम, देवीसहस्रनाम और  नर्मदासहस्रनाम आदि।

पुनः ईश्वरोगुरु आत्मेति मूर्तिभेदाविभागिने। 

व्योमवद् व्याप्त देहाय दक्षिणामूर्तये नमः।।

में भी इसी सत्य का प्रतिपादन किया गया है।

सगुण साकार ब्रह्म को ही ईश्वर कहा जाता है।  जगत्, जीव और माया ये भी पुनः एक ही वस्तु के पर्याय हैं क्योंकि इनमें से प्रत्येक शेष दोनों पर आश्रित है और उन तीनों में से एक के अभाव में शेष दो भी नहीं पाए जाते। 

किन्तु निर्गुण निराकार ब्रह्म इस दृष्टि से विलक्षण है कि जैसे सगुण साकार ईश्वर को तीनों भेदों के माध्यम से पाया और परिभाषित किया जा सकता है उस प्रकार से निर्गुण निराकार को परिभाषित नहीं किया जा सकता क्योंकि उसमें सजातीय, विजातीय और स्वगत ये तीनों भेद नहीं हो सकते। 

यह तो हुआ सापेक्ष सत्यता  (Objective Reality) अर्थात् भौतिक वस्तुओं और जगत् के सन्दर्भ में, जिसे वैचारिक कहा जा सकता है। और इसे ही पुनः कुछ वक्तव्यों पर भी प्रयुक्त किया जा सकता है।

एक उदाहरण है -

अहं ब्रह्मास्मि। 

सोऽहम्।

तत्वमसि।

और, 

अयमात्मा ब्रह्म। 

ये चारों भी परस्पर समत्व-सम्बन्ध से बँधे वक्तव्य हैं।

अब हम संस्कृत भाषा की रचना पर ध्यान दें तो स्पष्ट होगा कि सभी संस्कृत गद्य या पद्य रचनाओं में व्याकरण के अनुसार शब्दों के विभिन्न समूह अपना अपना एक स्वतंत्र समत्व-वर्ग (equivalance class) बनाते हैं और ये सभी वर्ग मिलकर गद्य या पद्य के एक सुनिश्चित अर्थ दर्शाते हैं। 

इसके दो उदाहरण देखने पर यह अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं -

रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे 

रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः। 

रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहम्

रामे चित्तलयः भवतु मे भो राम मामुद्धर।।

उपरोक्त श्लोक में "राम" पद के एकवचन रूप की आठों विभक्तियों का प्रयोग दृष्टव्य है।

प्रथम कर्ता nominative case, 

द्वितीया कर्म accusative case, 

तृतीया करण instrumental case, 

चतुर्थी संप्रदान dative case, 

पंचमी अपादान ablative case

षष्ठी सम्बन्ध conjunctive case

सप्तमी अधिकरण locative case 

और, अष्टमी संबोधन Interjection! 

सबसे अधिक रोचक, बड़ी और अद्भुत् बात यह है कि  श्लोक में  प्रयुक्त समस्त पदों के क्रम को बदल देने पर भी श्लोक का अर्थ नहीं परिवर्तित होता है।

तीन पद

"सदा", "नमः" और "भो" अव्यय पद -

Indeclinable हैं,

अर्थात् इनके रूप सदैव अपरिवर्तित रहते हैं!

इसी प्रकार क्रियापदों के रूप में प्रयुक्त शब्दों का भी अपना वर्ग है जिसमें विभिन्न लकारों पर आधारित धातु रूप अपना समत्व बनाए रखते हैं।  

क्या किसी भी दूसरी भाषा में ऐसा पाया जा सकता है? 

दूसरा उदाहरण -

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामका पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।। 

का या किसी भी दूसरे श्लोक का लिया जा सकता है।

यह चमत्कार जैसा लगता है।

मंत्रों की दृष्टि से देखें तो हमारे छक्के छूट जाएँगे। 

चरित रघुनाथस्य शतकोटि प्रविस्तरम्। 

एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्।।

***









Saturday, 19 October 2024

Conscience / अन्तर्मन

Sentience and Conscience.

