Wednesday, 26 April 2023

इच्छामृत्यु और अनिच्छा मृत्यु

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।।

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मृत्यु एक ऐसा अकाट्य सत्य है जिसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। और फिर भी कोई नहीं जानता कि उसकी मृत्यु किस समय और स्थान पर और किस प्रकार से होगी। चूँकि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी अवश्यंभावी है, मृत्यु कहाँ, कैसे और कब होगी यह भी कोई नहीं जानता और यदि जानता भी हो तो भी अपनी मृत्यु की घटना में किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप  भी नहीं कर सकता। फिर, मृत्यु क्या है, मृत्यु किसकी होती है, और मृत्यु के बाद क्या होता है यह जान पाना तो असंभव जैसा ही है। विवेकशील मनुष्य वही है जो भावी मृत्यु को भी आसन्न ही मानकर उसका स्वागत करने से हिचकता न हो। अनिच्छा से बाध्य होकर मृत्यु का सामना करने से अच्छा है कि इच्छापूर्वक ऐसा किया जा सके। और फिर यह भी सत्य है कि मृत्यु अपनी इच्छा पर भी निर्भर नहीं होती।

तो इच्छा-मृत्यु का क्या अर्थ और प्रयोजन हो सकता है?

असामयिक के अतिरिक्त किसी भी प्रकार से होनेवाली मृत्यु के कुछ पूर्ववर्ती संकेत तो होते ही हैं और यदि ऐसे कोई संकेत या लक्षण प्रतीत हो रहे हों तो मनुष्य उन पर सावधानी से ध्यान तो दे ही सकता है।

इच्छा, अनिच्छा और प्रारब्ध वैसे तो मृत्यु इन्हीं तीन आधारों से सुनिश्चित होती है किन्तु चौथा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है ईश्वरेच्छा। मान्यता के रूप में हो या परंपरा, बौद्धिक निष्कर्ष के रूप में, या मृत्यु के भय से ही क्यों न हो, यदि मनुष्य किसी भी रूप में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर सकता है, तो वह ईश्वरेच्छा के महत्व से इनकार नहीं कर सकता। किसी ईश्वर को बौद्धिक निष्कर्ष के रूप में बाध्य होकर स्वीकार या अस्वीकार करना और ईश्वर-निष्ठा बहुत भिन्न भिन्न प्रकार से मनुष्य के मन को संस्कारित करते हैं। सत्य को जाने बिना ही किसी भी प्रकार की बुद्धि से जीवन के किसी विशिष्ट अर्थ और प्रयोजन को मान लिया जाना, उसे ही जीना और उस अर्थ और प्रयोजन को ही सर्वोच्च स्थान देना भी स्मृति पर ही आधारित कार्य या गतिविधि होता है और कोई भी अत्यन्त मूढ बुद्धि ही ऐसा कर सकता है। स्मृति के स्वयं के भी अनित्य और सतत परिवर्तनशील होने से भी मनुष्य के लिए यह संभव ही नहीं है कि वह किसी आदर्श या विचार को ध्येय की तरह ग्रहण कर सके। बौद्धिक निष्कर्ष के रूप में प्राप्त ईश्वर या अनीश्वर भी ऐसा ही एक विकल्प है। 

दूसरी ओर मृत्यु एक प्रत्यक्ष व्यावहारिक तथ्य है और इतने ही बड़े आश्चर्य की बात यह भी है कि मृत्युरूपी इस ईश्वर के रहस्य, तत्व, यथार्थ या वास्तविकता को क्या कोई कभी जान सकेगा, या जानने पर भी वह इसे किसी से कह भी सकेगा।

सत्य की खोज और उपलब्धि के दो ही उपायों (मार्ग नहीं) का वर्णन गीता में पाया जाता है पहला है सांख्य और दूसरा है योग। चूँकि दोनों ही उपायों का प्रयोग एक दूसरे से भिन्न प्रकार का है, किन्तु उनमें से किसी भी उपाय से समान और एक ही फल की  प्राप्ति होती है, और दोनों उपाय व्यवहार में परस्पर अत्यन्त ही भिन्न भी हैं इसलिए भी प्रत्येक मनुष्य की मानसिकता, प्रकृति, स्वभाव आदि के आधार पर इन दोनों उपायों में से कोई एक ही  उसके लिए पर्याप्त होता है। पहला सांख्यनिष्ठा, और दूसरा योग अथवा कर्म। सांख्य और सांख्य-निष्ठा का वर्णन गीता के दूसरे अध्याय में विस्तार से किया गया है, जबकि तीसरे अध्याय और उसके बाद में कर्म-योग और कर्म-संन्यास योग का वर्णन है। चूँकि साँख्य के उपाय का आलंबन करनेवाले कुछ महानुभावों के अनुसार : Truth is a pathless land, इसलिए इस आधार पर, साँख्य (या साँख्य योग) और कर्म / कर्म-योग / कर्म-संन्यास, योग मार्ग नहीं उपाय हैं। और यह तो मानना ही होगा किसी भी तरह के मार्ग का कोई भी नक्शा ऐसा केवल एक road-map भर भी हो सकता है, केवल दिशा-निर्देश भी हो सकता है, जिसे आप सहेजकर, फ्रेम में जड़कर भी रख सकते हैं। इसलिए यह तो आपकी अपनी ही उत्कंठा (urge and earnestness) से भी तय होता है कि सत्य या ईश्वर प्राप्ति की यह उत्कंठा आपमें कितनी तीव्र और प्रबल है। इससे भी पहले,और जो और भी अधिक आवश्यक है वह है वैषयिक संसार (objective world) से मन उचट जाना, -मोहभंग हो जाना, जिसे विराग कहते हैं, और जो परिपक्व होने पर विवेक और बाद में वैराग्य का रूप ग्रहण करता है। 

