अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।।
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मृत्यु एक ऐसा अकाट्य सत्य है जिसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। और फिर भी कोई नहीं जानता कि उसकी मृत्यु किस समय और स्थान पर और किस प्रकार से होगी। चूँकि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी अवश्यंभावी है, मृत्यु कहाँ, कैसे और कब होगी यह भी कोई नहीं जानता और यदि जानता भी हो तो भी अपनी मृत्यु की घटना में किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप भी नहीं कर सकता। फिर, मृत्यु क्या है, मृत्यु किसकी होती है, और मृत्यु के बाद क्या होता है यह जान पाना तो असंभव जैसा ही है। विवेकशील मनुष्य वही है जो भावी मृत्यु को भी आसन्न ही मानकर उसका स्वागत करने से हिचकता न हो। अनिच्छा से बाध्य होकर मृत्यु का सामना करने से अच्छा है कि इच्छापूर्वक ऐसा किया जा सके। और फिर यह भी सत्य है कि मृत्यु अपनी इच्छा पर भी निर्भर नहीं होती।
तो इच्छा-मृत्यु का क्या अर्थ और प्रयोजन हो सकता है?
असामयिक के अतिरिक्त किसी भी प्रकार से होनेवाली मृत्यु के कुछ पूर्ववर्ती संकेत तो होते ही हैं और यदि ऐसे कोई संकेत या लक्षण प्रतीत हो रहे हों तो मनुष्य उन पर सावधानी से ध्यान तो दे ही सकता है।
इच्छा, अनिच्छा और प्रारब्ध वैसे तो मृत्यु इन्हीं तीन आधारों से सुनिश्चित होती है किन्तु चौथा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है ईश्वरेच्छा। मान्यता के रूप में हो या परंपरा, बौद्धिक निष्कर्ष के रूप में, या मृत्यु के भय से ही क्यों न हो, यदि मनुष्य किसी भी रूप में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर सकता है, तो वह ईश्वरेच्छा के महत्व से इनकार नहीं कर सकता। किसी ईश्वर को बौद्धिक निष्कर्ष के रूप में बाध्य होकर स्वीकार या अस्वीकार करना और ईश्वर-निष्ठा बहुत भिन्न भिन्न प्रकार से मनुष्य के मन को संस्कारित करते हैं। सत्य को जाने बिना ही किसी भी प्रकार की बुद्धि से जीवन के किसी विशिष्ट अर्थ और प्रयोजन को मान लिया जाना, उसे ही जीना और उस अर्थ और प्रयोजन को ही सर्वोच्च स्थान देना भी स्मृति पर ही आधारित कार्य या गतिविधि होता है और कोई भी अत्यन्त मूढ बुद्धि ही ऐसा कर सकता है। स्मृति के स्वयं के भी अनित्य और सतत परिवर्तनशील होने से भी मनुष्य के लिए यह संभव ही नहीं है कि वह किसी आदर्श या विचार को ध्येय की तरह ग्रहण कर सके। बौद्धिक निष्कर्ष के रूप में प्राप्त ईश्वर या अनीश्वर भी ऐसा ही एक विकल्प है।
दूसरी ओर मृत्यु एक प्रत्यक्ष व्यावहारिक तथ्य है और इतने ही बड़े आश्चर्य की बात यह भी है कि मृत्युरूपी इस ईश्वर के रहस्य, तत्व, यथार्थ या वास्तविकता को क्या कोई कभी जान सकेगा, या जानने पर भी वह इसे किसी से कह भी सकेगा।
सत्य की खोज और उपलब्धि के दो ही उपायों (मार्ग नहीं) का वर्णन गीता में पाया जाता है पहला है सांख्य और दूसरा है योग। चूँकि दोनों ही उपायों का प्रयोग एक दूसरे से भिन्न प्रकार का है, किन्तु उनमें से किसी भी उपाय से समान और एक ही फल की प्राप्ति होती है, और दोनों उपाय व्यवहार में परस्पर अत्यन्त ही भिन्न भी हैं इसलिए भी प्रत्येक मनुष्य की मानसिकता, प्रकृति, स्वभाव आदि के आधार पर इन दोनों उपायों में से कोई एक ही उसके लिए पर्याप्त होता है। पहला सांख्यनिष्ठा, और दूसरा योग अथवा कर्म। सांख्य और सांख्य-निष्ठा का वर्णन गीता के दूसरे अध्याय में विस्तार से किया गया है, जबकि तीसरे अध्याय और उसके बाद में कर्म-योग और कर्म-संन्यास योग का वर्णन है। चूँकि साँख्य के उपाय का आलंबन करनेवाले कुछ महानुभावों के अनुसार : Truth is a pathless land, इसलिए इस आधार पर, साँख्य (या साँख्य योग) और कर्म / कर्म-योग / कर्म-संन्यास, योग मार्ग नहीं उपाय हैं। और यह तो मानना ही होगा किसी भी तरह के मार्ग का कोई भी नक्शा ऐसा केवल एक road-map भर भी हो सकता है, केवल दिशा-निर्देश भी हो सकता है, जिसे आप सहेजकर, फ्रेम में जड़कर भी रख सकते हैं। इसलिए यह तो आपकी अपनी ही उत्कंठा (urge and earnestness) से भी तय होता है कि सत्य या ईश्वर प्राप्ति की यह उत्कंठा आपमें कितनी तीव्र और प्रबल है। इससे भी पहले,और जो और भी अधिक आवश्यक है वह है वैषयिक संसार (objective world) से मन उचट जाना, -मोहभंग हो जाना, जिसे विराग कहते हैं, और जो परिपक्व होने पर विवेक और बाद में वैराग्य का रूप ग्रहण करता है।
गीता के आठवें अध्याय में इन दोनों ही उपायों का अवलम्बन करनेवाले तत्वजिज्ञासुओं के लिए निर्देश दिया गया है। इसे तो ध्यान देकर अध्ययन करने से ही समझा जा सकता है। फिर भी इस अध्याय में इच्छा-मृत्यु तथा अनिच्छा-मृत्यु दोनों ही के बारे में पर्याप्त मार्गदर्शन प्राप्त होता है जिससे कोई भी मनुष्य यह जान सकता है कि उसकी निष्ठा के अनुसार उसे क्या प्राप्त हो सकता है और किस उपाय को अपनाना उसकी अपनी प्रकृति और स्वभाव के अनुकूल होगा।
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