मन और विवेक

--

त्र्यम्बिका और त्र्यम्बिकेश्वर / त्र्यम्बकेश्वर 

अस्तित्व जो कि समष्टि प्रकृति और समष्टि पुरुष-युगल है, अम्बु, अम्बर, अवनि, अग्नि और अनिल के रूप में इन पाँच महाभूतों में अभिव्यक्त होते ही क्रमशः प्रकृति (क्रियाशक्ति) और चेतना अर्थात् ज्ञानशक्ति के माध्यम से अम्बिका और अम्बिकेश्वर या जगत् और जीव का रूप ग्रहण करता है। जगत् केवल क्रियाशक्ति है, जीव केवल ज्ञानशक्ति।

उपदेश-सारः के अनुसार -

चित्तवायवश्चित्क्रियायुताः। 

शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका।।१२।।

लयविनाशने उभयरोधने।

लयगतं पुनर्भवति नो मृतम्।।

तथा गीता अध्याय २ के अनुसार -

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्तत्वदर्शिभिः।।१६।।

और पराकाष्ठा तक पहुँची हुई विज्ञान की तथाकथित प्रगति हो जाने के बाद भी वैज्ञानिक इसे अस्वीकार नहीं करते, कि अस्तित्व को जिन दो रूपों में नित्य विद्यमान कहा जाता है, उन दोनों ही रूपों अर्थात् पदार्थ (matter) और (energy) को न तो सृजित ही किया जा सकता है और न उनका विनाश किया जा सकता है। इस सरल सी स्वीकारोक्ति के बाद यह भी स्पष्ट ही है कि सृष्टि के प्रारंभ होने और उसके अन्त होने का प्रश्न उठाना ही मूलतः असंगत है। और यह प्रश्न उठाया जाना भी क्या असंगत ही नहीं है कि ब्रह्माण्ड (Universe) की सृष्टि आज (?) से कितने समय पहले हुई? इसी प्रकार यह भी स्पष्ट है कि समय का विचार ही वह मूल त्रुटि है जिसके आधार पर "पहले" और "बाद में" की कल्पना की जाती है। "पहले" अर्थात् "अतीत" (past) और "बाद में",- भविष्य (future), भी वर्तमान (present) में ही कल्पित किए जाते हैं और उन दोनों का वर्तमान से पृथक् और स्वतंत्र अस्तित्व संभव ही नहीं है।

संक्षेप में - 

वर्तमान में उन्हें न तो पाया जा सकता है, न प्रमाणित किया जा सकता है।

श्री रमण महर्षिकृत सद्दर्शनम् का एक श्लोक वैज्ञानिक की इसी विडम्बना को दर्शाता है -

भूतं भविष्यच्च भवत्स्वकाले

तद्वर्तमानस्य विहाय तत्वम्।

हास्या न किं स्याद्गतभाविचर्चा

विनैकसंख्यां गणनेव लोके।। 

यह विडम्बना समय की उस अवधारणा का परिणाम है, जिसे वस्तुतः अवधारणा (premise) की तरह स्थापित तो किया गया किन्तु उसकी सत्यता की परीक्षा नहीं की गई। और ऐसी परीक्षा न करने का मूल कारण वैज्ञानिकों में प्रतिभा या प्रज्ञा का अभाव नहीं, बल्कि इसकी परीक्षा करने के प्रति उनका भय ही है। भय क्या है?

भय यही और चूँकि उन्हें भी भली भाँति पता है कि समय कल्पना है, न कि पदार्थ या ऊर्जा की तरह अस्तित्वमान कोई ऐसी यथार्थ वास्तविकता, वैज्ञानिक जिसकी सत्यता प्रयोग और परिणाम की कसौटी पर प्रमाणित कर सकें।

भारतीय योग-दर्शन के अनुसार समय एक "प्रत्यय" (perception) और "प्रमाण" स्वयं एक प्रकार की वृत्ति मात्र है। वृत्ति मन की गतिविधि है जबकि "प्रमाण" वह प्रत्यय (perception) है जैसा कि बस प्रतीत भर होता है।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

और, 

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

(पातञ्जल योगसूत्र -समाधिपाद)