गीता के आठवें अध्याय में इन दोनों ही उपायों का अवलम्बन करनेवाले तत्वजिज्ञासुओं के लिए निर्देश दिया गया है। इसे तो ध्यान देकर अध्ययन करने से ही समझा जा सकता है। फिर भी इस अध्याय में इच्छा-मृत्यु तथा अनिच्छा-मृत्यु दोनों ही के बारे में पर्याप्त मार्गदर्शन प्राप्त होता है जिससे कोई भी मनुष्य यह जान सकता है कि उसकी निष्ठा के अनुसार उसे क्या प्राप्त हो सकता है और किस उपाय को अपनाना उसकी अपनी प्रकृति और स्वभाव के अनुकूल होगा।

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Friday, 21 April 2023

||नैष्कर्म्य सिद्धिः||

कर्म और नैष्कर्म्य

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नैष्कर्म्यसिद्धिः नामक एक प्रसिद्ध वेदान्त-ग्रन्थ का नाम मैंने पढ़ा-सुना है, किन्तु कभी उस ग्रन्थ के दर्शन और अवलोकन का सौभाग्य नहीं मिला। 

श्रीमद्भगवद्गीता में इस संबंध में निम्न उल्लेख क्रमशः इस प्रकार से हैं :

अध्याय २ --

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।५०।।

उपरोक्त संदर्भ में नैष्कर्म्य सिद्धि का उल्लेख प्रत्यक्षतः तो नहीं, परोक्षतः देखा जा सकता है, बाद के सन्दर्भों में अपरोक्षतः है :

अध्याय ३

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।५।।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।६।।

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।७।।

अध्याय ५

अर्जुन उवाच --

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

श्रीभगवानुवाच --

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेसकरावुभौ।।

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।२।।

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।३।।

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।

एकमपि आस्थितं सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति।।६।।

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।।

योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये।।११।।

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।।

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।१२।।

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।१३।। 

अध्याय १८ 

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।।

विषादो दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।२८।।

अध्याय १८

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।।

नैष्कर्म्यसिद्धिं परमा संन्यासेनधिगच्छति।।४९।।

इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २ के अंतिम श्लोकों में ही अगले आनेवाले क्रमशः सभी अध्यायों की भूमिका "योगः कर्मसु कौशलम्।।" के वक्तव्य द्वारा घोषित कर दी गई, और अध्याय ३ के प्रारम्भ में ही :

नैष्कर्म्य सिद्धि

कैसे होती है इसे स्पष्ट कर दिया गया।

"नैष्कर्म्य" भी दो प्रकार का हो सकता है इसका वर्णन अध्याय १८ के श्लोकों (२८ तथा ४९) में स्पष्टता से कर दिया गया। 

कर्ता की अवधारणा कर्म की अवधारणा के अन्तर्गत ही संभव है। और कर्तृत्व की अवधारणा ही कर्ता या कर्तापन है। कर्तृत्व की यह बुद्धि ही "मैं स्वतन्त्र कर्ता हूँ।" इस प्रकार के अज्ञान के रूप में अहंकारविमूढात्मा है।

अयुक्त, प्राकृत, स्तब्ध, शठ, नैष्कृतिक, अलस, विषाद और दीर्घसूत्री आदि होने पर इस कर्ता को तामस कहा जाता है। नैष्कृतिक की स्थिति का एक प्रकार यह हुआ। 

दूसरी ओर, नैष्कर्म्यसिद्धि के रूप में उस स्थिति का वर्णन किया गया है, जब असक्तबुद्धि से सर्वत्र जितात्म तथा विगतस्पृह होने पर किसी कर्म का अनुष्ठान किया जाता है। दूसरे को नहीं, कर्म का अनुष्ठान करनेवाले को ही यह पता होता है, कि उक्त कर्म का अनुष्ठान अयुक्त, प्राकृत, स्तब्ध, शठ, नैष्कृतिक (मद एवं मोह से युक्त), अलस (प्रमाद), विषाद, और दीर्घसूत्री बुद्धि से प्रेरित होकर किया जा रहा है, या असक्तबुद्धि से सर्वत्र जितात्म और विगतस्पृहः कर्मसंन्यास की बुद्धि से प्रेरित होकर किया जा रहा है।

कर्म-संन्यास क्या है? 

अध्याय १८ के ही निम्न श्लोक में इसका वर्णन है :

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।।

सर्वकर्मफलस्त्यागंं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।२।।

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