Tuesday, 17 October 2023

या देवी सर्वभूतेषु

The Divine.

इस नवरात्रि 

This navarAtri

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एक मित्र ने  मुझे नवरात्रि पर्व की शुभकामनाएँ  देते हुए दुर्गासप्तशती से संबंधित ब्लॉगपोस्ट लिखने का अनुरोध किया। 

Extending Greetings of the navarAtri Festival, A friend inspired / suggested me to write down a post about this.

बचपन में कभी दुर्गासप्तशती ग्रन्थ को पढ़ा था। ऐसे ही जैसे बच्चे किसी पुस्तक को पहली बार पढ़ते हैं। स्पष्ट है कि बचपन में न तो बुद्धि पूरी तरह विकसित हुई होती है और पूरी तरह से परिपक्व। समय बीतने के साथ ही यह विकसित और परिपक्व होती है। इस तरह से मैंने इस पुस्तक का केवल कथा अंश ही पढ़ा था। यह मेरे लिए एक रहस्य-कथा ही तो थी और इस बारे में मेरा कोई दृष्टिकोण, आस्था या अविश्वास आदि तब पैदा तक नहीं हुए थे। इसलिए यह कथा सत्य थी या कल्पना आदि इसे समझ पाने का प्रश्न ही नहीं था। उस समय मुझे संस्कृत का थोड़ा सा, इतना ही ज्ञान था जितना कि कुछ स्तोत्रों आदि का नियमित पाठ करने से किसी को हो सकता है। पाठ और पठन रुचि के कारण भी हो सकता है जिसमें आस्था, विश्वास, अविश्वास, कर्तव्य या संदेह के लिए कोई स्थान नहीं होता। उम्र बढ़ने के साथ साथ रुचि भी बच्चों की तरह स्वाभाविक नहीं रह जाती है और प्रायः किसी बाह्य प्रभाव के कारण आवश्यकता या दबाव में पैदा हो जाया करती है। आवश्यकता और दबाव इच्छा भय और लालसा से उत्पन्न होते हैं, जबकि इस सब के मूल में संवेदनशीलता ही मौलिक तत्व होता है। जीवन और संवेदनशीलता एक ही वास्तविकता के पर्याय हैं, एक दूसरे से अभिन्न, एक की अनुपस्थिति में दूसरा भी नहीं हो सकता। अंग्रेजी में संबंधित शब्दावली क्रमशः sentience, sensation, sensitivity, sensibility, sense हो सकती है जो पुनः संस्कार के ही भिन्न भिन्न प्रकार होते हैं। संस्कार शिक्षा, दीक्षा और आवश्यकता अनुभव होने के कारण किए जानेवाले अनुसंधान से प्राप्त होनेवाले आविष्कार का परिणाम हो सकते हैं।

Sentience - चेतनता, किसी भी विषय का वह सहज संवेदन जो किसी चेतन सत्ता में ही संभव है, इस चेतन को ही 'पुरुष' कहा जाता है, इसकी तुलना में विषयमात्र को 'प्रकृति' की संज्ञा दी जाती है। इसलिए जो सर्वत्र है, वह प्रकृति और पुरुष ही है। चेतनता ही इस प्रकार इन दो आभासी रूपों में सदैव ही व्यक्त हुआ करती है।

Sensation - इन्द्रियगम्यता, कुछ विषय तो इन्द्रियगम्य होते हैं जबकि अनेक इन्द्रियों की बोधक्षमता से बाहर भी होते हैं। इन्द्रियगम्यता पाँच ज्ञानेन्द्रियों का कार्य होती है, जो क्रमशः गंध, तेज, स्पर्श, रस और श्रवण के माध्यम से संभव होती है। इन्द्रियगम्यता के इन पाँच प्रकारों को ही तन्मात्रा कहा जाता है जिनके विषय क्रमशः पृथ्वी तत्व, अग्नि तत्व, वायु तत्व, जल तत्व और आकाश तत्व हैं। 