इसलिए "प्रमाण" वैज्ञानिक और अंतिम निष्कर्ष (evidence) हो यह आवश्यक नहीं है। प्रमाण किसी इंद्रियानुभव के रूप में "प्रत्यक्ष" होने पर भी अकाट्यतः सत्य हो, यह आवश्यक नहीं। उदाहरण के लिए नेत्रों से दिखाई दे रहा कोई पदार्थ नमक जैसा दिखाई देने पर भी चखने पर मीठा प्रतीत हो सकता है तो नेत्रों के द्वारा प्राप्त हुए प्रमाण को अस्वीकार कर दिया जाता है। तब "अनुमान" के रूप में एक पहचान (identification) को "प्रमाण" माना जा सकता है।

"यह नमक है" ऐसा दिखाई देने के बाद उसे चखने पर अनुभव से "यह शक्कर है" ऐसा प्रतीत होता है।

और बाद में, उसका रासायनिक विश्लेषण करने पर यदि यह पता चलता है कि वह मीठा स्वाद देनेवाला

"सैकरीन / saccharine"

नामक पदार्थ है तब यह अंतिम निष्कर्ष प्राप्त होता है कि यह वस्तु न तो नमक है, और न ही शक्कर है। यह हुआ "आगम"।

आगम और निगम का अर्थ है वेद के रूप में प्राप्त होनेवाला यह ज्ञान जो काल तथा स्थान से बाधित न होनेवाला परम सत्य है।

और इसी प्रकार से "पुराण" में वर्णित कोई विवरण, काल और स्थान के सन्दर्भ में प्राप्त होनेवाली कोई घटना, जो संभावना की दृष्टि से वर्तमान में भी हो सकती है। इसलिए वेद नित्य ही, सर्वत्र और सनातन (ज्ञान) है, जबकि पुराण सनातन होते हुए भी नित्य सत्य हों यह आवश्यक नहीं है।

ईश्वर (समष्टि मन) और जीव (व्यष्टि /  व्यष्टिमन / अन्तर्मन) इसलिए पौराणिक सत्य हैं, न कि शाश्वत और सनातन सत्य।  इसी तरह प्रकृति और पुरुष वैदिक सत्य हैं और जिन्हें पौराणिक सत्य के रूप में भी अभिव्यक्त किया जाता है। इसलिए सभी वैदिक देवता नित्य, शाश्वत और सनातन हैं, जबकि पौराणिक देवताओं को समय समय पर भिन्न भिन्न रूपों में महत्व दिया जाता है। त्र्यम्बिका / और त्र्यम्बिकेश्वर / त्र्यम्बकेश्वर इसलिए वैसी ही अवधारणा मात्र हैं जैसा कि काल और स्थान को एक वैज्ञानिक अनुभवगम्य अवधारणा कहा जा सकता है। चूँकि सृष्टि (Creation) ही एक अवधारणा मात्र (premise) है, तो क्या सृष्टिकर्ता Creator) भी वैसा ही और भी एक अवधारणा (premise) ही नहीं है? और जीव अर्थात् individual soul के बारे में क्या कह सकते हैं? शरीर में चेतना (sentience) प्रकट होने और उसका प्रादुर्भाव / उन्मेष हो जाने पर ही व्यक्तिगत "स्व" (individual soul)  की मान्यता उत्पन्न नहीं होती? और सृष्टि और उसका संहार तथा इसी प्रकार किसी सृष्टिकर्ता (ईश्वर) तथा संहारकर्ता (ईश्वर) की कल्पना भी वस्तुतः मानसिक विचार ही नहीं है? पूरे, समूचे पश्चिमी विचार का भय और काल्पनिक संकट यही तो है कि सृष्टि और सृष्टिकर्ता तथा सृष्टि का विनाश करनेवाले किसी कल्पित ईश्वर की मान्यता पर प्रश्न खड़ा करते ही पश्चिमी संस्कृति को टिकने के लिए कोई तर्कसंगत आधार ही नहीं रह जाता है।

और शायद इसीलिए पश्चिमी विचारकों ने "दर्शन" को Philosophy, "धर्म" को  Religion, सृष्टि को  Creation और "ईश्वर" को स्रष्टा अर्थात्  Creator के रूप में God कहकर अनावश्यक विवादों को अनजाने ही जन्म दे दिया होगा। 

***