Sensitivity - ग्रहणशीलता - जजिस तरह कानों से सुना जाना ही संभव होता है, किन्तु शेष चार प्रकार की इन्द्रियगम्यता नहीं हो सकती है। इसी प्रकार से आँखों से केवल देखने का कार्य हो सकता है। और त्वचा से केवल स्पर्श का कार्य ही, जिह्वा से केवल रस या स्वाद के ज्ञान का कार्य होता है,  और अंत में नासिका से गंध का ज्ञान हो सकता है, शेष कार्य नहीं हो सकते। 

Sensibility - मनोगम्यता - किसी इन्द्रियानुभव या  इन्द्रियगम्य ज्ञान को प्रभाव या वृत्ति के रूप में स्मृति में संचित रखने का कार्य मन का है, इसलिए मनोगम्यता स्मृति का कार्य है। 

Sense - आशय या भाव - स्मृति अनुभव के रूप में किसी विशेष भावना से रहित अर्थात् भावना-निरपेक्ष या केवल प्रभाव अर्थात् भावना के रूप में भी हो सकती है। अनुभव इन्द्रियगम्य वास्तविकता होता है जबकि भावना काल्पनिक यथार्थ। प्रायः दोनों अत्यन्त घनिष्ठतापूर्वक इस तरह परस्पर मिल जाते हैं कि उनमें भेद कर पाना कठिन हो जाता है। उनमें भेद करने का कार्य भी बुद्धि कपर ही अवलंबित होता है और बुद्धि प्रायः अनिश्चय से ग्रस्त होती है। अनिश्चय का कारण है वास्तविकता और सत्य से अनभिज्ञता होना। विज्ञान अनुसंधान के माध्यम से सत्य के स्वरूप का निश्चय करने का प्रयास करता है। इसलिए विज्ञान से केवल भौतिक सत्यों को ही सुनिश्चित किया जा सकता है।

चेतनता / Sentience  वह दिव्य / Divine  तत्व है जो सर्वत्र व्याप्त है और जिसमें सब कुछ है। इसी तत्व को दुर्गासप्तशती में देवी की संज्ञा प्रदान की गई है।

हमारी आज की सभ्यता और संस्कृति में हमें जो शिक्षा, दीक्षा प्रदान की जाती है उससे हमारी बुद्धि विकसित और परिपक्व भी हो जाती है किन्तु हमें स्वाभाविक रूप से विद्यमान संवेदनशीलता शायद ही ठीक से विकसित और परिपक्व हो पाती है। और इतना ही नहीं उसका आविष्कार करने के लिए भी हमें न तो कोई प्रेरित करता है और न ही हमारा अपना ध्यान इस ओर जा पाता है। अवधान / ध्यान -attention का वह मौलिक तत्व जो हमारे हृदय में नित्य स्फुरित रहता है, उसकी ज्योति भी संसार की बाह्य चमक दमक से अभिभूत होकर दृष्टि से ओझल हो जाती है। जबकि यह ज्योति ही तो सर्वत्र ही विद्यमान देवी Divine है!

इसी दिव्य तत्व देवी की अभिव्यक्तियों को नौ रूपों में इंगित करते हुए दुर्गासप्तशती नामक ग्रन्थ का कथानक  निर्मित किया गया है। मूढता, तमोगुण अर्थात् प्रमाद या In-attention और अज्ञान अर्थात्  Ignorance से आच्छादित मन ही महिषासुर है, चेतना और चेतनता ही दिव्यता Divine / देवी जो संपूर्ण जगत् की माता, जगज्जननी, जगत को धारण करनेवाली और उसे संचालित करनेवाली शक्ति दुर्गा है जो कि जगत् की एकमात्र गति और गतिशीलता है।

दुर्गे दुर्गतिनाशिनी दुर्गा! 

अब जब किसी की प्रेरणा से इस नवरात्रि पर यह पोस्ट प्रस्तुत है।

माता देवी संसार का सदैव कल्याण करे, यही प्रार्थना है।

जय माँ!! 

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